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आग और धुआं/7

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आग और धुआं
चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ ५७ से – ६८ तक

 

सात

जिस समय दिल्ली पर शाहआलम का अधिकार था, तब मद्रास की बस्ती अंग्रेजों के अधिकार में थी, और यही उस समय उनके भारतीय व्यापार का मुख्य केन्द्र था। डूप्ले ने मद्रास अंग्रेजों से छीन लेने का विचार किया। दोस्तअली खाँ का उत्तराधिकारी अनवरुद्दीन इस समय करनाटक का नवाब था, अंग्रेजों के विरुद्ध डूप्ले ने नवाब के खूब कान भरे। लाबूरदौने नामक एक फ्रांसीसी के अधीन कुछ जलसेना मद्रास विजय करने के लिए भेजी और नवाब को उसने यह समझाया कि अंग्रेजों को मद्रास से निकालकर नगर उनके हवाले कर दूँगा। लावूरदौने ने मद्रास विजय कर लिया,किन्तु इसके साथ ही अंग्रेजों से चालीस हजार पौंड नकद लेकर मद्रास फिर उनके हवाले कर देने का वादा कर लिया। इसके बाद डूप्ले ने अपने वादे के अनुसार मद्रास नवाब के हवाले कर देने की कोई चेष्टा न की और न लाबूरदौने के वादे के अनुसार उसे अंग्रेजों को वापस किया। नवाब को जब इस छल का पता चला, तो वह फौरन सेना लेकर मद्रास की ओर रवाना हुआ। डूप्ले अपनी सेना सहित नवाब को रोकने के लिए बढ़ा। ४ नवम्बर, १७४६ ई० को मद्रास के निकट डूप्ले की सेना और नवाब करनाटक की सेना में संग्राम हुआ। डूप्ले की सेना में भी अधिकतर भारतीय सिपाही ही थे। सेना तथा अपने तोपखाने के बल से डूप्ले ने विजय प्राप्त की। इतिहास में यह पहली विजय थीं जो किसी यूरोपियन ने किसी भारतीय शासक के विरुद्ध प्राप्त की। इससे विदेशियों के हौसले और भी अधिक बढ़ गए।

फ्रांसीसी, अंग्रेजों तथा नवाब-करनाटक दोनों को धोखा दे चुके थे, इसलिए ये दोनों अब फ्रांसीसियों के विरुद्ध मिल गए। सन् १७४८ ई० में अंग्रेजी सेना ने पांडिचेरी पर हमला किया, किन्तु डूप्ले की सेना ने इस बार

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भी अंग्रेजों को हरा दिया। इसी समय यूरोप में फ्रांस और इंगलिस्तान के बीच संधि हो गई, जिसमें एक बात यह तय हुई कि मद्रास फिर से अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया जाय। इस प्रकार अकस्मात् करनाटक से अंग्रेजों को निकाल देने की डूप्ले की आशा को एक जबरदस्त धक्का पहुँचा, जिससे फ्रांसीसियों की बरसों की मेहनत पर पानी फिर गया। किन्तु डूप्ले का हौसला इतनी जल्दी टूटने वाला न था। फ्रांसीसी और अंग्रेजी कम्पनियों में प्रतिस्पर्धी बराबर जारी रही। ये दोनों कम्पनियाँ इस देश में अपनी-अपनी सेनाएँ रखती थीं और जहाँ कहीं किसी दो भारतीय नरेशों में लड़ाई होती थी तो एक एक का और दूसरा दूसरे का पक्ष लेकर लड़ाई में शामिल हो जाता था। भारतीय नरेशों की सहायता के बहाने इनका उद्देश्य अपने यूरोपियन प्रतिस्पर्धा को समाप्त करना होता था।

दक्षिण भारत की राजनैतिक अवस्था इस समय अत्यन्त बिगड़ी हुई थी। मुगल-सम्राट की ओर से नाजिरजंग दक्षिण का सूबेदार था। नाजिरजंग का भतीजा मुजफ्फरजंग अपने चचा को मसनद से उतारकर स्वयं सूबेदार बनना चाहता था, इसलिए नाजिरजंग ने अपने भतीजे मुजफ्फरजंग को कैद कर रखा था। उधर अनवरुद्दीन करनाटक का नवाब था, किन्तु उससे पहले नवाब दोस्तअली खाँ का दामाद चन्दासाहब अनवरुद्दीन को गद्दी से उतारकर खुद करनाटक का नवाब बनना चाहता था। साहूजी तंजोर का राजा था और एक दूसरा उत्तराधिकारी प्रतापसिंह साहूजी को हटाकर तंजोर का राज्य लेना चाहता था। करनाटक का नवाब सूबेदार के अधीन था और तंजोर का राजा नवाब करनाटक का मालगुजार था। इन तीनों शाही घरानों की इस आपसी फूट से अंग्रेज, फ्रांसीसी और मराठे तीनों फायदा उठाने की कोशिशें कर रहे थे। दिल्ली के मुगल-दरबार में इतना बल न रह गया था कि साम्राज्य के एक दूर के कोने में इस तरह के झगड़ों को दबा सके। अंग्रेजों ने नाजिरजंग और अनवरुद्दीन का पक्ष लिया और फ्रांसीसियों ने मुजफ्फरजंग तथा चन्दासाहब का। सूत्रपात तंजोर से हुआ

सबसे पहले चन्दासाहब ने तंजोर के राजा साहूजी को गद्दी से उतार वहाँ का राज्य अपने अधीन कर लिया। मराठों ने तंजोर पर चढ़ाई रके चन्दासाहब को कैद कर लिया और प्रतापसिंह को वहाँ की गद्दी पर

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बैठा दिया। तंजोर की प्रजा साहू जी की अपेक्षा प्रतापसिंह से खुश थी। अंग्रेजों ने अब साहूजी का पक्ष लिया और साहूजी को फिर गद्दी पर बैठाने के बहाने कम्पनी की सेना फौरन मौके पर पहुँच गई। किन्तु वहाँ पहुँचने पर अंग्रेजों ने देखा कि प्रतापसिंह का पक्ष अधिक मजबूत था, इसलिए ऐन मौके पर साहूजी के साथ दगा करके वे प्रतापसिंह से मिल गए। इसके बदले में देबीकोटा का नगर और किला प्रतापसिंह ने अंग्रेजों को दे दिया। साहूजी को सदा के लिए पेंशन देकर अलग कर दिया गया और प्रतापसिंह तंजोर का राजा बना रहा। करनाटक में नवाब अनवरुद्दीन अंग्रेजों पर मेहरबान था ही, इसीलिए फ्रांसीसी अनवरुद्दीन की जगह चन्दासाहब को नवाब बनाना चाहते थे। डूप्ले ने चन्दासाहव की ओर से मराठों को नकद धन देकर चन्दासाहब को कैद से छुड़वा लिया और फिर अनवरुद्दीन की जगह चन्दासाहब को करनाटक की गद्दी पर बैठाने का प्रयत्न किया। ३ अगस्त सन् १७४६ को आम्वूर की लड़ाई में फ्रांसीसियों की सहायता से अनवरुद्दीन का काम तमाम कर, चन्दासाहव करनाटक का नवाब बन गया। इसमें डूप्ले को सफलता प्राप्त हुई।

किन्तु तंजोर अभी तक प्रतापसिंह के अधिकार में था और प्रतापसिंह अंग्रेजों के पक्ष में था। डूप्ले ने इसके लिए नाजिरजंग के विरुद्ध मुजफ्फर-जंग के साथ साजिश की। चचा की कैद से भागकर मुजफ्फरजंग ने फ्रांसीसियों की सहायता से स्वयं को दक्षिण का सूबेदार घोषित कर दिया और चन्दासाहब के साथ मिलकर तंजोर पर चढ़ाई की। सूबेदार नाजिरजंग ने तंजोर और वहाँ के राजा प्रतापसिंह की सहायता के लिए सेना भेजी। दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें मुजफ्फरजंग फिर से कैद कर लिया गया। चन्दासाहब की जगह अनवरुद्दीन का बेटा मुहम्मदअली करनाटक का नवाब बना दिया गया और नाजिरजंग सूबेदारी की मसनद पर कायम रहा। डूप्ले की सब कार्रवाई निष्फल गई। इस पर भी उसके प्रयत्न जारी रहे। जब खुले युद्ध में वह न जीत सका तो उसने अपने गुप्त अनुचरों द्वारा सूबेदार नाजिरजंग को कत्ल करा दिया और एक बार फिर मुजफ्फरजंग को दक्षिण का सूबेदार और चन्दासाहब को करनाटक का नवाब घोषित कर दिया। किन्तु त्रिचिनापल्ली का दृढ़ किला मुहम्मदअली के हाथों में था। त्रिचिनापल्ली में युद्ध हुआ, जिसमें दक्षिण के इन तीनों राजाओं, अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के भाग्य का फैसला हो गया। चन्दासाहब और फ्रान्सीसियों की सेनाएँ एक ओर थीं, मुहम्मदअली और अंग्रेजों की सेनाएँ दूसरी और। एक फ्रान्सीसी सेना इस समय डूप्ले की सहायता के लिए भेजी गई, किन्तु वह कहीं मार्ग में ही डूबकर खत्म हो गई। त्रिचिनापल्ली के संग्राम में फ्रांसीसियों की हार रही। इस युद्ध से अंग्रेज भारत में जम गए और फ्रांसीसी उखड़ गये। फ्रांसीसियों की भारत-विजय की आशा धूल-धूमिल हो गई।

अब अंग्रेजों की कृपा से मुहम्मदअली करनाटक का नवाब बना। इसके बदले में उसने १६ लाख की आय का इलाका अंग्रेजों को दिया। प्रारम्भ में मुहम्मदअली की अंग्रेजों में बड़ी प्रतिष्ठा थी। पर, वह शीघ्र ही बंगाल के नवाबों की भाँति दुरदुराया जाने लगा। उससे नित नई माँगें पूरी कराई जाती थीं, और नवाब को प्रत्येक नये गवर्नर को लगभग डेढ़ लाख रुपये नजर करने पड़े थे। अन्त में इस पर इतने खर्च बढ़ गये कि वह तंग हो गया और अंग्रेजों से जान बचाने का उपाय सोचने लगा। इस समय अंग्रेज व्यापारियों के कर्जे से वह बेतरह दबा हुआ था।

लार्ड कॉर्नवालिस ने नवाब से एक संधि की, जिसके कारण नवाब की तमाम सेना का प्रवन्ध अंग्रेजों के हाथ में आ गया। इसके खर्च के लिये नवाब से कुछ जिले रहन रखा लिये गये। इनकी आमदनी ३० लाख रुपया सालाना थी।

सन् १७६५ में मुहम्मदअली की मृत्यु हुई और उस बेटा नवाब उमदतुलउमरा गद्दी पर बैठा। इस पर गवर्नर ने जोर दिया कि रहन रखे जिले और वह कम्पनी को दे दे। पर उसने साफ इन्कार कर दिया। परन्तु इसी बीच में अंग्रेजों ने प्रतापी टीपू को हरा डाला था और रंगपट्टन का अटूट खजाना उनके हाथ लगा था। उसमें गवर्नर को कुछ ऐसे प्रमाण भी मिले कि जिनमें करनटक के नवाब का टीपू के साथ षड्यन्त्र पाया जाता था। परन्तु नवाब के जीते-जी यह बात यों ही चलती रही। ज्योंही नवाब मृत्यु-शय्या पर पड़ा, कम्पनी की सेना ने महल को घेर लिया कुछ किले और यह कारण बताया कि नवाव की मृत्यु पर बदअमनी का भय है। नवाब बहुत गिड़गिड़ाया, पर अंग्रेजों ने उसे हर समय घेरे रखा और बराबर अपनी मित्रता का विश्वास दिलाते रहे। उस समय नवाब का बेटा शाहजादा अलीहुसैन उसी महल में था। ज्योंही नवाब के प्राण निकले कि शाहजादे को जबरदस्ती महल से बाहर ले जाकर अंग्रेजों ने कहा--"चूंकि तुम्हारे दादा और बाप ने अंग्रेजों के खिलाफ गुप्त पत्र-व्यवहार किया है, इसलिए गवर्नर-जनरल का यह फैसला है कि तुम बजाय अपने बाप की गद्दी पर बैठने के मामूली रिआया की भाँति जिन्दगी बिताओ और इस सन्धि-पत्र पर दस्तखत कर दो।" जहाँ यह बातें हो रही थीं--वहाँ अंग्रेजी सिपाही नंगी तलवारें लिये फिर रहे थे। परन्तु अलीहुसैन ने मंजूर न किया। तब नवाब के दूर के रिश्तेदार आजमुद्दौला से अंग्रेजों ने बातचीत की। उसने संधि की शर्ते स्वीकार कर लीं। तब उसे मसनद पर बैठा दिया गया। इस सन्धि के अनुसार तमाम करनाटक प्रान्त कम्पनी के हाथ आ गया और आजमुद्दौला केवल राजधानी अरकार और चिपोक के महलों का स्वामी रह गया। नवाब को चिपोक के महल में रखा गया और उसी में शाहजादा अलीहुसैन और उसकी विधवा माँ को कैद कर दिया। कुछ दिन बाद वह वहीं मर गया। सन्देह किया जाता है कि उसे जहर दिया गया।

मुगल-साम्राज्य में सूरत एक सम्पन्न बन्दरगाह और सूबा था। बहुत दिन से वहाँ बादशाह का सूबेदार रहता था। जब साम्राज्य की शक्ति ढीली पड़ी, तब वहाँ का हाकिम स्वतंत्र नवाब बन बैठा। पीछे जब योरोप की जातियों ने भारत में पैर फैलाये और अंग्रेजों की शक्ति बढ़ने लगी, तब सूरत के नवाब से भी अंग्रेजों ने संधि कर ली। धीरे-धीरे नवाब अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली हो गया। चार नवाबों के जमाने में यही होता रहा। वेलेजली ने अपनी नीति के आधार पर नवाब को भी सेना भंग करने और कम्पनी की सेना रखने की सलाह दी। नवाब ने बहुत नाँ-नूं की, मगर अन्त में एक लाख रुपया वार्षिक और ३० हजार रुपये सालाना की और रियायतें करनी ही पड़ी। इसी समय नवाब मर गया। इसके बाद इसका चचा नसिरुद्दीन गद्दी पर बैठा। इसने शीघ्र ही सब दीवानी और फौजदारी अधिकार अंग्रेजों को दे दिये और स्वयं बे-मुल्क नवाब बन बैठा। दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के वजीर आसफजाह ने वजारत से इस्तीफा देकर दक्षिण में जा, हैदराबाद को अपनी राजधानी बनाकर एक नया राज्य स्थापित किया और १० वर्ष तक मराठों से लड़कर अपने राज्य को दृढ़ कर लिया। धीरे-धीरे दक्षिण में तीन शक्तियाँ प्रबल हो गईं। एक निजाम, दूसरी पेशवा और तीसरी हैदरअली।

अंग्रेजी शक्ति ने इन तीनों को न मिलने देने में ही कुशल समझी। निजाम ने अंग्रेजी शान्ति के आधीन होकर बार-बार हैदरअली से विश्वासघात किया। ज्योंही टीपू की समाप्ति हुई, अंग्रेजी-शक्ति निजाम के पीछे लगी। पहले गुण्डर का इलाका उससे ले लिया गया।

इसके बाद एक गहरी चाल यह खेली गई कि वजीर से लेकर छोटे-छोटे अमीरों तक को रिश्वतें देकर इस बात पर राजी कर लिया गया कि नवाब की सब सेना, जो फ्रांसीसियों के अधीन थी, टुकड़े-टुकड़े करके बर्खास्त कर दी जाय और कम्पनी की सबसीडियरी सेना चुपके से हैदराबाद आकर उसका स्थान ग्रहण कर ले। इसकी नवाब को कानों-कान खबर नहीं हो।

वजीर यद्यपि सहमत हो गया था, घूस भी खा चुका था, परन्तु ऐसा भयानक काम करते झिझकता था। किन्तु अंग्रेजों ने सेना के भीतर ही जाल फैला दिये थे। फलतः निजाम की सेनाएँ विद्रोह कर बैठीं; क्योंकि उन्हें कई मास का वेतन नहीं मिला था। उचित अवसर देखकर कम्पनी की सेना ने हैदराबाद को घेर लिया और निजाम की सेना को बर्खास्त करके अपना आधिपत्य कर लिया।

शिवाजी की मृत्यु के ८० वर्ष बाद मरहठों की सत्ता बहुत बढ़ चुकी थी और मुगल साम्राज्य की शक्ति घट रही थी। एक बार तो समस्त भारत में मरहठों का प्रभुत्व छा चुका था। मरहठों में पेशवा सर्वोपरि शासक था, परन्तु धीरे-धीरे गायकवाड़, भोंसले, होल्कर और सिंधिया अपनी पृथक् सत्ता स्थापित करने लगे। उन्होंने पेशवा के स्वामित्व से स्वयं को पृथक् कर लिया।

वारेन हेस्टिग्स बंगाल और अवध को हस्तगत करने के साथ ही मराठा-मण्डल में भी फूट डालकर मध्य भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रभुत्व की नींव डाल रहा था। उस समय मालवे का शासन महारानी अहिल्याबाई के हाथों में था। अहिल्याबाई अंग्रेजों की कूटनीति भली-भाति समझती थी और उसने इसका भारी विरोध किया। अत: वारेन हेस्टिग्स को पेशवा के विरुद्ध सिंधिया को फोड़ना पड़ा। उस समय होलकर और सिंधिया मराठा-साम्राज्य के सबसे अधिक शक्तिशाली सदस्य थे। महादजी सिंधिया ग्वालियर पर शासन कर रहा था और मल्हरराव होलकर मालवे और बुन्देलखण्ड पर।

मलहरराव होलकर के कुण्डीराव नामक एक ही पुत्र था, किन्तु वह असमय में ही कुम्भेरू की लड़ाई में मारा गया। कुण्डीराव का विवाह सिंधिया-परिवार की एक लड़की अहिल्याबाई के साथ हुआ था। अहिल्या-बाई की दो सन्तानें थीं। मालीराव पुत्र और मुक्ताबाई कन्या। मलहरराव की मृत्यु के पश्चात् उसका पौत्र मालीराव होलकर राज्य का स्वामी हुआ। किन्तु दुर्भाग्यवश मालीराव सिंहासन पर बैठने के नौ महीने बाद स्वर्गवासी हुआ। मालीराव निस्सन्तान मरा। अतः राज्य का सारा भार अहिल्याबाई के कन्धों पर आकर पड़ा।

सिंहासन पर बैठते ही अहिल्याबाई को एक विकट कठिनाई का सामना करना पड़ा। उसका गद्दी पर बैठना उसके एक ब्राह्मण मन्त्री गंगाधर यशवन्त को बहुत बुरा लगा। राघोवा दादा उस समय पेशवा की मध्य-भारत की सेना का प्रधान सेनापति था। गंगाधर ने राघोवा के सामने अपनी यह योजना पेश की कि अहिल्याबाई अपने एक दूर के रिश्ते के छोटे से लड़के को गोद ले--स्वयं गद्दी पर बैठने का इरादा छोड़ दे व गंगाधर उस लड़के का वारिश बनकर राज्य-भार सँभाले। इस कार्य के उपलक्ष में राघोवा को गंगाधर ने एक बहुत बड़ी रकम नजराने में देने का वादा किया। किन्तु अहिल्याबाई के सद्गुणों और प्रतिभा से उसकी प्रजा भली-भांति परिचित थी। इसलिए प्रजा कहीं असन्तुष्ट न हो जाय, इसका भय भी गंगाधर को था। फिर भी राघोवा ने गंगाधर की इस योजना पर अपनी स्वीकृति दे दी।

किन्तु गंगाधर को अपनी भूल शीघ्र मालूम हो गई। जब उसने अहिल्याबाई को इस सारे विषय की सूचना दी, तो अहिल्याबाई ने उत्तर दिया कि तुम्हारी इस योजना को स्वीकार करना होलकर वंश के लिए नितान्त लज्जास्पद है, और मैं कभी इसमें अपनी सम्मति न दूंगी। उसने गंगाधर को भली-भाँति समझा दिया कि रानी और राज-माता की हैसियत से राज्य का शासन-प्रबन्ध करने का अधिकार केवल मुझे है, किसी अन्य को नहीं।

अहिल्याबाई ने राघोवा को भी सूचना भेज दी कि एक स्त्री से युद्ध छेड़ने में आपके पल्ले कलंक पड़ सकता है, प्रतिष्ठा नहीं। होलकर-राज्य की समस्त प्रजा अहिल्याबाई के पक्ष में थी।

राघोवा ने इसे अपना अपमान समझा। वह इसका बदला खून से लेने को तैयार हो गया। अहिल्याबाई भी शान्त होकर नहीं बैठी। होलकर राज्य में राघोवा के विरुद्ध युद्ध का ऐलान कर दिया गया। राज्य की समस्त सेना अपनी राज-माता के अपमान का बदला लेने को तैयार हो गई; विशेषकर जब सैनिकों को यह ज्ञात हुआ कि अहिल्याबाई स्वयं युद्ध के मैदान में अपनी सेना का नेतृत्व अपने हाथों में लेंगी, तो सैनिकों के उत्साह का पारावार न रहा। अहिल्याबाई ने अपने हाथी पर रत्न-जटित हौदा कसवाया। हौदे के चारों कोनों पर बाणों से भरे हुए तूणीर और चार धनुष रखवाए।

परिस्थिति गम्भीर होते देखकर महादजी सिंधिया और जन्नोजी भोंसले ने राघोवा का विरोध किया। उधर स्वयं पेशवा ने राघोवा को आज्ञा दी कि तुम अहिल्याबाई के विरुद्ध कोई कार्य न करो। राघोवा ने परिस्थिति विपरीत देखकर अहिल्याबाई के विरुद्ध युद्ध करने का विचार छोड़ दिया।

अपनी असाधारण क्षमता से प्रेरित होकर अहिल्याबाई ने राघोवा को राजधानी में बुलाकर आदर-सत्कार किया और गंगाधर यशवन्त को भी फिर बहाल कर दिया गया।

गद्दी पर बैठने के बाद अहिल्याबाई ने तुकाजी होलकर को अपना सेनापति नियुक्त किया और आज्ञा दी कि सेना को भली-भाँति संगठित किया जाय।

सेना के संगठित हो जाने पर अहिल्याबाई ने अपनी समस्त शक्तियाँ राज्य-प्रबन्ध की ओर लगा दी। मालवा और नीमाड़ का कर अहिल्याबाई

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ही वसूल करती थी और बुन्देलखण्ड तथा दक्षिण का कर तुकाजी वसूल करता था। फौजी और दीवानी खर्च निकालकर सारा धन सार्वजनिक खजाने में चला जाता था। अपने खर्च के लिए चार लाख रुपये सलाना की जागीर पृथक् रखी थी।

अहिल्याबाई ने दूत पूना, हैदराबाद, श्रीरंगपत्तनन, नागपुर, लखनऊ और कलकत्ता में थे। अहिल्याबाई के जितने सामन्त-राजा थे, सबके यहाँ उसके दूत रहा करते थे।

महाराष्ट्र-स्त्रियों में पर्दे की प्रथा कभी नहीं रही, इसलिए अहिल्याबाई स्वयं रोज खुले दरबार में बैठकर दरबार की कार्यवाही संचालन करती थी। अहिल्याबाई के शासन का पहला सिद्धान्त था कि प्रजा से हलका लगान लिया जाय। किसान और गरीबों पर उसकी बड़ी कृपा रहती थी। उसने प्रजा के न्याय के लिए अदालत और पंचायतें खोल रखी थीं, लेकिन फिर भी वह स्वयं उनकी प्रत्येक शिकायत सुना करती थी। प्रजा के हर मनुष्य की पहुँच उस तक थी।

महारानी अहिल्याबाई अत्यन्त परिश्रमशील थी। राज्य के कार्यों से अवकाश पाकर वह अपना सारा समय भक्ति और परोपकार में लगाती थी। उसके प्रत्येक काम पर धार्मिकता की गहरी छाप रहती थी। वह बहुधा कहा करती थी कि अपने शासन के एक-एक काम के लिए मुझे परमात्मा के सामने जवाब देना होगा।

जब उसके मन्त्री शत्रु पर किसी प्रकार की सख्ती करने की सलाह देते थे, तो अहिल्याबाई कहती-हम उस सर्व-शक्तिमान् के रचे हुए पदार्थों को नष्ट न करें।

महारानी अहिल्याबाई नित्य ब्रह्ममुहूर्त में उठा करती थी। नित्य कर्म से निवृत्त होने के उपरान्त वह ईश्वर की उपासना करती थी। फिर कुछ देर तक धार्मिक ग्रन्थों का पाठ सुनती थी। इसके बाद अपने हाथों से निर्धनों को दान देती और ब्राह्मणों को भोजन कराकर तब स्वयं भोजन करती थी। वह सर्वथा निरामिष-भोजी थी। भोजन के उपरान्त वह फिर ईश्वर-प्रार्थना करती थी। फिर थोड़ी देर के लिए विश्राम करती थी। इसके बाद उठकर कपड़े पहनकर मध्याह्न दो बजे दरबार में पहुँच जाती थी। दरबार में वह प्रायः छः बजे शाम तक रहती थी। दरबार समाप्त होने के पश्चात् पूजा-पाठ और थोड़े से आहार के बाद नौ बजे रात को वह फिर दरबार में आ जाती थी और ग्यारह बजे रात तक काम करती रहती थी। इसके बाद अहिल्याबाई के सोने का समय होता था। इस दैनिक कार्यक्रम में सिवाय, व्रतों, विशेष त्यौहारों अथवा राज्य की विशेष आवश्यकताओं के कभी परि-वर्तन न होता था।

महारानी अहिल्याबाई के राज्य की समृद्धि और शान्ति अधिक प्रशंसनीय थी। इसका केवल एक कारण था और वह यह कि उसे प्रजा पर शासन करना ज्ञात था। अहिल्याबाई अपनी शान्त प्रजा के साथ दयावान्थी और अपनी उपद्रवी प्रजा के साथ उसका व्यवहार कड़ा, किन्तु न्याय-पूर्ण होता था। राज्य के मन्त्रियों को वह कभी नहीं बदलती थी।

इन्दौर पहले एक छोटा-सा गाँव था। अहिल्याबाई की ही विशेष कृपा से वह बढ़ते-बढ़ते एक विशाल सम्पन्न नगर हो गया।

अपने सामन्त-नरेशों के साथ महारानी अहिल्याबाई का व्यवहार अत्यन्त उदार होता था। सामन्त-नरेश अहिल्याबाई की इस उदारता का लाभ उठाकर कभी-कभी खिराज भेजने में असाधारण देर कर देते थे। किन्तु दो-चार बार अहिल्याबाई की कड़ी ताड़ना पाकर फिर भेज देते थे। कई छोटे-मोटे राजपूत सरदार अहिल्याबाई के राज्य में उपद्रव मचाकर लोगों को लूट लेते थे। अहिल्याबाई ने उन्हें प्रेम से जीतकर अपने राज्य के अत्यन्त शान्त और स्वामिभक्त नागरिक बना दिया।

अहिल्याबाई अपने राज्य में चारों ओर खुशहाली पैदा करने का अथक प्रयत्न करती थी। जब वह अपने राज्य के महाजनों, व्यापारियों, किसानों और काश्तकारों को उन्नति करते देखती, तो उसे बड़ी प्रसन्नता होती। उन पर टैक्स बढ़ाने के बदले महारानी अहिल्याबाई की उन पर कृपा बढ़ती।

सतपुड़ा घाट के गोंड और भील होलकर-राज्य में अक्सर उपद्रव मचाया करते थे। अहिल्याबाई ने पहले उनसे प्रेम से काम चलाना चाहा, किन्तु जब समझौते से कार्य न चला, तो उसे विवश होकर कई आदमियों को पकड़कर सूली पर लटकाना पड़ा। गोंड, भील उसके इस भीषण दण्ड को देखकर काँप गए। उन्होंने क्षमा की प्रार्थना की। उदार रानी ने उन्हें क्षमा कर दिया। उन्हें खेती करने के लिए जमीनें दीं। उन्हें यह अधिकार दे दिया कि उनके पहाड़ों से जो माल से लदी हुई गाड़ियाँ गुजरें, उन पर वे दो पैसे प्रति गाड़ी कर वसूल करें। इस तरह धीरे-धीरे अहिल्याबाई ने उन्हें शान्त और सुखी नागरिक बनाने की चेष्टा की।

महारानी अहिल्याबाई ने अपने राज्य में कई किले बनवाए। उसने विन्ध्याचल पर्वत पर, ऐसी जगह जहाँ पर कि पहाड़ जमीन से विल्कुल सीधा ऊपर को जाता है, बड़ी लागत पर एक सड़क बनवाई और चोटी के ऊपर जौम नाम का किला बनवाया। अहिल्याबाई ने अपनी राजधानी माहेश्वर में बहुत-सा रुपया खर्च करके कई मन्दिर और धर्मशालाएँ बनवाईं। होलकर राज्य भर के अन्दर उसने सैकड़ों कुएँ खुदवाए। किन्तु उस की यह उदारता अपने राज्य तक ही परिमित न थी। उसने भारत के समस्त तीर्थ-स्थानों में द्वारिकापुरी से लेकर जगन्नाथ-धाम तक और केदारनाथ से लेकर रामेश्वरम् तक मन्दिर और धर्मशालाएँ बनवाई। साधुओं के लिए सदाव्रत खुलवाए। बनारस का प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट महारानी अहिल्याबाई का ही बनवाया हुआ है।

दक्षिण के अनेक दूर-दूर के मन्दिरों में मूर्तियों के स्नान के लिए प्रति-दिन गंगाजल पहुँचने का प्रबन्ध अहिल्याबाई ने अपने खर्च पर कर रखा था। वह रोज गरीबों को खाना खिलाती थी और विशेष त्यौहारों पर छोटी से छोटी जातियों के लिए खेल तमाशे और आमोद-प्रमोद का प्रबन्ध किया करती थी। गर्मी के मौसम में प्यासों को ठण्डा जल पिलाने का प्रबन्ध करती थी और जाड़े में गरीबों को कम्बल बँटवाती थी। नदियों में मछलियों को खाना खिलवाती थी और गर्मी के दिनों में उसके आदमी किसान के हल में जुते बैलों को रोककर पानी पिलाते थे। चूंकि किसान पक्षियों को अपने खेत से उड़ा देते हैं, इसलिए उसने पक्षियों के लिए फल के अनेक बाग लगवा दिए थे, ताकि पक्षी स्वतन्त्रतापूर्वक उसमें अपना पेट भर सकें।

इन्हीं कार्यों के कारण लोग उससे शत्रुता करना पाप समझते थे। इतना ही नहीं, वरन् किसी भी शत्रु के विरुद्ध अहिल्याबाई की सहायता करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते थे। अन्य राजा भी उसका आदर करते थे। दक्षिण के निजाम और टीपू सुल्तान अहिल्याबाई का उतना ही आदर करते थे, जितना कि पेशवा करता था; और मुसलमान एवं हिन्दू-दोनों अहिल्याबाई के चिरजीवी होने और उसकी सौख्य—वृद्धि की ईश्वर से प्रार्थना करते थे।

६० वर्ष की अवस्था में ३० वर्ष तक राज्य करने के बाद सन् १७९५ में महारानी अहिल्याबाई की मृत्यु हुई। कड़े उपवास और व्रतों ने उसके शरीर को दुर्बल बना दिया था।

अहिल्याबाई मध्यम कद की दुबली-पतली स्त्री थी। रंग उसका गहरा गेहुआँ था और जीवन की अन्तिम घड़ी तक उसके चेहरे से शान्ति और भलाई झलकती थी। अहिल्याबाई बड़ी हँसमुख थी, किन्तु लोगों के जुल्म और ज्यादतियों से जब उसे क्रोध आता था तो लोग काँपने लगते थे। धार्मिक ग्रन्थों से उसे विशेष प्रेम था। वह उन्हें पढ़ और समझ लेती थी। अहिल्याबाई राज्य-प्रबन्ध में अत्यन्त चतुर और दक्ष थी। अहिल्याबाई जब बीस वर्ष की भी न थी, उसके पति युद्ध में मारे गये। पुत्र भी उसका केवल नौ महीने राज्य करके मर गया। पति-वियोग और अपने पुत्र की असामयिक मृत्यु का उसके हृदय पर बड़ा गहरा असर पड़ा। पति-मृत्यु के बाद उसने कभी रंगीन कपड़े नहीं पहने; और सिवाय एक हीरों की माला के कोई दूसरा आभूषण भी नहीं पहना। खुशामद से उसे सख्त नफरत थी।

एक ब्राह्मण कवि उसकी प्रशंसा में एक पुस्तक लिखकर लाया। अहिल्याबाई ने उसे बड़े धैर्य के साथ सुना। जब वह समाप्त कर चुका तो कहने लगी—“मैं तो एक पापी और दुर्बल स्त्री हूँ। मैं इस प्रशंसा की पात्र नहीं।"

यह कहकर कवि की पुस्तक नर्मदा नदी में फिकवा दी गई।

उसमें अभिमान न था। वह अपने धर्म की कट्टर विश्वासी थी, किन्तु उसमें अनुदारता न थी। अपनी प्रजा के उन लोगों के साथ, जिनके धार्मिक विश्वास उससे भिन्न थे, अहिल्याबाई का व्यवहार विशेष अनुग्रह और उदारता का होता था।अहिल्याबाई की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने मालवा पर अधिकार कर लिया।