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आदर्श हिंदू ३/७० उपसंंहार

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आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ २३४ से – २४३ तक

 
उपसंंहार

जब से "राधानाथ रभानाथ" के नाम से अजमेर में दुकान खुली पंडित जी के आधा समय वहाँ और प्राधा यहाँ बीतता है। घर में दो तीन सवारियां मौजूद हैं। नौकरी को वह तिलजलि दे हो चुके । बस जब जी में आया घर और जब इच्छा हुई अजमेर । यहाँ जमींदारो के सँभालना, गोशाला की देखभाल, कपड़े, लोई और फेल्ट के कारखाने का निरीक्षण और खेती के कामों पर नजर और वहां दूकान की सँभाल । "आई थीं मैं हरि भजन,ओटन लगी कपास ।" उन्होंने शायद "डाक विभाग और कोर्ट ग्राफ वार्ड स" की नौकरियाँ इसलिये छोड़ दी थी कि उन्हें भगवानराघन के लिये भर पेट समय मिलेगा परंतु जो कर्तव्य का दास है अथवा जो अपना जीवन ही काम करने के लिये मानता है उसे अवकाश कहाँ ? "अवकाश" पंडित जी के कोश में नहीं । काम की भरमार होने पर भी वह जब काम समय के विभाग करके करते हैं तब उनके घबड़ाने का वास्ता क्या है इतना परिश्रम, ऐसी ऐसी झझटे होने पर भी वह भगवदारधन में, ब्राह्मणेाचित कमें करने में और शास्त्रचर्चा में मस्त रहते हैं। उनका वहो आह्निक, उनका वही भगवद्भक्ति में आत्मविसर्जन, तल्लीनता घटी नहीं है। घटने के बदले बढ़े तो जुड़ी बात है। पंडित जी जितना परिश्रम करते हैं उतना, उनसे भी अधिक कांतानाथ करते हैं । काम काज का सारा बोझा उसी के सिर है । "स्याह और सफेद" जो कुछ करे उसे अधिकार है। सब काम करनेवाला वह और निरीक्षक पंडित जी । गलतियों को सुधरचाना, काम के दृढ़ पाए पर डालना, नई नई बातें सुझाना समझाना और काम में परिणत करना उनका काम और उनकी आज्ञा के अनुसार वर्तना छोटे भैया का। यदि कांतानाथ के हाथ से कुछ गलती हो जावे तो वह उसे फटकारते नहीं हैं, उस समय उससे कुछ कहते तक नहीं हैं, और जब वह स्वयं रिपोर्ट करे तब.. “होगा जी ! काम करनेवाले के हाथ से चूक भी होती ही आई है।" कहकर उसको संतुष्ट कर देते हैं और फिर अवसर निकालकर समझाते हैं। बस वह भी इनका “हुक्मी बंदा" है। परिणाम यह कि दोनों भाइयों का प्रेम राम भरत के अलौकिक प्रेम की याद दिलाता है।

इस तरह जब पंडित बंधुओ का परस्पर असाधारण प्रेम है तब दोनों देवरानी जिठानी सगी -जाई बहन की तरह मिलकर रहती हैं । अक्सर देवरानी जिठानी में,सास बहू में ननद भौजाई में, मा बेटी में और बहन बहन में परस्पर लड़ाई होती देखी है। यदि स्वार्थ के विरोध में झगड़ा हो तो जुडी बात है किंतु नहीं-- अविद्या से, बिना बात ही, हलकी हलकी बातों पर आपस में लड़कर वे एक दुसरी की जानी दुश्मन बन जाती हैं। हिंदूओं का यह कैटुंबिक कलह हिंदू समाज की दृढ़ भित्ति को कुदालें मार मारकर ढाह रहा है किंतु अब पंडित बंधुओ के संयुक्त कुटुंब में कलह कल म खाने के लिये भी नहीं । इसकी जाति में परक्षर की कलह होने के जो कारण हैं वे जब इनके घर में प्रवेश तक नहीं कर सकते तब कलह हो भी तो क्यों हो ? दोनों नारियाँ प्रति-सेवा में दत्तचित्त हैं । स्वप्न में भी पति की आज्ञा का, उनकी इच्छा का उल्लंघन करना वे जब घोर पाप समझती हैं तब उनको घर में अवश्य ही आनंद विराजमान है। सचमुच ही प्रियंवदा और अब उसकी शिक्षा से, उसकी देखा देखी सुखदा भी आदर्श बन गई है। भगवान् ने जैसी नीयत दी है वैसी बरकत भी दी है। इनके घर का हर एक काम धर्म के अनुकूल होता है । धर्म-विरुद्ध लाख रुपया भी इनके लिये विष है, बुरी चीज है, स्पर्श करने योग्य नहीं । जिनका सिद्धांत ही यह है---

"दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेजलम् ।।
शास्त्रपूर्तं वदेद्वाक्यं मनःपूत समाचरेत् ।।"

फिर इनके घर में सुख का निवास क्यों न हो ? ईशा-कृपा से इस समय सफलता इनकी चेरी और सुख इनका दास है। सुख की शोभा भी इसी में है कि वह ऐसे धर्मशील की चरणसेला में प्रवृत्त हो । केवल कल्पना के मनोराज्य में आना पाई से हिसाब देने की अथवा "हाथी के दाँत दिखाने के और और खाने के और"की तरह झूठ मूठ रिपोर्ट प्रकाशित करने की इन्हें आवश्यकता नहीं । अतिथिसत्कार के लिये, साधु महात्माओं की सेवा करने के लिये जैसे इनका दरबार खुला हुआ है वैसे इनके अनेक लोकहित के काम को, व्यापार धंधो को देखने का जनसाधारण को अधिकार है । जिस किसी की इच्छा हो इनके यहाँ आकर बारीकी से इनका काम देख सकता है और इनके अनुभव से लाभ उठा सकता है अथवा इनके कामों की नकल कर सकता है। यों इनके यहाँ दोनों बातों में छूट है। रोक टोक का नाम नहीं । देशी कारीगरी और देशी व्यापार की उन्नति के लिये इनकी राय यह है--

"सचाई का बर्ताव देना चाहिए। झूठ बेलकर अनाप सनाप नफा लेने से कम नफे में एक ही भाव पर चीज बेचना जितना आवश्यक है उतना और कुछ नहीं । केवल लेकचर. बाजी से काम नहीं चलेगा । जो कुछ करना हो उसे करके दिखला देना चाहिए ! मैं उसे बहुत ही नीच समझता हूँ जो व्याख्यान देकर गला फाड़ने में बहादुर है, जो औंरों के विलायती कपड़े उतरवाकर जला देने में शूर है किंतु स्वयं वार्ताव के नाम पर, बिंदी । औरों के भड़काकर उपद्रव खड़ा करना और यों हाकिम के नाराज करना अच्छा नहीं । जो शांतिपूर्वक दृढ़प्रतिज्ञ होकर काम करनेवाला है उसका अनायास अनुकरण होने लगता है। बस खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है। यही देश की उन्नति का मूल सूत्र है । कानफरेंस की धूम, लेकुचरों को गर्जन और आडंबर का ठाठ करके यदि अब तक इतना रूपया,समय और बुद्धि नष्ट न की जाती अथवा अब भी न की जाय तो देश का सौभाग्य है ।"

अतिथि-सेवा के लिये भी यह घर आदर्श है, सरनाम है और असाधारण है । “श्लाघ्यः स एको भुत्रि मानवाना, स अप्स; सत्पुरुष: स धन्यः । यस्यार्थिन वा शरणागत वा नाविभंगा विमुखाः प्रथाँतिं ।' का आप उदाहरण हैं । अतिथिसत्कार के लिये यदि परिश्रम उठाना पड़े, हानि भी क्यों न हो और द्रव्य चाहे जितना खर्च हो जाय यह मुख नहीं मोड़ते हैं। भूले भटके साधु गृहस्थों का सुपथ पर लगाना और ऐसे अच्छे अच्छे नमूने पैदा करना इनका काम है ।

सनातनधर्म की उन्नति और सामाजिक दुर्दशा का सुधार करने के विषय में इनके जो ख्यात हैं वे इस उपन्यास में समय समय पर, स्थान स्थान में कार्य रूप पर व्यक्त किए गए हैं। आवश्यक आवश्यक विषयों में से शायद् निकलें तो ऐसे विरले ही निकल सकते हैं जिनके लिये इन्होंने कुछ नहीं किया अथवा कहा न हो। हाँ ? समष्टि रूप पर इनकी राय यह है----

"हिंदू-धर्म, हिंदू-समाज संसार के यावत धर्मी का मूल है। दुनिया में जितने धर्म हैं उन सबके सवही अच्छे सिद्धांत, मूल तत्व इसमें पहले से विद्यमान हैं। केवल देखनेवाला चाहिए। "कौवा कान ले गया" की कहावत की तरह कौवे के पीछे मत दौड़े। पहले अपना कान सँभाल लो। तुम्हारे यहां सब कुछ है और जो कुछ हैं वह लाखों वर्षों के अनुभव से अनुकूल सिद्ध हो चुका है। पशयों की नकल करके अपने ही हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के बदले प्राचीने के सुमार्ग पर चलने ही में तुम्हारा कल्याशा है। जहाँ कहीं थोड़ा बहुत अंतर पड़कर समय के प्रतिकूल दिलाई है वहाँ शास्त्र के अनुसार, वृद्धों की सम्मति से ठीक कर लो । परायों की नकल करना अच्छा नहीं है। अन्य देशों की सभ्यता में जो जो तुम्हें चमकदार दिखलाई देता हैं इस सबको ही सेना समझना तुम्हारी भूल है । परदेशियों के ऐसे सद्गुणों की नकल करे। जिनमें तुम्हारे भारतवासीपन पर, हिंदूपत पर अधात न पहुँचे । पुराने और नए ख्यालों की दलादली कदापि न बढ़ने दो । जिन बातों के विषय में पुराने और नए का मत-भेद हो उन्हें मत छेड़ो । उनके लिये पहले शास्त्रों का मनन करो किंतु जो निर्विवाद हो उनमें एकमत हेना, परस्पर के मत-भेद को निकालकर पुराने और नए समाज यदि एक सूत्र में बंध जायँ, अनेक जातीय सभाएँ स्वतंत्र रूप से चलने पर भी उनका केंद्र एक हो जाय और एक ही उद्देश्य को लेकर वे सब कार्य करे तो उन्नति सहज में हेर सकती है। धर्मसभा और आर्यसमाज सुधारक और उद्धारक का अधिक समय आपस' के लड़ाई झगड़े में, एक दूसरे को नीचा दिखाने में जाता है । ब्रिटिश सम्राज्य की छत्र-छाय में, उन्नति के सुअवसर पर एकता बढ़ने के बदले फूट फैलती है। और इस समय की इतिहासप्रसिद्ध शांति का दुरुपयोग होता है,उस पर कुठाराघात है ।"

राजनीतिक कामों के विषय में वह प्रायः उदासीन से हैं । उनका मत है कि "जब इस विषय का आंदोलन करने में सैकड़ों बड़े बड़े आदमी दत्तचित्त हैं तब मैं अपना सिर क्यों खपाऊँ ?" किंतु जब उनसे इस विषय में कोई कुछ जिक छेड़ देता है तब वह कहा करते हैं...

“जिन बातों के देने का सरकार ने वादा कर लिया है। अथवा आप जिन पर अपना स्वत्व समझते हैं उन्हें सरकार से माँगें । जब माता पिता भी बेटे बेटी को रोने से रोटी देते हैं। तब राजा से माँगने में कोई बुराई नहीं है। तु ज्यों ज्यों माँगते जाते हो त्यो त्यों धीरे धीरे वह देती भर जाती है। किंतु काम वही करो जिससे तुम्हारे ‘‘नराण च नराधिप:" इस भगवद्वाक्य में बट्टा न लगे । भगवान् के इस वचन से जब राजा ईश्वर का स्वरूप है तब उसकी गवर्मेंट शरीर न होने पर भी उसका शरीर है। इसलिये नियमबद्ध आंदोलन करना आवश्यक और अच्छा है किंतु जो मुठमर्दी करनेवाले हैं, जो उपद्रव खड़े करके डरनेवाले हैं अथवा जो अपने मिया स्वार्थ के लिये औरों के प्राण लेने पर उतारू होते हैं। उनके बराबर दुनिया में कोई नीच नहीं,पामर नहीं ! वे राजा के कट्टर दुश्मन हैं। सचमुच देशद्रोही हैं । वे स्वयं अपनी नाक कटाकर औरों का अपशकुन करते हैं। उनसे अवश्य घृणा 
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करनी चाहिए। जो काम स्वयं करने के हैं उन्हें करके अपने आपको औरों के लिये नमूना बनाओ। बस सीधा मार्ग यही है।"

संतानों का भी पंडित जी को सुव कम नहीं है। कमलानाथ और इंदिरानाथ गते प्रकरणों में प्रकाशित घर की शिक्षा समाप्त करके हिंदू यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा पा रहे हैं। इनके घर के अध्ययन का ढंग देखकर विश्वविद्यालय के कर्ता धर्ताओं ने उसे पसंद किया है और औरों कर इनका अनुकरण करने की सलाह दी जाती हैं। लड़के दोनों चतुर हैं, बुद्धिमाम् हैं, सुशील हैं, परिश्रमी हैं और सदाचारी हैं। इनके अतिरिक्त दोनों के और भी कई लड़के लड़ कियाँ हैं। कई एक का विवाह' होकर बहुओं का भी अगमन हो गया है । बस इनका घर यों फलती बेल है, लहलहाती लता है ।

इस यात्रा में इन्होंने जहाँ जहाँ दीनशालाए” खोलने की, पंडो को शिक्षा दिलाकर सुधारने की, तीर्थों के अनेक कुकर्म नष्ट होकर भलाई का प्रचार होने की, गोरक्षा, कुष्ठाश्रम और जोचदया-विस्तार की सलाह दी है वहां वहाँ सफलता होने की खबर पाकर इन्हें आनंद होता है, होना ही चाहिए । वह स्वय” किसी न किसी प्रकार से अवकाश निकालकर ऐसे ऐसे अनेक लोकहितकारी कामों में योग देते हैं, चंदा देते हैं और काम करने के लिये आगे बढ़ते हैं। जब इन्हें परमेश्वर की अनन्य भक्ति का,अपने "विल पावर को" का आ़ हि़---- १६ और अपने सदाचार का बल है तब उनके कथन का, उनके कामों का औरों घर अच्छा असर पड़ता है हो तो आश्चर्य करता ? क्योंकि यह उन लोगों में से नहीं हैं जो: -

परोपदेशे पंणितडत्थं सर्वेष सुझर नृाणाम् ।
धम्र्म स्वीथमनुन कस्यचित्सुमहान्यः ।।"

इस लोकोक्ति में “पूर्वाद्ध" के अनुयायी है। औरों को वही झुका सकता हैं जो पहले स्वय” झुकता है। दुनिया ऐसे ही सज्जन के हाथ से झुकने को तैयार है जो करके दिखा देता है। संसार के इतिहास में उसका ही आदर है, वही पूजनीय देवता है। हमारे अवतार इसी लिये ईश्वर हैं और प्राचीन ऋषि मुनि देवता । ऐसे महात्माओं के एक दो नहीं हजारे ही चित्र हमारे पुरणों में हैं, इतिहासों में हैं और जो इनमें नहीं हैं वे परंपरा से धरोहर में प्राप्त जन समुदाय के हृदय-मंदिर में हैं। केवल उनसे लाभ उठानेबाला चाहिए,और वह पंडित जी की तरह भगवान् के चरण कमलों में सच्ची लो लग जाने से प्राप्त हो सकती है । पंडित जी का चरित्र वास्तव में हिंदू-समाज का आदर्श है । लेखक की कल्पना ने जैसा गढ़ा है वैसे अनेक पंडित जी के पैदा होने की आवश्यकता है । पंडित जी अपने मन में---

“निशिवासर वस्तु विचारहि के, मुख साँच हिए करुण धन हैं । अघ निग्रह संग्रह धर्म कथानि, परिग्रह साधुन को गन है ।। कहा केशव भीतर जोग जगै, अत्ति बाहिर भोगिन सो तन है । मन हाथ सदा जिनके तिनकों, बन ही घर है घर ही बन है।।" इनके अनुयायी है--

"अजरामावत, प्राज्ञो विघामर्थ'च चिंतयेत् ।
गृहीत इव केशेषु भूत्युना धर्ममावरेत् ।।"

यही उनका मोटो है । लेखक के मनोराज्य में ऐसे ही पंडित जी ने निवास किया है और ऐसे ही हिंदू को "आदर्श हिंदू" की पदवी प्रदान होती है ।