आनन्द मठ/चौथा परिच्छेद

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चौथा परिच्छेद

वनमें निविड़ अंधेरा था, विचारी कल्याणीको रास्ता नहीं सझता था। एक तो वृक्षों, लताओं और कुश कांटोंकी बहुतायतसे आपही रास्ता छिप गया था, दूसरे निविड़ अन्धकार; कुश-कांटोंके बीचसे कल्याणी वनमें प्रवेश करने लगी। रह रहकर लड़कीके बदनमें कांटे चुभ आते थे इससे वह रो उठती थी उसकी आवाज सुनकर डाकू और भी चिल्लाने लगे। इस प्रकार आहत शरीर बालिकाको लिये हुए कल्याणी बहुत दूर तक जङ्गलमें चली गई। कुछ देर बाद चन्द्रमा निकल आये। अबतक तो कल्याणीको यही भरोसा था कि अंधेरेमें डाकू उसे न देख सकेंगे, इधर उधर ढूंढ़ खोजकर थक जायंगे; पर चन्द्रोदय हो जानेसे उसका यह भरोसा भी टूट गया। आसमानमें निकलतेही चन्द्रमाने जंगलके सिरपर प्रकाशकी वर्षासी कर दी, वनके भीतर वाले अंधकारपर रोशनीके छींटेसे पड़ अन्धकार भी उज्ज्वल हो गया। बीच बीचमें थोड़ा छिद्र पाकर प्रकाश वनके भीतर प्रवेश करके झांकने लगा। चाँद जितना ही ऊपर उठने लगा, उतनी ही अधिक उजियाली वन में प्रवेश करने लगी। कल्याणी कन्याको लिये और भी घने जंगलमें छिपने लगी। डाकुओंने और भी अधिक चिल्लाहट और [ १५ ]शोरगुल के साथ बनमें चारों ओर दौड़ना शुरू किया। लड़की डरके मारे और भी जोर जोरसे रोने लगी। कल्याणीने लाचार हो, भागनेका विचार छोड़ दिया। एक बड़ेसे पेड़के नीचे, जहां हरी हरी घास उगी थी और कुश-कांटे नहीं थे, कन्याको गोदमें लिए वह बैठकर पुकार पुकारकर कहने लगी-“हे भगवन्! तुम कहां हो? मधुसूदन! तुम्हें मैं नित्य पूजती और प्रणाम करती हूं। तुम्हारे ही भरोसे मैं इस जंगलमें घुसी थी। बताओ तुम कहाँ हो? इसी समय भय तथा भक्तिकी प्रगाढ़ता और क्षुधा तृष्णाकी मारसे बाह्य ज्ञानशून्य हो आन्तरिक चैतन्यसे भरकर कल्याणीको अन्तरिक्षमें स्वर्गीय गान सुनाई देने लगा, मानों कोई गा रहा है--

"हरे मुरारे, मधुकैटभारे!
गोपाल गोविन्द मुकुन्द शौरे!
हरे मुरारे मधु कैटभारे!"

कल्याणी लड़कपनसे ही पुराणोंमें सुनती आयी थी कि, देवर्षि नारद वीणा हाथमें लिये, हरिनामका कीर्तन करते, गगन पथमें विचरण करते हुए भुवन-भ्रमण किया करते है। यही कल्पना उसके मनमें जाग उठी। उसे मालूम होने लगा मानों शुभ्र-शरीर, शुभ्र-केश, शुभ्र-वसन, महाशरीर, महामुनि वीणा हाथमें लिये, चन्द्रलोकमें प्रदीप्त नीलाकाशमें गा रहे हैं,-

"हरे मुरारे मधुकैटभारे!"

क्रमशः गीत और भी पास सुनाई देने लगा। उसे साफ सुनाई दिया कि कोई कह रहा है-"हरे! मुरारे!! मधुकैटभारे!!!"

क्रमशः गाना और भी निकट-और भी स्पष्ट-मालूम पड़ने लगा। मानों कोई गाता है-

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!”

अन्तमें कल्याणीके सामने वनस्थलीसे भी उस गीतकी प्रतिध्वनि गूंज उठी-[ १६ ]

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!”

कल्याणीने आंखें खोली। उसने क्षीण प्रकाशमें देखा, कि वही शुभ्र-शरीर, शुभ्र-केश, शुभ्र-वलन ऋषि मूत्ति उसके सामने खड़ी है! अन्यमनस्का कल्याणीने श्रद्धा भकि युक्त उन्हें प्रणाम करना चाहा; पर प्रणाम न कर सकी। सिर झुकाते ही बेहोश होकर गिर पड़ी।