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आग और धुआं/6

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आग और धुआं
चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ ५३ से – ५७ तक

 

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इस दुर्भिक्ष में बंगाल की एक-तिहाई प्रजा मर गई; जिनमें गरीब किसान ही अधिक थे। किसानों के अभाव में खेत खाली पड़े रहते, कोई खेती करने वाला न था। अगले वर्ष जब मालगुजारी वसूल करने का समय आया तो न फसल थी, न किसान। इस अवस्था में कम्पनी को फूटी कौड़ी भी लगान वसूल नहीं हुआ। कम्पनी के व्यापार में भी ह्रास हुआ था। इंगलैंड में जब बंगाल के इस भयानक दुर्भिक्ष, और वहाँ के व्यापार में भारी ह्रास की बात पहुंची तो तहलका मच गया। कम्पनी के कर्मचारियों में अत्याचारों का भी पता चला। तब इन सबकी जाँच के लिए एक कमेटी बनाई गई, जिसमें कलकत्ते के गवर्नर और कौंसिल के सदस्यों के कुकर्मों का भण्डाफोड़ हुआ। क्लाइव को भी दोषी पाया गया। अतः निश्चय हुआ कि कलकत्ते के गवर्नर को हटाकर अन्य योग्य और ईमानदार व्यक्ति को वहां का गवर्नर बनाया जाय। कम्पनी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स ने हेस्टिग्स को इस पद के योग्य समझकर उसे ही बंगाल का गवर्नर बनाया। अतः हेस्टिंग्स २ फरवरी, १७७२ को मद्रास से कलकत्ते के लिए चले। १३ अप्रैल, १७७२ को जब उन्होंने

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बंगाल की गवर्नरी का पद सँभाला, उस समय वहाँ खजाने में एक पाई भी रकम नहीं थी।

अब तक हेस्टिग्स अत्याचार और असत्य से दूर थे, परन्तु इस कुर्सी पर बैठते ही उनमें राजसत्ता का मद भर गया। उनके सद्गुण उनसे दूर होने लगे। इस समय तक मिसेज इमहाफ की अपने पूर्व पति के तलाक की अर्जी मंजूर हो गई थी। अब वह पूर्ण रूप से मिसेज हेस्टिंग्स कहलाने की पूर्ण अधिकारी बन चुकी थी। अब इमहाफ को साथ रखने की जरूरत नहीं रही थी। कलकत्ता आकर कुछ मास बाद उन्हें पृथक् कर दिया गया।

इंगलैंड से हेस्टिग्स को आदेश प्राप्त हुआ कि कम्पनी के जिन कर्मचारियों के कारण हानि उठानी पड़ी है, उन्हें कठोरता से दण्ड दिया जाय। व्यापार और शासन सुव्यवस्थित किया जाएँ। उस समय बंगाल में कम्पनी के कर्मचारियों की सत्ता चल रही थी, परन्तु वे पूर्णतः अपने को बंगाल का शासक नहीं मानते थे। दिल्ली के मुगल बादशाह ने अंग्रेजों को बंगाल की मालगुजारी मात्र वसूल करने का अधिकार दिया था। उनकी मोहरों और सिक्कों पर शाही अलकाब खुदे रहते थे। बंगाल के नवाब मुर्शिदाबाद में रहते थे। परन्तु क्लाइव ने मुर्शिदाबाद के नवाबों को धूल में मिलाकर बंगाल में अंग्रेजों के राज्य का बीजारोपण कर दिया था। उस समय बंगाल और बिहार की शासन-व्यवस्था नायब सूबेदार करते थे। बंगाल के नायब मोहम्मद रजाखाँ, और बिहार के सिताबराय थे। दोनों ही सूबेदार मुर्शिदाबाद के नवाब के अधीन होते थे।

हेस्टिग्स ने दोनों नायब सूबेदारों पर रिश्वत लेने और अत्याचार करने के आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया और आरोपों की जाँच होने तक कलकत्ता लाकर कैद में रखा। उनके आरोपों की जाँच हेस्टिग्स ने स्वयं अपने हाथों में ली।

जाँच में सिताबराय निर्दोष पाये गए। उन्हें प्रतिष्ठा और इनाम देकर छोड़ दिया गया। उन्हें खिलअत, कुछ जवाहरात, और एक सुसज्जित हाथी देकर पुन: नायब पद दिया गया। वे पटना लौट आए, परन्तु उन्हें अपनी गिरफ्तारी का बहुत मानसिक दुख हुआ, उसी परिताप में कुछ दिन रुग्ण रहकर उनकी मृत्यु हो गई।

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दूसरे अभियुक्त मोहम्मद खाँ दोषी पाए गए। फिर भी हेस्टिग्स ने उन्हें रिहा कर दिया। परन्तु उसको पदच्युत कर एक अंग्रेज मिडिलटन को उनके स्थान पर नायब बनाया गया। हेस्टिग्स ने अधिक पैदावार और उपज, मालगुजारीअदा करने और वसूल करने के उचित नियम तथा किसानों का ऋण के बोझ से न दबे रहने सम्बन्धी सुधारक कार्य किए। जुलाहों को यह भी दी कि वे अपना माल अपनी इच्छा के अनुसार चाहे कम्पनी को दें अथवा अन्य किसी को। उन दिनों नागा जाति तिब्बत, चीन, काबुल

के पर्वतीय प्रदेशों में रहती और स्वच्छन्द विचरण करती रहती थी। ये लोग नंगे रहते थे। विचरण करते समय किसी भी स्वस्थ बालक को देखकर वे उसे बहकाकर अपने साथ कर लेते थे और नागा बना लेते थे। ये लोग तीर्थस्थानों में धार्मिक पर्वो के अवसर पर बड़ी संख्या में आते थे। बंगाल से वे प्रतिवर्ष बहुत से बालकों को उठाकर ले जाते थे, अतः हेस्टिग्स ने उनका बंगाल में प्रवेश वर्जित कर दिया। बंगाल-प्रवेश के नाकों पर सैनिक पहरा रहने लगा। भूटान, तिब्बत, सिक्कम और कूच बिहार के साथ कम्पनी के सम्बन्ध सुधारे तथा व्यापार किया।

हेस्टिग्स ने मुर्शिदाबाद में स्थापित फौजदारी और दीवानी अदालतें हटाकर कलकत्ता में स्थापित की। दीवानी अदालत का नाम 'सदर दीवानी' रखा गया। गवर्नर और दो सदस्य उसके न्यायाधीश बने। 'सदर दीवानी' के नीचे प्रत्येक जिले में एक-एक फौजदारी और दीवानी अदालतें खोली गईं। फौजदारी अदालतों में तो मुसलमान न्यायाधीश नियत किए गए, परन्तु दीवानी अदालतों में हिन्दू न्यायाधीश नियत हुए क्योंकि हिन्दू धर्मशास्त्रों के नियम और विधान वे ही समझ सकते थे। हेस्टिंग्स ने हिन्दू शास्त्रों के विधान का दस हिन्दू विद्वानों से संकलन कराकर उसे फारसी तथा अंग्रेज़ी में अनूदित किया। 'सदर दीवानी' सुप्रीम कोर्ट कहलाती थी। फौजदारी अदालतों को प्राणदण्ड की सजा देने से पहले सुप्रीम कोर्ट से आज्ञा लेनी होती थी। जिले की अदालतों की आज्ञा के विरुद्ध अपीलें भी इसी सुप्रीम कोर्ट में होती थीं।

सुप्रीम कोर्ट में प्रजा का हित होने की कोई आशा नहीं होती थी। भारतीय अमीरों को अपमानित करना ही उसका ध्येय था। उसमें झूठी

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खबरें पहुँचाने वाले, झूठी गवाहियाँ देने वाले, झूठे मुकद्दमे तैयार करने वाले बदमाशों की भरमार थी। कलकत्ते के दक्षिण में काशीगढ़ एक देसी रियासत थी। यहाँ के राजा सम्पन्न व्यक्ति थे। उनके महलों की ड्योढ़ियों पर सैनिकों का पहरा रहता था। उनकी प्रजा उन पर श्रद्धा करती थी, अतः उनके मुकद्दमे उन्हींकी कचहरी में निबट दिये जाते थे, अंग्रेजी कोर्ट में नहीं। यह बात अंग्रेजों को खटकने लगी। काशीगढ़ के राजा का एक कारकुन काशीनाथ था। काशीनाथ ने अंग्रेजी हुक्कामों के बहकावे में आकर राजा के विरुद्ध एक झूठी दरखास्त अंग्रेजी अदालत में दे दी और अपने पक्ष के समर्थन में हलफिया बयान भी दर्ज कर दिया। काशीगढ़ के राजा के नाम उनकी गिरफ्तारी का वारण्ट और तीन लाख की जमानत देने का हुक्म जारी हुआ। राजा छिप गये। इस पर अदालत ने दो फौजदारों को ८६ सशस्त्र सिपाहियों के साथ राजा को पकड़ने भेजा। इन लोगों ने महल में घुसकर तलाशी ली। स्त्रियों पर अत्याचार-बलात्कार किए। लूटपाट की और राजा के पूजा के स्थान को उखाड़ डाला। मूर्ति और पूजा के बर्तनों की गठरी बाँधकर सील मोहर लगाकर कोर्ट में ला धरी।

परन्तु इस सब व्यवस्था से कम्पनी के खजाने में आमदनी नहीं बढ़ी। इंगलैंड से कम्पनी के डाइरेक्टर बराबर लाखों रुपया भेजने की ताकीद करते रहते थे। भारत में सेना और गवर्नर का वेतन भी पिछड़ गया था। हेस्टिग्स इससे परेशान हो उठे। एक बार कम्पनी के डाइरेक्टरों की सख्त हिदायत आई कि तुरन्त पचास लाख रुपया भेजो। हेस्टिग्स चिन्ता में पड़ गए। अब यही उपाय शेष था कि रुपया वसूल करने के लिए सख्त और अनुचित काम किये जायें। यही उन्होंने किया।

मुर्शिदाबाद के नवाब को जेबखर्च के लिए कम्पनी तीन लाख पौंड वार्षिक देती थी। इसे घटाकर एक लाख ६२ हजार पौंड किया गया। क्लाइव ने दिल्ली के मुगल बादशाह से बंगाल की दीवानी प्राप्त करते समय बादशाह की ओर से बंगाल की प्रजा से हर प्रकार का कर वसूल करने का अधिकार प्राप्त किया था, तथा बादशाह को बंगाल की आय में से तीन लाख पौंड वार्षिक देते रहने का निश्चय हुआ था। परन्तु उसे अब बिल्कुल बन्द कर दिया। बादशाह पर दोष लगाया गया कि वह मराठों

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की कठपुतली बन गये हैं। इलाहाबाद और कड़ा के जिले पचास लाख रुपये में अवध के नवाब शुजाउद्दौला के हाथ बेच दिए गए। इतना सब करके भी कम्पनी के डाइरेक्टर और अधिक धन की माँग कर रहे थे।