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आनन्द मठ/अठारहवाँ परिच्छेद

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ७० से – ७३ तक

 

अठारहवां परिच्छेद

सांझ होते होते समस्त सन्तान सम्प्रदायमें यह बात फैलगयी कि, सत्यानन्द ब्रह्मचारी और महेन्द्रसिंह बंन्दी होकर नगर के कैदखानेमें बन्द है। यह सुनते ही एक एक, दो दो, दस दस, सौ सौ करके सन्तान-सम्प्रदायके लोग, उस मन्दिरके चारों तरफवाले जङ्गलमें आकर इकट्ठे होने लगे। सभी हथियारबन्द थे। सबकी आंखोंमें क्रोधकी आग जल रही थी, मुखसे दम्भ प्रगट हो रहा था और होठोंपर दृढ़ प्रतिज्ञाकी छाया थी। पहले सौ आये, पीछे हजार, फिर दो हजार हो गये। इसी तरह उनकी संख्या बढ़ती गयी। यह देख, मठके द्वारपर खड़े होकर ज्ञानानन्द तलवार हाथमें लिये ऊंचे स्वरसे कहने लगे,-"हमलोगोंने बहुत दिनोंसे यह इरादा कर रखा है, कि यह नवाबी इमारत, यह यवनपुरी ढाहकर नदीमें फेक देगे। इन शूकरों के खोभारमें आग लगाकर माता वसुमतीको फिर पवित्र करेंगे। भाई! आज वही दिन आ पहुंचा है। हमारे गुरुके गुरु, परम गुरु, अनन्त, ज्ञानमय, सदा शुद्धाचारी, लोकहितैषी देशहितैषी पुरुष जिन्होंने सनातनधर्म के पुनः प्रचारके लिये अपना जीवन ही दे रखा है, जिन्हें हमलोग विष्णु का अवतार मानते हैं, जो हमारी मुक्तिके द्वार हैं, वेही आज मुसलमानोंके कैदखाने में पड़े हैं। क्या हमारी तलवारमें धार नहीं रह गयी है? (हाथ उठाकर)-क्याहमारी इन भुजामोंमें बल नहीं रहा? (फिर छाती ठोंककर) -क्या इस हृदयमें साहस नहीं रह गया? भाइयो! बोलो-हरे मुरारे मधुकैटभारे! जिन्होंने मधुकैटभका नाश किया है, जिन्होंने हिरण्यकशिपु, कंस, दन्तवक, शिशुपाल आदि दुर्जय असुरोंको मार गिराया है, जिनके चक्र के घघर निर्घोषको सुन कर मृत्युको जीतनेवाले शम्भु भी डर जाते हैं, जो अजेय हैं, रणमें जय देनेवाले हैं, हमलोग उन्हींके उपासक हैं, उन्हींके बलसे हमारी भुजाओंमें अनन्त बल वर्तमान है। वे इच्छामय हैं, उनके इच्छा करते हो हमलोग लड़ाई जीत लेंगे। चलो, हम लोग अभी उस यवनपुरीको तहस नहस कर डालें और धूलमें मिला दें। उस शूकरनिवासको आगसे जलाकर पानीमें बहा दें। वह पंछीका घोंसला उजाड़कर उसके सब खर-पात हवामें उड़ा दें। बोलो, हरे मुरारे मधुकैटभारे!"

उस समय उस जंगलमें अति भीषण नादसे सहस्रों कण्ठ एक साथ ही कह उठे,–“हरे मुरारे मधुकैटमारे!” साथ ही हजारों तलवारें एक ही साथ झनझना उठीं। सहस्रों भालोंकी नों एक ही साथ चमचमा उठीं। सहस्रों भुजाओंके परिचालनसे वज्रका सा शब्द होने लगा। हजारों युद्धके नगाड़े बज उठे। जंगलके पशु डर के मारे महा कोलाहल करते हुए भाग चले। पक्षी जोर जोरसे चीत्कार करते हुए आसमानमें उड़ गये। उसी समय सैकड़ों मारू बाजे बजाते और “हरे मुरारे मधुकैटभारे” की आवाज लगाते हुए सन्तानगण कतार बांधकर जंगलसे बाहर होने लगे। धीर गम्भीर पदविक्षेप करते और ऊचे स्वरसे हरिनामका उच्चारण लेते हुए वे लोग उसी अँधेरी रातमें नगरकी ओर बढ़े। वस्त्रों का मर्मर शब्द, अस्त्रोंकी झनकार, सहस्रों कण्ठोंका अस्फुट निनाद और बीच-बीचमें “हरे मुरारे” का तुमुल रव होता रहा। धीर, गम्भीर, सरोष और सतेज भावसे चलती हुई वह सन्तानसेना क्रमसे नगरमें आ पहुंची और नगरवासियोंके मनमें भास उत्पन्न करने लगी। इस आकस्मिक विपत्तिसे भयभीत हो लोग इधर-उधर भाग चले। नगर-रक्षक तो अवाक रह गये।

सन्तानोंने सबसे पहले सरकारी जेलखाने में जाकर उसे तोड़ डाला। वहांके पहरेदारों को मार, सत्यानन्द और महेन्द्रको छुड़ा उन्हें कन्धेपर बैठाकर नाचने-कूदने लगे। उस समय हरि नामका भजन और भी जोर जोरसे होने लगा। सत्यानन्द और महेन्द्रको छुड़ानेके बाद वे जहां कहीं मुसलमानोंका घर देख पाते, उसमें आग लगा देते थे। यह देख सत्यानन्दने कहा, "चलो, लौट चलो। व्यर्थ उपद्रव करनेसे कोई काम नहीं है।"

सन्तानोंके इस उपद्रवका संवाद पाकर देशके शासक ने उनके दमनके लिये सैनिकोंका एक दल भेजा, जिनके पास केवल बन्दूकें ही नहीं एक तोप भी थी। इनके आनेकी खबर पाते ही सन्तानगण उस जंगलसे निकलकर युद्ध करनेके लिये आगे बढ़े। लेकिन तोपके आगे लाठी, बर्ची या बीस-पच्चीस बन्दूकों की क्या बिसात थी?

सन्तानगण, पराजित हो, भागने लगे।  

 





आनन्दमठ।


दूसरा खण्ड।