आदर्श हिंदू १/१८ प्रियंवदा से छेड़छाड़

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आदर्श हिंदू-पहला भाग।  (1922) 
द्वारा मेहता लज्जाराम शर्मा
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प्रकरण―१८

प्रियंवदा से छेड़छाड़।

जिस समय सीटी देकर मथुरा स्टेशन से गाड़ी रवाना हुई "जमुना मैया की जय!" का गगनभेदी शब्द ट्रेन के हर एक दर्जे की खिड़कियों में से निकल निकल कर दिशा विदिशाओं में व्याप्त हो गया। उस गाड़ी में जो नास्तिक थे भिन्न धर्मी थे, आर्य्य समाजी थे, नेचरिये थे वे हिंदुओं को मूर्ख बतला हँसे भी किंतु "जो मनुष्य के हृदय में आँतरिक भक्ति है, उसके मन का भीतरी भाव है उसका इस तरह एक समुदाय में संयुक्त होकर प्रकाशित होना किसी समाज में, किसी देश में बुरा नहीं माना जाता। बुरा नहीं अच्छा है और "हिप् हिप्! हुर्रे!" से हजार दर्जे अच्छा है। जिन लोगों के हृदय में सच्ची भक्ति है वे ऐसे पवित्र शब्दों को श्रवण कर गद्गद होते हैं, जो मन के बोदे हैं उनकी भक्ति दृढ़ होती है और जो बिलकुल ही कोरे हैं उनके अंतःकरण में भक्ति का संचार होता है।" ऐसाही उत्तर देकर पंडित प्रियनाथ ने अपने साथी मुसाफिरों को शांत किया।

जिस समय तक मथुरा स्टेशन से गाड़ी रवाना न हुई हर एक दर्जे के मुसाफिर आपस में लड़ते रहे। कहीं गाली गलौज और कहीं धक्का धक्की तक की नौंबत आई। जो पहले [ १७८ ]से जा घुसे थे उन्होंने अपना सामान पटड़ियों पर लाद दिया और बैठे भी पाँव फैलाकर आराम से किंतु जो पीछे आने वाले थे उन्हें बैठने के लिये चार अंगुल जगह नहीं। यदि कोई मुठमर्दी करके दूसरों के बीच में घसमसा कर आ बैठा तो उसे दोनों ओर से दवा दवा कर लोग पीस रहे हैं और जो साहस हीन होकर अपना बोझा हाथ में उठाए खड़ा है तो खड़ा ही जा रहा है। कोई उससे कहनेवाला नहीं है कि- "भाई जन्म तैने भी किराया हमारी तरह दिया है तो तू बैठ क्यों नहीं जाता?" यात्रियों की स्वार्थपरायणता का भी कहीं ठिकाना है? इधर रेलवे कर्मचारियों ने जब आठ की जगह दस, बारह, पंद्रह तक, भेड़ बकरी की तरह ठूंस दिए हैं तो मुसाफिर भी उनके उस्ताद हैं कोई "आइस मा बाप!" कह कर भँगी बन जाता है और इस तरह अपने दर्जे में से और मुसाफिरों को भगाकर अपनी इकडंकी बजाना चाहता है। तब गोश्त की रकाबी फैलाकर कोई अपने आराम के लिये अपने साथियों को तंग कर रहा है। धार्मिक हिंदुओं को डरा कर, सत्ता कर और दिक करके आराम लूटने वालों नीचों की भी आज कल कमी नहीं है किंतु इस तरह मेहतर न होने पर भी जो मेहतर बनते हैं वे मेहतरों के भी मेहतर हैं। खैर। गाड़ी रवाना होते ही आपस का सब लड़ाई झगड़ा, सब कसा- कसी और सब धक्का धक्कु मिट कर अब भाई चारा आरंभ हुआ। अब बात चीत, घुट घुट कर बातें, बीड़ी बाजी और [ १७९ ]गप्प शप्प होने लगी। थोड़ी देर पहले जो एक दूसरे के कट्टर शत्रु थे अब दूर दूर का संबंध दूर दूर की जान पहचान निकाल निकाल कर आपस में मित्र बन गए।

अगले स्टेशन पर गाड़ी ठहरते ही बाप की सेवा करने और उसे कष्ट से बचाने के लिये गोपीबल्लभ अपने दर्जे में से उतर कर जगह न होने पर भी बूढ़े भगवानदास के पास जबर्दस्ती जा ठुँसा और कांतानाथ भी लपका हुआ भाभी के पास गया। वहाँ जाकर देखता क्या है कि उस दर्जे में आठ दस मुसलमानियों के बीच केवल प्रियंवदा ही ब्राह्मणी है। दर्जे में कहीं बाल बच्चों का पाखाना पेशाब पड़ा है और माँस रोटा फैला फैला कर उसकी साथिनें खाती जाती हैं और साथ ही इसे हँसती भी जाती हैं। बुढ़िया तीसरे दर्जे में बैठी हुई इनसे खुशामद करती और समझाती है तो कभी उसे आँख देखाती और कभी हँस हँस कर तालियाँ पीटती हैं। प्रियंवदा कष्ट के मारे व्याकुल होकर खिड़की के सहारे खड़ी खड़ी रो रही है और पायदान पर खड़ा हुआ एक मनुष्य "जान साहब! रोओ मत! तुम्हारे रोने से मेरा कलेजा फटा जाता है। ज़रा नीचे आजाओ तो मैं अभी तुम्हें पहले दर्जे में जा बिठलाऊँगा। वद्दाँ से मेरा दर्जा भी पास है। तुम्हें कष्ट नहीं होने दूँगा। मुझे अपना दास समझो।" कहता जाता है और उसकी ओर देख कर, घूर कर मुस कराता जाता है। इधर उधर देख कर लोंगों की नजर बचाता हुआ कभी अपने रूमाल से आँसू [ १८० ]पोंछना चाहता है तो कभी उसकी आँखों से अपनी आँखे उलझाने का प्रयत्न कर खिढ़की की चाबी खोलता हुआ उसकी कोमल कलाई को अपने हाथों का सहारा देकर उतारने का उद्योग करता है। उसका मन उछल उछल कर बाहर आता जाता है और उसकी आँखे कह रही हैं कि हम दूसरी गाड़ी में लेजाने के लिये मखमल बनने को तैयार हैं ताकि तुम्हारे पैरों में स्टेशन की कंकरियाँ न गड़ें और पहले दर्जे में गही तकिये पर तुम्हारे साथ हमें भी आराम करने का सौभाग्य प्राप्त हो।

यह कुछ भी बकझक करता रहे प्रियंवदा रोने के सिवाय- रो रो कर अपने गोरे गुलाबी गालों के ऊपर से आँसुओं की धारा बहाकर अपनी अँगिया भिगोने के सिवाय और बीच में हिचकियाँ भरने के सिवाय चुप। अब इस आदमी से रहा न गया। इसने तुरंत ही अपनी जेब में से प्रियंवदा के आँसू पोछने के लिये, रुमाल निकाल कर "जान साहब रोओ मत!" कहते हुए ज्यों ही हाथ फैलाया प्रियंवदा ने पीछे हटते हुए- और "चल निगोड़े दूर हो। यहाँ भी आमरा!" कहते हुए अपने कोमल कोमल हाथों से इसको एक हलका सा धक्का दिया और उसी समय कांतानाथ ने "भाभी डरो मत! मैं आ पहुँचा।" कहते हुए उस आदमी की टाँग पकड़ कर नीचे गिरा दिया। गिरा कर दस बीस गालियाँ दी, पाँच सात लातें मारी और उसी समय गाड़ी रवाना होने की तीसरी घंटी की आवाज [ १८१ ]सुन कर भागा हुआ गाड़ी चल देने पर लपक कर पायँदाज पर जा चढ़ा और चाबी बंद पाकर मुसाफिरों के धक्के देने पर भी मार की कुछ पर्वाह न कर खिड़की की राह जिस समय इसने दर्जे में बैठते हुए बाहर को देखा तो वह आदमी भी अपनी धूल झाड़ कर अपने दर्जे में जा बैठा। सब देखते के देखता ही रह गए कि मामला क्या है?

जब पहले खिड़की के पास खड़ी हुई प्रियंवदा रो रही थी और वह आदमी इसकी ओर हँस हँस कर कुछ कहता जाता था तब इसकी साथिनें समझे हुए थीं कि इन दोनों का आपस में कुछ लगाव है इसलिये वे चाहती थीं कि यदि यह अपने आप न उतर जावे तो अपने आदमियों से कह कर इसे उतरवा देना चाहिए किंतु इस घटना से वे जान गईं कि उस आदमी की बदमाशी है इसलिये उनकी घृणा अब सहानुभूति में बदल गई और उन्होंने आराम से बैठने की इसे जगह भी देदी। इस घटना के बाद दो तीन स्टेशनों से होकर गाड़ी बिना ठहरे ही निकल गई। इस कारण न तो कांतानाथ ही भाई साहब से खबर देने जा सका और न किसी को प्रियंवदा के पास आकर उसकी संभाल पूछने का अवसर मिला। हाँ! उस आदमी की इतनी मारखाने पर भी तृप्ति न हुई। वह फिर भी चलती गाड़ी में बाहर ही बाहर पायंदाज पर चलता हुआ गाड़ियों को पकड़े पकड़े इसके पास आकर खिड़की में मुँह डाल कर फिर न मालूम क्या [ १८२ ]कह गया जिसे सुनकर वह एक बार खूब खिलखिला कर हँस पड़ी, फिर घबड़ाई, कांप उठी, रोई और डर के मारे पसीने में सराबोर हो गई। चौथे स्टेशन पर गाड़ी ठहरते ही जब फिर कांतानाथ ने इसे आकर सँभाला तो उसकी बहुत बुरी दशा थी। रोने के मारे इसकी हिचकियाँ बँध रहीं थीं। यह रो धोकर देवर को अपना दुःख सुनाना चाहती थी किंतु इसके मुँह से पूरा एक शब्द भी नहीं निकलने पाता था। इसका कलेजा जोर जोर धड़क रहा था और आँसुओं से, पसीने से इसकी अँगिया, इसकी साड़ी भीग कर तर हो रही थी। इसने जब बहुतेरा जोर मारा तो "भैया! हुट् मुझे! हुट् बचाओ! हुट्!" कहती हुई देवर के कंधे से सिर लगा कर मूर्च्छित हो गई। अच्छा हुआ जो कांतानाथ ने इसे सँभाल लिया नहीं तो किवाड़ से टकरा कर माथा फट जाता। खैर "हैं! हैं!! भाभी इतनी घबड़ाती क्यों हो? अब मैं आगया! अब तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।" कह कर उसने बहुतेरा इसे प्रबोधा और गोपीबल्भ से खबर पाकर पंडितजी भी एक ही मिनट में आ पहुँचे। आँख खुलते ही "अब मेरे जी में जी आया।" कहती हुई यह बाहर निकली और एक बार शर्म लाज को ताक में रखकर पति से चिपट गई। अब इसे पूरा होश आया तो यह शर्माई और लंबा घूँघट निकाल कर उनके साथ, उन्हीं के पास मर्दानी गाड़ी में जा बैठी। [ १८३ ]एक, दो, तीन, चार करते करते कितने ही स्टेशन निकल गए, कितने ही घंटे गुजर गए परंतु भीड़ भाड़ में न तो पंडित जी को ही इससे पूछने का अवसर मिला कि मामला क्या था? और न लाज के मारे यही उनसे कहने पाई कि "निपूता फिर आ मरा" अस्तु यों चलते चलते जब रात के दस ग्यारह बजे एक एक करके इनके दर्जे के सब मुसाफिरों के उतर जाने से मैदान सूना हुआ तब इसने 'अथ' से लेकर "इति" तक सारा किस्सा, आज की सारी घटना कह सुनाई। साथ में यह भी कह दिया कि "विश्रांत घाट पर आवाजा फेंकने वाला यही था, उस समय हमारी मदद के लिये यही पुलिस को लिवा कर लाया, इसी ने सेकेंड क्लास के फादक में हो कर स्टेशन पर पहुँचाया और निपूता फिर आ मरा। इस तरह इसने पति से जो कुछ हुआ था वह सारा का सारा सत्य सत्य कह दिया। एक बात भी घटा बढ़ा कर नहीं कही। नमक मिर्च बिलकुल न लगाई किंतु न मालूम क्यों यह उस बात को छिपा गई, जिसे उस आदमी के मुख से सुनते ही यह एक बार खिलखिला कर हँसी और फिर रोई थी। प्रियंवदा जैसी पतिव्रता स्त्री यदि पति से कोई बात और सो भी पर पुरुष की कही हुई इस तरह कही हुई जिसे सुनकर यह हँस पड़ी छिपा जावे तो अवश्य उसके चरित्र पर संदेह होना चाहिए। जब इस बात को पंडित जी सुनेंगे तब उन्हें भी संदेह होगा अथवा वह प्रियंवदा की [ १८४ ]तरह खिलखिला कर हँस पड़ेंगे सो अभी संदिग्ध ही है। खैर! जब इस तरह प्रियंवदा अपना सारा दुखड़ा रो चुकी तब पंडित जी ने प्राणप्यारी के कान से मुख लगा कर कहीं कोई सुन न ले इस भय से इधर उधर देखते हुए घुस पुस घुस पुस कुछ कहा और "सब से बढ़ कर यही उपाय है!" इस तरह कहते कहते मुसकरा कर अलग हट बैठे। दो तीन मिनट में "हाँ! एक बात और याद आई!" कह कर उन्होंने फिर प्यारी के कान में कुछ कहा, कुछ हँसते हँसते कहा किंतु वह पूरा नहीं कहने पाए। उनकी बात बीच में से काठ कर―"वाह जी! बस बहुत हुआ! बस बस! बहुत! दिल्लगी मत करो! ऐसा कहोगे तो मैं मर जाऊँगी!" कहते हुए प्यार के साथ एक हलका सा धक्का देकर "चलो हटो एक तर्फ!" कहते हुए पहले कुछ तिउरियाँ चढ़ाकर क्रोध दिखलाया और फिर हँस कर यह अलग हो बैठी।

इस अर्से में इनका खाली दर्जा फिर मुसाफिरों से भरने लगा। इनकी बात चीत प्रेमसंभाषण अथवा प्रेमकलह बंद हुई। पंडित जी को अवश्य रंज रहा कि वह अपनी रूठी रानी, को मनाने भी नहीं पाए किंतु थोड़ी ही देर में "इलाहाबाद! इलाहाबाद!" की आवाज के साथ ही स्टेशन के प्लेटफार्म पर आकर गाड़ी खड़ी हो गई। पहले जैसे गाड़ी में सवार होने के समय हडबड़ी मची थी वैसे ही अब उतरने के लिये उतावल है। बस एक दो और तीन [ १८५ ]मिनट में बूढ़ा, बुढ़िया, कांतानाथ, गोपीबल्लभ, भोला और गौड़बोले अपना अपना असवाब लिए हुए पंडित जी के पास आ खड़े हुए। सब सामान सँभाला गया तो एक ट्रंक कम। "बस भोला के चार्ज में से गया।" कहकर पंडित जी ने उसे लाल लाल आँखें दिखलाई। "हाय! मेरे पास तो अब एक धोती पहनने तक को न रही!" कहकर प्रियंवदा ने मुँह बिगाड़ दिया। "हैं हैं! बावली रोती क्यों है? एक नहीं तेरे लिये हज़ार कपड़े मौजूद! प्रयाग जी में क्या कपड़ों की कमी है?" ऐसा कहकर जब पंडित जी अपनी पत्नी को आश्वा- सन दे रहे थे गाड़ी में से निकाल कर ट्रंक सिर पर लादे हुए भागता हुआ वही आदमी आया और ट्रंक धरती पर डाल कर प्रियंवदा के कान में धीरे से कुछ कह कर वह गया! वह गया!! और देखते देखते न मालूम किधर गायब हो गया। तक पंडित जी बोले―

"क्या कह गया!"

"कुछ नहीं नाथ! फिर यहाँ भी आ मरा!"

"नहीं कुछ तो कहा होगा? कहती क्यों नहीं है? क्या कहा?"

"अरे! आपको भी वहम हो गया? अच्छा सुनो! मैं कहती हूँ सुनो!" कह कर प्रियंवदा ने पंडित जी के कान में कुछ कहा और तब वह कहनेवाली जितनी हँसी सुननेवाला उससे चौगुना, पचगुना हँसा। हँसते हँसते दोनों के पेट में [ १८६ ]बल पड़ गए। आँखों में आँसू निकल पड़े और दोनों ही के मुँह लाल हो गए। इनके संगी साथी न जान सके कि मामला क्या है? सब भौचक से रह गए। और दोनों को हँसते देख कर इनके साथ वालों को हँसी का मतलब समझे बिना भी हँसी आ गई। अस्तु और हँस रहे हैं तो हँसने दीजिए। किंतु उस आदमी की ऐसी हरकत देखकर न मालूम क्या क्या बातें याद करके कांतानाथ के तन बदन में आग लग गई। उनकी तिउरियाँ क्रोध के मारे ऊँची चढ़ गईं। गुस्से से उनके होंठ फड़फड़ाने लगे और न मालूम मन ही मन क्या बड़बड़ाते हुए वह कुलियों के माथे सामान लदवा कर सब के साथ टिकट बाबू को टिकट थँमा कर स्टेशन के बाहर आ खड़े हुए।



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