आनन्द मठ/आठवाँ परिच्छेद

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आठवां परिच्छेद।

ब्रह्मचारीकी आज्ञा पा, भवानन्द मृदु स्वरसे हरिनाम लेते हुए उसी चट्टीकी ओर चले, जिलमें महेन्द्रने डेरा किया था। उन्होंने सोचा कि महेन्द्रका पता वहीं जानेसे लग सकता है।

उन दिनों आजकलकी सी सड़कें नहीं थीं। छोटे मोटे शहरोंसे कलकत्ते जाते समय मुसलमान बादशाहों की बनवायी हुई विचित्र सड़कोंसे ही जाना पड़ता था। महेन्द्र भी पदचिह्नसे नगर जाते समय, दक्षिणसे उत्तरकी ओर चले जा रहे थे। [ २४ ] इसीलिये उनकी सिपाहियोंसे मुठभेड़ हो गयी थी। भवानन्द तालपहाड़से जिस चट्टीकी ओर चले, वह भी दक्षिणसे उत्तरकी ओर थी। इसलिये कुछ ही दूर जाकर उनका सिपाहियोंसे मुकाबिला हो गया। उन्होंने भी महेन्द्रकी ही तरह सिपाहियोंको रास्ता दे दिया। एक तो सिपाहियोंको सहज ही इस बातका अन्देशा था, कि डाकू खजानेको लूटनेकी अवश्य ही चेष्टा करेंगे, दूसरे, रास्तेमें उन्होंने एक डाकूको गिरफ्तार भी कर लिया था, इसीसे भवानन्दको फिर इस रातके समय किनारा काटकर जाते देख, उनको पूरा विश्वास हो गया, कि यह भी कोई डाक ही है। फिर क्या था! सिपाहियोंने उन्हें झट गिरफ्तार कर लिया।

भवानन्दने धीरेसे मुस्कराकर कहा,-"क्यों भाई! मुझे क्यों पकड़ते हो?"

एक लिपाहीने कहा,-"तू साला डाकू है।"

भवा०-"देखते नहीं हो, मैं गेरुआधारी ब्रह्मचारी हूं। क्या डाकू ऐसे ही होते हैं?"

सिपाही-“बहुतेरे ससुरे साधु-संन्यासी चोरी डकैती,करते हैं।" यह कह, सिपाहीने भवानन्दको, गरदनमें हाथ डाल, धक्का देकर अपनी ओर खींचा। मवानन्दकी आंखें क्रोध के मारे लाल हो गयीं पर वे और कुछ न कहकर अत्यन्त विनीत भावसे बोले,-"प्रभो! आज्ञा दीजिये, मुझे क्या करना होगा?"

भवानन्दको विनयसे सन्तुष्ट हो सिपाहीने कहा,-"ले चल साला! यह गठरी सिरपर उठा ले।" यह कह, उसने भवानन्द के सिरपर एक गठरो रख दी। यह देख, एक दूसरे सिपाहीने कहा,-"नहीं यार! ऐसा न करो। साला भाग जायगा। पहलेको जहां बांध रखा है, इसको भी वहीं बांध दो। यह सुन, भवानन्दको बड़ा कौतूहल हुआ, कि देखें इन सबने किसे कहां बांध रखा है। यही सोचकर भवानन्दने सिरकी गठरी नीचे फेंक [ २५ ] दी और जिस सिपाहीने उसके सिरपर गठरी रखी थी, उसके गालमें जोरसे चपत मारी। इसपर बिगड़कर सिपाहियोंने भवानन्दको भी बांधकर महेन्द्र के पास हो ला पटका। भवानन्द देखते ही पहचान गया कि यही महेन्द्रसिंह हैं।

सिपाही लोग फिर बेफिक्रीके साथ शोर गुल मचाते हुए जाने लगे। गाड़ियां चुरै मुर्र करती हुई चलने लगीं। तब भवानन्दने धीमे स्वरमें, जिसे सिवाय महेन्द्रके और कोई न सुन सके, कहा,-"महेद्रसिंह! मैं तुम्हें पहचानता हूं और तुम्हारी ही सहायताके लिये यहां आया हूं। मैं कौन हूं, यह तुम अभी सुन कर क्या करोगे? मैं जो कुछ कहूं, उसे सावधानीसे करो; तुम अपने बंधे हाथका बन्धन गाड़ीके पहियेपर रखो।"

महेन्द्र बड़े अचम्भेमें पड़े पर बिना कुछ कहे भवानन्दके कहे मुताबिक काम करनेको तैयार हो गये। अंधेरेमें खिसकते हुए वे गाड़ोके पहियेके पास गये और जिस रस्सीसे उनके हाथ बंधे हुए थे, उसे पहियेपर रख दिया। पहियेकी रगड़से रस्सी धीरे धोरे कट गयी। इसी तरह उन्होंने पैरोंका बन्धन भी काट डाला। इस प्रकार बन्धनसे मुक्त होकर वे भवानन्दके परामर्श के अनुसार चुपचाप गाड़ीपर पड़े रहे। भवानन्दने भी उसी प्रकार अपने हाथ पैरके बन्धन काट डाले। दोनों चुप्पी साधे रहे।

जंगलके पास राजपथपर जहां खड़े होकर ब्रह्मचारीने चारों ओर देखा था, उसी रास्तेसे होकर इन लोगोंको जाना था। सिपाहियोंने उस पहाड़ीके पास पहुंचकर देखा, कि एक टोलेपर एक आदमी खड़ा है। नीचे आकाशमें प्रदीप्त चन्द्रमाके प्रकाशमें प्रकाशमान उसका काला शरीर देख, हविलदारने कहा, “यार! वह देखो, एक साला और भी है, पकड़ लाओ। गठरी ढोयेगा।" यह सुन, एक सिपाही उसे पकड़ने चला। पर वह आदमी ज्योंका त्यों खड़ा रहा, जरा भी हिला [ २६ ] डुला नहीं। सिपाहीने उसे जाकर पकड़ लिया। वह कुछ न बोला। उसे पकड़कर वह हविलदारके पास ले गया, तोभी वह कुछ न बोला। हविलदारने कहा, इसके सिरपर गठरी रख दो। सिपाहीने उसके सिरपर गठरी रख दी। उसने चुपचाप माथेपर गठरी रख ली। इसके बाद हविलदार पीछे फिरा और गाड़ीके साथ चला। इलो समय एकाएक पिस्तोलकी आवाज आयी हविलदारकी खोपड़ीमें गोली लगी और वह जमीनपर गिर पड़ा और मर गया। "इसी सालेने हविलदारको गोली मारी है” यह कहकर एक सिपाहीने उस मजदूरका हाथ पकड़ लिया। मजदूरके हाथमें उस समय भी पिस्तौल मौजूद थी, उसने झट सिरकी गठरी नीचे फेक पिस्तौलका घोड़ा दबाकर दनसे फायर की। सिपाहीका सिर छिद गया। उसने उसका हाथ छोड़ दिया। इसी समय हरि! हरि! हरि! का शब्द करते हुए दो सो हथियारबन्द जवानोंने वहां आकर सिपाहियोंको घेर लिया। समय वे बेचारे सिपाही साहबके आनेकी राह देख रहे थे साहबने यह सोचकर कि डाकुओंने छापा मारा है, सिपाहियोंको हुक्म दिया कि गाडियोंको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो जाओ। विपत्तिके समय अगरेजोंका नशा टूट जाता है। सिपाही चारों ओरसे गाड़ीको घेरकर हथियार लिये हुए सामनेकी ओर मुंह किये खड़े हो रहे। सेनापतिके दूसरी बार हुक्म देते ही उन लोगोंने अपनी अपनी बंदूकें सीधी की। इसी समय न जाने किसने साहबकी कमरसे उनकी तलवार निकाल ली। तलवार लेकर उसने झटपट उनका सिर काट लिया। साहबका सिर कटकर धड़से अलग हो गया और वे फायर करनेका हुक्म न दे सके। सबोंने देखा कि एक आदमी बैलगाड़ीपर तलवार लिये खड़ा है और "हरि! हरि! हरि!” कहता हुआ सिपाहियों को मार डालनेका हुक्म दे रहा है। वह आदमी भवानन्द थे।

सहसा सेनापतिका सिर कटते देख और आत्मरक्षाकी [ २७ ] आज्ञा किसीसे न पाकर सिपाही कुछ देरतक भौंचकसे चुप खड़े रह गये। इसी समय तेजस्वी डाकुओंने उनमेंसे कितनोंको मार गिराया और कितनों हीको घायल कर डाला। इसके बाद गाड़ियोंके पास आ, उनपर जो रुपयेके बक्स लदे थे, उनपर अधिकार कर लिया। सिपाही हारसे हताश होकर भाग गये।

तब वह व्यक्ति, जो टोलेके ऊपर खड़ा था और अन्तमें जिसने इस युद्धका नेतृत्व ग्रहण कर लिया था, भवानन्दके पास आकर उसके गलेसे लिपट गया। दोनों खूब गले गले मिले। भवानन्दने कहा, भाई जीवानंद ! तुम्हारा व्रत सार्थक हुआ।

जीवान'दने कहा-"भवानन्द! तुम्हारा नाम सार्थक हो।"

इसके बाद लूटकी रकमको यथास्थान पहुंचानेका भार जीवानन्दको सौंपा गया। वे अपने अनुचरोंके साथ शीघ्र ही वहांसे अन्यत्र चले गये। भवानन्द अकेले रह गये।