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आनन्द मठ/3.5

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(आनन्दमठ/3.5 से अनुप्रेषित)
आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १२४ से – १२७ तक

 
पांचवां परिच्छेद

भवानंद सोचते विचारते मठकी ओर चले। जाते ही जाते रात हो गयी। वे अकेले थे। अकेले ही जङ्गलमें घुसे। वनमें घुसनेपर उन्होंने देखा कि कोई उनके आगे आगे चला जा रहा है। भवानंदने पूछा,--"कौन जा रहा है?"

आगे जानेवालेने कहा--"अगर तुम्हें पूछना आता, तो ठीकसे जवाब भी देता। यही समझ लो, कि मैं पथिक हूं भवा०--"बन्दे।"

आगे जानेवाला बोला-"मातरम्।”

भवा०-“मैं हूं, भवानंद गोस्वामी।"

आगे जानेवाला-"मैं भी धीरानन्द है।"

भवा-“कहां गये थे, धीरानन्द?”

धीरा-आपहीकी खोज में।"

भवा०-"क्यों? किसलिये?"

धीरा-“एक बात कहनी थी।"

भवा-"कौनसी बात?"

धीरा-“एकांतमें कहनेकी बात है।"

भवा०-"यहीं कहो न, यहां तो और कोई नहीं है।"

धीरा०-"आप नगरमें गये थे?"

भवा०-"हां"

धीरा-“गौरी देवीके घरपर?"

भवा०—“तुम भी गये थे क्या?"

धीराo-"वहां एक बड़ी ही सुन्दरी युवती रहती है।"

भवानन्द कुछ आश्चर्य में पड़ गये, साथ ही कुछ डर भी गये बोले,-"यह कैसी बातें कर रहे हो?"

धीरा०-"आपने उससे मुलाकात की थी न?”

भवा-"फिर क्या हुआ?"

धीरा°—"आप उसपर अतिशय अनुरक्त हो रहे हैं।"

भवा°—(कुछ सोचकर) "धीरानन्द! तुमने इतनी खोज ढूंढ किसलिये की? देखो, धीरानन्द! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सच है। पर यह तो कहो, यह बात तुम्हारे सिवा और भी किसीको मालूम है?"

धीरा°—"और कोई नहीं जानता।"

भवा°—"तब यदि मैं तुम्हारी जान ले लूं, तो बदनामीले बच जा सकता हूं।"

धीरा°—"हां"

भवा°—"तब आओ, इसी निर्जनमें हम दोनों करें या तो मैं तुम्हें मारकर निष्कण्टक हो जाऊंगा या तुम मुझे मारकर प्रेरी सारी जलन मिटा दोगे। हथियार पास है?"

धीरा°—"है-खाली हाथ भला कौन तुम्हारे साथ ऐसी बढ़ बढ़कर बातें करता? यदि तुम युद्ध ही करना चाहते हो, तो आओ, मैं अवश्य ही युद्ध करूंगा। एक सन्तानका दूसरे संतानसे विरोध करना अनुचित है, किन्तु आत्मरक्षाके लिये किसीसे विरोध करना बुरा नहीं है। पर मैं जो सब बाते कहनेके लिये तुम्हें ढूंढ रहा था, उन्हें सुनकर लड़ते; तो ठीक था।"

भवा°—"हर्ज ही क्या है? कह डालो।"

भवानन्दने तलवार निकालकर धीरानन्दके कन्धेपर रखी। धीरानन्द टससे मस न हुए।

धीरा°—"मैं यही कह रहा था कि तुम कल्याणीसे विवाह कर लो।"

भवा—"वह कल्याणी ही है, यह भी जानते हो?"

धीरा°—"हां, तो तुम विवाह क्यों नहीं कर लेते?"

भवा—"उसका स्वामी मौजूद है।"

धीरा°—"वैष्णवों में इस तरहका विवाह होता है।"

भवा°—"ऐसा मुंड़े हुए सन्यासियों में होता है, सन्तानों में नहीं। सन्तानोंको तो विवाह करना ही नहीं चाहिये।"

धीरा°—"क्या सनातनधर्म छोड़ नहीं सकते? तुम्हारे तो प्राण निकले जा रहे हैं। छिः! छिः! यह क्या कर डाला? मेरा कन्धा कट गया!"

सचमुच धीरानन्दके कन्धेसे खून जारी हो रहा था।

भवा°—"तुम किस मतलबसे मुझे धर्मके विरुद्ध सलाह देने आये हो? इसमें अवश्य ही तुम्हारा कोई स्वार्थ है।"

धीरा°—"वह भी कहता हूं; पर जरा तलवार हटा लो, सब कुछ कह दूंगा। इस सन्तानधर्मके मारे मैं तो हैरान हो गया। मैं तो अब इसे छोड़कर स्त्री-पुत्रके साथ दिन वितानेके लिये अधीर हो रहा हूं। मैं अब इसे छोड़गा। परन्तु मेरा घर जाकर रहना भी मुश्किल है। सभी मुझे विद्रोही जानते हैं जहां घर जाकर रहने लगा कि झट राजपुरुषगण आकर मेरा सिर उतार ले जायंगे। नहीं तो सन्तानगण ही मुझे विश्वास- घातक समझकर मार डालेंगे। इसलिये मैं चाहता हूं कि तुम्हें भी अपने ही रास्तेपर ले चलूं।"

भवा°—"क्यों? मुझे ही क्यों?"

धीरा°—"यही तो असल मतलबकी बात है। सभी सन्तानगण तुम्हारी आज्ञा मानते हैं। इन दिनों सत्यानन्द यहां हैं ही नहीं, तुम्हीं सबके सिरधरू हो। तुम इस सेनाको लेकर युद्ध करोगे, तो तुम्हारी जीत अवश्य होगी। युद्ध जय होनेपर तुम अपने ही नामसे राज्यस्थापन कर लेना। सेना तुम्हारे क्श है हो। तुम राजा बनो, कल्याणी तुम्हारी पटरानी बने, मैं तुम्हारा अनुवर बनकर स्त्री पुत्रका मुंह देखते हुए दिन बिताऊं और तुम्हें आशीर्वाद देता रहूं, यही मेरी इच्छा है। चाहे सन्तानधर्म अगाध जलमें डूब जाय, इसकी मुझे परवाह नहीं।"

यह सुन, भवानन्दने धीरानन्दके कन्धेपरसे तलवार हटा ली और बोले,—"धीरानन्द! तुम युद्ध करो। मैं तुम्हें मार डालूंगा। मैं इन्द्रियोंका दास होकर भले ही रहूं; पर विश्वासघातक होकर नहीं रह सकता। तुम मुझे विश्वासघातक बनने की सलाह दे रहे हो और आप भी विश्वासघातक हो रहे हो, इसलिये तुम्हें मार डालनेसे मुझे ब्रह्महत्याका पाप नहीं लगेगा। मैं तुम्हें जरूर मार डालूंगा।"

बात पूरी होते न होते धीरानन्द बेतहाशा भाग चला। भवानन्दने उसका पीछा नहीं किया। वे कुछ देरतक अनमनेसे रहे, पोछे उसे बहुत ढूँढ़ा; पर कहीं पता न लगा

 

 
छठा परिच्छेद

मठमें न जाकर भवानन्द घने जङ्गलमें चले गये। उस जंगल में एक पुरानी इमारत भग्नावशेष अवस्थामें पड़ी थी। टूटी फूटी ईटोंके ढेरपर जङ्गली लताएं और पौधे बहुतायतसे उग गये थे। वहां असंख्य सर्प रहते थे। उस खंडहरके अन्दर कुछ साफ सुथरी और साबित एक कोठरी थी। भवानन्द वहीं जाकर बैठ गये और सोचने लगे।

घोर अंधेरी रात है। उसपर लम्बाचौड़ा और घना जङ्गल, जिसमें आदमीका पूत भी नहीं और वह वृक्ष-लताओंके मारे ऐसा बीहड़ हो रहा है, कि बेचारे जङ्गली पशु भी उसके अन्दर जानेका रास्ता नहीं पाते। वह वन अतिविशाल जनशून्य, अन्धकार, दुर्भेद्य और नीरव है। रह रहकर केवल बाघका गरजना अथवा जंगली पशुओंका भूख या डरसे तड़पना और चीत्कार सुनायी पड़ जाता है। कभी कभी किसी बड़े पक्षोके पंख फड़फड़ानेका शब्द सुनाई देता है और कभी कभी आपसमें