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आदर्श हिंदू १/१२ सुखदा की सहेली

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आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १११ से – ११७ तक

 
 

प्रकरण―१२

सुखदा की सहेली।

गत प्रकरण में सुखदा ने पाँच लुटेरों में से सहेली मथुरा के आदमी को पहचाना सो ठीक ही पहचाना था। मथुरा द्वारका की विवाहिता पत्नी नहीं थी। दोनों की जात भी एक न थी। बेशक द्वारका जात का मीना था और लूट खसोट ही उसका पेशा था किंतु मथुरा की जात पाँत का कुछ ठिकाना नहीं था। उसे कोई कुछ बतलाता था और कोई कुछ। हाँ इतना अवश्य था कि जब उसने द्वारका को अपना खसम बनाया तब उमर अट्ठाईस वर्ष की थी और इससे पहले वह पाँच छः जनों के घर में बैठ चुकी थी। अब तो उसे भली ही कहना चाहिए क्योंकि जब से बहनाते अथवा धरेजे की प्रथा के अनुसार द्वारका के घर में घुसी उसने पति बदलौवल का इरादा बिलकुल न किया और इसी लिये मथुरा की जवानी का उत्तरार्द्ध, बुढ़ापा द्वारका के यहाँ कट गया। कट गया और अच्छी तरह कट गया। यहाँ आने के बाद उसके व्यभिचार की कभी किसी ने शिकायत नहीं सुनी। बस यही कारण हुआ कि उसे अपने पड़ोस में पंडित कांता- नाथ ने रहने दिया।

उसने लोअर प्राइमरी स्कूल में हिंदी की खूब शिक्षा पाई थी। स्कूल के बाद भी उसका ध्यान पढ़ने लिखने की ओर अच्छी तरह था इस लिये वह गली मुहल्ले की औरतों में खूब पढ़ी लिखी गिनी जाती थी किंतु इसमें संदेह नहीं कि विद्या जो मनुष्य जाति के चरित्र शोधन की एक मुख्य सामग्री है उसने मथुरा के पास पहुँच कर एक भयंकर शास्त्र का काम दिया। चरित्रभ्रष्टा माता की कोख में जन्म लेकर, बाल वय से दुराचारिणी अवलाओं की सुहबत में पड़ने से मन बहलानेवाले और अच्छे शिक्षाप्रद उपन्यासों के बदले भ्रष्ट उपन्यासों को पढ़कर उसका चरित्र नष्ट भ्रष्ट हो गया। कुमार्ग से बचाकर सुमार्ग पर लाने के लिये किसी का उस पर अंकुश नहीं रहा अथवा यों कहो कि यदि कोई अंकुश खड़ा भी हुआ तो उसने कोपल ही में उसे तोड़ मरोड़ कर फेंक दिया, बस यही कारण हुआ कि वह आज सब फन की उस्ताद हर फन मौला बन गई।

द्वारका के घर में आने के बाद उसके भय से क्योंकि उसने मथुरा से स्पष्ट ही कह दिया था कि "जो कहीं मैंने जरा सा भी शोशा तेरी बदचलनी का पाया तो तुरंत ही (छुरी दिखला कर) इससे नाक कान काटे बिना न छोडूँगा।" अथवा उस महात्मा के उपदेश से उसने इधर उधर आँखें लड़ाना छोड़ दिया था। छोड़ क्या दिया था अधिक व्यसन में पड़े रहने से वह बूढ़ी जल्दी हो गई थी इस लिये उसे अब कोई पूछता भी न था। खैर! किसी कारण से हो अब वह सचमुच "वृद्धा वेश्या तपेश्वरी" बन बैठी थी। वन अवश्य बैठी परंतु चोर चोरी से जाय तो क्या हेरा फेरी से भी जाय―इस कहावत के अनुसार उसने "तू बा बदलौवल" नहीं छोड़ी थी। सुखदा के पाल आ आ कर उसकी सहेली बस जाने का यही मुख्य कारण था।

पंडित और पंडितायिन जब सदा ही विदेश में रहा करते थे तब वे विचारे क्या जानें कि उनके घर में क्या होता है, किंतु बहुत चौकस होने पर भी कांतानाथ इसके झाँसे में आगए। उसने मथुरा को पढ़ी लिखी और नेक चलन समझ कर उसके अच्छे अच्छे उपदेशों की प्रशंसा सुन कर सुखदा को पढ़ाने पर नियत किया। मथुरा ने सुखदा को केवल लिखना पढ़ना ही क्या सिखलाया वरन जब सुशीला ने जिस तरह प्रियंवदा को शिक्षा देने में अपना ही नमूना उसके आगे खड़ा कर दिया था तब सुखदा की तालीम के लिये मथुरा का चरित्र ही आदर्श बनाया गया।

इसका जो कुछ परिणाम हुआ उसका कुछ अंश पाठकों ने गत प्रकरण में पढ़ लिया और शेष अब देख लेंगे। मथुरा की कुसंगति में पड़ कर सुखदा बिलकुल बिगड़ ही गई अथवा विगड़ते विगड़ते बच गई सो भगवान जाने किंतु इसमें लंदेह नहीं कि दोनों को पक्का भरोसा हो गया था और इसी लिये एक दूसरी के आगे खुल गईं थीं। इसी कारण से गत प्रकरण में एक ने दूसरी से और दूसरी ने पहली से से कह दिया था कि―"तेरे गुण मेरे पेट में है।" अस्तु!

मथुरा ने अपने खसम से कह कर जिस समय सुखदा को लुटवा लेने का मनसूबा किया उस समय उसके अंतःकरण पर खटका अवश्य हुआ था कि दैव संयोग से जो कहीं यह भेद सुखदा को मालूम हो जाय तो बात बिगड़ जायगी किंतु वह अपने हथकंडे में कसकर सुखदा को कठपुतली बना चुकी थी, उसे अपनी "जबाँ दराजी" का भरोसा था कि बात की बात में कुछ न कुछ बात बना कर उसका संदेह तुरंत निवृत्त कर लूँगी और उसने यहाँ तक सोच लिया था कि कहीं भेद भी खुल जाय तो एक सुखदा के घर से आवागमन बंद होते ही दूसरा घर खुल जायगा। बस इसलिये उसने ही द्वारका को उत्तेजित किया और उसी की सलाह से भोंदू काछी कहीं से बैल और कहीं से गाड़ी लाकर सुखदा को अपने मैके पहुँचा देने पर तैयार हुआ।

मथुरा के खसम को इस बात की कसम थी कि जहाँ रहता उस जगह से बीस बीस कोस तक चोरी या डकैती न करता, यहाँ तक कि जिस राज्य में रहता उसमें सदा भला बन कर ही रहता। इस कारण उसने नाहीं नूहीं भी बहुत की किंतु आज वह मथुरा के झाँसे में आ गया और सब पूछो तो इसी लिये अपने ही हाथों से अपने पैर तुड़ा बैठा। अपने ही हाथों से उसने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी। उसने क्योंकर अपने पैर आप ही बँधवा दिए सो शायद समय आप ही आगे चल कर प्रकाशित कर दे किंतु अभी तक सुखदा के सिवाय उसे किसी ने नहीं पहचाना था और वह मथुरा के हाथ की गुड़िया थी। मथुरा जिस तरह नचावे उस तरह नाचने को तैयार थी और जो लोग लुटेरों को पकड़ने को आए उनमें से एक के हाथ का लट्ठ खाकर खोपड़ी फटजाने पर भी गिर कर हाय! हाय!! करने के बदले भाग कर वह हिरन हो गया था।

खैर। जो कुछ होना था सो हो गया और जो कुछ होगा, सो देख लिया जायगा किंतु इन लुटेरों को पकड़नेवाले कौन थे? इस किस्से को अधिक उलझन में डालने के बदले थोड़े में इस बात को यहीं खोल देना मैं उचित समझता हूँ। इन को पकड़नेवाले थे पंडित कांतानाथ। उनकी इच्छा न थी कि ऐसी कर्कशा स्त्री की रक्षा की जाय। यदि उनकी चलती तो वह उसके लुट जाने की खबर पाकर दुःखित होने के बदले एक पसे का प्रसाद बाँटते, और जब वह घर में से निकल ही गई ता फिर उसका कमी नाम तक न लेते क्योंकि वे उसके अत्याचारों के आगे तंग आगए थे और इसलिए उन्होंने पक्का मनसूबा कर लिया था कि ऐसी दुष्टा स्त्री से तो कुँवारा ही अच्छा। दिन रात के चौबिस घंटे में एक बार टिक्कड़ सेंक खाए और "जहाँ पड़ा मूसल वहीं खेमकूशल।" परंतु पितृ समान बड़े भाई के सामने कुछ भी न चली। प्रियंवदा के परामर्श से और बड़े भाई की आज्ञा से ये आठ दस आदमियों को साथ लेकर सुखदा को उसके मैके तक पहुँचाने गए। प्रियंवदा ने देवर से जब साफ कह दिया कि―"यदि कुछ से कुछ हो पड़ेगा तो जननी तुम्हारी लाजेगी, वह तो औरत की जाता है। उसे ही नीच ऊँच का ख्याल होता तो घर से निकलती ही क्यों? तुम यदि उससे दुःखी हो गए हो तो उसे वर्ष दो वर्ष मत बुलाना! और नहीं भी क्यों तुलाना? वह यदि अलग रहने ही में राजी है तो क्या चिंता है? अलग रहो। इस घर में जो कुछ है वह तुम्हारा ही है। हमारे यहाँ तुम्हारे सिवाय कौन है? बस खाओ पियो और मौज करो। खर्च बर्च की तुम्हें कुछ तकलीफ न होने पायेगी।'

इस तरह वे भाभी के दबाव डालने से गए और सो भी केवल उसे अपने बाप के दरवाजे तक पहुँच कर वापिस आजाने के लिए गए। सर अवश्य परंतु इनके जाने में कोई दो घंटे का विलंब हो गया था। यदि देरी न होती तो शायद ऐसी लूट खसोट का अवसर ही न आता। खैर! पंडित कांतानाथ को द्वारका के लट्ठ की चोट बेशक बहुत आई थी और इसीलिये एक बार वह धरती पर गिर कर लोट पोट भी हो गए थे किंतु फिर जी कड़ा करके वे उठे और अपने साथियों की सहायता से द्वारका के सिवाय जो लड़ाई के मैदान में से अपनी जान बचा कर भाग निकला था सब को पकड़ कर उन्हीं के साफों से कस लाए। माल भी इनके रत्ती रत्ती हाथ लग गया और इन्होंने माल और मुजरिमों को पुलिस के हवाले करके अपनी रिपोर्ट लिखवाने, अपना बयान देने और माल मुजरिमों की रसीद लेने के अनंतर अपने घर का रास्ता लिया।

छोटे भैया के मुख से "अथ से लेकर इति तक" सारा किस्सा सुन कर पंडित प्रियानाथ ने उनकी वीरता को सराहा सही परंतु सुखदा को पीहर पहुँचा कर न आने पर वह कुढ़े भी कम नहीं। यद्यपि देवर के चोट गहरी आजाने से प्रियंवदा उनकी मरहम पट्टी में लगी हुई थी और उसने आँख के इशारे से जब पति से नाहीं कर दी थी तब उन्होंने उनसे कुछ कहना और सो भी इस कष्ट के समय कहना उचित नहीं समझा, परंतु वे स्वयं इस बात से सुस्त न रहे। वे घोड़ी पर काठी कसवा कर खुद गए और अँधेरी रात और मेह बादल की पर्वाह न कर प्रियंवदा के मना करने पर भी गए। रातों रात चल उन्होंने दिन निकलते निकलते घटना स्थल का पता लगाया और वहाँ से खोज खोज कर जब वह सुखदा की खोज में उसके बाप के घर में जा घुसे तब समधी से मिले बिना ही, उसके देख लेने पर घोड़ी दौड़ा कर अपने गाँव में वापिस आगए।

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