आदर्श महिला/२ सावित्री/२

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

[ ७६ ]का मधुर गान और ऋषिकुमारों का मनोहर सन्ध्या-स्तोत्र देख-सुनकर सावित्री का हृदय मानो किसी मायामय राज्य में पहुँच गया। नेत्र मूँदे हुए सत्यवान का मधुर वेद-गान सुनकर सावित्री सुध-बुध भूल गई। वह सोचने लगी कि ऐसा स्वर मनुष्य के कण्ठ से कभी नहीं निकल सकता। यह मेरे हृदय-राज्य के देवता का मधुर प्रेम-गीत है। पुलकावली छाई हुई आँखों से सावित्री सत्यवान के सुन्दर वदन को देखने लगी। सत्यवान की मुँदी हुई आँखों पर सावित्री के नेत्र ठगे से हो रहे। पलकों का परदा उठ गया। यह देखकर मंत्री प्रसन्न हुए। दाई ने भी देखा कि राजकुमारी की प्रेमदृष्टि सत्यवान पर जमी हुई है। सावित्री की सखियों ने भी उसका यह भाव देख लिया; किन्तु देवता की ओर टकटकी लगाये हुए योगिनी यह समझ नहीं सकी। वह तो दूसरे ही राज्य में थी।

सन्ध्यावन्दन के अन्त में सत्यवान ने राज-अतिथियों को भारती का दीपक दिखाया। जब वह भारती का दीपक सावित्री के पास पहुँचा तब सत्यवान का हाथ काँप उठा। सत्यवान की प्रेमपूजा के अर्घ्यपुष्प और भारती की ज्योति ने सावित्री को तृप्त करके उसकी रूप-राशि को जगमगा दिया।

मुनियों के मुँह से अनेक उपदेश और कथाएँ सुनते-सुनते सावित्री सो गई। दाई ने उसका बिछौना ठीक कर दिया। मंत्री आदि भी उचित स्थान पर सो रहे।

सबेरे उठकर सावित्री ने मुनियों और मुनि-पत्नियों को प्रणाम किया। मुनि-कन्याएँ सावित्री के, उस एक दिन के, सखित्व से मुग्ध हो गई थीं। उनका जी सावित्री को किसी तरह भी छोड़ना नहीं चाहता था। डबडबाई हुई आँखों से सावित्री तपोवन से बिदा हुई।

तुरन्त रथ लाया गया। सावित्री रथ पर चढ़ना चाहती थी, इतने [ ७७ ]में उसे याद आई कि ऋषिकुमार को तो प्रणाम किया ही नहीं। उसने झट सत्यवान के पास जाकर विनय-सहित काँपती हुई आवाज़ से कहा—देवता! मेरा प्रणाम लीजिए। मुनि-कन्याओं के विरह-दुःख से मैं अपने को ज़रा भूल गई थी; और कुछ न सोचिएगा।

सत्यवान कुछ कह नहीं सका। वह मन ही मन बोला—तुम्हारी इच्छा पूरी हो।

राजकुमारी की प्रेम से उपजी हुई इस त्रुटि को देखकर मंत्री सब समझ गये। उन्होंने हर्षित होकर राजकुमारी से पूछा—"अब किस तीर्थ में चलोगी?" सावित्री ने कहा—बहुत दिनों से माता-पिता के चरणों के दर्शन नहीं हुए। इसके सिवा आश्रम में घूमने से मैं बहुत थक भी गई हूँ। इसलिए अब और किसी तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं। राजधानी को लौट चलिए।

मंत्री के आदेश से सारथि ने मद्रराज्य की ओर घोड़ा को चलाया।

[५]

राजा अश्वपति दरबार में बैठे हैं। विचार-प्रार्थी लोग हाथ जोड़े दूर खड़े हैं; साक्षात् धर्म के समान राजा अश्वपति न्याय के काम में लगे हुए हैं। इतने में प्रतिहारी ने आकर निवेदन किया—महाराज! प्रधान मंत्रीजी राजकुमारी-सहित लौट आये हैं। यह सुनकर राजा बड़े प्रसन्न हुए और प्रधान मंत्री के आने की बाट देखने लगे।

तुरंत ही प्रधान मंत्री ने आकर राजा को प्रणाम किया। राजा ने उचित आदर से मंत्री को निकट बुलाकर पूछा—"मंत्रिवर! सब कुशल तो है? बेटी सावित्री देश घूमते-घूमते थक तो नहीं गई?" मंत्री ने कुशल-मङ्गल कहा।

कुछ देर बाद राजा ने पूछा—"मंत्रीजी! जिस बड़े काम के लिए आप लोग देश घूमने गये थे उसका भी कुछ हुआ?" मंत्री ने [ ७८ ]हर्ष के साथ उत्तर दिया—हाँ महाराज! राजकुमारी ने पति चुन लिया है। यद्यपि मैंने इस विषय में उनके मुँह से कोई बात नहीं सुनी तथापि देखा है कि एक नवयुवक को देखकर राजकुमारी ने उस पर प्रेम-लक्षण प्रकट किया है।

मंत्री के मुँह से यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए कि सावित्री ने पति चुन लिया है। उन्होंने पूछा—"मंत्रिवर! सावित्री ने जिस पर प्रेम प्रकट किया है उसका परिचय तो आप अवश्य मालूम कर आये होंगे।" मंत्री ने कहा—महाराज! राजकुमारी ने शाल्वराज्य के राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से प्रेम किया है। महाराज! सत्यवान सुन्दर युवा पुरुष है। उसके सुकोमल शरीर में ऋषि का वेष और ब्रह्मचर्य्य से उपजा हुआ लावण्य बड़ा ही सुन्दर लगता है।

यह सुनकर राजा ने राजकुमार सत्यवान के ऋषि-वेष का कारण पूछा। मंत्री ने कहा—महाराज! राजा धुमत्सेन अब बूढ़े हो गये हैं। कोई अठारह वर्ष हुए, उनका राज्य शत्रु ने छीन लिया। धुमत्सेन राज्य और दृष्टि खोकर, विपाशा नदी के किनारे, वशिष्ठ के आश्रम में तपस्या कर रहे हैं। राजर्षि द्युमत्सेन का इकलौता बेटा सत्यवान धनुर्वेद में ख़ूब चतुर है। उसके उन्नत शरीर, चौड़ी छाती, फैले हुए कन्धों, घुटनों तक लम्बी भुजाओं, चौड़े माथे और गठे हुए बदन में क्षात्र-धर्म के साथ ब्रह्मतेज अपूर्व शोभा देता है। महाराज! सब बातों में सत्यवान सावित्री के योग्य है, किन्तु दारुण दरिद्रता इस विषय में कुछ बाधा डालती है। तथापि यह सत्य है कि अमृत से भरे हुए समुद्र के किनारे कोई प्यासा नहीं रह सकता; कल्पवृक्ष के पास कोई दरिद्रता का कष्ट नहीं भोगता। महाराज! आप सावित्री को सत्यवान के हाथ सौंपिए।

मंत्री के मुँह से सत्यवान का वृत्तान्त सुनकर मद्रराज बहुत प्रसन्न [ ७९ ]हुए उन्होंने सोचा कि सावित्री का शुभ विवाह हो जाने पर सत्यवान की दशा अवश्य बदल जायगी। प्रकाश निकलने पर अँधेरा भाग ही जाता है। सूखी तपी हुई पृथ्वी पर वर्षा की धारा से हरियाली छा जाती है। सौभाग्य-लक्ष्मी के आगमन से सत्यवान के घर में उजेला हो जायगा; उसकी दरिद्रता दूर हो जायगी।

राजा इस प्रकार सोच-विचार कर रहे थे और मुसाहिब लोग सावित्री के पति ढूँढ़ लेने की आपस में चर्चा कर रहे थे, इतने में देवर्षि नारद दरबार में आये। राजा ने आसन से उठकर बड़े आदर से उनको सिंहासन पर बिठाया। कुशल-प्रश्न हो लेने और स्वागत के बाद राजा अश्वपति ने देवर्षि नारद से सावित्री के पति चुनने की बात कही। नारद ने बड़ी प्रसन्नता से सत्यवान के कुल और शील की प्रशंसा करते हुए कहा—"राजन्! सत्यवान सब प्रकार से सावित्री के योग्य स्वामी है, इसमें सन्देह नहीं; किन्तु मैं इसमें बड़ा अमंगल देखता हूँ। राजा ने चौंककर पूछा—"देवर्षि! आप इसमें क्या अमंगल देखते हैं?" देवर्षि ने कहा—महाराज! सत्यवान की उम्र बहुत थोड़ी है। आज के ठीक बरसवें दिन सत्यवान काल के गाल में चला जायगा।

राजा बहुत व्याकुल हुए। मंत्री के और सभासदों के मुखमण्डल पर मानो खेद की कालिमा छा गई। राजा ने कहा—"देवर्षि! अब इसका क्या उपाय है?" देवर्षि ने कहा—"और उपाय क्या है? सावित्री को दूसरे पुरुष से ब्याह दीजिए।" इस विषय में मुसाहिबों के बीच अनेक प्रकार की उलटी-सीधी चर्चा हुई।

इतने में दरबार से महल में जाने के दरवाजे पर नूपुर की ध्वनि सुन पड़ी। राजा ने देखा कि वहाँ सावित्री आ रही है।

सावित्री ने दरबार में आकर सबसे पहले अग्नि के समान तेजस्वी मुनिवर को प्रणाम किया; फिर पिता के चरण छूकर मंत्री और [ ८० ]मुसाहिबों को अभिवादन किया। राजा ने बड़े आदर से बेटी को। निकट बिठाकर मन्द स्वर से कहा—"बेटी! रास्ते में थकावट तो नहीं मालूम हुई?" सावित्री ने कहा—"नहीं बाबूजी! मैं बड़े आराम से थी। मंत्रीजी के आदर से, दाई के यत्न से, और दास-दासियाँ मनलायक होने से मुझे कुछ कष्ट नहीं हुआ। नित्य नये-नये स्थानों की सहज शोभा देखकर मैंने अपने को कृतार्थ किया है; किन्तु बाबूजी! बीच-बीच में आप लोगों के लिए मेरा जी उचट जाता था। राजा ने गद्‌गद स्वर से कहा—बेटी! मैं भी तुम्हारे अमंगल की कल्पना करके मन ही मन घबराता था।

सावित्री ने राजा की आँखों में आँसू और उनके चेहरे पर उदासी देखकर घबराहट से पूछा—"बाबूजी! आज आप ऐसे उदास क्यों हो रहे हैं? जब आप मुझे प्राण से भी बढ़कर प्यार करते हैं, और मुझे देखने से आपका सब दुःख दूर हो जाता है तब आप मुझे निकट देखकर भी क्यों आँसू ढाल रहे हैं?" राजा अश्वपति ने ज़रा सँभलकर कहा—बेटी, मेरी आँखों की पुतली! देवर्षि के मुँह से तुम्हारे भविष्य जीवन की भयानक बात सुनकर मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है। मुझे चारों ओर अन्धकार दिखाई देता है।

राजा की इस खेद-भरी बात को सुनकर सावित्री गहरे सन्देह में पड़ गई। वह व्याकुल होकर बोली—बाबूजी! आपने देवर्षि के मुँह से मेरे भविष्य-जीवन की ऐसी कौनसी दुःखदायक बात सुनी है? बताइए। अगर इस समय उसके मेटने का कुछ उपाय हो तो उसके लिए उपाय कर सकती हूँ।" यह सुनकर राजा को कुछ ढाढ़स हुआ।

यह जानकर देवर्षि को भी कुछ विषाद सा हुआ कि 'सावित्री अपने भविष्य-जीवन की अवस्था बदलने का उपाय करेगी।' उनको आशङ्का हुई कि मैंने जिस कठिन परीक्षा के लिए आज वेदमाता [ ८१ ]देवी के अंश से उत्पन्न मद्र-नरेश की बेटी के भविष्य-जीवन का भयानक चित्र दिखाया है उस परीक्षा में पिता के कहने से, या अपने मतलब से, राजकुमारी कहीं फिसल न जाय। देवर्षि बड़ी उत्कण्ठा से बैठे रहे।

राजा ने कहा—बेटी! सब प्रकार से बड़ों का मान रखना ही बेटे और बेटी को उचित है। तुम मेरी सुशील बेटी हो। आशा है, मेरी बात को अच्छी तरह समझकर तुम उसके अनुसार काम करोगी। तुमने वशिष्ठाश्रम में शाल्वराज द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को देखा है। सत्यवान रूप, गुण, कुल और शील में यद्यपि तुम्हारे योग्य है तथापि एक दोष से सब अनर्थ हो गया। मिलन के पास ही अशुभ की छाया है।

सावित्री ने विनीत स्वर से पूछा—बाबूजी! आप इसमें क्या अशुभ देखते हैं?

राजा—बेटी! देवर्षि कहते हैं कि सत्यवान आदर्श पुरुष होने पर भी अल्पायु है-सत्यवान की आयु आज से ठीक एक वर्ष भर की है।

यह सुनकर सावित्री का कलेजा काँप गया। उसका चेहरा उतर गया। यह सोचकर सावित्री और भी व्याकुल हुई कि मेरे ही इस अमङ्गलमय भविष्य चित्र को देखकर राजा व्याकुल हुए हैं।

विकट परीक्षा है। राजकुमारी का आज का कथन भविष्य में स्त्रियों के सामने सोने के अक्षरों के रूप में बना रहेगा। देवर्षि सोचने लगे कि वेद-माता सावित्री की वरपुत्री, यह मद्रराज की बेटी, किस तरह सतीधर्म को निबाहेगी, कैसे इस भयंकर परीक्षा में उत्तीर्ण होगी।

सावित्री देवी ने आगे होनेवाली स्त्रियों के लिए गौरव-जनक आदर्श रखने के लिए ही इस बालिका को उत्पन्न किया है। वह इस [ ८२ ]राजकुमारी से ऐसा मुश्किल काम कैसे करावेगी? यह राजकुमारी ही नारीत्व और मातृत्व का उज्ज्वल आदर्श बनेगी—आज इस बालिका की बात ही उनकी आशारूपी लता की जड़ में कुल्हाड़ी का या अमृत की धार का काम करेगी, इत्यादि सोचकर देवर्षि का मन ऊबने लगा।

अश्वपति ने दुखी होकर कहा—मैं जान-बूझकर ऐसे थोड़ी उम्रवाले पुरुष के हाथ अपनी प्राण से प्यारी लड़की को नहीं सौंप सकता।

दोनों ओर संकट है! एक ओर पिता की आज्ञा को उल्लङ्घन करना और दूसरी ओर सतीत्व का त्याग! इस दुहरी चिन्ता से सावित्री विकल हो गई। स्त्री को सतीत्व के त्याग से बढ़कर असम्भव काम और कुछ नहीं है, यह सोचकर सावित्री बड़ी मुश्किल में पड़ी।

सावित्री ने कहा—बाबूजी! मैंने आपकी बात को कभी नहीं टाला, मैंने आपके सामने कभी अपनी अलग राय प्रकट नहीं की। किन्तु एक बड़े कर्त्तव्य-ज्ञान के चक्कर में पड़कर आज आपसे निवेदन करना पड़ता है कि आप जो कहते हैं उसे मैं मंजूर नहीं कर सकती। पिताजी! आपने ही मुझसे कहा है कि 'स्त्री का चाल-चलन तेज़ छुरी की धार पर है। एक ही को भजनेवाली स्त्री गङ्गा की धार के समान पवित्र है। हर एक नारी जगन्माता की प्रेम-सुधा में सनी भोली-भाली जननी है, संसार में नारी ही भगवान् की बढ़िया सामग्री है।' पिताजी! मैं क्या आप सरीखे आदर्श देवता की लड़की होकर, पतिव्रताओं में श्रेष्ठ मालवी देवी के गर्भ से पैदा होकर, नारी के ऊँचे अधिकार से ठगी जाऊँगी? क्या आप प्रेम की दृष्टि से अन्धे होकर मेरा इस प्रकार नीचे गिरना देख सकेंगे? [ ८३ ]

"सकृदंशो निपतति सकृत् कन्या प्रदीयते।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सकृत् सकृत्॥
दीर्घायुरथवाल्पायुः सगुणो निर्गुणोऽपि वा।
सकृद् वृतो मया भर्त्ता न द्वितीय वृणोम्यहम्॥
मनसा निश्चयं कृत्वा ततो वाचाभिधीयते।
क्रियते कर्म्मणा पश्चात् प्रमाण मे मनस्ततः॥"

अर्थात् हिस्सेदारी, कन्यादान और वाक्यदान ये तीनों एक ही बार होते हैं, इसमें फिर दुहराने की आवश्यकता नहीं रहती। दीर्घायु हो चाहे अल्पायु, गुणवान हो चाहे गुणहीन, जिसको एक बार पतिभाव से वरण कर चुकी, महाराज! फिर उसमें दूसरी बात होने की नहीं। जिसका अधिकार मेरे हृदय पर एक बार जम गया, वह किसी प्रकार हट नहीं सकता। किसी बात का निश्चय पहले मन ही से होता है, फिर पीछे से वह वचन द्वारा बाहर होता है; इसके बाद काम के ज़रिए किया जाता है। इसका सुबूत मेरा मन है। जिसको मैं अपना हृदय एक बार दे चुकी, उससे उस दी हुई वस्तु को लौटा लेना भयंकर अन्याय है। सतीत्व-धर्म का अपमान करना स्त्रियों के लिए भारी पाप है। सतीत्व-धर्म के आगे मैं अपने जीवन को भी तुच्छ समझती हूँ।

सावित्री की इन बातों को सुनकर देवर्षि का हृदय प्रसन्न हो गया। उन्होंने देखा कि बचपन से सुख-विलास में पली होने पर भी फूल सी सुकुमार सावित्री का हृदय कर्त्तव्य के लिए कठोर है; उन्होंने देखा कि सावित्री जीवन में आनेवाले अशुभ को गले से लगाने के लिए मुस्तैद है। सावित्री की उस स्वाभाविक कोमलता में ऐसी मज़बूती देखकर देवर्षि प्रसन्न हुए। वे समझ गये कि कोमल-बालिका एकनिष्ठा के बल से अशुभ के अन्धकार में शुभ की किरण पहुँचाकर स्त्रीत्व के इतिहास में एक नया युग ला देगी। [ ८४ ]मद्रराज, कुछ ही दिन में होनेवाले, सावित्री के अन्धकार से सने हुए रँडापे के जीवन को सोचकर चारों ओर अँधेरा देखने लगे। वे सोचने लगे कि इस आनन्द की मूर्ति बालिका को जान-बूझकर ऐसे दुःख के भयानक समुद्र में कैसे ढकेल दूँ। अन्त में उन्होंने कातर होकर कहा—बेटी सावित्री! मेरे स्नेह की सावित्री! ऐसे भयंकर संकल्प को छोड़ दो। मैं तुम्हारे हँसते हुए चेहरे को विषाद से मुरझाया हुआ नहीं देख सकता। मुझे वह शोकमय दृश्य मत दिखायो। फिर तुम्हारे लिए अभी तो वाग्दान भी नहीं हुआ है। लड़की बचपन में मा-बाप के अधीन है, इसलिए तुम किसी को मन नहीं सौंप सकती। तुम्हें तो वह अधिकार ही नहीं।

सावित्री ने कहा—पिताजी! मैं अबोध बालिका हूँ। मेरी बुद्धि ही कितनी सी है; इस विषय में कोई दावपेंच लड़ाने की शक्ति मुझमें नहीं। परन्तु एक निवेदन है कि आप लोगों की आज्ञा से ही तो मैंने पति को ढूँढ़ा है। मैंने जिनको हृदय का देवता मान लिया है वही मेरे जीवन के एकमात्र आधार हैं। चाहे उनकी उम्र थोड़ी हो चाहे बहुत, इसका विचार करना अब सती-धर्म के विरुद्ध है। पिताजी! क्षमा कीजिए, मुझे ऐसी आज्ञा न दीजिए। आप मेरे हृदय के देवता की आयु सिर्फ़ एक वर्ष की और बताते हैं; मैं कहती हूँ कि एक वर्ष तो बहुत अधिक है, यदि उनकी आयु एक ही दिन की हो तो भी उनके ऊपर से मेरा प्रेम घटाना मुश्किल है। पिताजी! यदि मैं अपने जीवन के देवता को इस जिंदगी में प्रेम देकर सुखी कर सकूँगी तो वे अवश्य ही मृत्यु के उस पार जाकर मेरे हृदय की भक्ति और अनन्य विश्वास पाकर तृप्त होंगे। प्रेम की पूजा ही स्त्री का श्रेष्ठ व्रत है। एकनिष्ठा स्त्री पवित्रता की बिना सूँघी हुई फूलमाला है। संसार की मामूली ज़िंदगी के मोह में पड़कर, क्या मैं मन चाहे पति की पूजा छोड़कर भ्रष्ट [ ८५ ]विलास का कुसुम बनूँगी? देखो बाबूजी! देवलोक में जिस फूल की शोभा है उसको भूमि की धूलि में लपेटकर मलिन करने की आज्ञा मत दीजिए। फिर यह भी देखिए कि कुछ मृत्यु ही तो जीवन का अन्त है नहीं। आपके ही मुँह से सुना है कि मृत्यु के बाद अमरलोक में स्त्री-पुरुष का वह मिलन होता है जिसका फिर वियोग ही नहीं। उस राज्य में न पाप है, न ताप है, और न वासना की तीक्ष्ण ज्वाला ही है। वहाँ निरी शान्ति है-केवल तृप्ति है। पिताजी! मेरे हृदय-देवता यदि एक वर्ष के बाद, इस पृथ्वी को त्यागकर, अमरलोक में चले जायँगे तो मैं अवश्य ही जीवन के अन्त में उन महापुरुष से जाकर मिलूँगी। पिता! इस बात का मुझे भरोसा है। उस पवित्र राज्य में विधाता की दाल नहीं गलती। उस राज्य में हम लोगों का विरह नहीं होगा। इसलिए मुझसे ऐसा न कहिए।

बेटी की बात सुनकर राजा अश्वपति सब समझ गये। उनके हृदय से खेद के बादल उड़ गये। कर्तव्यरूप सूर्य की किरणें पड़ने से उनका हृदय साफ़ हो गया। उन्होंने लड़की की इस निष्ठा पर प्रसन्न होकर कहा—बेटी! तुम मेरी तत्त्वज्ञानवाली और स्थिरबुद्धि की लड़की हो। दुनियावी ज़िन्दगी की दुःख-दुर्दशा सोचकर अब तुमसे मैं वैसा नहीं कहूँगा। बेटी! विषाद को छोड़ो। तुम्हारी वासना बहुत जल्द पूरी होगी।

अभी तक नारदजी चुपचाप बैठे-बैठे बाप-बेटी की बातचीत सुनते थे। सावित्री के पातिव्रत को और अश्वपति की उदारता को देखकर वे बहुत सन्तुष्ट हुए। उनकी करताल झनझना उठी मानो वह अपूर्व झंकार संसारी कोलाहल को त्यागकर संगीत से गूँजनेवाले देवलोक में जा पहुँची।

देवर्षि ने कहा—महाराज! आपकी इस सुन्दर कन्या की [ ८६ ]भीतरी सुन्दरता से यह पृथ्वी पवित्र होगी। मैं दिव्य दृष्टि से देखता हूँ कि आपकी यह कन्या पवित्रता की पुतली है। उसके पास अशुभ नहीं आ सकेगा। मद्रनरेश! जैसे सूर्य की किरण के पास अन्धकार नहीं आ सकता वैसेही इस अलौकिक सतीत्व की किरणों से शोभित देवी के पास कोई संसारी-कालिख नहीं आवेगी। और, यह पवित्रता-रूपी गङ्गा की धारा पर्वत के समान भारी बाधा को न मानकर शान्त, उदार और विशाल महासागर में ही मिलेगी।

यह कहकर देवर्षि ने सावित्री का प्रेम-पूर्वक सम्बोधन कर कहा---बेटी! मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे सतीत्व की शोभा बनी रहे और तुम भविष्य में स्त्रियों के लिए सुन्दर आदर्शरूप बनी रहो। वत्से! सनातन हिन्दू-धर्म के इतिहास में तुम्हारी कीर्तियुक्त कथा सोने के अक्षरों में लिखी रहेगी।

महर्षि प्रसन्न होकर वीणा बजाते हुए ब्रह्मलोक को चले गये। राजा अश्वपति ने लड़की को आदर से पास बिठाया। सभासद लोग सावित्री की एकनिष्ठा पर धन्य-धन्य करने लगे। राजा अश्वपति ने समय अधिक बीता जानकर दरबार उठने की आज्ञा दी। उस अपूर्व तेजवाली लड़की के साथ वे राज-महल को चले गये।

[ ६ ]

हारानी मालवी देवी आज दरबार उठने में इतनी देरी देखकर सोच में पड़ गई थीं। उन्होंने अचानक राजा और प्राण से प्यारी बेटी को सामने देखकर पूछा---महाराज! आज दरबार में इतनी देर क्यों हुई?

राजा---रानी! आज देवर्षि नारद दरबार में पधारे थे। उनसे सावित्री के ब्याह के बारे में बातचीत होती थी। इसी से इतनी देर हो गई। [ ८७ ]यह कहकर राजा रानी को सब बातें सुना गये। रानी ने हर्ष से सावित्री का मुँह चूमकर कहा---बेटी! तुम्हारे समान बेटी को पैदा कर मैं अपने को धन्य मानती हूँ। तुम्हारी वासना अधूरी नहीं रहेगी। तुम देवलोक की ब्रह्माणी के आशीर्वाद से उत्पन्न हुई हो। बेटा! तुम्हारे स्वर्गीय प्रेम की सुधा से पृथ्वी शीतल हो।

सावित्री सिर नवाये खड़ी रही। राजा ने मन ही मन कहा--मैं धन्य हूँ; देवी के समान पत्नी और पवित्रतारूपिणी बेटी की पवित्र दृष्टि से मैं धन्य हो गया।

राजा ने कहा---रानी! राजर्षि द्युमत्सेन इस समय वनवासी हैं। इससे वे इस समय राजसी ठाट-बाट से बेटे का ब्याह करने मद्रराज्य में नहीं आ सकेंगे। मैंने सोचा है कि कुछ सेवकों और प्रधान पुरोहितजी सहित राजर्षि द्युमत्सेन के आश्रम में मैं ही जाकर सावित्री का सत्यवान के हाथ में सौंप आऊँ।

रानी ने सम्मति दी। राजा अश्वपति सत्यवान से सावित्री का शुभ-विवाह करने के लिए वशिष्ठ-आश्रम में उपस्थित हुए।

राजर्षि धुमत्सेन ने राजा अश्वपति का आदर से स्वागत करके कहा---मद्रराज! आप कृपा करके मेरे आश्रम में पधारे हैं, इससे इस आश्रम का गौरव बढ़ा है। अभाग्य से मैं अन्धा हूँ। आपकी पवित्र मूर्ति मुझे नहीं दिखाई देती, किन्तु मैं भीतरी नेत्रों से आपकी सुन्दर मूर्ति को सदा देखा करता हूँ।

इसके बाद राजर्षि ने राज्य का कुशल-मङ्गल पूछकर कहा---आपकी लड़की उस दिन मेरे आश्रम में आई थी। वह स्त्री-रूप में साक्षात् देवी है। उसके शास्त्र-प्रेम और नम्र व्यवहार ने मुझे मोहित कर लिया है। मेरी स्त्री कहती है कि मनुष्य में इतनी सुन्दरता नहीं [ ८८ ]हो सकती। गुण में भी वह सरस्वती के समान है। मद्रराज! राज- कुमारी अच्छी तरह से तो है न?

यह सुनकर राजा ने हर्षपूर्वक कहा---आप लोगों की कृपा से राज्य में सब कुशल-मङ्गल है। मेरी लड़की भी भली-चङ्गी है।

इस प्रकार दोनों में बहुतसी बातें हुई। अन्त में राजा अश्वपति ने कहा---राजर्षि! कृपा कर मेरी उस कन्या को आप पुत्र-वधू रूप से ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कीजिए।

राजषि द्युमत्सेन ने कहा---मद्रराज! यह शुभ सम्बन्ध है और सब तरह से श्रेष्ठ है। किन्तु एक बात मैं बड़ी बेमेल देखता हूँ। न तो मेरे पास अब राज्य है और न धन। राजसी सुखों में पली हुई वह मनोहर बालिका वनवासिनी कैसे होगी?

राजा ने कहा---आपको उसकी चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी। इस थोड़ीसी उम्र में ही सावित्री ने जो कुछ सीखा है उसकी तुलना नहीं हो सकती। सुख-दुःख उसके आगे एक से ही हैं। वह दोनों को विधाता की रचना समझती है। मेरी लड़की निवृत्ति की मूर्ति है। राजर्षि! उसके शास्त्र-ज्ञान को देखकर मुझे स्वयं अचरज होता है। राज-महल में ऐश्वर्य के बीच पलकर भी मेरी लड़की व्रत करनेवाली योगिनी है। उसकी इस योग-साधना की जड़ में कौनसा शुभ उद्देश्य है सो हम थोड़ी अक्ल़वालों की समझ में नहीं आता।

राजर्षि ने कहा---महाराज! मैं एक ही दिन में सावित्री के गुणों को पहचान गया हूँ। मेरी स्त्री को सावित्री का रूप और गुण बहुत पसन्द है। किन्तु उस कोमल स्वभाववाली सरला बालिका के भविष्य-जीवन की याद करके मैं सम्मति नहीं दे सकता। राजन्! खिले हुए फूल में काँटा छेदना कौन चाहेगा?

यह सुनकर अश्वपति ने कहा---राजर्षि! मैं तो पहले ही कह [ ८९ ]चुका हूँ कि मेरी लड़की ऐश्वर्य में रहकर भी योगिनी है। वह जान-बूझकर राजसी सुखों से दूर रहना चाहती है। और आपका अभाग कैसे है? संसारी धन से क्या हृदय का धन क़ीमती नहीं है! जब आप का हृदय ब्रह्मानन्द से भरा हुआ है तब आपको धन की क्या कमी है? हे ब्रह्मज्ञानी! भ्रम के गाढ़े अँधेरे में बिना ठौरवाले मुझको भटकाइए मत। आपका हृदय देवता का सिंहासन है और मेरा हृदय कामना का छोटा-सा कोठा। फिर भी आपसे निवेदन है कि बुरे स्थान में उत्पन्न होने से क्या लोग मणि का अनादर करते हैं? या कीचड़ में उगने के कारण कोई कमल से घृणा करता है? मेरी सुशील कन्या आपकी योग्य पुत्र-वधू होगी और हे राजर्षि! वह आपके भाग्यवान पुत्र सत्यवान को चाहती भी है।

यह सुनकर राजर्षि द्युमत्सेन के हृदय में आशा की नई किरणें जगमगा उठी। मानो वे उस भावी पुत्र-वधू की देवी जैसी मूत्ति को प्रेम की दृष्टि से देखने लगे। मद्रराज की अनोखी दीनता और शिष्टाचार से खूब सन्तुष्ट होकर राजर्षि अब नाहीं न कर सके।

इस प्रकार आपस की बातचीत हो लेने पर राजा अश्वपति ने कहा---राजर्षि! मैं और एक बात कहना भूल गया। मेरी इच्छा है कि मेरी आदर्श लड़की का यह आदर्श मिलन इस पवित्र पुण्य-तीर्थ तपोवन में ही हो, क्योंकि गङ्गा की धारा आप ही जाकर महासागर को आत्मसमर्पण करती है।

राजा धुमत्सेन ने बहुत सोच-विचारकर सब मंजूर कर लिया।

[७]

राजा अश्वपति सावित्री के साथ सत्यवान का ब्याह कर देने के लिए वशिष्टाश्रम में गये। राजमहल में व्याह होने पर जैसी धूमधाम होती वैसी धूमधाम से तो राजा अश्वपति, मुनि के आश्रम में, शान्ति[ ९० ]भङ्ग होने के डर से तपोवन में गये नहीं, फिर भी मद्रराज की प्रजा के आग्रह से तपोवन की यात्रा बहुत मामूली भी नहीं हुई। राजकन्या सावित्री का ब्याह है, प्रजा सावित्री को बहुत प्यार करती है। इसलिए राजा की इच्छा न होने पर भी पुरवासी लोग राजकुमारी के ब्याह में राजा से पहले ही वशिष्ठाश्रम में पहुँच गये।

अश्वपति ने शुभ मुहूर्त में ऋषि-वेषधारी सत्यवान के हाथ में सावित्री का दान किया। उस कन्यादान के दिन अनेक प्रकार का और भी दान हुआ। राजा ने विद्यार्थी ऋषि-कुमारों को राजसी ढंग का पक्कान्न, और ऋषि-पत्नियों तथा ऋषि-बालकों को क़ीमती वस्त्र और आभूषण दान किये। नगर-वासिनी स्त्रियों ने मुनि-कुमारों और ऋषि-पत्नियों को वस्त्रों तथा अलङ्कारों से सजा दिया। उन लोगों की पवित्र देहों में सिंगार-पटार बड़ी शोभा देने लगा। आश्रमवासी मुनि लोग राजा के इस कन्यादान-सम्बन्धी दान से बहुत सन्तुष्ट होकर दोनों हाथों से दूलह-दुलहन को आशीर्वाद देने लगे।

राजा अश्वपति कुछ दिन वहीं रहे, फिर वे तपोवन-वासी मुनियों को दण्डवत् करके डबडबाई हुई आँखों से बेटी और दामाद के पास से बिदा हुए। मुनि लोग राजा के नम्र व्यवहार से सन्तुष्ट होकर आशीर्वाद देने लगे। जब मद्रराज तपोवन से बिदा हो गये तब वह तपोवन सूना सा मालूम होने लगा।

माता-पिता के विरह से व्याकुल होकर भी सावित्री अपना कर्तव्य नहीं भूली। राजकुमारी सावित्री ने सोचा कि अब मैं ऋषि की पत्नी हूँ इसलिए मुझे राजसी वस्त्र और अलंकारों की क्या ज़रूरत है? इसलिए उसने पिता के दिये हुए वस्त्रों और आभूषणों को उतारकर ऋषि-पत्नियों के योग्य गेरुए वस्त्र पहन लिये। सत्यवान की माता शैव्या देवी, नई बहू के सिंगार-पिटार में इस प्रकार तबदीली देखकर, एक ओर [ ९१ ]तो बहुत दुखित हुई और दूसरी ओर जन्म से राजमहल में पली हुई सावित्री का इस प्रकार आत्मत्याग देखकर अानन्द के आँसू बहाने लगी।

सावित्री सबेरे उठकर घर का सब काम-काज करती थी। उसकी तत्परता से कुटी के द्वार साफ़-सुथरे, आँगन झक-फक और सारा तपोवन सजा हुआ सा रहने लगा। सावित्री ने धरती पर गिरी हुई लताओं को वृक्षों की डालियों से बाँध दिया और वह सुबह-शाम उनको जल से सींचने लगी। सारांश यह कि सावित्री के ऐसे अनुराग से थोड़े ही दिनों में तपोवन की अपूर्व शोभा और भी बढ़ गई।

तपोवन में रहनेवालों ने देखा कि राजकुमारी सावित्री मानो साधना की पवित्रमूर्ति है। हर बात में सिद्धि तो उसकी बाट सी देखती रहती है। सावित्री की सेवा से गाय और अधिक दूध देने लगी। बछड़ा भी थन से अधिक दूध पीकर फुर्तीला हो गया। द्युमत्सेन और उनकी स्त्री ने सावित्री देवी की परिचर्या से नया बल पाया। एक उम्र की ऋषि-पत्नियाँ सावित्री से बहनपा जोड़कर प्रसन्न हुईं। मुनियों ने सावित्री के अपूर्व शास्त्र-ज्ञान और धर्मप्रेम को देखकर समझा कि वह कोई मामूली स्त्री नहीं है। सावित्री अब सत्यवान की रसीली संगिनी, सास-ससुर की भक्ति करनेवाली दासी, ऋषि-पत्नियों की हँसमुखी सखी, मुनि-कुमारों की प्रेम-मयी धाई, तपोवन की लताओं और वृक्षों के लिए साक्षात् वसन्त ऋतु, जंगली पशु-पक्षियों के लिए करुणा और अतिथि असहाय जनों की स्नेह से पसीजनेवाली माता है। ऐसी सावित्री को, बहू के रूप में, पाकर अन्धे राजा धुमत्सेन और उनकी पत्नी सोचतीं कि सावित्री हमलोगों को, इस दीन दुर्दशा में, विधाता का एकमात्र स्नेह से भरा आशीर्वाद है।

इस प्रकार, सावित्री ने तपोवन में एक प्रेम के राज्य को जमाया। उस राज्य का राजा सत्यवान है, अन्धे ससुर और सास उस राज्य [ ९२ ]के देवी-देवता हैं और वह भक्ति तथा प्रीति करनेवाली सावित्री उस नये राज्य की स्नेह-कोमल रानी है, जो दोनों हाथों से कल्याण और ममता बाँट रही है।

रास्ते में, पहली मुलाकात के पवित्र मुहूर्त्त में, सत्यवान ने सावित्री के जिस अनुपम रूप को देखा था, देखा कि वह रूप यौवन का निरा विकास ही नहीं है, बरन सावित्री की भीतरी सुन्दरता ने ही बाहरी रूप को इतना अधिक उज्ज्वल बना दिया है। सत्यवान सावित्री जैसी पत्नी को पाकर हृदय में मानो दूना बल पा गया। शास्त्र कहता है कि साध्वी पत्नी स्वामी के हृदय का बल है; ममता का जीता-जागता चित्र है और वह सौभाग्य की दूती है। राजकुमारी सावित्री के पवित्र प्रेम से सत्यवान शान्त वन की भूमि में नवीन प्रेम-राज्य देखने लगा। उसने देखा कि इस आश्रम की स्वाभाविक शोभा सावित्री के रूप से खूब मधुर हो गई है। राजकुमारी सावित्री की प्रेमरूपी भेंट पाकर सत्यवान के हृदय में

नया बल आ गया। सत्यवान ने सोचा कि मैंने पूर्व जन्म में कितना सुकर्म किया है जिसके फल में सावित्री की सी सुन्दर पत्नी मिली है। सत्यवान सोचता कि बचपन से ही भोग-विलास में पली हुई सावित्री मेरे जीवन की संगिनी होकर पुरानी आदत के अनुसार भोग-विलास की चीज़ें ढूँढ़ेगी, किन्तु अब उसने देखा कि सावित्री तो प्रेम से सने हुए हृदयवाली वनवासिनी योगिनी है। सत्यवान ने सोचा कि इतने दिन तपस्वियों के सत्संग में रहने पर भी मैं जिस बात को नहीं सीख पाया उसी को राजकन्या सावित्री ने राजमहल के भीतर ही सीख लिया है। तपोवन की शान्त शीतल शोभा में मैंने जो वस्तु नहीं पाई उस वस्तु को सावित्री राजमहल में ही पा गई है; अब समझ में आया कि हृदय की वस्तु केवल तपोवन ही में नहीं है। उसे प्राप्त करने के लिए पहले हृदय को उसके योग्य बनाना पड़ता है। सत्यवान [ चित्र ]
सत्यवान—सावित्री! उस वन के रास्ते में, पवित्र मुहूर्त्त में, तुमने इस अभागी को प्रेम की नज़र से क्यों देखा था?—पृ॰ ९३

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग। [ ९३ ]ने मन ही मन कहा कि विधाता ने मुझे कुछ और सिखाने के लिए सावित्री को मेरे हाथ सौंपा है। सावित्री, विधाता का दिया हुआ, स्त्री-रूपी एक रत्न है।

एक दिन सत्यवान ने एकान्त में सावित्री को देखा। नीले आकाश के नीचे, नदी किनारे, दोनों एक शिला पर बैठ गये, सत्यवान ने सावित्री का कोमल हाथ पकड़कर कहा---हे दरिद्र का धन, सावित्री! जब अपनी गरीबी की काली छाया में तुम्हारे प्रसन्न मुख को म्लान देखता हूँ और जब आश्रम के धूल-धक्कड़ से तुम्हारे केशों को मलिन देखता हूँ तब मैं मन में सोचता हूँ कि तुमने मुझे वर कर अच्छा नहीं किया। खुशबूदार फूल देवता ही के गले में शोभा पाता है। यह कौस्तुभमणि दरिद्रता से ग्रसे अभागे के गले में क्योंकर शोभा पालेगा? सावित्री! उस वन के रास्ते में, पवित्र मुहूर्त्त में, तुमने इस अभागे को प्रेम की नज़र से क्यों देखा था?

सावित्री ने अनखाकर कहा---नाथ! स्त्री के हृदय को पुरुष नहीं समझ सकते। रमणी के हृदय में तो वासना की, विश्व को भी ग्रसनेवाली, ज्वाला नहीं है। स्त्री विश्वास से भरी हुई पवित्रता है। वह विधाता की मर्जी से पवित्र-हृदयवाले पुरुष के हृदय में मिल जाती है। हे पुरुषों में श्रेष्ठ! आपके हृदय में मेरे हृदय के देवता ने आनन्द का एक बाग देखा था, इसी से वह आपको पाकर तृप्त हो गया, उसकी कामना पूरी हो गई। नाथ! आप ऐसी कठोर बात कहकर मेरा जी क्यों दुखाते हैं? प्रेम कुछ धन-दौलत नहीं चाहता, वह तो सुध-बुध भुलानेवाले प्यार को चाहता है। दो हृदयों को ऐसे बन्धन में बाँध देना ही उसका मुख्य काम है कि जो कभी न टूटे। आर्यपुत्र! आप पण्डित हैं, आपने शास्त्रों को पढ़ा है और मैं बिना पढ़ी-लिखी हूँ। भला आपको प्रेम की महिमा मैं क्या समझाऊँगी? मैं आपको [ ९४ ]पाकर संसार की और किसी भी चीज़ की परवा नहीं करती। आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष को पाने से मुझे धन की बिलकुल कमी नहीं है। स्वामी के चित्त को रिझाने ही के लिए स्त्री के सिंगार-पटार की ज़रूरत होती है। आप जब मुझको इतना अधिक प्यार करते हैं, तब मुझे सिंगार-पटार करने की कोई ज़रूरत नहीं। पृथ्वी के जल से प्रेम की प्यास नहीं बुझती। स्वर्ग के अमृत की बूँद को पीने से ही वह प्यास बुझती है। आकाश को चूमनेवाले बड़े ऊँचे-ऊँचे राजमहल में शान्ति नहीं है; शान्ति है संसार के बाहर, लोगों की भीड़ से दूर---जन-विहीन तपोवन में। नाथ! आपके इस सुन्दर मुख को देखकर ही मेरे हृदय की प्यास बुझ गई है। आपका पवित्र संग मेरे लिए राजसुख है। आपका प्रेम से पवित्र हृदय ही मेरे लिए बढ़िया राजसी पलँग है। मुझे कमी किस बात की है? आप जिन फूलों को बड़ी हिफ़ाज़त से मेरे लिए ले आते हैं वे फूल ही मेरे लिए जड़ाऊ ज़ेवर हैं। आप के दिये हुए देवताओं के जूठे फल-मूल ही मेरे लिए राजभोग हैं। आपकी मीठी वाणी मेरे लिए अमृत से भी बढ़कर है। आपके ऐसे ऊँचे हृदयवाले स्वामी को पाकर मैं इन्द्राणी से भी अपने को अधिक भाग्यवान् समझती हूँ।

सावित्री के मुँह से ऐसे मधुर वचन सुन सत्यवान ने उससे प्रेमपूर्वक कहा---सावित्री! क्षमा करो। मैं फिर कभी तुमसे ऐसी बात नहीं कहूँगा।

इस प्रकार आदर और मान से सावित्री के दिन बीतने लगे। सावित्री अपने हृदय की व्यथा को हृदय में ही दबाकर प्रसन्न मुख से सब काम करने लगी।

वसन्त का समय है। वसन्ती शोभा से प्रकृति की खिलवाड़ का बाग़ सुरीले कण्ठवाले पक्षियों की तान से गूँज रहा है। मंजरियाँ वसन्त के सुहावने स्पर्श से खिल गई हैं। जहाँ देखो वहाँ वसन्त ही