आदर्श हिंदू १/२० प्रयाग प्रशंसा
प्रकरण―२०
प्रयाग–प्रशंसा।
आहा! कैसी अलौकिक छटा है? वास्तव में इस शोभा ही से प्रयागराज सब तीर्थों का राजा है! भगवती भागीरथी और महारानी यमुना का संगम अपूर्व दृश्य है। जमीन के पर्दे पर ऐसा दृश्य कहीं नहीं। यह श्यामा और श्वेता का संयोग कैसा अद्भुत है! नौका में बैठ कर मीलों तक निहारते चले जाइए। दोनों के जल लहरों से, प्रवाह से एक हो जाने पर भी पृथक पृथक! मानों दोनों की होड़ा होड़ी है। विष्णुप्रिया और शंकरप्रिया का मिलन है, आलिंगन है। दोनों का स्वच्छ, निर्मल जल―एक का श्याम और एक का गौर, आपस में मिल मिल कर, टकरा टकरा कर एक दूसरे को अपने में मिला लेने का प्रयत्न कर रहा है। भगवती भागी- रथी विष्णुपादोदकी है। जब उसका प्रादुर्भाव भगवान के चरण कमलों से हुआ है, तब उसे भगवान भूतभावन की भार्या होने पर भी सब से अधिक बल भगवान् विष्णु के पदपद्मों का है। स्त्रियों का यह स्वभाव ही होता है कि वे पीहर की ओर विशेष अनुराग रखती है किंतु भगवती यमुना को बल है कृष्ण भगवान की अर्द्धांगिनी होने का। इन दोनों की होड़ा होड़ी में उसी कृष्ण महाराज ने जिताया गंगा को क्यों? इस लिये कि वह अपने चरणों से उत्पन्न हुई है, चरणों में भक्तों का निवास और भक्तों से भगवान जब स्वयं हार चुके हैं, भक्तों से हार खाने में जब वह अपनी शोमा सम- झते हैं तब उसे जिताना ही चाहिए, फिर वह अपने इष्टदेव अपने प्यारे शंकर की प्यारी है। इसलिये भगवान ने शंकरप्रिया को विजय की बाजी दिलाने के लिये अपनी प्यारी को समझा दिया और समझा बुझा कर यहाँ तक राजी कर दिया कि जो भगवान भुवनभास्कर की दुहिता, धर्मराज की भगिनी और वासुदेव की अर्द्धांगिनी थी वह अपना रूप, अपना गुण और अपना प्रभाव भगवती भागीरथी को प्रदान करके महारानी गंगा में मिल गई और दूध बुरे की तरह मिल गई, यहाँ तक मिल गई कि अपना नाम तक न रक्खा। हज़ार प्रेम होने पर भी दो सखियों का आलिंगन घंटे दो घंटे से अधिक नहीं रह सकता है। जों मिला है उसका बिछुड़ना अवश्यंभावी है परंतु हिंदू जो पुनर्जन्म मानते हैं उनका मिलन और बिछुड़न अनेक जन्मों तक बार बार होता है। और यह सम्मेलन इसी लिये अलौकिक है कि इसमें मिलन के अनं- तर बिछुड़न नहीं। गंगा यमुना के अलौकिक प्रेम का यही नमूना है। मन में ऐसा ही भाव उत्पन्न होता है? क्यों भैया होता है ना?"
"हाँ भाई साहब होता है! वास्तव में अलौकिक छटा है। मेरे हृदय में जो आनंद हुआ है वह गूँगे का गुड़ है। गूंगा गुड़ खाकर जैसे उसका स्वाद बताने में असमर्थ है मैं भी वैसा ही आवाक् हूँ। परंतु क्यो भाई सरस्वती कहाँ है। वह गुप्त क्यों है?"
"वह गुप्त यों है कि वह भारतवासियों की मूर्खता से रूठ गई है। इधर ब्राह्मणों ने उसका पढ़ना छोड़ा और उधर उसने उनका त्याग किया! भारत की लक्ष्मी और सरस्वती का वैर है। विद्वान् से लक्ष्मी नाराज रहती है। एक बार उसने कह भी दिया था कि महर्षि अगस्त्य जी ब्राह्मण थे जो मेरे पिता समुद्र को तीन चुल्लू कर गए। मेरे पति परमेश्वर के लात मारने वाले भृगु जी भी ब्राह्मण थे, बालकपन से ही ब्राह्मण मेरी वैरिणी सरस्वती को धारण करते हैं और नित्य प्रति उमाकांत का पूजन करने के लिये ब्राह्मण मेरे गृह (कमल) को तोड़ते हैं, इस लिये मैंने खिन्न होकर ब्राह्मणों के गृह को सदा के लिये छोड़ दिया है। इस तरह लक्ष्मी के कोप से जब तक ब्राह्मण डरे नहीं तब तक सरस्वती उन पर प्रसन्न रही और वे ब्राह्मण भी बने रहे किंतु जब उसने कोप करके ब्राह्मणों को छोड़ा तब लक्ष्मी ने भी उन्हें ग्रहण न किया। बस ऐसे ही सरस्वती का लोप हो गया।"
"हाँ यह ठीक परंतु त्रिवेणी की एक वेणी किधर चली गई?"
"भैया, यहाँ तीन वेणियाँ थीं! एक गंगा और दूसरी यमुना प्रगट होकर बहती हैं! उनका प्रवाह हम संसारियों का निस्तार करने के लिये हमारे नेत्रों के सामने है और तीसरी वेणी सरस्वती का प्राचीन काल में ऋषि महर्षियों, ब्राह्मण महात्माओं के मुख कमल से उपदेशामृत रूप में धाराप्रवाह होता था। भगवती सरस्वती उस समय वाणीरूपिणी होकर बहती और श्रोता गण के हृदय कमल को विमल करके शरीर मल को धोनेवाली नदी द्वय में मिल जाती थी। हिंदुओं के दुर्भाग्य से उस तीसरी धारा को लोप हो गया। स्थान वही है तीर्थ यही है और सात सात चौदह पीढ़ियों का उद्धार करने की शक्ति वही है परंतु उसे प्राप्त कर अलौकिक सुख का अनु- भव करने के अधिकारी नहीं हैं।"
"आपका कथन यथार्थ है। अक्षर अक्षर से अमृत का संचार होता है। शब्द शब्द से मेरा मलिन मन पवित्र होता है किंतु इतना और बतला दीजिए कि सरस्वती नदी कहाँ है? दो धाराओं का दर्शन होता है किंतु तीसरी धारा?"
"तीसरा धारा का पता किले के पास दिया जाता है। जिनके अंतः करण सच्छास्त्रों के सुसंस्कार से, महात्माओं के सदुपदेश से दृढ़ हो गए हैं और जिन की बुद्धि मैं इस कारण कुशाग्रता है और ऐसी ही बातों से जिन की दिव्य दृष्टि कही जाती है उन्हें अंतःकरण के लोचनों से अब भी तीसरी धारा के दर्शन होते हैं। केवल अधिकारी चाहिए।"
"बेशक! तब जो सरस्वती पंजाब में है, जो गुजरात में है–वह और यह एक ही है अथवा जुदी जुदी?" "एक ही! निस्संदेह एक ही। यही ईश्वरीय माया है। प्रकृति देवी ने परम पिता परमेश्वर की वशवर्तिनी होकर ओ पुराने नाले थे उन्हें नदियाँ बना दिया और जहाँ नदियाँ थीं वहाँ नाले तक न रहे। इस परिवर्तनशील संसार में छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा कर देना उस विचित्र खिलाड़ी का एक अद्भुत खिलवाड़ है। अनेक युगों पूर्व, अनेक चौक- ड़ियों पूर्व सरस्वती भी भारतवर्ष की बड़ी नदियों में थी। वह न मालूम कहाँ से निकल कर कहाँ कहाँ बहती हुई यहाँ आकर द्विवेणी से त्रिवेणी हो गई थी, अब कहीं कहीं छोड़ कर कहीं उसका पता तक नहीं है। संसार को कुछ का कुछ कर डालनेवाणे अवतारों तक का जब पुराणों की गाथाओं के सिवाय, इने गिने तीर्थों के सिवाय पता नहीं है तब यदि सरस्वती नामशेष रह गई तो आश्चर्य क्या? और जो भगवान के भक्त है, अधिकारी हैं उनके हृदयमंदिर में वह अब भी विराजमान् है। तुलसीकृत रामायण में महर्षि वाल्मीकि जी ने जो स्थान मर्यादा पुरुषोत्त रामचंद्र जी को निवास के लिये बतलाए थे उनमें जहाँ दशरथनंदन के दर्शन होते हैं वहाँ अब मी सरस्वती विद्यमान है।"
"हाँ! कहिए तो कौन कौन स्थान है? जरा उन्हें ताजा कर दीजिए।"
"अच्छा सुनो भगवान रामचंद्रजी के प्रश्न के उत्तर में वाल्मीकिजी ने जो कुछ कहा वह प्रत्येक मनुष्य के हृदयपटल लिखने योग्य हैं। उन्होंने कहा—
जहँ न होहुँ तहँ देहु कहि, तुमहिं देखावहुँ ठाउँ।
सकुचि राम मन मँह मुसकाने॥
वालमीकि हँसि कहहिं बहोरी।
बानी मधुर अमिय रस बोरी॥
सुनहुँ राम अब कहहुँ निकेता।
जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥
जिनके श्रवण समुद्र समाना।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे।
तिलके हिथ तुम कहँ गृह रूरे॥
लोचन चातक जिन करि राखे।
रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी।
रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥
तिनके हृदय सदन सुखदायक।
मुकताहल गुण गण चुनहि राम बसहु हिय तासु॥
सादर जासु लहहिं नित नासा॥
तुमहिं निवेदित भोजन करहीं।
प्रभु प्रसाद पट भूषण धरहीं॥
सीस नबहिं सुर गुरु द्विज देखी।
प्रीति सहित करि बिनय विसेषि॥
कर नित करहिं राम पद पूजा।
राम भरोस हृदय नहिं दूजा॥
चरन राम तीरथ चलि जाहीं।
राम बसहू तिनके मन माहीं॥
मंत्रराज नित जपहिं तुम्हारा।
पूजहि तुमहिं सहित परिवारा॥
तर्पण होम करहिं विधि नाना।
विप्र जिवाहि देहिं बहु दाना॥
तुमसे अधिक गुरुहिं जिय जानी।
तिनके मन मंदिर बसहु, सिय रघुनंदन दौउ॥
लोभ, न छोभ, न राग, न द्रोहा॥
जिनके कपट, दंभ, नहिं भया।
सबके प्रिय सबके हितकारी।
दुख सुख सरिस प्रशंसा गारी॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी।
जागत सोवत सरन तुम्हारी॥
तुमहि छाड़ि गति दूसर नाहीं।
राम बसहु तिनके मन माँही॥
जननी सम जानहिं पर नारी।
धन पराय विष तें विष भारी॥
जे हरषहिं पर संपति देखी।
दुखित होहिं पर बपति विशेषी॥
जिनहिं राम तुम प्रान पियारे।
जिनके मन सुभ सदन तुम्हारे॥
मन मंदिर तिनके बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात॥
बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥
नीति निपुन जिन कर जग लीका।
घर तुम्हार तिनकर मन नीका॥
गुन तुम्हार समुझहिं मन दोषा।
जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
राम भक्त प्रिय लागहिं जेही।
जाति पाँति धन धर्म बड़ाई।
प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
लब तजि तुमहिं रहइ लय लाई।
तेहि के हृदय बसहु रधुराई॥
स्वर्ग नरक अपवर्ग समाना।
जहँ तहँ देख धरे धनु बाना॥
कर्म बचन मन राउर चेरा।
राम करहु तिहिक उर डेरा॥
दो॰―
जाहि न चाहि कबहुँ कछु, तुम सन सहज सनेह।
बसहु निरंतर तासु मन, सो राउर निज गेह॥"
यथार्थ है! सत्य है? सब शास्त्रों का निचोड़ है। वास्तव में ऐसे ही महात्माओं का हृदय भगवान के निवास करने के योग्य है। और ऐसे महात्माओं के निरंतर निवास से पर्वों, महापर्वणियों पर इकट्ठे होने से प्रयाग तीर्थराज कहलाया है। गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुए अभी तीन सौ वर्ष हुए हैं। उनके जमाने तक प्रयागराज में ऐसे महात्मा निवास करते होंगे। उस समय तक इस स्थान का वही पुराणप्रसिद्ध प्रभाव, परम बंदनीय शोभा होगी। यदि उस समय आज कल का सा प्रयाग होता तो शायद उन्हें कुछ संकोच होता!"
"नहीं अब भी वही प्रयाग है और कल्पांत तक वैसा ही रहेगा। जहाँ तक सितासित संगम विद्यमान है वहाँ तक वही स्थान और वहीं आशा! कुछ वर्षों पूर्व यहाँ की धर्म सभा ने, यहाँ के सनातनधर्मावलंबी सज्जनों ने वैसी ही झलक दिखाने का उद्योग किया था। आज कल फिर ये कुंभ- कर्णी निद्रा में हैं। जब जागेंगे तब फिर वही झलक दिखाई देने की आशा है।"
"आशा रखना अच्छा है। आशा ही पर संसार जीवित है परंतु अब बहुत बिलंब हुआ जाता है। श्राद्ध की सब सामग्री तैयार है। पहले जिस कार्य को आए हो उसका निर्वाह कर लो फिर इसका विचार करेंगे।" ऐसा कह कर गौड़बोले ने दोनों भाइयों को चिताया। "ओ हो! बड़ी देरी हो गई! बातों ही बातों में एक घंटा खर्च हो गया।" कह कर पंडित जी ने जब अपनी धर्मपत्नी की ओर देखा तब उसने नेत्रों के संकेत से समझा दिया कि "कुछ चिंता नहीं, इस धर्मचर्चा में बड़ा आनंद आया। यही भगवती के दर्शनों का फल है। यदि ऐसे ऐसे कामों में मनुष्य का सदा चित लगा रहे तो फिर विपत्ति का वास्ता ही क्या?" "हाँ सत्य है।" कहकर पंडिय जी कार्य में प्रवृत्त हुए।