आज भी खरे हैं तालाब/सन्दर्भ

विकिस्रोत से
आज भी खरे हैं तालाब  (2004)  द्वारा अनुपम मिश्र
सन्दर्भ

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संदर्भ


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पाल के किनारे रखा इतिहास

खरे सोने से बने तालाबों की कहानी सन् १९०७ के गजेटियर का अपवाद छोड़ दें तो इतिहास की किसी और अंग्रेज़ी पुस्तक में नहीं मिलती। लेकिन मध्य प्रदेश के रीवा, सतना, जबलपुर और मंडला जिलों में यह कहानी गांव-गांव में तालाबों पर सुनाई देती है। इस तरह यह सचमुच पाल के किनारे रखा इतिहास है।

श्री भूपतसिंह द्वारा लिखी गई पुस्तक 'पाटन तहसील के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास' में इस कहानी का विस्तृत विवरण मिलता है। इस विवरण में कहानी में वर्णित चार विशाल तालाबों में से एक कुंडम तालाब से निकलने वाली हिरन नामक नदी की कथा भी विस्तार से दी गई है।

इस क्षेत्र का परिचय और यहां दी गई जानकारियां हमें जनसत्ता, नई दिल्ली के श्री मनोहर नायक से प्राप्त हुई हैं।

श्री वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास 'रानी दुर्गावती' में भी बुंदेलखंड क्षेत्र में पारस से बनने वाले तालाबों का उल्लेख एक अलग अर्थ में मिलता है।

जबलपुर प्राधिकरण द्वारा सन् १९७७ में प्रकाशित जबलपुर स्मारक ग्रंथ में भी इस कथा की झलक है। जबलपुर के पास ही सन् १९३९ में हुए प्रसिद्ध त्रिपुरी कांग्रेस सम्मेलन के अवसर पर छपी 'त्रिपुरी कांग्रेस गाइड' में भी इस कथा में वर्णित क्षेत्र के कई भव्य तालाबों का विवरण दिया गया था। आजादी की लड़ाई के बीच आयोजित इस ऐतिहासिक सम्मेलन में, जहां श्री सुभाषचंद्र बोस और श्री पट्टाभि सीतारमैया जैसे नेता उपस्थित थे, वहां भी तालाबों का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं माना गया था।

पर इस प्रसंग की तुलना कीजिए, सन् १९९१ के तिरुपति कांग्रेस अधिवेशन से। जल संकट से घिरे कठिन दौर में आयोजित इस सम्मेलन का पंडाल कभी के एक भव्य पर अब सूख चुके अविलल नामक तालाब के आगर पर ही ताना गया था। आगर की नमी के कारण पंडाल के भीतर का तापमान बाहर की गर्मी से ४ अंश कम था। लेकिन इस अधिवेशन में उपस्थित हमारे नए आत्ममुग्ध नेताओं ने देश के सामने छाए तरह-तरह के संकटों से पार उतरने में लोकबुद्धि पर कोई भरोसा नहीं जताया। इसी तरह सन् १९९३ का कांग्रेस अधिवेशन भी दिल्ली की सीमा पर सूरजकुंड में हुआ था। वह ऐतिहासिक तालाब भी आज लगभग पट चुका है। तालाबों की सर्वत्र की जा रही उपेक्षा के अनुपात में ही पानी का संकट बढ़ता जा रहा है। [ ८९ ]

महाभारत काल के तालाबों में कुरुक्षेत्र का ब्रह्मसर, करनाल की कर्णझील और मेरठ के पास हस्तिनापुर में शुक्रताल आज भी हैं और पर्वों पर यहां लाखों लोग इकट्ठे होते हैं।

रामायण काल के तालाबों में श्रृंगवेरपुर का तालाब प्रसिद्ध रहा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निदेशक श्री बी. बी. लाल ने पुराने साक्ष्य के आधार पर इलाहाबाद से ६० किलोमीटर दूर खुदाई कर इस तालाब को ढूंढ निकाला है। श्री लाल के अनुसार यह तालाब ईसा पूर्व सातवीं सदी में बना था—यानी आज से २७०० बरस पहले।

श्रृंगवेरपुर के तालाब का संक्षिप्त विवरण गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित पुस्तक 'हमारा पर्यावरण' (१९८८) में तथा विस्तृत विवरण नई दिल्ली के 'सेंटर फॉर साईंस एण्ड एनवायर्नमेंट' द्वारा देश में जल संग्रह के परंपरागत तरीकों पर अक्तूबर १९९० में आयोजित गोष्ठी में श्री लाल द्वारा अंग्रेज़ी में प्रस्तुत लेख में उपलब्ध है।

पन्द्रहवीं से अठारहवीं सदी तक के समाज का, उसके संगठन का, उसके विद्या केन्द्रों का विस्तृत विवरण श्री धर्मपाल द्वारा लिखी गई 'इंडियन साइंस एंड टेक्नालॉजी इन एटीन्थ सेंचुरी' और 'द ब्यूटीफुल ट्री' पुस्तकों में मिलता है। प्रकाशक हैं—बिबलिया इम्पैक्स प्राईवेट लिमिटेड, २/१८ अंसारी रोड, नई दिल्ली-११०००२।

इसी विषय पर एक भिन्न प्रसंग में रुड़की के इंजीनियरिंग कालेज के इतिहास पर लिखी गई एक पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ थामसन कालेज ऑफ इंजीनियरिंग' अच्छा प्रकाश डालती है। बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि देश का पहला इंजीनियरिंग कालेज कलकत्ता, बंबई या दिल्ली जैसे शहरों में नहीं बल्कि हरिद्वार के पास रुड़की नाम के एक बिलकुल छोटे से गांव में सन् १८४७ में खोला गया था। इसके पीछे मुख्य कारण था, इस इलाके में कोई २० वर्ष पहले निकाली गई गंगा नहर। यह नहर सोलानी नाम की एक नदी के ऊपर से भी निकलती है। इस नहर और इस 'अक्वाडक' का पूरा काम उस इलाके में रहने वाले गजधरों ने किया था, जिसे देखकर बाद में यहां के तत्कालीन गवर्नर श्री थामसन ने इन जैसे प्रतिभाशाली गजधरों के और उत्तम प्रशिक्षण के लिए रुड़की में ही कालेज खोलने की अनुशंसा ईस्ट इंडिया कम्पनी से की थी। यह देश का ही नहीं, एशिया का पहला इंजीनियरिंग कालेज था। इस पूरे [ ९० ]प्रसंग का विवरण इस पुस्तक में मिल सकता है। लेखक हैं श्री के. वी. मित्तल, ७९/२, सिविल लाइन्स, रुड़की, उत्तर प्रदेश। इस पुस्तक से हमारा परिचय डॉ. जी. डी. अग्रवाल के साथ हुई चर्चाओं से हुआ था। वे आई.आई.टी. कानपुर में प्राध्यापक रहे हैं और इस विषय की आधुनिकतम पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ गजधरों की परंपरा का भी सम्मान करते हैं। उनका पता है: प्रमोद वन, चित्रकूटधाम कर्वी, जिला बांदा, उत्तरप्रदेश। वापस फिर श्री धर्मपाल पर लौटें।

इस विषय पर पुणे की संस्था इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्चरल फ्रीडम में श्री धर्मपाल के भाषण हुए थे। इन भाषणों को नई दिल्ली के दैनिक हिंदी पत्र 'जनसत्ता' ने एक लेखमाला के रूप में प्रकाशित किया था जो बाद में शताब्दी प्रकाशन, ४८ स्वर्णकार कालोनी, विदिशा, मध्य प्रदेश की ओर से 'अंग्रेजों से पहले का भारत' शीर्षक से एक पस्तक के रूप में प्रकाशित हुए थे। गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित श्री रामेश्वर मिश्र पंकज की पुस्तक 'आज की अपेक्षाएं' और 'नदियां और हम' भी इस विस्तृत लेकिन लगभग विस्मृत विषय पर उम्दा प्रकाश डालती हैं।

रीवा के तालाबों की जानकारी सन् १९०७ के गजेटियर से ली गई है। गजेटियर तब की रीवा रियासत में आने वाले गांवों के तालाबों का विस्तृत ब्यौरा देता है।

थार के रेगिस्तान में पानी के काम पर श्री ओम थानवी, संपादक, जनसत्ता, नई दिल्ली; श्री शुभू पटवा, भीनासर, बीकानेर तथा श्री सुरेन्द्रमल मोहनोत, मरुभूमि विज्ञान केंद्र, १०९ नेहरू पार्क, जोधपुर से संपर्क किया जा सकता है।

दिल्ली के ३५० तालाबों का उल्लेख सन् १९७१ की जनगणना रिपोर्ट में मछली पालन के संदर्भ में मिलने वाले पुराने आंकड़ों में सिर्फ एक पंक्ति में मिलता है। इस छोर को पकड़ कर आगे काम करते हुए हमें भारतीय मानचित्र सर्वेक्षण विभाग द्वारा सन् १८०७ की दिल्ली पर हाल में ही छपे एक नक्शे में कई तालाब देखने मिलते हैं।

इसी सिलसिले में श्री मुहम्मद शाहिद के सौजन्य से मिले दिल्ली के सन् १९३० के एक दुर्लभ नक्शे में उस समय के शहर में तालाबों और कुओं की गिनती लगभग ३५० की संख्या छूती है। शाहिदजी से २५८३, चूड़ीवालान, दिल्ली-६ पर संपर्क किया जा सकता है। [ ९१ ]दक्षिण के राज्यों, विशेषकर मद्रास प्रेसिडेंसी और मैसूरकर्नाटक के तालाबों के फैलाव, संख्या और संचालन के बारे में इन क्षेत्रों के गजेटियर, सिंचाई और प्रशासन रिपोर्टों से काफी मदद मिली। इसी कड़ी में सन् १९८३ में कर्नाटक राज्य योजना विभाग के श्री एम. जी. भट्ट, श्री रामनाथन चेट्टी और श्री अंबाजी राव द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट से भी सहायता ली गई है।

इस बीच प्रगतिशील माने गए कर्नाटक राज्य में जल का संकट लगातार बढ़ा है। अब सरकार का भी ध्यान इससे निपटने के उपायों की तरफ गया है। यह अच्छा संकेत है कि उपायों में सरकार ने तालाबों पर ही सबसे ज्यादा भरोसा किया है। सन् १९९९ में कर्नाटक सरकार ने जल संसाधन विभाग की ओर से एक नया अर्ध सरकारी संगठन बनाया है। इसका नाम है—'जल संवर्धने योजना संघ'। सन् २००२ के ५ जून को कर्नाटक सरकार ने दिल्ली के प्रमुख अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन निकालकर अपने राज्य में लोगों के साथ जुड़कर तालाबों की सफाई, रखरखाव और नए तालाब बनाने की शपथ ली है। सरकार ने स्वीकार किया है कि यह काम यहां सदियों से होता आ रहा है और ये तालाब आज भी खरे हैं।

नींव से शिखर तक

एक तालाब कैसे पूरा आकार लेता है—इसकी लगभग पूरी जानकारी हमें अलवर जिले के भीकमपुरा किशोरी गांव की संस्था 'तरुण भारत संघ' के श्री राजेन्द्र सिंह से मिली है। संघ ने पिछले १५ वर्षों में इस इलाके में ७५०० से अधिक तालाब गांव के साथ मिलकर बनाए हैं।

इस क्षेत्र में सन् १९९८ से लगातार चार वर्ष तक अकाल की परिस्थिति रही है। फिर भी इन तालाबों के कारण यहां किसी तरह का संकट नहीं आया है। जो जल स्तर लगभग १०० फुट तक गिर गया था, अब वह ३५-४० फुट तक आ गया है। क्षेत्र में पांच सूखी नदियों में वर्ष भर पानी भी बहने लगा है। इनमें सबसे प्रसिद्ध हुई है अरवरी नदी। अकाल के बीच बहती इस नदी को देखने सन् २००० में महामहिम राष्ट्रपति स्वयं भांवता गांव पधारे थे और उन्होंने यहां के काम और लोगों को सम्मानित किया था। सन् २००१ में पानी के इस अद्भुत काम को, श्री राजेन्द्र सिंह को एशिया के प्रतिष्ठित पुरस्कार मेगसेसे से भी सम्मानित किया गया है। [ ९२ ]

तालाब बनाने का मुहूर्त जबलपुर से प्रतिवर्ष हज़ारों की संख्या में छपने वाले पंचांग से लिया गया है। प्रकाशक हैं: लाला रामस्वरूप रामनारायण पंचांग, ९४, लार्डगंज, जबलपुर, मध्यप्रदेश। बंगाल में यह पंचांग पोजिका या पांजी कहलाता है। गुप्ता प्रेस और विशुद्ध सिद्धान्त प्रकाशन के पंचांग बंगाल में घर-घर में हैं। इसी तरह के पंचांग बनारस, इलाहाबाद, मथुरा, अहमदाबाद, पुणे, नासिक और दक्षिण के भी अनेक शहरों में छपते हैं और समाज की स्मृति में सम्मिलित तालाब और कुएं के काम को प्रारम्भ करने के मुहूर्त दुहराते रहते हैं।

घटोइया बाबा का विवरण हमें होशंगाबाद के श्री राकेश दीवान से मिला है। उनका पता है: कसेरा मोहल्ला, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश। हिन्दी के पुराने शब्दकोषों में ऐसे शब्द अपने पूरे अर्थों के साथ मिलते हैं। इस प्रसंग में हमें श्री रामचन्द्र वर्म्मा के प्रामाणिक हिन्दी कोष, प्रकाशक हिन्दी साहित्य कुटीर, हाथीगली, बनारस से बहुत मदद मिली है।

इस अध्याय का सार तुलसीदासजी की पंक्तियों में सहज ही सिमट जाता है।

संसार सागर के नायक

सब जगह तालाब हैं और इसी तरह सब जगह उन्हें बनाने वाले लोग भी रहे हैं। इन राष्ट्र निर्माताओं को आज के समाज के पढ़े-लिखे लोग और जो लिखते-पढ़ते हैं, वे लोग कैसे भूल बैठे, यह बात आसानी से समझ में नहीं आती।

इन अनाम बना दिए गए लोगों को, फिर से समझने में आज के नाम वाला पढ़ा-लिखा ढांचा कोई कहने लायक मदद नहीं दे पाता। एक तो यह ढांचा इन तक पहुंच नहीं पाता, फिर पहुंच भी जाए तो इन्हें मिस्त्री और राज से ज्यादा पहचानता नहीं। इस ढांचे में इन्हें जगह मिल भी जाए तो वह अकुशल मजदूर और बहुत हुआ तो मजदूर की है। इस ढांचे में ऐसे भी लोग और संस्थाएं हैं जो लोक शक्ति में आस्था रखती हैं पर वे लोक बुद्धि को नहीं मान पातीं। इसलिए इन अनाम बना दिए गए राष्ट्र निर्माताओं तक हम अनाम लोगों के माध्यम से ही पहुंच सके हैं।

राजस्थान में गजधर की समृद्ध पंरपरा को समझने में जैसलमेर के श्री भगवानदास माहेश्वरी और श्री भंवरलाल सुथार तथा जयपुर के श्री रमेश थानवी से बहुत मदद मिली है। उनके पते इस प्रकार [ ९३ ]हैं: श्री भगवानदास माहेश्वरी, पटवों की हवेली, जैसलमेर; श्री भंवरलाल सुथार, राजोतियावास, जैसलमेर; श्री रमेश थानवी, राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति, ७ए, झालना डूंगरी संस्थान क्षेत्र, जयपुर।

इस अध्याय के नायकों की अधिकांश जानकारी मौखिक बातचीत से ही समेटी गई है। जितनी भी लिखित सामग्री पर नज़र पड़ी, वह मुख्यतः शोध कार्यों का रूपांतर या सरकारी गजेटियर, पुराने रिकार्ड, रिपोर्ट के स्वरूप में थी। शास्त्रीय स्रोतों में वास्तुशास्त्र, मानसार सीरीस या समरांगन सूत्रधार जैसे जटिल ग्रंथों के ही सूत्र मिल पाए। ऐसा माना जाता है कि सोलहवीं सदी के आसपास नायक-शिल्पियों का संगठन बिखरने लगा था और उसी के साथ इस कला से संबंधित विविध ग्रंथ भी लुप्त होने लगे थे।

ऐसे संकट के समय में ही गुजरात, पाटण के सोमपुरा क्षेत्र में शिल्पी सूत्रधार नाथुजी का जन्म हुआ था। उन्होंने अपने कुटंब के अस्त-व्यस्त ग्रंथों को फिर संभाला और संस्कृत में वास्तुमंजरी की रचना की। स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघड़भाओ सोमपुरा ने इसी ग्रंथ के मध्य भाग 'प्रासाद मंजरी' का गुजराती में रूपांतर किया। ऐसे काम की श्रृंखला में श्री भारतानंद सोमपुरा ने इसे हिन्दी पाठकों के लिए सन् १९६४ में प्रस्तुत किया।

इस पुस्तक की भूमिका शिल्पी के भेदों पर अच्छा प्रकाश डालती है। ये हैं: स्थपति यानी जो स्थापत्य की स्थापना में संपूर्ण योग्यता रखते हैं। इनके गुण-कर्मों का अनुसरण करने वाले पुत्र या शिष्य सूत्रग्राही कहलाते हैं। ये रेखाचित्र बनाने से लेकर स्थपति के सारे कार्यों के संचालन में निपुण होते हैं। बोलचाल की भाषा में ये 'सुतार-छोड़ो' नाम से भी जाने जाते हैं। 'सूत्रमान प्रमाण' को जानने वाले तक्षक पत्थरों का छोटा-बड़ा काम स्वयं करते हैं। काष्ठ और मिट्टी के काम में निपुण वर्धकी होते हैं।

पर केवल कौशल का गुण ही श्रेष्ठ शिल्पी की योग्यता की पहचान नहीं। वास्तुशास्त्र के अनुसार यजमान को चाहिए कि शिल्पी के गुण-दोष को भी कसौटी पर कस ले। कर्म के गुण के साथ आचरण में गुणवान सिद्ध होने वाला ही श्रेष्ठ शिल्पी हो सकता है। धार्मिक, सदाचारी, मिष्टभाषी, चरित्रवान, निष्कपटी, निर्लोभी, बहु-बंधु वाला, निरोगी, शारीरिक रूप से दोषहीन होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि चित्ररेखा में कुशल होना या शास्त्र और गणित का ज्ञाता होना। समाज को बनाने और उसे संवारने [ ९४ ]वाले शिल्पी परिवार को ठीक तरह से समझने में इस पुस्तक की भूमिका बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

उड़ीसा के महापात्र और उनसे जुड़े शिल्पी परिवार आज भी पुरी और भुवनेश्वर में बसे हैं। इन्हीं के पूर्वजों ने जगन्नाथपुरी और भुवनेश्वर के सुन्दर मंदिरों का निर्माण किया था।

अनंगपाल की दिल्ली और उस काल में, ११वीं सदी में महरौली के पास बने अनंगताल नामक तालाब को पुरातत्व विभाग ने १९९२ में ढूंढ निकाला है। योगमाया मंदिर के पीछे चल रही खुदाई अभी पूरी नहीं हुई है, लेकिन पत्थर की कई विशाल सीढ़ियों से सजे एक गहरे, लम्बे-चौड़े तालाब का आकार उभरने लगा है।

भूमि में गहरे जल को 'देखने' वाले सिरभावों के बारे में बीकानेर के श्री नारायण परिहार और श्री पूनमचंद तथा नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश के किसान श्री केशवानंद मिश्र से जानकारी मिली है।

पथरोट, टकारी, मटकूट, सोनकर जैसे नाम और शब्द धीरे-धीरे भाषा से हटते गए हैं, इसलिए नए शब्दकोषों में ये नहीं मिलते। इनकी सूचना हमें इन शब्दों की तरह ही पुराने पड़ गए शब्दकोषों से मिली है।

वनवासी समाज पर यों कहने को बहुत से शोध ग्रंथ हैं पर ये ज्यादातर खान-पान, रहन-सहन का वर्णन करते हैं, वह भी कुछ ऐसी शैली में मानो इनका अन्न-जल कुछ अलग रहा हो। भद्दे किस्म के कुतुहल या एक विचित्र उपकार की भावना से भरे ऐसे साहित्य में वनवासी समाज के उत्कृष्ट गुणों, पानी से संबंधित तकनीकी कौशल की झलक मिलना संभव नहीं है। इस गुण की संक्षिप्त झलक हमें भील सेवा संघ से प्रकाशित 'भोगीलाल पंड्या स्मृति ग्रंथ' में मिली है। बंजारों के संदर्भ में शाहजहां के वजीर का प्रसंग बरार क्षेत्र के पुराने दस्तावेजों में देखने मिल सकता है। इनमें श्री ए.सी. लायल द्वारा तैयार किया गया बरार जिला गजेटियर, सन् १८७० और बरार सेंसस् सन् १८८१ उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड और छत्तीसगढ़ में बंजारों द्वारा बनाए गए तालाबों की सूचनाएं हमें श्री पंकज चतुर्वेदी, महोबा नाका, छतरपुर, मध्यप्रदेश तथा श्री राकेश दीवान से मिली हैं।

ओढ़ियों के बारे में मौखिक जानकारी श्री दीनदयाल ओझा से तथा लिखित जानकारी दिल्ली के श्री मुहम्मद शाहिद के सौजन्य से प्राप्त 'जाति भास्कर' नामक एक दुर्लभ पुस्तक से ली गई है। यह पुस्तक मुरादाबाद निवासी विद्यावारिधि पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र [ ९५ ]ने संस्कृत में लिखी थी। इसका हिन्दी अनुवाद श्री खेमराज श्री कृष्णदास ने किया था और यह सन् १९२८ में बंबई के श्री वेंकटेश्वर मुद्रायंत्रालय से प्रकाशित हुई थी।

आज के आधुनिक समाज में जसमा ओढ़न लोक-कलागाथा-जीवन-शैली कुतुहल तथा जिज्ञासा की पात्र मानी जा सकती हैं पर समाज की नायिका शायद ही। किन्तु इस सब के बावजूद इनका अद्भुत जस राजस्थान के लंगा समाज की वाणी में आज भी गूंजता है और गुजरात की भवई में थिरकता है जिससे वह विस्मृति की आंधी को अपने स्नेह, मान और श्रद्धा के कारण बचाता रहा है।

जसमा ओढ़न की कथा को रंगीन पन्नों में अमर चित्र कथा सीरीज ने सन् १९७७ में अंतिम बार छापा था। आज अनुपलब्ध यह अंक हमें दसवीं कक्षा के छात्र श्री इंद्रजीत राय से मिल पाया है। इनका पता है: एच १४, कैलाश कालोनी, नई दिल्ली।

सुश्री शांता गांधी का हिन्दी नाटक 'जसमा ओढ़न' भी इस सिलसिले में देखा जा सकता है। प्रकाशक हैं: राधाकृष्ण प्रकाशन, २/३८ अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली।

इंदिरा नहर में ओढ़ियों के योगदान की और अधिक जानकारी उरमूल ट्रस्ट द्वारा आयोजित नहर-यात्रा के निमित्त तैयार की गई रिपोर्ट से मिल सकती है।

उड़ीसा के तालाब बनाने वालों की प्रारंभिक सूचनाएं हमें गांधी शांति प्रतिष्ठान की श्रीमती काजल पंड्या और श्री पारस भाई, प्रदाता, ग्राम उदयगिरि, फूलबनी, उड़ीसा से मिली हैं।

खरिया जाति की जानकारी मध्य प्रदेश शासन की पत्रिका मध्य प्रदेश संदेश के विभिन्न अंकों में बिखरी सामग्री से मिली है।

मुसहर और डांढ़ी के तालाबों से अटूट संबंध की जानकारी हमें बिहार के श्री तपेश्वर भाई और गांधी शांति प्रतिष्ठान के श्री निर्मलचंद्र से प्राप्त हुई। उत्तर में हिमाचल और पंजाब से लेकर मध्य में नासिक, भंडारा तक तालाब के सिलसिले में कोहलियों की विशिष्ट भूमिका की जानकारी सर्व सेवा संघ, गोपुरी, वर्धा के श्री ठाकुरदास बंग, श्री वसंत बोम्बटकर; सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट, ४१, तुगलकाबाद संस्थान क्षेत्र, नई दिल्ली के श्री अनिल अग्रवाल तथा श्री मोहन हीराबाई, देसाईगंज, गड़चिरौली, महाराष्ट्र से मिली है।

कोंकण की गावड़ी जाति का परिचय दिया है गोवा की संस्था 'शांतिमय समाज', पोस्ट बांदोड़ा के श्री कलानंद मणि और श्री नीरज [ ९६ ]ने। इसी विषय पर श्री कलानंद मणि का एक लेख गांधी शांति प्रतिष्ठान के मासिक पत्र गांधी मार्ग में सन् ९३ के फरवरी अंक में प्रकाशित हुआ है।

तमिलनाडु की समृद्ध एरी परंपरा पर मद्रास की संस्था 'पैट्रियाटिक एंड पीपल्स ओरियंटेड साइंस एंड टेक्नालॉजी ग्रुप' ने काफी काम किया है। श्री टी.एम. मुकुंदन द्वारा इस विषय पर संस्था की पत्रिका पी.पी.एस.टी. बुलेटिन, खंड १६ सितम्बर १९८८ में लिखे गए एक समग्र लेख के अलावा हमें अन्य संदर्भों से भी छुटपुट सामग्री मिली है।

मद्रास प्रेसीडेंसी के अन्य इलाकों के ज़िला दस्तावेज़ों में अंग्रेजी लेखकों के लिए तालाबों का ब्यौरा अंग्रेजी के दो-तीन प्रचलित शब्दटैंक और रिसर्वायर की संख्या मात्र में सिमट जाता है। इसलिए ऐरी शब्द का उल्लेख शायद ही कहीं देखने को मिलता है। लेकिन एक किताब अपवाद सिद्ध हुई है। श्री एच.एच. विल्सन द्वारा सन् १८५५ में लिखी 'ग्लासरि ऑफ ज्यूडिशियल रेवेन्यू टर्म्स एंड ऑफ यूसफुल वर्डस अकरिंग इन ऑफिशियल डाक्यूमेंट्स रिलेटिंग टु द एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ द गवर्नमेंट' पुस्तक इस विषय से जुड़े अपने समाज की ठीक झलक देती है।

पालीवाल ब्राह्मणों से संबंधित प्रारंभिक सूचनाएं हमें श्री शुभू पटवा से प्राप्त हुई हैं।

महाराष्ट्र के चितपावन और देशरुख या देशमुख ब्राह्मणों की कथा पहले उल्लिखित 'जाति भास्कर' पुस्तक से ली गई है।

पुष्करणा ब्राह्मणों और पुष्कर सरोवर की संक्षिप्त जानकारी हमें कर्नल टॉड की प्रसिद्ध पुस्तक' ऐनल्स एंड एन्टीक्विटीस ऑफ राजस्थान' के परिवर्धित हिन्दी संस्करण 'राजस्थान का इतिहास' (संपादन श्री बी.आर.मिश्र, श्री जे.पी. मिश्र और श्री राय मुंशी देवी प्रसाद) से मिली है।

छत्तीसगढ़ के रामनामी संप्रदाय पर मध्य प्रदेश संदेश के अंकों में छुट-पुट जानकारियां हैं।

सागर के आगर

तालाब के अंग-प्रत्यंग में आगौर के विभिन्न नाम हमें श्री चंडीप्रसाद भट्ट, पो. गोपेश्वर जिला चमोली, उ.प्र.; श्री राकेश दीवान; श्री गुणसागर सत्यार्थी, पो. कुंडेश्वर, टीकमगढ़, म.प्र. और गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के श्री राजीव वोरा से मिले हैं। [ ९७ ]आगर और पाल से संबंधित शब्दों की जानकारी श्री रमेश थानवी और श्री तपेश्वर भाई, पोस्ट जगतपुरा, वाया घोंघरडीहा, मधुबनी, बिहार से मिली है।

शिवसागर की कलात्मक नेष्टा हमें श्री जयप्रकाश थानवी के सौजन्य से देखने को मिली। उनका पता है: मोची गली, फलौदी जोधपुर।

साद रोकने के अंगों का प्रारंभिक विवरण श्री शुभू पटवा और उन्हीं के गांव भीनासर, बीकानेर के श्री नारायण परिहार और जनसत्ता के संपादक श्री ओम थानवी से मिला है।

साद के अन्य नाम कपा और कापू भी हैं। साद निकालने की व्यवस्था उतनी ही पुरानी है जितने पुराने हैं तालाब। वास्तुशास्त्र के संस्कृत ग्रंथ 'मानसार' में इसे मीढ़-विधान कहा गया है।

पठियाल, हथनी और घटोइया बाबा से संबंधित सामग्री श्री भगवानदास माहेश्वरी; श्री दीनदयाल ओझा, केलापाड़ा, जैसलमेर से हुई बातचीत पर आधारित है।

स्तम्भों की विविधता को समझने में श्री राकेश दीवान और उनकी बहन सुश्री भारती दीवान से बहुत मदद मिली है।

'पुरुष' नाप की बारीकियां हमें श्री नारायण परिहार से समझने को मिली हैं। इस संबंध में वास्तुशिल्प के प्राचीन ग्रंथ 'समरांगन सूत्रधार' में भी अणु से लेकर योजन तक के नाप देखे जा सकते हैं।

लाखेटा के बारे में पूरी जानकारी उस्ताद निजामुद्दीनजी से मिली है। उनका पता है: बाल भवन, कोटला मार्ग, नई दिल्ली। इसी संदर्भ में भोपाल ताल के मंडीद्वीप का किस्सा श्री ब्रजमोहन पांडे की पुस्तक 'पुरातत्व प्रसंग' में देखा जा सकता है। इसमें मंडीद्वीप के अलावा अन्य कई सिंगल (सिंहल) द्वीपों का भी उल्लेख है। आज भी इस इलाके में सिंगलद्वीप नाम के कुछ गांव मिलते हैं।

डाट से संबंधित सामग्री गोवा के श्री कलानंद मणि, अलवर के श्री राजेन्द्र सिंह तथा चाकसू, जयपुर के श्री शरद जोशी के साथ की गई यात्राओं के अलावा श्री रामचंद वर्म्मा के शब्दकोष में वर्णित इससे मिलते-जुलते चुरंडी, चुकरैंड आदि शब्दों के आधार पर तैयार की गई है।

पानी की तस्करी के प्रसंग में आए बुंदेली शब्द श्री गुणसागर सत्यार्थी से मिले हैं। [ ९८ ]
साफ़ माथे का समाज

तालाबों के आगौर को साफ रखने की प्रारम्भिक जानकारी में श्री शुभू पटवा का विशेष योगदान रहा। मध्य प्रदेश और बिहार में तालाबों की साफ-सफाई की अधिकांश सामग्री श्री राकेश दीवान और श्री तपेश्वर भाई से प्राप्त हुई है। इसी संदर्भ में बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, कदम कुआं, पटना से प्रकाशित श्री हवलदार त्रिपाठी 'सहृदय' की पुस्तक 'बिहार की नदियां' भी देखी जा सकती है।

दक्षिण में प्रचलित धर्मादा और मान्यम् प्रथा के विस्तार को समझने में इन ग्रंथों से भी मदद मिली है: तमिलनाडु सरकार द्वारा १९७७ में प्रकाशित—'हिस्ट्री ऑफ लैंड रेवेन्यू सैटलमेंट एंड अबॉलिशन ऑफ इंटरमिडियरी टैन्योर्स इन तमिलनाडु'। इस किताब के बारे में इतना लिखना आवश्यक है कि अपने किस्म की यह एक ही पुस्तक है। आज की थकी हुई सरकारों और समाज को चलाने वाली उनकी योजनाओं से बिलकुल अलग यह समाज में रची-पची संस्थाओं और परंपराओं का विस्तृत चित्रण करती है। इसके अलावा श्री डब्ल्यू फ्रांसिस द्वारा सन् १९०६ में लिखे 'साउथ आरकाट जिला गजेटियर' में भी कुछ जानकारी है।

गैंगजी कल्ला का प्रसंग हमें फलौदी, जोधपुर के श्री शिवरतन थानवी से और गैंगजी की निगरानी में आने वाले क्षेत्र का, तालाबों का परिचय हमें उनके सुपुत्र श्री जयप्रकाश थानवी के साथ की गई यात्राओं से मिला है। गैंगजी कल्ला जैसी विभूतियां प्राय: हर गांव और शहर में तालाबों और नदियों के घाट पर उपस्थित रहती थीं और वर्ष भर इनकी निगरानी करती थीं। घाटों पर अखाड़ों का चलन भी इसी कारण रहा होगा। यहां यह भी याद रखना चाहिए कि उन दिनों दमकल विभाग या पुलिस बल जैसे संगठन नहीं हुआ करते थे। फिर भी मेलों में जुटने वाले लाखों लोगों की सुरक्षा का इंतजाम ऐसे ही स्वयंसेवकों के दम पर होता था। सन् १९०० तक दिल्ली में यमुना के घाटों पर अखाड़े के स्वयंसेवकों का पहरा रहा करता था। इसी तरह यहां के तालाब और बावड़ियां अखाड़ों की देखरेख में साफ रखी जाती थीं। आज जहां दिल्ली विश्वविद्यालय है वहां मलकागंज के पास कभी दीना का तालाब था। इसके अखाड़े में देश विदेश के पहलवानों के दंगल आयोजित थे। दीना के तालाब की प्रारम्भिक जानकारी हमें श्री कैलाश जैन से मिली थी। फिर हमें इस तालाब की विस्तृत जानकारी आटो रिक्शा [ ९९ ]चालक श्री दलीप कुमार, द्वारा श्री किशोरीलाल, मकान नं. ६२९, गली रॉबिन सिनेमा, सब्जी मंडी, मलकाग़ंज, दिल्ली-७१ से मिली थी।

ल्हास की संक्षिप्त जानकारी कर्नल टॉड द्वारा लिखित 'ऐनल्स एंड एन्टीक्विटीस ऑफ राजस्थान' के हिन्दी अनुवाद में दी गई सूचना पर आधारित है।

नारनौल, हरियाणा के प्रसिद्ध तालाब में आज भी मुंडन संस्कार के बाद संतान के माता-पिता तालाब से मिट्टी निकाल कर पाल पर डालते हैं। इस परंपरा की विस्तृत जानकारी गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के श्री रमेश शर्मा से मिल सकती है।

सहस्रनाम

दिल्ली के श्री द्विजेन्द्र कालिया और उनकी पत्नी सुश्री मुकुल कालिया दिल्ली के तालाबों, डिग्गी, हौज़ और नहरों के अच्छे जानकार हैं। श्रीमती मुकुल ने पुरानी दिल्ली पर बच्चों के लिए एक सरस पुस्तिका भी लिखी है। प्रकाशक हैं: गांधी शांति केन्द्र। उनका पता है: १९९ सहयोग अपार्टमेंट्स मयूर विहार, दिल्ली।

अंबाला की डिग्गियों की जानकारी हमें वहां के श्री देवीशरण देवेश से मिली। उनका पता है: गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र, १६३० जयप्रकाश नारायण मार्ग, अंबाला, हरियाणा। लाल किले के लाहौरी गेट के सामने बनी लाल डिग्गी की सूचना उर्दू में लिखी गई श्री सर सैयद अहमद खां की पुस्तक 'आसारूस सनादीद' (सन् १८६४) से मिली है। इस पुस्तक तक पहुंचने में हमें गांधी संग्रहालय के श्री हरिश्चन्द्र माथुर, गांधी शांति प्रतिष्ठान के श्री एच.एल. वधवा और श्री मुहम्मद शाहिद से मदद मिली है।

पाठकों को यह जानकर अचरज होगा कि लाल डिग्गी तालाब एक अंग्रेज सर एलनबरो ने बनाया था और राज करने वालों के बीच यह इन्हीं के नाम पर जाना जाता था। लेकिन दिल्ली वाले इसे लाल डिग्गी ही कहते रहे क्योंकि ५०० फुट लंबा और १५० फुट चौड़ा यह तालाब लाल पत्थरों से बना था। श्री हर्न की सन् १९०६ में प्रकाशित हुई पुस्तक 'सेवन सिटीज़ ऑफ डैली' में लाल डिग्गी का सुन्दर विवरण मिलता है। दिल्ली के अन्य तालाबों, नहरों, बावड़ियों के बारे में श्री कॉर स्टीफन की 'आर्कियालॉजी एंड मान्यूमेंटल रीमेन्स ऑफ डैली, सन् १८७६; [ १०० ]और श्री जी.जी. पेज द्वारा चार खंडों में संपादित 'लिस्ट ऑफ मोहम्मडन एंड हिन्दू मान्यूमेंट्स, डैली प्रॉविन्स', सन् १९१३ से भी बहुत मदद मिल सकती है।

खंडवा के कुंडों की जानकारी श्री गोपीनाथ कालभोर, रतन मंजिल, दूधतलाई खंडवा, मध्यप्रदेश से मिली है।

टिहरी गढ़वाल के श्री बिहारीलाल ने हिमालय के तालाबों, चालों से हमें परिचित करवाया। उनकी संस्था, लोक जीवन विकास भारती, बूढ़ा केदार, पो. थाती, टिहरी गढ़वाल अपने अन्य सामाजिक कार्यों के साथ-साथ वहां चालों का चलन फिर से शुरू करने का प्रयत्न कर रही है।

पौड़ी गढ़वाल में पिछले २० वर्षों से काम कर रही 'दूधातोली लोक विकास संस्थान' नामक एक छोटी सी संस्था ने हिमालय के नक्शे पर चालों को फिर से उतारने का बड़ा काम किया है। पिछले ९ वर्षों में इस संस्था ने श्री सच्चिदानन्द भारती के नेतृत्व में लगभग ७ हजार चालें बनाकर यहां के कई गांवों में जल संकट को थाम लिया है। चालों के कारण जमा हुए सम्पन्न जल भंडार ने अनेक गांव में खेतों को सुधारा है, जंगल घने किए हैं और चारे का भंडार बढ़ाया है। हर वर्ष गर्मी में इन इलाकों में लगने वाली वनों की आग भी चाल वाले क्षेत्रों में अब नहीं लगती। वहां का नारा है: "खेत, जंगल, घास, पाणी यूं का बिना योजना काणी"।

श्री मैथिलीशरण गुप्त के चिरगांव के चोपरा का विवरण श्री गुणसागर सत्यार्थी से प्राप्त हुआ है।

नकरा और गधया और नदी से भरने वाले नदया तालों की जानकारी गांधी स्मारक निधि के श्री मिश्रीलाल से मिली है।

फुटेरा ताल जनसत्ता, नई दिल्ली के सुधीर जैन से, बराती ताल, 'बिहार की नदियां' पुस्तक से और हा-हा पंचकुमारी ताल और लखीसराय के ३६५ तालाबों से संबंधित सूचनाएं हमें श्री निर्मलचंद्र से मिली हैं।

जायकेदार तालाब पर इन्दौर के दैनिक पत्र 'नई दुनिया', १७ मई १९९१ के अंक में छपे श्री बाबूराव इंगले के लेख ने तालाबों के सहस्रनामों में अलग ही जायका भर दिया।

बरसाने की पीली पोखर की जानकारी सुश्री बिमला देवी से प्राप्त हुई है। उनसे सम्पर्क : द्वारा डॉ. सुभाष चंद तोमर, चक्कीवाला कटरा, बरसाना, जिला मथुरा, उत्तरप्रदेश पर किया जा सकता है। [ १०१ ]विचित्र गोला ताल का परिचय हमें श्री शरद जोशी के कारण मिला है। उन्हीं ने जयबाण तोप और फिर उससे २० मील दूर गिरे गोले से बने इस ताल की यात्रा का प्रबन्ध किया था।

दशफला पद्धति की मौखिक जानकारी बापटला, आंध्र प्रदेश के श्री जी. के. नारायण से प्राप्त हुई है। गांधी शांति केन्द्र, हैदराबाद से आंध्र के पर्यावरण पर तेलगू में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इस क्षेत्र के तालाबों का विवरण है। सांकल पद्धति से जुड़े तालाब कई जगह बनते थे। दक्षिण के अलावा बुंदेलखंड, राजस्थान और गुजरात में भी ये देखने मिलते हैं। मध्य प्रदेश के ऐसे तालाबों की जानकारी 'नई दुनिया' इन्दौर के एक नवम्बर, ९१ के अंक में श्री रामप्रताप गुप्ता के लेख में मिलती है। उनका पता है: शासकीय महाविद्यालय रामपुरा, मंदसौर, मध्य प्रदेश।

मुरैना, मध्य प्रदेश के पड़ावली गांव में सात स्तर के तालाब की सांकल थी। पड़ावली की जानकारी के लिए ग्वालियर साइंस सेंटर के श्री अरुण भार्गव से एल.बी. १७५, दर्पण कालोनी, ग्वालियर पर सम्पर्क किया जा सकता है। छिपीलाई शब्द का सुन्दर उपयोग पहली बार हमें उस्ताद श्री निजामुद्दीन से सुनने मिला। इस प्रसंग में छत्तीसगढ़ और बिहार के तालाबों के नामों को समझने में हमें क्रमश: श्री राकेश दीवान और श्री निर्मलचन्द्र से सहायता मिली है। भोपाल के ताल का विस्तृत विवरण श्री ब्रजमोहन पांडे की पुस्तक से मिल सकता है। इसमें देश के कई अन्य प्राचीन सरोवरों की भी पर्याप्त जानकारी है। पलवल स्थान की सूचना हमें दिल्ली में लोक कलाकारों के बीच काम कर रही संस्था सारथी के श्री भगवतीप्रसाद हटवाल से प्राप्त हुई। पता है: सारथी, फ्लैट नं. ४, शंकर मार्केट, कनॉट प्लेस, नई दिल्ली-११०००१।

और झुमरी तलैया नाम से हम देश के हजारों श्रोताओं की तरह आकाशवाणी के विविध भारती कार्यक्रम के कारण परिचित हुए हैं।

मृगतृष्णा झुठलाते तालाब

इस हिस्से को लिखने में हमें राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर तथा बाड़मेर जिलों के गजेटियर तथा इन्हीं क्षेत्रों की जनगणना रिपोर्ट, सन् १९८१ से बहुत मदद मिली है। इन सन्दर्भों के अलावा इन इलाकों की एकाधिक यात्राओं से मरुभूमि का, वहां [ १०२ ]के समाज का और पानी से संबंधित उनकी बुद्धिमत्ता का आभास हो सका है। वहां की अधिकांश यात्राएं अनुपम मिश्र को के. के. बिड़ला प्रतिष्ठान से राजस्थान में जल संग्रह विषय पर मिली एक शोधवृत्ति के अंतर्गत की जा सकी हैं।

जैसलमेर शहर और उसके आसपास बने तालाबों की प्रारम्भिक जानकारी श्री नारायण लाल शर्मा द्वारा लिखित 'जैसलमेर' नामक पुस्तिका से मिली है। प्रकाशक हैं: गोयल ब्रदर्स, सूरज पोल, उदयपुर।

इन क्षेत्रों के बारे में समय-समय पर श्री ओम थानवी, श्री भगवानदास माहेश्वरी, श्री दीनदयाल ओझा और राजस्थान गो सेवा संघ के श्री भंवरलाल कोठारी से हुई बातचीत से भी हमें बहुत मदद मिली है। राजस्थान गो सेवा संघ का पता है: रानी बाजार, बीकानेर।

घड़सीसर तालाब, गड़सीसर या गड़ीसर नाम से भी पुकारा जाता है। इस तालाब के किनारे बने मंदिर, घाट, रसोइयां, चौकी, पोल और तालाब पर जमने वाले मेले का वर्णन हमें श्री उम्मेद सिंह महेता की एक गज़ल से मिला है। यह गज़ल 'जैसलमेरीय संगीत रत्नाकर, पहिला हिस्सा' नामक पुस्तक में है। पुस्तक लखनऊ के नवलकिशोर प्रेस से सन् १९२९ में प्रकाशित हुई थी। यह हमें जैसलमेर के श्री भगवानदास माहेश्वरीजी के निजी संग्रह से मिली है। देश के एक विशिष्ट तालाब पर ४६ बरस पहले जैसलमेर में लिखी गई और लखनऊ से छपी यह दुर्लभ सामग्री एक विशेष महत्व रखती है। इसलिए हम यहां इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं:

अथ तालाब गड़सीसर की गजल लिखते

कवित्त

तख्त जेसांन ताको जानत है जहांन ताको
सब मुलकन में नाम तमाम अति भारी है।
किल्ला है भूरगढ़ भूप जवाहिर सिंह अधिक
छबि प्यारी और फोज दल अपारी है॥
रईयत मतवारी छटा गड़सीसर की भारी
जहां भरत नीर लाखों और किरोड़ पनिहारी है।
महेता कहे उम्मेदसिंह वाहो
जेसाण नाथ रियासत तुम्हारी बादशाहत से नियारी है।

[ १०३ ]
गज़ल

गवरी पुत्र है गणराज। समझों सदा पूरण काज॥
आदू मरुस्थल है माड़। जैसलमेर गड़ रजवाड़॥
पूरब दिशा गड़मल ताल। दोनों तरफ ऊंची पाल॥
बंधीया घाट घाटी नाल। ऊपर महल मंदिर
साल। भरीय नीर अमृत जान॥ जिन
पर शहर का मंडान॥ दुनिया भरत आवत नीर।
चोकी प्रथम ब्राजत पीर॥ नाम जमालशा है
जान॥ माने सकल मुसलमान॥ फिर पठियाल
जिनके पास। वहां सिध वसूते का वास॥
परच्यो प्रगट पायो नाम। समझों सदा
सिधी काम॥ सांमी वासूवों की प्रोल।
जातों वक्त डावे डोल॥ छत्री साल मंदिर
ठाट। बधीया सरोवर पर घाट॥ देख्या बड़ा
गज मंदर। शिव की मूर्ति अंदर॥ होता
गायत्री यगसाल। ब्रह्मण जीमता हदमाल॥ कीतो
युं अजीत ने काम। राख्यों बगेची को नामं॥
मंदिर रच्यो गिरधारी के। नीचे सात बंध भारी के॥ छत्री
पास है मंदर। लोले बणायो पहोकर॥
मोटो नीलकंठ महादेव। दुनिया सकल करती
सेव॥ आगे मंदिर पठसाला के। मालिक जबलपुर
वाला के॥ बाई सदांमा का महेल। दुनिया
बैठ करती सहेल॥ नीचे माई का ओटा
के। लगता भंग का घोटा के॥ बाहर बगेची
घाली के। ब्रह्मण रहत सिरमाली के॥ बिसां
की बगेची त्यार। साला मंदिर महल अपार॥
आदू गड़सीसर रावल। मंदिर बणायो सावल॥ देवी
मात है हिंगलाज। सेवा कीयों सरता काज॥ भारी
बुरज हे गड़ी के॥ फोजों बीच में लड़ी के। इनके
रहत जल चौफेर॥ आगे लीया नेष्टा घेर। आया
पराक्रमा दे ताल॥ च्यारों तरफ हे पठसाल। सांमा
बगेचा मंदर॥ व्यासों तणा सांमीसर॥ भीतर
मोल हे निजदेख। व्यासों बणायो हद एक॥
लिक्ष्मीनाथजी का बाग। मंदिर महल अच्छो
लाग। आई बगेची जो आद। प्रोहितों बणाई रखयाद॥

[ १०४ ]

भीतर भुर्ज भारी एक। सांमा मंदिर
शिव का लेख॥ नीचे फतेचंद की साल।
पुखता बणाई कर ख्याल॥ देख्या बाग जो महेरांणा।
मालिक सकल सेवक जांण॥ करता हमेशां इंतजाम।
साधू संत ले बिसराम॥ आछी बगेची रूपनाथ। भीतर
दोय मंदिर साथ॥ जिनके पास बंगला
एक। महोते बख्तसिंह का देख॥ चांडर द्वार
के की साल। ऐसी नहीं हे चौताल॥ जल
अध बीच बंगला काम। महोते फतेसिंह का
नाम॥ मोडा बंगला नीका के। धीरवसिंह महोते काके॥
जाली बंगला पाया के। मनहर भूप
करवाया के॥ भरीया रहत जल दरियाब।
बंगला अधर देखत नाव॥ टीलों कराई हद प्रोल।
ऊपर मंदिर नीचे मोल॥ आगे अजब पठाघट बाट।
जुड़ता औरतों का ठाट॥ भादव कृष्ण कजली
तीज। आये मांह चमकत बीज॥ भरता
गड़ीसर मेला के। आया दोस्तों भेला के॥
मेला जुड़त है भारी के। आवत सकल नर
नारी के॥ मेले तणी सोभा मान। आवत
छती से ही पान॥ त्रीया सकल सज
सिणगार। गावत गीत राग उचार॥ बोलत
हाथ धर गालों के। चलती मस्त गज
चालें के॥ घुल रही-रही अंखियां रंग लाल।
बंदली खूब सोहे भाल। जुलफों बणी नागन
लेख। नयनों बीच काजल रेख॥ सिर पर
अजब सोहे बोर। जलकत चंद्रमा के तोर॥
नीचे झूटणा झैला के। राहता
मीढ़ीयों भेला के॥ कांने डूग्गलों की
झूल॥ नीचे लटकता कनफूल॥ नक में नाथ
हे भारी के। सोभा देत जो सारी के॥
दांतों जड़ी कंचन मेख। मुखड़ों चंद्रमा सो
देख। कंठला कंठ बिच सोहे के। छतियों
देख मन मोहे के॥ कड़ीयों में सोहे
कन्दोर। पतली कमर नाजुक तोर। हथ
में गौखरू हद जोय। देख्यों दिल खुसी
जो होय॥ बुकये बोरखे बाजू के। पहरे

[ १०५ ]

नार सब नाजू के॥ हथ संकला सोहे हद
खूब। जेवर बण्यो लूंबालूम्ब॥ कडीयों
साटों का जोड़ा के। जांझण जीभीयों
तोड़ा के। रण झण पांव में बाजे के॥
इतनो आभूषण छाजे के। ऐसी सज
सोले सिणगार। मेले बीच आवत नार॥
साथे मर्द सब आवे के। मेलो देख
मन भावे के॥ सब मिल संग सुणता
गीत। हे जेसांण में हद रीत॥ रहता सांम
तक बिसरांम। घर को फेर चलती बांम॥
मेला घिरत जो पाछा के। गावत गीत मिल
आछा के॥ आगे गीत गावत नार।
चालत मर्द लारोलार॥ साथे नारियों सब कंथ।
मोरो ज्यूं भया महेमंद॥ दाखल होत शहर मंझार।
धीरे मधुर चलती नार॥ सूरज अस्त पड़ता सांम।
पहोच्या जाय अपने धांम। गजल गड़सीसर की जोय॥
बाच्चों सुंसदा खुस होय। मन में उठ गई
उमंग॥ गजल कही मुं. उम्मेदसिंह॥
इति श्रीतलाव गड़सीसर की गजल महेता उम्मेद सिंह कृत संपूर्ण। शुभं भवतु॥

जैसलमेरीय 'संगीत रत्नाकर' पहिला हिस्सा, नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ में मुद्रित। १९२९ ई. मूल्य आठ आना।

बाप नामक तालाब की कहानी हमें उस्ताद निजामुद्दीनजी से सुनने मिली। मई की रेतीली आंधी के बीच वहां की यात्रा बीकानेर की संस्था उरमूल ट्रस्ट के श्री अरविंद ओझा की मदद से की गई।

मरुभूमि में भगवान श्रीकृष्ण के वरदान का प्रसंग श्री नारायण लाल शर्मा की पुस्तिका से लिया गया है। मरुभूमि के गांवों में, शहरों में और तो और निर्जन तक में इस वरदान के दर्शन होते हैं।

तालाब बांधता धरम सुभाव
तालाबों के 'धरम सुभाव' का वर्णन डिंगल भाषा कोष से मिला है। यह कोष सन् १९५७ में श्री नारायण सिंह भाटी के संपादन में राजस्थान शोध संस्थान, चौपासनी, जोधपुर से प्रकाशित हुआ है। कोष के हमीरमाला खंड में तालाबों के पर्यायवाची शब्द गिनाते हुए कवि हमीरदान रतनू ने इन्हें धरम सुभाव कहा है। [ १०६ ]

सुख और दुख को तालाब से जोड़ने के प्रसंग हमें श्री भगवान दास माहेश्वरी, श्री राजेंद्र सिंह और श्री कलानंद मणि से मिले हैं।

बुंदेलखंड में गड़े हुए खजाने से तालाबों को बनाने का विवरण श्री योगेश्वर प्रसाद त्रिपाठी के संपादन में ब्रह्मानंद महाविद्यालय, राठ, हमीरपुर, उत्तर प्रदेश से सन् १९७५ में प्रकाशित स्वामी ब्रह्मानंद अभिनंदन ग्रंथ से लिया गया है। पुस्तक में श्री बद्रीप्रसाद 'धवल' के लेख 'महोबा नगर का संक्षिप्त परिचय' में विक्रम संवत् २८६ से १२४० तक चंदेल वंश के राज का परिचय और उनकी बाईस पीढ़ियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। इन बाईस राजाओं में से कुछ के नाम इस प्रकार हैं: चन्द्र ब्रह्म, बाल ब्रह्म, गज ब्रह्म, भक्ति ब्रह्म, जयशक्ति ब्रह्म "द्वितीय", कील ब्रह्म, कल्याण ब्रह्म, सूर्य ब्रह्म, रूप विद्या ब्रह्म, राहिल ब्रह्म, मदन ब्रह्म, कीर्ति ब्रह्म तथा परिमाल ब्रह्म। यहां के बाईस बड़े तालाबों के नाम भी इन्हीं पर आधारित हैं। स्वामी ब्रह्मानंद अभिनंदन ग्रंथ हमें महोबा के श्री मनोज पटेरिया के सौजन्य से प्राप्त हुआ है।

आवाज लगाकर बिकने वाले इलाहाबादी अमरूद और नागपुरी संतरों को तो सब लोग जानते हैं। लेकिन बलदेवगढ़ की मछली? बंगाल में बलदेवगढ़ की मछली ले लो, जैसी आवाज भी सुनाई देती है। यह बलदेवगढ़ बंगाल में नहीं, बुदेलखंड में है और यहां के तालाबों की मछली विशेष स्वादिष्ट मानी जाती रही है।

छेर-छेरा त्यौहार और छत्तीसगढ़ से संबंधित अन्य सूचनाएं तालाबों के विवाह तथा बड़े गांवों की छै आगर छै कोरी वाली परिभाषा श्री राकेश दीवान की देन है।

सीता बावड़ी के गुदने से संबंधित जानकारी मध्य प्रदेश शासन से प्रकाशित चौमासा पत्रिका के विभिन्न अंकों से ली गई है। इसी प्रसंग में कुंराऊं समाज की स्त्रियों के बीच गुदने की परंपरा पर दो पंक्तियां 'मद्रास डिस्ट्रिक्ट गजेटियर सीरीस' में श्री डब्ल्यू फ्रांसिस द्वारा तैयार किए गए सन् १९०६ के 'साउथ आरकाट जिला गजेटियर' से मिल पाई हैं।

बिंदुसागर का वर्णन कर्नल बी.एल. वर्मा से हुई मौखिक बातचीत पर आधारित है। उनका पता है: एम ४९, ग्रेटर कैलाश भाग २, नई दिल्ली-४८। इसी प्रसंग में बनारस के तालाबों के नाम भी दुहराए जा सकते हैं। इनका नामकरण इसी आधार पर किया गया था कि देश की सब नदियों का पवित्र जल यहां भी संग्रहित है। जेम्स प्रिंसेप नाम के एक अंग्रेज़ अधिकारी ने सन् १८२० के आसपास बनारस [ १०७ ]शहर के कुछ अच्छे नक्शे बनाए थे। इन नक्शों में इन तालाबों की स्थिति बताई गई है। ये नक्शे डायना एल. ऐक की सन् १९८३ में छपी अंग्रेजी पुस्तक 'बनारस सिटी ऑफ लाइट' में दिए गए हैं। प्रकाशक हैं: राउटलैज एंड कैगनपाल, लंदन।

तालाबों को नदियों के नाम से जोड़ने की प्रथा और भी हिस्सों में रही है। इसी संबंध में भावनगर के प्रसिद्ध गंगाजलिया तालाब का भी उल्लेख किया जा सकता है।

आज भी खरे हैं तालाब

हमारे अधिकांश शहर और जिन गांवों में उनके पैर पसर रहे हैं, वे गांव भी आज तालाबों की दुर्दशा के दुखद संदर्भ बन सारे देश में फैल चुके हैं।

अध्याय का प्रारम्भिक भाग तैयार करने में हमें श्री रामेश्वर मिश्र पंकज के साथ हुई बातचीत से बहुत मदद मिली है।

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बन रहे तांदुला तालाब की जानकारी हमें मध्य प्रदेश संदेश के सिंचाई विशेषांक के अलावा श्री जी.एम. हैरियट द्वारा १९०१ में तैयार की गई तत्कालीन सेंट्रल प्राविंसेस पर एक सरकारी रिपोर्ट में देखने मिली। 'सेंट्रल प्राविंसेस पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट: नोट ऑन इरिगेशन इन सेंट्रल प्राविंसेस विद अपेंडिसिस एंड टेबल्स' नामक इस रिपोर्ट में इन इलाकों के अनेक छोटे-बड़े तालाबों पर पर्याप्त अच्छी जानकारी है। गुणीजनखाना से संबंधित सूचना हमें श्री नंदकिशोर आचार्य से प्राप्त हुई है। उनका पता है: सुथारों की बड़ी गुवार, बीकानेर।

मैसूर राज्य के विषय में सन् १९०१ में प्रकाशित 'मैमोरैंडम ऑन इरिगेशन वर्क्स इन मैसूर' नामक एक रिपोर्ट, सरकारी विभागों द्वारा इन तालाबों की हुई छीछालेदर की पृष्ठभूमि पर ठीक प्रकाश डालती है।

'वार्ष्णेय गीतमाला' में गारियों के बीच में "फिरंगी नल मत लगवाय दियो" की पंक्तियां हमारे समाज में रचे-बसे स्वभाव की झलकी भर नहीं हैं। इस गीतमाला में समस्त शुभ अवसरों—होली, विवाह, कुआं पूजन जैसे पर्वों-त्यौहारों पर गाए जाने वाले गीतों का संग्रह भी है। अलीगढ़ की सुश्री रामदेवी वार्ष्णेय ने इन गीतों का संकलन किया है और दिल्ली की सुश्री त्रिवेणी देवी ने इस गीत माला को छपवाकर अपनी तरफ से बंटवाया है। अन्यथा यह पुस्तिका बिक्री के लिए नहीं है। त्रिवेणीजी से [ १०८ ]संपर्क के लिए: ७१९, प्रेम गली, १-डी सुभाष रोड, गांधी नगर, दिल्ली-३१। अशोक प्रेस, २८१०, गली मातावाली, किनारी बाज़ार, चांदनी चौक, दिल्ली से १९९२ में प्रकाशित इस गीतमाला के पहले संस्करण में इस विवाह गीत का उल्लेख है।

इंदौर और देवास शहर में पिछले बीस वर्षों से बढ़ते जल संकट की अधिकांश जानकारी वहां के अखबारों में छपे लेखों और संपादक के नाम लिखे गए पत्रों में से ली गई है। देवास की प्रारम्भिक सूचनाएं हमें श्री बृजेश कानूनगो से मिली थीं। उनका पता है: १५१, विजय नगर, देवास, मध्य प्रदेश। सागर शहर और इसके आसपास के इलाकों में की गई यात्राओं से यहां के तालाबों के बारे में बहुत कुछ देखने समझने मिला। इसके अलावा श्री पंकज चतुर्वेदी के लेखों से भी मदद मिली है।

मध्य प्रदेश के कोई १५० शहरों में अप्रैल के पहले हफ्ते से ही जल संकट के आसार दिखने लगते हैं और शासन इन शहरों में पानी ढोकर ले जाने की योजनाएं बनाने लगता है।

अपनी राजधानी भी पानी के मामले में दिनोंदिन निर्धन साबित हो रही है। यमुना और अब तो गंगा से मंगवाया गया पानी भी कम पड़ रहा है। बाहरी और दिल्ली देहात के लिए बना हैदरपुर जलकल केन्द्र पानी के अभाव में अप्रैल ९३ तक चालू नहीं हो सका था। सुधी पाठक ध्यान दें कि ये वही इलाके हैं, जहां आज से कोई ५०-६० वर्ष पहले तक तालाबों और पानी की कोई कमी नहीं थी।

पुस्तक का चौथा संस्करण निकलने तक दिल्ली में जल संकट और भी बढ़ा है और उसी के साथ-साथ सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में उसे हल करने की चिंता भी। सेन्टर फॉर साईन्स एंड एनवायर्नमेंट जैसी संस्थाओं ने यहां पर जल संग्रह के पुराने और नए तरीकों पर काम प्रारम्भ किया है। दिल्ली के देहाती क्षेत्रों में उपेक्षा की आंधी से बच गए तालाबों की सुध लेने का भी प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है।

इस पुस्तक का पहला संस्करण १९९३ में निकला था। और यह चौथा संस्करण २००२ के जुलाई माह में। तब से अब तक जगह-जगह लोगों ने अपने तालाबों को बचाने और नए तालाब बनाने का काम प्रारम्भ किया है। यह सूची बहुत बड़ी है। उसे यहां हम दे नहीं सकेंगे। हम ऐसे प्रयासों के आगे नतमस्तक हैं। लगता है कि धीरे-धीरे हमारे माथे में जमा साद कुछ साफ हो चली है और आज राज्य और समाज को फिर से लगने लगा है कि तालाब आज भी खरे हैं।