आदर्श हिंदू १/१० बंदर चौबे और उनकी गृहिणी

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प्रकरण―१०

बंदर चौबे और उनकी गृहिणी।

गत प्रकरण में लिखी हुई विश्रांत घाट की घटना के अनंतर खाने पीने से छुट्टी पाकर जब हमारे यात्रियों को विश्राम पाने का अवसर मिला तब इन्हें इस बात पर अपनी अपनी राय देना सूझ पड़ा। एक ने कहा-"मैं तो मर ही चुकी थी। मरने में कसर ही क्या थी?"-दूसरा बोला―"जब धक्का खाकर मैं धरती पर पड़ा तो सैकड़ों आदमी मुझे कुचलते हुए इधर से उधर और उधर से इधर निकल गए। अभी नसीब में―बुढ़ापे में फिर कुछ दुःख सुख देखना बदा है बस इसी लिये भगवान ने बचाया।" तीसरा बोली―"मेरे ऊपर तो एक नहीं तीन―आपदा पर आपदा―तीन बार आपदा आई। इससे तो निपूता कछुआ ही खैंच ले जाता तो आज इतनी फजीती तो न होती। लाज के मारे मरी सो तो मरी ही परंतु फिर जान पर आ बनी। यह देखो मेरा शरीर जगह जगह से छिल गया है। यदि यह (अपने पति की ओर इशारा करके) मुझे न थाम लेते तो मेरा अवश्य चकना चूर हो जाता।" चौथा और पाँचवाँ दोनों एक साथ बोल उठे―"हम अपनी क्या कहैं जब इनकी ही ऐसी दुर्दशा हुई तो हम बिचारे किस गिनती में, परंतु हाँ। आज की कसम उमर भर याद [ ९१ ]रहेगी। बुढ़ापे में सालेगी।" तब पंडित जी कहने लगे― "बेशक आज एक न एक की अवश्य मौत हो जाती। भगवान ने ही बचाया। मेरा शरीर भी बिलकुल जर्जर हो गया है। यदि मैं थोड़ा भी कड़ा न पड़ जाऊँ, यदि मैं लातों और घूँसों से उस भीड़ को न हटाऊँ तो आज मेरा बदन कौड़ियों का थैला हो जाता। आज मरने में कसर नहीं थी।" इस तरह सब की रिपोर्ट पेश हो जाने के साथ ही सब ही की सेक पट्टी की गई। भोला कहार अवश्य ही इस मार पीट से; इस खैंच तान से बच गया था क्योंकि जिस समय घाट पर धक्का मुक्की होने लगी यह भाग कर डेरे पर चला आया था। यहाँ आकर पहले वह खूब सोया और फिर मालिक मालिकिन के आने से पहले ही बाज़ार की सैर देखने और खाने पीने चला गया था।

रात्रि के आठ बजे खा पीकर पेट पर हाथ फेरता और लंबी लंबी डकारें लेता जब वह वापिस आया तो उसकी सूरत देखते ही पंडित जी का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने गुस्से में आकर उसके थप्पड़ भी जमाए परंतु–"नौकर को मारना अच्छा नहीं। वह सामने हो जावे तो अपनी बात बिगड़ जाय।" कह कर प्रियंवदा ने उसे बचा दिया। सब के सब थके माँदे तो थे ही सेक पट्टी से विश्राम मिलने पर सो गए तो पति के चरण चाँपते समय प्रियंवदा को प्राणनाथ से इस तरह बातें होने लगीं― [ ९२ ]"क्यों अब तो यात्रा करने से पेट भर गया ना? अब भी समय है। घर लौट चलें तो कैसा?"

"हाँ! अब तो मैं घबड़ा उठी। क्या आज की सी दुर्दशा हर एक तीर्थ पर होगी? यदि ऐसा ही है तो लौट चलना ही अच्छा है।"

"ऐसी ही! इससे भी बढ़कर! यहाँ तो केवल इतने ही मैं पिंड छूट गया किंतु और जगह ठग मिलेंगे, उठाईगीरे मिलेंगे, जेबतराश मिलेंगे। खून हो पड़ता है। व्यभिचार हो सकता है। भेड़ की खाल में भेड़िये बनकर साधु मिलते हैं और ऐसे ही लोगों की, नहीं नहीं! नराधमों की, राक्षसों की, बदौलत जो तीर्थ का एक दिन भगवान के दर्शन होने के लिये खुला हुआ मार्ग था, जहाँ ऋषि महर्षि इकट्ठे होकर उपदेश से लोगों का उद्धार करते थे, जो मोक्ष प्राप्ति का एक मुख्य साधन था वह अब बदमाशों का, हाय मैं अपनी जबान से क्या कहूँ?, एक अड्डा बनता जाता है।"

"तब तो इसमें तीर्थों का दोष नहीं है, मंदिर वेही, क्षेत्र वेही हैं और धाम वेही किंतु उस समय के से मनुष्य नहीं हैं। दुनिया झुकती है झुकानेवाला चाहिए। यदि आप उद्योग करेंगे तो शायद लोग कुछ कुछ ठिकाने आ सकते हैं।"

"केवल मेरे ही प्रयत्न से क्या हो सकता है? समुद्र में एक बूँद! परंतु फिर भी लोगों को असली स्वरूप दिखला देना चाहिए। इसीलिये यह यात्रा है।" [ ९३ ]"केवल इसीलिये नहीं। यह तो कर्तव्य है ही और अवश्य कीजिए परंतु जब आप गया श्राद्ध के लिये निकले हैं तब हज़ार संकट पड़ेने पर भी इस काम को श्रद्धा के साथ कीजिए। इसमें धर्म को धर्म और कर्म का कर्म दोनों हैं।"

"करेंगे तो श्रद्धा के साथ ही किंतु ऐसे दुष्ठों के आगे कहीं श्रद्धा का खून न हो जाय, भय इतना ही है।"

"जब आप जैसे दृढ़ संकल्प काम करने चले हैं पार ही उतरेंगे।"

"हाँ! परमेश्वर का भरोसा तो ऐसा ही है और इस प्रकार के कष्टों से बचने का उपाय भी सोच लिया है। इससे थोड़ा खर्च अधिक होगा। साथ उसी ब्राह्मण को ले चलेंने। अच्छा कर्मकांडी है। पंडों का हक पंडों को मिल जायगा। बस इतना ही बहुत है।"

"हाँ! बिचार तो ठीक है। परंतु क्यों जी आज कराहते क्यों हो? क्या डील कलकत्ता है? हाय मेरे प्राण बचाने में तुम्हारी यह दशा हुई! मुझे मरने ही दिया होता तो कौन सी दुनियाँ सूनी हो जाती! औरत पैर की जूती है। एक टूटी और दूसरी पहन ली!"

"जूती नहीं अर्द्धांगिनी! तेरे बिना आधा अंग रह जाता! लकवा मार जाता! और (कुछ मुसकुरा कर) 'कर्म का कर्म' कैसे होता?"

"क्यों फिर मसखरी! (आँखों ही आँखों में हँसते हुए) [ ९४ ]दूसरी शादी कर लेते! पर क्यों जी? मर्दों को इतनी स्वतंत्रता क्यों बिचारी औरतों ने शास्त्र बनानेवालों का क्या बाप मारा था?"

"नहीं! मुझे दूसरी शादी नहीं चाहिये। परमेश्वर करे तू प्रसन्न रहे। मैं इसी में प्रसन्न हूँ!"

"अच्छा! परंतु मेरे सवाल का जवाब क्यों नहीं दिया?"

"खैर! तब न सही तो अब सही! अब तो स्त्रियों को एक नहीं अनेक पति करने का अधिकार है ना? एक मरा और दूसरा! दूसरा मरा और तीसरा! और पति के जीते जी भी दूसरा कर ले तो क्या हर्ज है? कुम्हार की हंड़िया की तरह! क्यों तुझे भी यह बात पसंद है ना?"

"गाज पड़े (कुछ रूठ कर) इस पसंद पर! मुझ से ऐसी बातें मत करो। मेरी भुआजी ने ताऊजी को ("सुशीला विधवा" में) इसका ऐसा बढ़िया जवाब दे दिया कि उन्हें हार कर कायल हो जाना पड़ा। क्षमा करो। मैं ऐसी बातें सुनना भी नहीं चाहती।"

"हाँ! वेशक जवाब तो खूब दाँत तोड़ दिया परंतु मुझ से तेरे संताल भी तो नहीं होती।"

"आग लगे ऐसी संतान के! ऐसे बेटे बेटी से मैं बाँझ ही अच्छी हूँ। क्या बेटे बेटी के लिये मैं कसब कमाती फिरूँ?"

"नहीं! कसब नहीं! दूसरा विवाह!" [ ९५ ]"वह विवाह नहीं मेरी समझ में तो व्यभिचार है। जो हिंदू समाज में विधवा विवाह अथवा तलाक का प्रचार करना चाहते हैं वे दंपति के प्रेम पर, जन्म जन्मांतर के साथ पर, पवित्र सतीत्व पर और यों हिंदू धर्म पर वज्र मारना चाहते हैं। यदि भगवान न करें, ऐसी प्रथा चल पड़े तो अनेक नारियाँ दुसरा खसम करने के लिये अपने पति को जहर दे देंगी। पति पत्नी के सैकड़ों मुकदमे अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगेंगे और आज कल का हिंदू समाज, हिंदू समाज न रहेगा। पति पत्नी का अलौकिक प्रेम नष्ट भ्रष्ट हो जायगा। इस गए बीते जमाने में भी हिंदू समाज ही एक ऐसा समाज है जिस में हज़ार रोकने पर भी ऐसी सतियाँ निकलतीं हैं जो पति का परलोक होते ही दूसरे के पलंग पर चढ़ने के बदले प्राणनाथ की चिता पर जल मरने में अपना गौरव समझती हैं और यदि समय उन्हें रोके तो मेरी भुआ की तरह अजीवन विधवा धर्म का पालन करता हैं। लाख तलाक देने वाली और करोड़ दूसरा खसम करने वाली से ऐसी एक ही अच्छी है। ऐसे ही रमणी रत्नों से समाज का मुख उज्वल है।"

"हाँ! सत्य है! यथार्थ है! वेशक ऐसा ही चाहिए! परंतु आज तो बड़ा भारी लेकचर फटकार डाला। वाह पंडित जी! शाबाश!"

"पंडित जी नहीं! पंडितायिन! पर इस शाबाशी का इनाम? कुछ इनाम भी तो मिलना चाहिए!!" [ ९६ ]"इनाम क्या? यह शरीर हाजिर है! यह मन हाजिर है और सर्चस्व हाजिर है;!"

"मह तो मेरा है ही! मैंने अपना देकर अपना लिया।"

"हाँ! बेशक! एक बार दासी बन कर तैंने जन्म भर के लिये मुझे अपना दास बना लिया।"

"केवला जन्म भर से ही छुटकारा न होगा। जन्मजन्मां- तर के लिये! अनेक जन्मों के लिये! 'जेहिं जोनि जन्महुँ कर्म वश तहँ राम पद अनुरागहूँ!' परंतु आप को दास नहीं बनाया है। अपना स्वामी! प्राणनाथ! हृदयेश्वर! जींवन सर्मस्व!"

"भगवान इसका निर्वाह करे!"

"अवश्य निर्वाह करेगा। भरोसा है, करेगा।

"हाँ करेगा। करना ही चाहिए।" कहते कहते दोनों को निद्रा देवी ने धर दबाया। दिन के थके माँदे तो थे ही। पड़ते ही नींद आ गई और ऐसी निद्रा आई कि जब तक बंदर चौबे की कागावासी छनने का समय न आया ये दोनों गहरी नींद में खूब खर्राटे भरते रहे।

भोर ही उठ कर बंदर चौबे ने सिलौदी सँभाली। उस पर भंग, मिरच, सौंफ, बादाम, और मसाला डालकर पीसना आरंभ किया। वह भंग भवानी की आराधना में, खूब लड़ा लड़ा कर, सिलौटी के राग में अपनी तान मिला कर इस तरह

गाने लगा― [ ९७ ]

"भंग रंग में चंग सदा दुख द्वंद्व दूर हो जाते हैं।
सात द्वीप नव खंड तमाशा पलंग पड़े दरसाते हैं॥
ब्रह्मा, रुद्र, विष्णू, गणेश, देवी का ध्यान लगाते हैं।
विजया माता बल प्रताप तें फूले नहीं समाते हैं॥
भोजन कूँ अति रुचि बाढ़त हैं, नींद मस्त सो जाते हैं।
इसी नशे के बीच यार हम ब्रह्म लोक दिख आते हैं॥
जो विजया की निंदा करते, नरक बास सो पाते हैं।
गोपी* भोग मोक्ष की दाता पातक सकल नसाते हैं॥

गंग भंग दोउ बहन हैं रहतीं शिव के संग।
तरन तारनी गंग है लडुआ खानी भंग॥

कहैं भवानी सुन बंभोले विजया मत देव गँवारन को।
बालक पी खिल खिल्ल हँसे अरु वृद्ध पियें झख मारन को॥
ज्वान पियें सौ वर्ष जियें सेर दो एक नाज विगारन को।
सौभाग्यवती पिये संग पती रति लाभ, अकाज सुधारन को॥
वृद्धा जो पिये गृद्धा सी लगै श्रद्धा विश्वास विगारन को।
पुरुषोत्तम † हरि नाम बड़ो भवसागर पार उतारन को॥

जब ऐसे ऐसे अनेक भजन वह गा चुका तब उसने पीस छान कर रंग लगा लिया। जब भंग की छूँछ हाथ में लेकर यह "लेना हो! लेना वे……"की आवाज मार चुका तब उसने-"घोटे छाने और रंग लगावैं और तो भी साले भँगड़ी


  • पंडित गोपीनाथ जी (फतेसिंह जी) रचित

†पंडित पुरुषोत्तमलालजी रचित [ ९८ ]बतावँ–"का एक आवाज फेंका दोनों के दोनों एक दम जाग उठे। जागते ही पंडित जी बोले―

"जैसा मनुष्य का मन ऐसे दुर्व्यसनों में लगता है, जैसा अभी यह अपना मन भंग पीसने में लागकर सिल लोढ़ी की तान और अपने राग में तल्लीन हो गया था और इस समय सभा बँधकर इसे दीन दुनियाँ की सुधी नहीं रहीं वैसे ही मनुष्य भगवान में मन लगावे तो उद्धार होने में संदेह ही क्या? महा- त्मा कबीर जी ने ठीक कहा है―

'मनका फेरत जग मुआ गया न मन का फेर,
कर का मनका छाँड कर मन का मनका फेर।'

हजार बर्ष तक माला फेरने से क्या? समस्त जप तप से, जन्म भर खाक रमाने का, माला फेरते फेरते मनका घिस डालने का परिणाम यही। यदि एक मिनट भी इस तरह परमेश्वर के चरणों में अपना मन लीन होकर अपनी सुधि बुद्धि जाती रहे तो होगया काम! सब जप और तप, तीर्थ और पूजा, सब ही इसके साधन हैं। भगवान् दत्तावेय जी के गुरू कंडारे की तरह यदि अपने काम में मग्न होकर उसे राजा की सवारी की खबर न रहे, यदि उसके कान बाजे बाजे की आवाज तक न सुनें तो बस समझ लो कि काम हो गया।"

"हाँ सत्य है! भक्ति और पातिव्रत एक ही से हैं। पूजा और तीर्थ उसके उपाय है। केवल अनन्यता चाहिए।" [ ९९ ]"अनन्यता ही भक्ति का फाटक है। परंतु चाहिए अनन्यता।"

"अनन्यत अभ्यास से आती है।"

"बेशक!" कहकर ज्यों ही पंडित जी ने प्रातःस्मरण आरंभ किया और ज्यों ही प्रियंवदा प्राणनाथ के चरण धोने लगी एकाएक इनके कानों पर "हैं! ससुरी! और अरे निपूते" की आवाज आई। "हैं! हैं! क्या मामला है!" कहकर दोनों के कान खड़े हो गए। इन्होंने इस तरह सुना―

"खाने की बिरियाँ तो पाँच सेर चाहिए। एक हूँ रोटी कमती दई तो तू लातों से ख़बर लेबे कूँ तैयार और काम की विरियाँ निगोड़ी आँख दिखावै है? तू जजमान के पास जाकर वाकूँ राजी नहीं करैगो तो खायगो कहाँ? पथरा! कहा तेरे बदले मैं जाऊँगी? तू ओढ़नी ओढ़ कर घर में पड़ो रहै तो यह हूँ सही!

"सबेरे ही सबेरे लगाई किटकिट! राँड हत्यारी! नहीं जासैंगे। लेरे कहा बाप के नौकर हैं जो तेरे कहवे ते जामैं? , हमारी मौज है गए। मौज आई न गए! तू लँहगो पहन या पगड़ी पहन! आज हम न जामैंगे। तेरी जिह पर न जामैंगे। तू तो कहा तेरो बाप हूँ सुरग तें उतर आवै तो न जामैंगे। हम न जामैंगे तू हमारो कहा करैगी? बोल कहा करैगी? हम कहा तेरे गुलाम हैं? जो सदा तेरो ही कह्यो कियो करैं?" [ १०० ]"है! मेरे बाप के सामने? मैं कहा करूँगी? मैं झाडू मार कर निकास दूँगी।"

"अच्छा मार! देखैं कैसे मारे है?" कहकर इधर चौबे जी ने सोटा टटोला और उधर चौबायिन ने झाडू। सोटा मिला नहीं। चौबायिन बड़ी होशियार थी। वह जानती थी कि "निपूता कहीं सिर न फोड़ डाले।" इसलिये जब पति से लड़ने को चली उसने लट्ठ पहले ही से छिपा दिया था किंतु प्रातः काल का समय था। घर में बुहारी देने के लिये झाडू उसके पास था। बस उसी से एक दो नहीं पाँच सात जमा दी। झाडू की मार खाकर धूल झाड़ते हुए चौबेजी उठे और-"अच्छा भागवान् जामैंगे!" कहते कहते खड़े होकर उसके आगे हो गए। आगे उस तरह नहीं हुए जैसे विवाह के समय भाँवरी फिरती बार आगे होते हैं, किंतु मार के मारे आगे हुए और मन ही मन चौबायिन को कोसते हुए इन्होंने पंडित प्रियानाथ के सामने खड़े होकर―"जय जमुना मैया की!" जा की……।" "ओ हो! आज प्रातःस्मरण में बहुत विघ्न पड़े!" कहकर ज्यों ही पंडित जी की पंडितायिन से चार नजरें हुईं चौबेजी की पूजा को याद करके दोनों आँखों ही आँखों में हँसे। हँसते हँसते पंडित जी बोले―"आइए चौबेजी महाराज! आपका मिजाज तो अच्छा है?"―"हाँ! जजमान अच्छो ही है।" कहकर चौबेजी बैठे और जब पंडितायिन की हँसी न रुक सकी तब वह वहाँ से भागकर अपने देवर के पास जा [ १०१ ]बातें करने लगी। चौबे भी निरा गँवार ही नहीं था। इन दोनों की हँसी को ताड़ गया। उसे कुछ क्रोध भी आया और थोड़ा शर्माया भी सही। वह बोला―

"जजमान, ये तो घर के धंदे हैं! यूँही भयो करैं हैं। घर घर माटी के चूल्हा हैं।" पंडित जी ने-"हाँ? बेशक!" कहकर इस कथा को समाप्त कर दिया।



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