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आनन्द मठ/3.4

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(आनन्दमठ/3.4 से अनुप्रेषित)
आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ११५ से – १२३ तक

 

चौथा परिच्छेद।

एक दिन भवानन्द गोस्वामी नगरमें गये और चौड़ी सड़क छोड़कर अंधेरी गलीमें घुसे। गलीके दोनों तरफ ऊंचे ऊंचे मकान खड़े थे। सूर्य भगवान् दोपहर में भी एकाध बार ही इस गलीके भीतर झांक लेते हैं, नहीं तो वहां बराबर अंधकारही अंधकार रहता है। उसी गलीके पासवाले एक दोतल्ले मकानमें भवानद ठाकुर घुस पड़े। नीचेके जिस घरमें एक अधेड़ स्त्री बैठी रसोई बना रही थी, वहीं जाकर भवानंद महाप्रभु उपस्थित हुए। स्त्री अधेड़, मोटी ताजी, काली, सफेद कपड़े पहने, माथेमें चंदन लगाये, सिरपर बालोंका जड़ा बांधे थी। हांडीके कोरमें भात चलानेसे कलछी ठक-ठक बोल रही थी। फर फर करके उसके सिरके बाल हवामें उड़ रहे थे, वह आर ही आप न जाने क्या बड़बड़ा रही थी और उसके चेहरेके चढ़ाव उतारके साथ साथ उसके बालोंका लहराना कुछ और शोभा देरहा था। इसी समय भवानन्द महाप्रभु उस घरमें घुस पड़े और बोले, “पण्डिताइनजी प्रणाम।" पण्डिताइनजी भवानन्दको देख कर जल्दी जल्दी अपने कपड़े सम्हालने लगीं। उनकी इच्छा थी कि सिरका सुहावना जूड़ा खोल डालें, पर जूठा हाथ होने के कारण वैसा न कर सकीं। एक तो उनके वे बाल स्वभावतः ही मुलायम थे, जिसपर पूजाके समयका उनमें मालसिरीका एक फल भटका रह गया था। उन्होंने कितना चाहा कि उसे आँचल से छिपा लें, पर आंचलमें वह छिप न सका, कारण वे सिर्फ पांच हाथकी साड़ी पहने हुई थीं। वह पांच हाथ की साड़ी उनकी मोटी तोंदको ही ढकने में प्रायः ख़तम हो गयी थी, तिसपर दुःसह भार-ग्रस्त हृदय-मण्डलकी भी उसे आबरू बचानी पड़ती थी। अन्ततो गत्वा कन्धेतक पहुंचते न पहुंचते ही साड़ीने जवाब दिया। कानके पास आकर चुपकेसे कहा कि बल, अब इसके आगे मुझसे नहीं जाया जायगा। लाचार लज्जा और संकोचवश गौरी ठकुराइनने आंचलको कानके पास लाकर हाथसे पकड़ रखा और आगेसे आठ हाथकी साड़ी पहननेकी मनही मन प्रतिज्ञा करते हुए कहा,-"कौन? गुसाई जी! आओ, आओ। मुझे प्रणाम क्यों करते हो भाई?" भवा०-"तुम भाभीजी ठहरी ?"

गौरी--"आदरसे जो चाहो कह लो, नहीं तो तुम ठहरे गुसाई बाबा-लाक्षात् देवता! खैर, जब प्रणाम किया ही तो मैं भी असीस देती है कि जियो जागो। हां, प्रणाम कर भी सकते हो; क्योंकि उमरमें मैं तुमसे बड़ी हूं।"

इस समय गौरीदेवीकी उमर भवानन्दसे २५ वर्ष अधिक होगी, परन्तु सुचतुर भवानन्दने कहा, "यह क्या भाभी! तुम यह क्या कहती हो? तुम्हे रसीली छबीली देखकर ही भाभी कहकर पुकारता हूं। नहीं तो तुम्हें याद है या नहीं, उस बार हिसाब लगाकर देखा गया था, तो तुम मुझसे छः वर्ष छोटी निकली थी? हम वैष्णवोंमें तो जानती ही हो कि हर तरहके लोग हैं। इसीलिये मेरी इच्छा होती है कि मटके ब्रह्मवारीजीकी आज्ञा लेकर तुम्हारे साथ सगाई कर लूं। यही कहने के लिये मैं तुम्हारे पास आया हूं।"

गौरी-"छिः! यह भी कोई बात है? मैं ठहरी विधवा-”

भवा०"--तो क्या विधवाकी सगाई नहीं होती?"

गौरी-“अरे भाई! जाओ, जो मनमें आवे, करो। तुम लोग पंडित टहरे। हम औरतें यह क्या जाने? खैर, कब सगाई होगी?"

भवानन्दने बड़ी मुश्किलसे अपनी हंसी रोककर कहा, "बस एक बार उस ब्रह्मचारीसे मिलने भर की देर है। अच्छा, यह तो कहो वह कैसी है?"

गौरी उदास हो गयी। उसने मनही मन सोचा कि मालूम होता है, सगाईकी बात यह योंही दिल्लगीके तौरपर कह रहा था! बोली,-"कैसी क्या? जैसी थी, वैसी है।"

भवा०-"तुम एक बार जाकर उसको देखो, कि कैसी है। उससे कहना कि मैं उससे मिलने आया हूं।" यह सुन, गौरी देवी हाथकी कलछी जमीनपर रख; हाथ धो, लम्बो लम्बी डग भरती दोतल्ले पर जानेके लिये सीढ़ियां चढ़ने लगीं। ऊपर एक कमरेमें एक फटी चटाईपर एक अपूर्व सुन्दरी बैठी थी पर उसके सौन्दर्यपर भीषण छाया पड़ी थी। मध्याह्न कालमें, कूल परिप्लाविनी, प्रसन्न-सलिला, विपुल-जल-कल्लोलिनी, स्रोतस्वतीके ऊपर जैसी घने बादलों की छाया पड़ जाती है, वैसी ही छाया पड़ी हुई थी। नदीमें तर उठ रही थीं, तीरपर कुसुमित वृक्ष हवाके झोंकेसे हिल रहे थे, कोई कोई फूलोंके भारले झुक रहे थे, अट्टालिकाओंकी श्रेणी भी अपनी शोभा दिखा रही थी, डांडोंकी चोटसे नदीका जल चञ्चल हो रहा था, दोपहरका सुहावना समय था; पर उस काली छायामें सारी शोभा-क्षीण थी। उस सुन्दरीकी भी वही दशा थी। पहलेकेसे सुन्दर चिकने और चञ्चल केश, पहलेके ही तरह प्रशान्त और उन्नत ललाटपर किसीको निराली लेखनीसे अङ्कित भौ है, पहलेकीसी बड़ी साश्रु और काली पुतलियोंवाली आंखें-लभी हैं, पर न तो उनमें पहलेकी भांति कटाक्ष है, न चंञ्चलता है, पर कुछ कुछ नम्रता है। अधरोंपर वही पहलेकीसी ललाई है; हृदय उसी तरह भावपूर्ण है, बांहें वैसी ही वनलताकी कोमलताको भी मात करनेवाली हैं, पर आज न तो वह कान्ति है, न ज्योति, न चंञ्चलता और न रस, अधिक क्या वह यौवन हो अब न रहा, केवल सौन्दर्य और माधुये। उसमें और दो नयी बातें आ गयी है धीरता और गंम्भीरता। पहले इन्हें देखने से मालूम होता था कि यह मनुष्य लोककी अनुपम सुन्दरी हैं; पर आज देखनेसे मालूम होता है कि यह देवलोककी कोई शापग्रस्ता देवी है। चारों ओर भोजपत्रपर लिखी हुई पोथियाँ फैली हुई हैं; दीवारमें खूटीपर सुमिरनी माला लटक रही है और जगह जगहपर जगन्नाथ, बलराम, सुभद्राका पट लगा है, कहीं कालियदमन, नव-नारी कुञ्जर, वस्त्रहरण, गोवर्द्धनधारण आदि ब्रजलीलाओंके चित्र अंकित हैं। चित्रोंके नीचे लिखा है,- “चित्र हैं हा विचित्र?” भवानन्दने उसी घरमें प्रवेश किया। भवानन्दने पूछा,-"कल्याणी! कैसी हो? तुम्हारा शरीर तो अच्छा है न?"

कल्याणी-"आप क्या इस सवालका पूछना बन्द न करेंगे?

मेरा शरीर अच्छा रहनेसे न आपकी ही कुछ भलाई है, न मेरी।"

भवा०-"जो वृक्ष रोपता है, वह उसमें नित्य जल छोड़ा करता है। उस वृक्षको पनपते देखकर उसे सुख होता है। तुम्हारे मुर्दे शरीरमें मैंने जान डाली थी, इसीलिये पूछता रहता हूं कि वह जान ज्योंकी त्यों है या नहीं?"

कल्याणी-“कहीं विषका वृक्ष भी सूखता है?"

भवानन्द-"तो क्या जीवन विष है?"

कल्याणी-"नहीं तो मैं क्यों अमृत पीकर उसका नाश करने जाती?"

भवानन्द--"मैंने कई दफै सोचा, पर साहस न हुआ कि तुमले पूछूं कि किसने तुम्हारा जीवन विषमय कर दिया था।"

कल्याणी-"किसीने नहीं यह जीवन तो आपही विषमय है। मेरा जीवन विषमय है, आपका जीवन विषमय है, सारे संसारका जीवन विषमय है।"

भवा०-"ठीक है कल्याणी! मेरा जीवन सचमुच विषमय है। जिस दिनसे....... हाँ, तो तुम्हारा व्याकरण पढ़ना समाप्त हो गया?"

कल्याणी-"नहीं।"

भवा०-"और कोष?"

कल्याणी-“उसे पढ़नेमें तो जी नहीं लगता।"

भवा०-“पहले तो मैंने पढ़ने लिखने में तुम्हारा बड़ा उत्साह देखा था, अब ऐसी अश्रद्धा क्यों हो गयी?"

कल्याणी-“जब आपकेसे पण्डित भी महापापी होते हैं तब न लिखना पढ़ना ही अच्छा है। प्रभो! मेरे स्वामीका कुछ हाल ब तलाइये।" भवा०-"तुम बारबार यह बात क्यों पूछती हो? वे तो तुम्हारे लिये मरे हुएके बराबर हैं।"

कल्याणी--“मैं उनके लिये मर गयी हूं सही; पर वे मेरे लिये कभी नहीं मर सकते।"

भवा०-“वे तुम्हारे लिये मरे तुल्य हो जायंगे, यही सोचकर तो तुमने अपनी जान दी थी। फिर बार बार वही बात तुम क्यों पूछती हो?"

कल्याणी-"मरनेसे ही क्या सम्बन्ध टूट जाता है? कहिये, वे कैसे हैं?"

भवा०-"अच्छे हैं।"

कल्याणी...“कहां हैं; पदचिह्नमें?"

भवा०-"हाँ वहीं है।"

कल्याणी-"क्या कर रहे हैं?"

भवा०-" जो करते थे, वही करते हैं। किला और हथियार तैयार करा रहे हैं। उन्हींके बनाये हुए अस्त्रोंसे आजकल सहस्त्र-सहस्त्र सन्तान सजित हो रहे हैं। उनके प्रतापसे तोप, बन्दूक, गोला, गोली और बारूदका हमलोगोंको अभाव नहीं है। सन्तानोंमें आजकल वेही श्रेष्ठ समझे जाते हैं वे हमलोगोंका बड़ा उपकार कर रहे हैं दाहिने हाथ बन रहे हैं।"

कल्याणी-“मैं यदि प्राण-त्याग नहीं करती, तो वे इतना थोड़े ही कर सकते थे। जिसकी छातीमें कच्चा घड़ा बंधा होता है, वह थोड़े ही भवसागर पार हो सकता है? जिसके पैरों में जंजीर पड़ी होती है वह थोड़ेही दौड़ सकता है? सन्यासी, तुमने इस क्षुद्र जीवनको क्यों बचाया था?"

भवा०-"स्त्री सहधर्मिणी, पतिके धर्मों में सहायक होती है।"

कल्याणी–“छोटे छोटे धर्मोंमें। बड़े बड़े धर्मो तो वह कण्ठक ही प्रमाणित होती है। मैंने विषकण्टक द्वारा उनके अधर्मका कांटा निकाल फेंका था। छिः पापी, दुराचारी, ब्रह्मचारी! तुमने मुझे मरनेसे क्यों बचाया?"

भवा०-"मैंने जो प्राण तुम्हें लौटा दिये, उन्हें मेरी ही थाती समझ लो और बोलो, तुम उन्हें मेरे हवाले कर सकती हो?"

कल्याणी-"अच्छा, यह तो कहिये, आपको मेरी सुकुमारी का कुछ हाल मालूम है या नहीं?"

भवा०-"बहुत दिनोंसे कुछ नहीं मालूम। जीवानन्द बहुत दिनोंसे उधर गये ही नहीं।"

कल्याणी-"तो क्या आप मुझे उसका संवाद नहीं ला दे सकते? स्वामी भलेही छूट जायं; पर जीते जी कन्याको क्यों छोड़ूं? अगर इस समय सुकुमारीको पा जाऊं, तो यह जीवन कुछ सुखमय हो सकता है। पर आप मेरे लिये इतना तरद्दुद क्यों उठाने लगे?"

भवा०-"क्यों नहीं उठाऊंगा? कल्याणी! मैं तुम्हारी लड़की ला दूंगा, पर इसके बाद?"

कल्याणी-“इसके बाद क्या?"

भवा०-"स्वामी?"

कल्याणी- “उन्हें तो मैंने जान बूझकर छोड़ दिया है।"

भवा०-“यदि उनका व्रत सम्पूर्ण हो जाय?"

कल्याणी-"तब उन्हींकी होकर रहूंगी। वे क्या जानते हैं, कि मैं मरी नहीं हूं?"

भवा०-"नहीं।"

कल्याणी-“क्या आपसे उनकी देखादेखी नहीं होती?"

भवा०-"होती है।"

कल्याणी-“मेरी कुछ बात नहीं चलती?"

भवा०—“नहीं, जो स्त्री मर गयी, उससे स्वामीका नाता ही क्या रह गया?"

कल्याणी- आप क्या कह रहे हैं?" भवा०—तुम्हारा नया जन्म हुआ है; अब तुम फिर विवाह कर सकती हो।"

कल्याणी—“मेरी कन्याको ला दो।"

भवा०-"ला दूंगा-तुम फिर विवाह कर सकती हो?"

कल्याणी-"क्या तुम्हारे साथ?"

भवा०-"विवाह करोगी?"

कल्याणी-"क्या तुम्हारे हो साथ?"

भवा०- यदि ऐसा ही हो?"

कल्याणी-"तो फिर सन्तानधर्म कहां जायगा?"

भवा०--"अथाह जलमें डूब जायगा।"

कल्याणी-"और परलोक?"

भवा०-"वह भी अथाह जल में डूब जायगा।"

कल्याणी- "और यह महाव्रत?"

भवा०-"वह भी।"

कल्याणी-"किसलिये तुम इन सबको अथाह जलमें डुबानेको तैयार हो?"

भवा०-"तुम्हारे ही लिये। देखो, मनुष्य, ऋषि, सिद्ध, देवता, सबका चित्त अवश रहता है। सन्तानधर्म मेरा प्राण है सही; पर आज पहले पहल मुझे कहना पड़ता है कि तुम मेरे प्राणोंसे भी बढ़कर हो। जिस दिन मैंने तुम्हें जिलाया, उसी दिनसे तुम्हारे चरणोंका क्रीत दाल हो रहा हूं। मैं नहीं जानता था कि संसार में इतनी रूपराशि हैं। यदि मैं जानता कि किसी दिन ऐसी रूपशि मेरी आँखोंतले आयगी, तो मैं कदापि सन्तानधर्म नहीं ग्रहण करता। यह धर्म इस आगमें पड़कर राख हो जाता है। मेरा धर्म जलकर राख हो चुका, सिर्फ प्राण रह गये हैं। आज चार वर्षांसे ये प्राण भी जल रहे हैं। अब ये भी न बचेंगे। ओह! कैसी जलन है, कल्याणी! कैसी ज्वाला है! पर इसमें जलने योग्य ईन्धन अब नहीं रह गया। प्राण निकल रहे हैं। चार सालतक सहता आया, अब नहीं सहा जाता। बोलो, तुम मेरी होगी या नहीं?"

कल्याणी-“मैंने तुम्हारे ही मुंहसे सुना था कि सन्तानधर्मका यह नियम है कि जो इंद्रियोंपर वश नहीं रखता उसे प्राण देकर इस पापका प्रायश्चित्त करना पड़ता है। क्या यह बात ठीक है?"

भवा०-"हां, ठीक है।"

कल्याणी-"तब तो, तुम्हारे इस पापका प्रायश्चित्त मृत्यु ही है।"

भवा०-"हां, मेरा प्रायश्चित्त मृत्यु ही है।"

कल्याणी—“यदि मैं तुम्हारी मनोकामना पूर्ण कर दूं, तो तुम प्राण दे डालोगे?

भवा०-"हां, जरूर दे डालूंगा।"

कल्याणी---"और यदि नहीं पूर्ण करू तो?"

भवा०–“यदि नहीं पूर्ण करो तो भी मुझे मरकर इस पापका प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा, पचोंकि मेरा चित्त इद्वियोंका दास हो गया है।"

कल्याणी--"मैं तुम्हारी मनोकामना पूर्ण नहीं करूंगी।

बोलो, तुम कब मरोगे?"

भवाo-"आगामी युद्धमें।"

कल्याणी-“बस तो अब यहांसे चले जाओ। बोलो, मेरी कन्या भेज दोगे या नहीं?"

भवानन्दने आंखोंमें आंसू भरकर कहा,-"ला दूंगा। क्या मेरे मर जानेपर मुझ स्मरण रखोगी?"

कल्याणीने कहा रखूंगी, तुम्हें व्रतच्युत, अधर्मी समझाकर याद किया करूंगी।"

भवानन्द चले गये। कल्याणी पुस्तक पढ़ने लगी।