आनन्द मठ/चौदहवाँ परिच्छेद

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चौदहवां परिच्छेद।

रात आ पहुंची। कारागारमें पड़े हुए सत्यानन्दने महेन्द्रको कहा,-"आज बड़े ही आनन्दका दिन है क्योंकि हम कैदमें हैं, बोलो, 'हरे मुरारे!' महेन्द्रने कातर स्वरसे कहा-'हरे मुरारे!'

सत्यानन्द,-"वत्स! तुम उदास क्यों हो रहे हो? इस महाव्रतको ग्रहण करनेपर तो तुम्हें एक न एक दिन स्त्री कन्याको अवश्य छोड़ना ही पड़ता। उनसे सम्बन्ध तोड़ना ही पड़ता।"

महेन्द्र-"त्याग कुछ और ही चीज है और यम-दण्ड कुछ और ही। जिस शक्तिके बलपर मैं यह व्रत ग्रहण करनेको था, वह तो मेरी स्त्री कन्याके ही साथ चली गयी!"

सत्या०-"शक्ति हो जायगी। मैं ही तुम्हें शक्ति दूंगा। महामन्त्रसे दीक्षित हो, महाव्रत ग्रहण कर लो!"

महेन्द्र (विरक्त होकर)-"मेरी स्त्री कन्याको स्यार कुत्ते नोचकर खाते होंगे। मुझसे किसी व्रतकी बात न कहिये।"

सत्या०-"इसके लिये निश्चिन्त रहो। सन्तानोंने तुम्हारी स्री संस्कार कर दिया है और तुम्हारी कन्याको भी अच्छे स्थानमें रख आये है!”

महेन्द्रको बड़ा अचम्भा हुआ। उन्हें इस बातपर विश्वास न हुआ। वे बोले "यह बात आपको कैसे मालूम हुई? आप तो बराबर मेरे साथ ही रहे।" [ ५४ ] सत्या०-"हमलोगोंने महामन्त्र की दीक्षा ली है। हमपर देवताओंकी दया रहती है। आज ही रातको तुम्हें इस बातकी खबर मिलेगी और आज ही तुम इस कैदखानेसे छूट भी जाओगे।"

महेन्द्र कुछ न बोले। सत्यानन्द समझ गये कि, महेन्द्रको मेरी बातका विश्वास नहीं होता। सत्यानन्दने कहा,-"क्या तुम्हें मेरी बातका विश्वास नहीं होता? परीक्षा कर देखो।” यह कह सत्यानन्द कैदखानेके द्वारतक चले आये। उन्होंने अंधेरे में क्या किया, सो तो महेंद्रने नहीं देखा, पर यह समझ गये कि किसीसे बातचीत की है। उनके लौट आनेपर महेन्द्रने पूछा, "क्या परीक्षा करूं?"

सत्या०-"तुम अभी इस कारागारसे छुटकारा पाओगे।"

यह बात पूरी होते न होते कैदखानेका दरवाजा खुल गया और एक आदमीने अन्दर आकर पूछा,-"महेन्द्रसिंह किसका नाम है?"

महेन्द्रने कहा,-"मेरा नाम है।"

आगन्तुकने कहा,-"तुम्हारी रिहाईका हुक्म हुआ है, तुम बाहर जा सकते हो।"

पहले महेन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ, फिर सोचा कि झूठी बात है, पर परीक्षाके लिये बाहर चले ही आये। किसीने रोक टोक नहीं की। वे राजपथतक चले आये।

इधर आगन्तुकने सत्यानन्दसे पूछा, “महाराज! आप भी क्यों नहीं निकल चलते? मैं तो आपके ही लिये आया हूं।"

सत्या०-"तुम कौन हो? क्या धीरानन्द गोस्वामी?"

धीरा०-“जी हां।"

सत्या०-"तुम पहरेदार कैसे बने?"

धीरा०-"मुझे भवानन्दने यहाँ भेजा है। नगरमें आकर मैंने सुना, कि आपलोग कैद हो गये हैं। यह सुनते ही मैं थोड़ी धतूरा [ ५५ ] मिली हुई भाँग लिये चला आया। उसीके प्रतापसे जो खाँ साहब यहां पहरा दे रहे थे, उन्हें बेहोश किया। यह सब अंगा, पायजामा, पगड़ी और बर्जा उन्हीं हजरतका है।"

सत्या०-"अच्छा; तुम इसी वेशमें शहरसे निकल जाओ। मैं यों नहीं जानेका।"

धीरा०-"क्यों?"

सत्या०-"आज सन्तानोंकी परीक्षाका दिन है।"

इतनेमें महेन्द्र लौट आये। सत्यानन्दने पूछा,-“लौट क्यों आये?"

महेन्द्र-"आप सचमुच बड़े ही सिद्ध महात्मा हैं। मैं आपका साथ छोड़कर नहीं जाऊँगा।"

सत्या०-"अच्छा, तो रहो। हम दोनों आज रातको दूसरी तरहसे छुटकारा पा लेंगे।"

धीरानन्द बाहर चले गये। सत्यानन्द और महेन्द्र कैदखाने में ही पड़े रहे।