आनन्द मठ/सातवाँ परिच्छेद

विकिस्रोत से

[ २१ ]

सातवां परिच्छेद

चट्टीमें बैठे बैठे केवल सोच विचार करते रहनेसे कोई नतीजा न निकलेगा, यही सोचकर महेन्द्र वहांसे उठे। शहरमें जाकर सरकारी अमलोंकी सहायताले स्त्री कन्याका पता लगा लूंगा, यही सोचकर वे उधर ही चल पड़े। कुछ दूर चलकर उन्होंने देखा, कि बहुतसे सिपाही अनेक बैलगाड़ियोंको घेरे हुए चले जा रहे हैं।

१९७६ सालमें बंगाल प्रान्त अंगरेजोंके शासनाधिकारमें नहीं आया था। उस समयतक अंगरेजोंके हाथमें यहांकी दीवानी ही थी। ये लोग मालगुजारी वसूल करते थे सही; पर उस समयतक बंगालियोंके जानोमालके रक्षक नहीं बने थे। दिनों लगान वसूल करना तो अंगरेजोंके हाथमें था और प्रजाके प्राण और सम्पत्तिकी रक्षाका भार था पापी, नराधम, विश्वास घातकी और मनुष्य-कुल-कलंक मीरजाफरके हाथमें। पर मीरजाफर तो अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता था, सारे बंगालकी रक्षा वह क्या करता? मीरजाफ़र अफीम खाकर पिनक लिया करता और अँगरेज लोग रुपया वसूलकर विलायतको खरीतेलिख लिखकर भेजा करते। बंगाली मरे, चाहे आठ आठ आंसू रोया करें, इसको किसे चिन्ता थी!

अतएव बंगालकी मालगुजारी अँगरेजोंको ही देनी पड़ती थी; किन्तु शासनका भारं नवावपर था। जहां जहां अंगरेज [ २२ ] लोगोंको अपनी मालगुजारी वसूल करनी पड़ती थी, वहां उन्होंने अपना एक कलकर मुकार कर दिया था। मालगुजारी वसूल करके कलकत्त भेज दी जाती थी। लोग भले ही खाये बिना मरे; पर मालगुजारीकी वसूली कभी बन्द नहीं होती थी पर अब वसूलीमें कमी पड़ने लगी, क्योंकि माता वसुमती धन न दें, तो कोई गढ़कर थोड़े ला सकता था!

इस बार जो कुछ वसूल हुआ था, वही बैलगाड़ीपर लादकर, सिपाहियोंके पहरेमें कलकले कम्पनीके खजाने में जमा करनेके लिये भेजा जा रहा था। आजकल डाकुओंका उपद्रव जोरोंपर हैं, यही सोचकर पचास हथियारबन्द सिपाही खुली सङ्गीने लिये गाड़ीके आगे-पीछे चले जा रहे थे। गोरा था। गोरा सबके पीछे घोड़ेपर सवार था। धूपके मारे सिपाही दिनको रास्ता नहीं चलते, इसीलिये वे लोग रात को चले जा रहे थे। उन्हीं गाड़ियों और सिपाहियोंको महेन्द्रने देखा था। सिपाहियों और बैलगाड़ियोंसे रास्ता रुका देख, महेन्द्र हटकर बगलमें खड़े हो गये। तोभी सिपाहियोंने एकाध धक्का दे ही दिया। यह सोचकर कि यह समय इनसे वादविवाद करनेका नहीं है, महेन्द्र रास्तेके उस ओर जिधर जंगल था, जाकर खड़े हो गये।

यह देख एक सिपाहीने कहा-“देखो, देखो, एक डाकू भागा जा रहा है।" महेन्द्रके हाथमें बन्दूक देख, उसका यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया। वह झटपट दौड़ा हुआ महेन्द्र के पास गया और उनका गला धर दवाया। इसके बाद “साला चोर बदमाश कहींका" कहता हुआ उसने उनको जोरसे एक चूसा जमाया और उनके हाथसे बन्दूक छीन ली। महेन्द्रने खालो हाथ हो जाने पर भी उसे उलटकर एक घूसा रसीद किया। उसकी मारसे सिपाहीका सिर घूम गया और वह चक्कर खाकर, बेहोश हो [ २३ ] रास्तेमें गिर पड़ा। यह देख, तीन चार सिपाहियोंने महेन्द्रको पकड़ लिया और उन्हें घसीटते हुए सेनापति साहबके पास ले गये बोले, इस आदमीने एक सिपाहीका खून कर डाला है। साहब चुरुट पी रहे थे, शराबका भी तेज नशा बढ़ा हुआ था, झट बोल उठे, “सालेको पकड़ ले चलो, इससे शादी कर लेना।" बेचारे सिपाहियोंकी समझमें न आया, कि वे इस बन्दूकधारी डाकूसे किस प्रकार विवाह करेंगे? पर नशा टूटने पर साहबकी मत बदल जायगी और वे हमसे फिर यह न कहेंगे, कि इससे शादी कर लो, यही सोचकर तीन चार सिपाहियोंने रस्सेसे उनके हाथ पर बांध दिये और एक गाड़ीपर लाद दिया। महेन्द्रने देखा कि इतने लोगोंके साथ जोर आज मायश करना बेकार है। लड़ भिड़कर छुटकारा पानेसे ही क्या लाभ है! स्त्री कन्याके शोकसे महेन्द्र इतने कातर हो रहे थे, कि उन्हें जीनेकी इच्छा ही नहीं रह गयी थी। सिपाहियोंने महेन्द्रको भलीभांति गाड़ीके पहियेके पासवाले बांसमें बांध दिया। इसके बाद वे पहलेकी तरह सरकारी खजाना लिये हुए धीरे धीरे आगे बढ़े।