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आनन्द मठ/पाँचवाँ परिच्छेद

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १६ से – १८ तक

 

पांचवां परिच्छेद

उस वनके एक विस्तृत भागमें पत्थरोंके ढोकोंसे घिरा हुआ एक बड़ा मठ था। उसे यदि कोई पुरातत्त्ववेत्ता देख पाये, तो यही कहेगा कि यह पहले बौद्धोंका विहार' रहा होगा, पीछे हिन्दुओंका मठ हो गया। अट्टालिका दुम जिली है-बीच में बहुतसे देवमन्दिर हैं, जिनके सामने नाट्यशाला बनी हुई है। मठके चारों तरफ दीवार खींची हुई है और बाहरसे जंगली वृक्षोंकी श्रेणी द्वारा ऐसा छिपा हुआ है कि पास जानेपर भी यह नहीं मालूम होता कि यहां पका मकान है। अट्टालिकाए जगह जगहसे टूटी फूटी थीं परन्तु दिनको देखनेसे मालूम होता था, कि उन सबकी हालमें ही मरम्मत हो गयी है। इससे प्रगट होता था कि इस गम्भीर और अभेद्य अरण्यमें मनुष्य बास करते हैं।

मठके एक कमरेमें बड़ी भारी धूनी जल रही थी। होशमें आकर कल्याणीने देखा कि वही शुभ्र-शरीर, शुभ्र-वसन महापुरुष उसके सामने खड़े हैं। कल्याणी विस्मयसे उनकी ओर देखने लगी। पर बहुत सोचने पर भी उसे कुछ स्मरण नहीं हो सका। यह देख उस महापुरुषने कहा-“बेटी! शंका न करो, यह देवताका स्थान है। थोड़ा दूध है, इसे पीलो, तब तुम्हें सब कथा सुनाऊंगा। पहले तो कल्याणी कुछ समझ न सकी पर मन कुछ स्थिर हो जानेपर उसने उन महात्माको प्रणाम किया। महात्माने शुभ आशीर्वाद दिया फिर दूसरे कमरेसे एक सुगन्धित मिट्टी का वर्तन लाया और आगपर दूध गरम किया। दूध गरम होनेपर उन्होंने कल्याणोको देकर कहा-“बेटी! थोड़ा तुम पीओ और थोड़ा लड़कीको भी पिलाओ, इसके बाद बाते करूंगा।” यह सुन, कल्याणी प्रसन्न-मन कन्याको दूध पिलाने लगी। इसी समय वे महापुरुष यह कहकर मन्दिरसे बाहर चले गये, "कि मैं जबतक नहीं आऊ, किसी प्रकारकी चिन्ता न करना।” कुछ देर बाद बाहरसे लौट आनेपर उन्होंने देखा कि कल्याणी कन्या को तो दूध पिला चुकी है, पर अभी स्वयं नहीं पिया है। दूध ज्योंका त्यों रखा हुआ है, यह देख उस महापुरुषने कहा-“बेटी! तुमने क्यों नहीं पिया? लो, मैं बाहर जाता हूं, जबतक तुम न पी लोगी, मैं न लौटूंगा।"

यह कहकर वे महापुरुष चले हो जा रहे थे कि कल्याणीने उन्हें दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

वनवासीने पूछा-"क्या कुछ कहोगी?" कल्याणीने कहा “मुझे दूध पीनेके लिये अनुरोध न करें-एक आपत्ति है। मैं नहीं पी सकती।" यह सुन वनवासीने अत्यन्त करुण स्वरमें कहा-“कौनसी आपत्ति है, मुझसे कहो। मैं जंगलमें रहनेवाला ब्रह्मचारी हूं। तुम मेरो लड़कीके बराबर हो। कहो, मुझसे भी कहने लायक नहीं हो, ऐसी कौन सी बात है। जब मैं तुम्हें जंगलसे बेहोशीकी हालतमें उठा लाया था, उस समय तुम बहुत 'भूखी प्यासी मालूम पड़ती थी। विना कुछ खाये पिये प्राण कैसे बचेंगे।"

कल्याणीने रोते-रोते कहा-"आप देवता हैं, इसीसे आपसे कहती हूं। मेरे स्वामी अभीतक भूखे होंगे। बिना उन्हें देखे

या उनके बिना खा पी लेनेका संवाद पाये, मैं भला कैसे दूध पी सकती हूं।

ब्रह्मचारीने पूछा-"तुम्हारे स्वामी कहां हैं?"

कल्याणी-“यह मुझे नहीं मालूम! वे दूध लाने बाहर चले गये थे। इसी समय डाकू मुझे उठा लाये।” ब्रह्मचारीने एक एक करके कल्याणी और उसके स्वामीका सारा हाल मालूम कर लिया। कल्याणीने अपने स्वामीका नाम नहीं बतलाया, क्योंकि वह उनका नाम मुहसे नहीं निकाल सकती थी, परन्तु ब्रह्मचारी जीने अन्य बातोंसे सब कुछ समझ लिया पूछा क्या तुम्ही महेन्द्रकी स्त्री हो?” कल्याणीने कुछ जवाब नहीं दिया। केवल सिर झुकाये हुए वह आगमें लकड़ी उठाकर डालने लगी। ब्रह्मवारीने कहा-"मेरी बात मानो, दूध पी लो। मैं तुम्हारे स्वामीका समाचार लाने जाता हूं। तुम दूध न पीयोगी मैं जाऊंगा ही नहीं।

कल्याणीने कहा-"थोड़ा-सा पानी मिलेगा?"

ब्रह्मचारीने जलके घड़ेकी ओर इशारा किया। कल्याणीने हाथ फैलाया, ब्रह्मचारीने पानी ढाल दिया। जलसे भरी हुई अंजलि ब्रह्मचारीके पैरोंके पास ले जाकर कल्याणीने कहा “आप इसमें अपनी पदरज दे दीजिये।” ब्रह्मचारीने अपने पैरके अंगूठेसे उस जलको स्पर्श कर दिया। बस, कल्याणी उसे पी गयी और बोली-“मैंने अमृत पान कर लिया, अब और कुछ खाने पीनेको न कहिये। स्वामोका संवाद पाये बिना मुझस कुछ भी ग्रहण नहीं किया जायगा।"

ब्रह्मचारीने कहा-“अच्छा तुम निर्भय होकर इस देवमन्दिर में बैठी रहो-मैं तुम्हारे स्वामीका पता लगाने जाता हूं।"