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आनन्द मठ/पंद्रहवाँ परिच्छेद

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ५५ से – ६४ तक

 

पन्द्रहवां परिच्छेद।

ब्रह्मचारीका गाना बहुतोंने सुना था। जीवानन्दके भी कानमें वह गाना पड़ा था। पाठकोंको स्मरण होगा, कि उन्हें महेन्द्रका पीछा करते रहनेका हुक्म हुआ था। उन्हें रास्ते में एक स्त्री मिल गयी थी, जो सात दिनसे भूखी प्यासी रास्तेके किनारे पड़ी थी। उसीकी जान बचाने में लग जानेके कारण जीवानन्दको घड़ी दो घड़ीका विलम्ब हो गया। उसके प्राणोंकी रक्षा कर वे उस स्त्री को कुवाच्य कहते, इधर ही चले आ रहे थे (क्योंकि इस विल-म्बका कारण वही थी) कि उन्होंने देखा कि प्रभुको मुसलमान पकड़े लिये जा रहे हैं और प्रभु गीत गाते हुए चले जा रहे हैं।

जीवानन्द महाप्रभु सत्यानन्दके सब इशारे समझते थे। इसीसे उनके मुंहसे यह गाना सुनकर कि:-

"धीर समीरे तटिनी तीरे वसति बने वर नारी।"

उन्होंने सोचा कि कहीं नदीके तीरपर कोई दूसरी औरत तो भूखी प्यासी नहीं पड़ी हुई है? यही सोचते विचारते जीवानन्द नदीके किनारे किनारे चले। जीवानन्दने यह देख लिया था, कि ब्रह्मचारीजीको मुसलमान बांधे लिये चले जा रहे हैं उन्होंने पहले तो उन्हें छुड़ानेका विचार किया; फिर सोचा कि इस संकेतका अर्थ तो कुछ और ही है। उनकी जीवन-रक्षा करनेकी अपेक्षा उनकी आज्ञाका पालन करना ही वे सदासे सिखलाते आये हैं। यह सोच जीवानन्दने उनकी आज्ञाका पालन करना उचित समझा।

यही सोचकर जीवानन्द नदीके किनारे किनारे चलने लगे। जाते जाते उन्होंने नदीके किनारे एक वृक्षके नीचे पहुंचकर देखा, कि एक मरी हुई स्त्री और एक जीती जागती लड़की पड़ी है। जीवानन्दने महेन्द्रकी स्त्री कन्याको पहले कभी नहीं देखा था। उन्होंने सोचा, सम्भव है, यही महेन्द्रकी स्त्री कन्या हों; क्योंकि प्रभुके साथ महेन्द्र भो दिखलाई दिये थे। जो हो, माँ तो मरी हुई मालूम पड़ती है, पर लड़की जीती थी। पहले इसकी जान बचानी चाहिये, जिसमें बाघ भालू इसे न खा जाय। भवानन्दजी पास ही कहीं होंगे; इस लाशको जला देंगे। यह सोचकर जीवानन्द उस लड़कीको गोदमें लेकर चल पड़े।

लड़कीको गोदमें लिये हुए जीवानन्द उस घने जंगलके भीतर घुस गये। जंगल पारकर वे एक छोटे गाँवमें पहुँचे। गाँवका नाम भैरवीपुर था; पर लोग उसे 'भाईपुर' कहा करते थे। उस गाँवमें थोड़ेसे मामूली हैसियतके आदमी रहते थे। उसके आसपास और कोई गांव नहीं था। उसके बाद फिर जङ्गल हो जङ्गल था। चारों ओर जङ्गल था केवल बीचमें यही एक छोटा सा गांव बसा था, पर छोटा होनेपर भी खूबसूरत था। कोमल घास उगी गोचरभूमि, हरे हरे और कोमल पत्तेवाले आम, कटहल, जामुन और ताड़के पेड़ोंसे भरे हुए बागीचे, बोचमें नीले जलसे भरा हुआ स्वच्छ तालाब, जिसके जलमें बक, हंस और पनडुब्बी तथा किनारेपर कोयल और चकवा-चकई आदि पक्षी विहार करते हैं, कुछ दूरपर मोर ऊंचे स्वरसे बोलते दिखाई पड़ते हैं। घर घर आंगनमें गौए बधी हैं। अन्दर अन्न रखने के लिये मिट्टीको कोठियां भी हैं। इस कालमें धान पैदा नहीं हुआ, इसलिये खाली पड़ी हैं। किसीके छप्परमें मैनाका पींजरा टंगा है, किसीको दीवारोंपर रंग विरंगे चित्र लिखे हुए हैं, किसीके आंगनमें शाकभाजी उगी हुई है! अन्य स्थानोंके लोग दुर्भिक्षके मारे दुःखी, दुबळे पतले हो रहे हैं, पर इस गांवके लोग कुछ सुखी दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि जंगलोंमें मनुष्यके खाने योग्य बहुत सी चीजें पैदा होती हैं। उन्हें लाकर इस गांवके लोग अपने प्राण और स्वास्थ्यकी रक्षा कर रहे हैं।

एक बड़े भारी आमके बगीचेके बीवमें एक छोटा सा मकान था, जिसको चहारदीवारी मिट्टीकी थी और चारों ओर चार घर बने हुए थे। उस घरमें गाय बकरी हैं, एक मोर है, एक मैना है और एक तोता है। पहले एक बकरा भी था, पर उसका खाना जुटना मुश्किल हो गया इसीसे वह छोड़ दिया गया। एक टैंकी भी रखी हुई है और बाहर खलिहान भी बना हुआ है। आंगनमें नीबूका एक पेड़ और कई एक जूही चमेलीकी बेलें भी लगी हैं। परन्तु इस साल वे फूली नहीं। घरके बाहर बरामदेमें एक चरखा रखा है, किन्तु घरमें कोई बड़ा आदमी नहीं है। जीवानन्द लड़कीको गोदमें लिये हुए उसी मकानके अन्दर घुस गये। घरके अन्दर आते हो जीवानन्द सामने रखे हुए एक चर्खेको उठाकर चलाने लगे। उस नन्ही बालिकाने कभी चर्खेका शब्द नहीं सुना था। जबसे मांसे बिछुड़ी, वह रो रही थी, चर्खेका घर्र घर्र शब्द सुन वह डर गयी तथा और जोरसे रोने लग गयी। उसका रोना सुनकर घरके अन्दरसे एक सत्रह अठारह वर्षकी युवती बाहर निकली। उसने अपने दाहिने गालपर दाहिने हाथ की उंगली रखे, गरदन तिरछी कर कहा,-"ऐ! यह क्या! भैया! चरखा क्यों चला रहे हो? यह लड़की कहांसे ले आये हो? क्या यह तुम्हारी लड़की है? फिर व्याह किया है क्या?"

लड़कीको उस युवतीकी गोदमें देते हुए जीवानन्दने उसे एक हलकी सी चपत मारनेके लिये हाथ उठाते हुए कहा, “पगली कहीं की! मेरे लड़की कहांसे आयी? मुझे भी क्या तूने ऐसा वैसा समझ रखा है? घरमें दूध, कि नहीं?"

युवती-“दूध क्यों नहीं है? पीओगे क्या?"

जीवानन्द-"हां, पीऊंगा।"

यह सुन, वह युवती जल्दी जल्दी दूध गरम करने चली गयी। इधर जीवानन्द चरखा चलाते रहे। उस युवतीकी गोदमें जातेहो वह लड़की न जाने क्यों चुप हो गयी। शायद उसे फूले हुए कुसुमको तरह सुन्दरी देखकर उसने उसे अपनी मां ही समझ लिया था। अबतक तो वह चुप थी; पर चूल्हेकी आंच देहमें लगते ही रो उठी। उसका रोना सुन जीवानन्द बोले,-"अरी ओ मुहजली निमी बंदरी! क्या तेरा दूध अबतक गरम नहीं हुआ?" निमी बोला,-"हो गया।" यह कह वह एक पत्थरके बर्तन में दूध लिये हुई जीवानन्दके पास आयी। जीवानन्दने बनावटी क्रोध दिखलाते हुए कहा,-"जीमें तो आता है कि यह दूध तेरे ऊपर फेंक दूं। तू क्या समझती थी, कि दूध मैं पीऊंगा?" निमीने पूछा,-"तब और कौन पीयेगा?"

जीवा०-“यही लड़की पोयेगी। देखती नहीं, इसे हो पिला।"

यह सुन, निमी पलाथा मार कर बैठ गयी और लड़कीको गोदमें सुला, सितुहीले उसे दूध पिलाने लगो। यकायक उसकी आंखोंमें कई आंसू टपक पड़े। उसको एक लड़का होकर मर गया था, उसीको दूध पिलानेकी वह सितुही थी। निमीने झट अपने आंसू पोंछ हंसकर जीवानन्दसे पूछा, "भैया! यह लड़की है किसकी?"

जीवानन्दने कहा,-"यह जानकर तू क्या करेगी मुंहजली?"

निमीने कहा,-"क्या इसे मुझे दे दीजियेगा?"

जीवानन्दने पूछा,-"इसे लेकर क्या करोगी?"

निमीने कहा,-"इसे गोदमें लेकर खिलाऊंगी दूध पिलाऊंगी, पाल-पोसकर बड़ी करूंगी" कहते कहते अभागे आंसू फिर गिर पड़े। उसने फिर उन्हें पोंछ डाला और बनावटी हंसी हंसने लगी।

जीवानन्दने कहा,-"तू इसे लेकर क्या करेगी? तेरे आप ही न जाने कितने बाल बच्चे होंगे।"

निमीने कहा,-"हुआ करें, अभी तो तुम मुझे इस लड़कीको दे ही दो, इसके बाद ले जाना।"

जीवानन्दने कहा,-"अच्छा, जा, लेजा। मैं बीच बीच में आकर इसे देख जाया करूंगा। यह एक कायस्थकी लड़की है। मैं जाता हूं।"

निमीने कहा, "यह क्या भैया? कुछ खाओगे नहीं? दिन बहुत चढ़ आया है। तुम मेरे सिरकी कसम जो बिना कुछ खाये जाओ। दो कौर खालो, फिर चले जाना।"

जीवानन्दने कहा,-अरी पागली! मैं तेरा सिर खाऊंगा या भात? दोनों कैसे खिलायेगी? जा, सिर सलामत रहने दो थोड़ासा भात ही खिला दो।" यह सुन, लड़कीको गोदमें लिये निमी रसोई घरमें चली गयी। पीढ़ा, पानी रख उसने जीवानन्दको खानेके लिये बैठाया और जुहीके फूलकी तरह स्वच्छ चावलोंका भात, खड़ी मसूरकी दाल, जंगली गूलरकी तरकारी, रोहू मछलीका शोरबा, और दूध परोस दिया। पीढ़ेपर बैठते ही जीवानन्दने कहा,-“बहन, कौन कहता है कि बड़ा भारी अकाल पड़ा है? तेरे गांव में तो मालूम पड़ता है कि अकालकी दाल ही नहीं गलने पायी।"

निमीने कहा,-"अकाल तो खूब ही व्याप कर रहा है, भैया! पर हम दो ही जने खानेवाले ठहरे, इसीलिये घरमें जो कुछ है, वही आप भी खाते हैं और औरोंको भी खिलाते हैं। तुम्हें याद होगा, हमारे गांवमें वर्षा हुई थी। तुमने कहा भी था, कि जङ्गलमें वर्षा बहुत होती है। इसीसे हमारे यहां कुछ कुछ धानकी फसल हुई थी। और लोगोंने तो अपना धान बेच दिया था, पर हमने नहीं बेचा था।"

जीवानन्दने कहा,-"बहनोई महाशय कहां गये हैं?"

निमीने सिर नीचाकर धारेसे कहा,--"दो तीन सेर चावल लेकर न जाने कहां गये हैं। शायद किसीको देने गये हैं।"

इधर बहुत दिनोंसे जीवानन्दको ऐसा बढ़िया भोजन नसीब नहीं हुआ था। इसलिये बकवादमें बहुत समय नष्ट करना अच्छा न समझकर वे गपागप अन्नव्यञ्जनको गलेके नीचे उतारने लगे। थोड़ी ही देर में वे सारी थाली साफ कर गये। श्रीमती निमाईमणिने आज केवल अपने और स्वामीके लिये ही रसोई पकायी थी और अपना हिस्सा लाकर भाईको खानेके लिये दिया था।

थाली खाली देख, वह उदास मन रसोई घरमें गयी और अपने स्वामीका हिस्सा भी लाकर जीवानन्द के आगे रख दिया। जीवानन्दने बिना किसी आपत्तिके वह सारा सामान भी पेटके अन्दर डाल दिया। तब निमाईमणि ने पूछा-"क्यों भैया! और कुछ खाओगे?" जीवानंदने कहा-"और क्या है?"

निमाईमणिने कहा-"एक पका हुआ कटहल पड़ा है।"

यह कह वह एक पका हुआ कटहल उठा लायी। बिना कुछ कहे जीवानद वह सारा कटहल सफाचट कर गये। तब निमाईने हंसकर कहा-“भैया! अब तो कोई चीज खाने लायक नहीं रही।"

भैयाने जवाब दिया,-"कोई हर्ज नहीं और किसी दिन आकर खा जाऊंगा।" अन्तमें, निमोईने जीवानंदको हाथ मुंह धोनेके लिये जल ला दिया। जल ढालते ढालते बोली-“भैया, क्या तुम मेरी एक बात मानोगे?"

जीवा०-"कौनसी बात, कह।"

निमाई-"पहले मेरे सिरकी कसम खाओ।"

जीवा०-"अरी मुहजली! कहती क्यों नहीं!"

निमाई-बात मानोगे न?"

जीवा०-"पहले सुन तो लूं।"

निमाई-"नहीं, पहले मेरे सिरकी कसम खाओ, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं।"

जीवा०-"अच्छा, ले मैं तेरे सिरकी कसम खाता हूं और तू मेरे पैरों पड़ना चाहती है तो वह भी कर ले, पर बात तो सुना दे।"

निमाई पहले तो कुछ देरतक सिर नीचा किये, एक हाथसे दूसरे हाथकी अंगुलियां चटकाती रही और कभी जीवानन्दके मुंहकी ओर और कभी नीचे जमीनको ओर देखती रही। इसके बाद बोली,-"जरा भाभीको बुला लूं।"

यह सुनते ही जीवानन्द झारी उठाकर निमीको मारनेकेलिये उठ खड़े हुए और बोले, ला, मेरी लड़की फेर दे। मैं और किसी दिन आकर तेरे दाल चावल लौटा जाऊंगा। बंदरी कहाँ की, मुँहजली कहीं की! तू सदा अण्डवण्ड बका करती है।"

निमाई ने कहा, "अच्छा मैं बंदरी सही, मुँहजली सही। पर कहो तो ज़रा भाभी को बुला लाऊ।"

जीवानन्द—"लो, मैं चला। यह कह वे झटपट दौड़े हुए बाहर की ओर चले, पर निमाई ने आकर दरवाजा रोक लिया और किवाड़ बन्द कर द्वारकी ओर अपनी पीठ किये हुए बोली—"पहले मुझे मार डालो, तब जाना। बिना भाभी से भेंट किये तुम कदापि न जाने पाओगे।"

जीवा°—"क्या तू नहीं जानती कि मैंने कितने आदमियों को मार डाला है?"

यह सुनते ही निमीको क्रोध चढ़ आया। वह बोल उठी— "आह! क्या कहते हैं! बड़ी कीर्त्तिका काम कर डाला है तुमने स्त्री को छोड़ दिया है, बहुत से आदमियों को मार डाला है। इसी से क्या मैं तुमसे डर जाऊगी? तुम जिस बाप के बेटे हो, मैं भी उसी बाप की बेटी हूं। अगर आदमियों की जान लेनी भी बड़ी बड़ाई की बात हो, तो लो मेरी भी जान लेकर नाम कमा लो।"

जीवानन्द हंस पड़े और बोले—"अच्छा, जा, किस पापिन को बुलाने जाती थी बुला ला। किन्तु देख! फिर यदि ऐसी बात कहेगी, तो तुझे कुछ कहूं या नहीं, पर उसका सिर मुंड़ा, गधेपर चढ़ाकर देश से निकाल बाहर कर दूंगा।"

निमीने मन ही मन कहा—"तब तो मेरी भी जान बच जायगी।" और हंसती हुई बाहर चली गयी और पासवाली एक फूसकी झोपड़ी के अन्दर घुस पड़ी। उस झोपड़ी के अन्दर एक स्त्री वैठी हुई चरखा चला रही थी। उसकी देह पर के कपड़े में सौ सौ पैवंद लगे थे। उसके सिर के बाल रूखे थे। निमाई ने उसके पास आकर कहा—"भाभी बस जल्दी!" उस युवतीने कहा-“जल्दी क्या! क्या ननदोईजीने तुम्हें मारा है? देहमें तेलकी मालिश करनी होगी?"

निमी०-"कुछ ऐसी ही बात है। घरमें तेल तो होगा ही। यह सुन, वह स्त्री तेलका बर्त्तन निकाल लायी। निमाईने झट उसमेंसे तेल अंजुलिमें ढाल लिया और उस स्त्रीके सिरमें तेल लगाकर मामूली तरहसे केश भी बाँध दिया। इसके बाद उसके गालमें हलकी सी चपत लगाकर बोली-"तुम्हारी वह ढाकेकी साड़ी कहां है?” यह सुन वह स्त्री कुछ विस्मित होकर बोली,-"तुम पागल तो नहीं हो गयी हो?"

निमीने उसकी पीठपर एक चपत जमाकर कहा-“पहले साड़ी निकाल लाओ।"

तमाशा देखनेके लिये वह स्त्री साड़ी ले आयी। हमने तमाशा देखनेकी बात इसलिये कही कि इतने दुःखमें पड़कर भी उसको तमाशा देखनेकी प्रवृत्ति नष्ट नहीं हुई थी। एक तो नयी जवानी, दूसरे नयी उमरका वह फूले हुए कमलका सा सौन्दर्य! इतनेपर भी उस बिचारीको तेल-फुलेल, साज-सिङ्गार और आहार-विहारसे कोई सरोकार नहीं, उसका वह जगमगाता हुआ सौन्दर्य उसी सौ-सौ पैबंद लगे हुए कपड़ेके अन्दर ढका रहता था। उसके शरीरमें बिजलीकीसी चञ्चलता,आंखोंमें कटाक्ष, मुंहपर हंसी और हृदयमें धैर्य भरा हुआ था, ठीक समय खाना-पीना नहीं, तो भी शरीरमें लुनाई भरी हुई थी। सिंगार पटार नहीं तोभी अंग-अंगसे सुन्दरता चू पड़ती थी। जैसे मेघमें बिजली, मनमें प्रतिभा, जगत्के समस्त प्रकारके शब्दों में संगीत और मृत्युके भीतर सुख छिपा रहता है, वैसे ही उसकी रूप-राशिके भीतर न जाने क्या छिपा हुआ था। उसमें अनिर्वच-नीय माधुर्य, अनिर्वचनीय प्रेम और अनिर्वचनीय भक्ति भरी हुई थी। उसने हंसते हंसते (वह हंसी किसीने देखी नहीं) ढाकेकी साड़ी बाहर निकाली-बोली-“लो साड़ी। इसे क्या करूं?" निमीने कहा-इसे पहन लो।"

उसने कहा-"मैं पहनकर क्या करूंगी?"

इसपर उसके कमनीय गलेमें बाहुलता डालकर निमाईने कहा-“भैया आये हैं। तुम्हें बुला रहे हैं।"

युवतीने कहा-"हमें बुलाया है तो ढाकेकी साड़ोकी क्या जरूरत है? चल, इसी तरह चलूं।"

निमाईने उसके गालमें एक चपत जमा दी। उसने निमाईके गले में हाथ डाल उसे झोंपड़ीके बाहर कर कहा-"चलो उन्हें यही फटी साड़ी पहने अपनी सूरत दिखा आऊं।”

लाख कहनेपर भी उस युवतीने साड़ी नहीं पहनी। लाचार निमाई राजी हो गयी और अपनो भाभीको साथ लिये अपने घरके दरवाजेतक आयी, और उसे भीतर भेज बाहरसे किवाड़ बन्द कर आप दरवाजेपर खड़ी हो रही।