आनन्द मठ/परिशिष्ट

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[ १८३ ] [ १८४ ]यों के एक गिरोह ने परगमा सिपाहियों के दो दलों को हरा दिया है और उनके दो सेनानायकों को मार डाला है। एक तो कप्तान टामस थे जिसे आप जानते होंगे। ब्रिगेड सिपाहियों के दल इस समय उनका पीछा कर रहे हैं। वे लड़ न सकेंगे, क्योंकि न तो उनके पास डेरे-खीमे हैं, जिससे जगह-ब-जगह पड़ाव डाल सकें, न उनके पास सैनिकों के योग्य कपड़े-लत्ते हैं, इसलिये उनका भागना निश्चित है। तो भी मुझे आशा है कि वे कुछ कर दिखायेंगे; क्योंकि बीच-बीच में नदियां पड़ती हैं, जिनके पार उतरना संन्यासियों के लिये मुश्किल हो जायगा। अगर हमारे सौनिक ठिकाने से उनका पीछा करते चले गये।"

"इन लोगों का इतिहास बड़ा विचित्र है। ये तिब्बत की पहा ड़ियों के दक्खिन, काबुल से चीन तक फैली हुई विस्तृत भूमि में रहते हैं। प्रायः नंगे रहते हैं और न तो इनकी कोई निश्चित बस्ती है, न घर-द्वार है, न जोरू-बच्चे हैं। ये एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते हैं और जहां कहीं हट्टे-कट्ट बालक देख पाते हैं, वहीं से उन्हें उड़ा लाते हैं। इसी से ये लोग हिन्दुस्थान में सबसे बढ़कर वीर और मुस्तैद मनुष्य हैं। इनमें कितने ही सौदागर भी हैं। ये सब रमते योगी हैं और सब लोग इनका बड़ा सम्मान करते हैं। इसी कारण हमलोगों को सर्वसाधारण से न तो इनके बारे में कुछ पता मालूम होता है, न इन्हें दबाने में सहायता मिलती है—यद्यपि इसके विषय में बड़े कड़े-कड़े हुक्मनामे जारी किये गये। ये लोग कभी-कभी इस प्रान्तमें ऐसे घुस पड़ते हैं, मानों आसमान से टपक पड़े हों। ये बड़े हट्टे-कट्टे साहसी और अतुल उत्साहवाले होते हैं। हिन्दुस्थान के ये 'जिपसी'[१]अर्थात् संन्यासी ऐसे ही अद्भुत हैं।" [ १८५ ]

"मैंने परगना सिपाहियों को हटाकर सीमा के नाके-नाके ब्रिगेड सिपाहियों के थाने कायम कर दिये हैं जो प्रान्त की रक्षा करते हैं। हर तीसरे महीने ये बदले जाते हैं इससे आशा है कि आगे चलकर उपद्रव न होने पायेगा, प्रान्त सुरक्षित रहेगा। चूंकि हम लोगों ने इनके हाथ से मालगुजारी वसूल करने का काम छीन लिया है, इसलिये हमारे आदमियों के अत्याचारों से भी लोग बच जायेंगे।"

फिर ३१ मार्च १७७५ को वारन हेस्टिंग्ज ने इन लोगों के बारे में निम्न पत्र लिखा था:—

"हाल में यहां पर संन्यासी कहलानेवाले कुछ थोड़े से उपद्रव-कारियों के मारे बड़ा हैरान होना पड़ा है। इन लोगों ने बड़े-बड़े दल बाँधकर सारे प्रान्त को तवाह कर दिया है। इन लोगों के उपद्रव और हम लोगों की रोकने की चेष्टा का हाल आपको हम लोगों के पत्रों और सलाहों से मालूम हो गया होगा। उन्हें देखने-से आपको मालूम हो जायगा कि गवर्नमेण्ट का कोई अपराध नहीं है। इस समय हमारी पाँच पलटने उनका पीछा कर रही हैं। मुझे आशा है कि वे अपनी करनी का पूरा पूरा फल पा जायेंगे, क्योंकि सिवा इस बात के कि वे भागने में बड़े तेज है, और किसी बात में वे हमारे आदमियों से चढे-बढ़े नहीं हैं। इन उपद्रवों का विस्तृत विवरण आपको रोचक न होगा, क्योंकि उनमें कोई महत्व नहीं है।"

(क्लगे के स्मरण-लेख भाग १ पृ° २६७)

उसी तारीख में हेस्टिंग्ज साहब ने सर जार्ज कोलब्रुक के नाम निम्नलिखित पत्र लिखा था:—

“पिछले पत्र में मैंने लिखा था कि जहाँ तक मालूम पड़ता है, संन्यासियों ने कम्पनी के अधिकारमुक्त प्रदेशों को खाली कर दिया [ १८६ ]है। यही खबर मुझे उस समय मिली थी और जैसी अवस्था थी, उससे मुझे यह बात ठीक भी मालूम पडी। पर मालूम होता है कि या तो वे ब्रह्मपुत्र-नदी को पार न कर सके या अपना इरादा बदल दिया। वे २-२ या ३-३ हजार के दलमें विभक्त होकर एकाएक रङ्गपुर और दिनाजपुर के मिन्न-भिन्न स्थानों में दिखाई दिये। देशवासियों को कड़ी-कड़ी धमकियां दी गयी हैं कि अगर वे संन्यासियों के आने की सूचना तत्काल न दे दिया करेंगे, तो उनकी बड़ी सख्त सजा की जायगी। तो भी लोगों पर इन संन्यासियों का जादू ऐसा चढ़ा हुआ है कि कोई सूचना तक नहीं देता। अतः जबतक वे बस्तियों में घुस नहीं आते हम लोगों को उनका कुछ पता नहीं लगता। मानों ये लोग इन देशवासियों की मूर्खता का दण्ड देनेके लिये आसमान से उतर आये हैं। हाल में इनका एक दल कप्तान एडवार्डिस के सैन्य दल से भिड़ गया था। इस लड़ाई में कप्तान एडवार्डिस एक नाले को पार करते समय मारे गये जौर उनके सिपाही भाग खड़े हुए। इस दल में हमारे सबसे रद्दी परगना-सिपाही भरे हुए थे, जिन्होंने बुरी तरह पीठ दिखाई। इस जीत से संन्यासियों की हिम्मत बढ़ गयी और उन्होंने उक्त जिलों में हर जगह ऊधम मचाना शुरू कर दिया। कप्तान स्टुअटे ने १६वीं नम्बर पलटन के साथ उनका पीछा किया, पर कोई नतीजा न निकला। जबतक वे एक जगह पहुंचते संन्यासी उसे ध्वंस कर चम्पत हो जाते थे। मैंने वरहमपुर से एक दूसरो पलटन कप्तान स्टुअर्ट से मिलकर काम करने-के लिये भेज दी। उन्हें स्वतन्त्र युद्ध करने की पूरी स्वतन्त्रता दे दी थी ताकि उन्हें मुकाबिला करने का अच्छा अवसर मिले। साथ ही मैंने दानापुर की एक पलटन को तिर्हुत होते हुए पूर्निया-की उत्तरी सीमा होकर उसी राह से होकर जाने का हुक्म दे दिया है जिधर से संन्यासी बहुधा जाया करते हैं ताकि यदि वे उस राह से गये तो घेर लिये जायंगे। इस पलटन को यह भी हुक्म [ १८७ ]दिया गया था कि अवसर आ जानेपर संन्यासियों को दवाकर वे लोग बिहार की तरफ बढ़े और यहां कप्तान जोन्स से मिलकर शान्ति-स्थापन की चेष्टा करें।

“संन्यासियों के बहुत से दल पुर्निया जिले में घुस पड़े और गांवों में आग लगाकर लोगों का मालमता लूटने और बरवाद करने लगे। तब वहां के कलक्टर ने कप्तान ब्रुक के पास समाचार भेजा और सहायता मांगी। कप्तान ब्रुक हालही में राजमहल के पास पानीती आये थे। उनके पास एक ताजाद मे पैदल सेना थी। कप्तान ने खबर पाते हो नदी पार कर संन्यासियों के विरुद्ध काररवाई करनी शुरू की। उस समय संन्यासी कोसा-नदी पार कर भाग जाने की चेष्टा कर रहे थे। इसी समय कप्तान के साथ उनके एक दल की मुठभेड़ हो गयी, पर विना किसी क्षति के वे सब नदी पार कर गये जिससे ये लोग उनका कुछ भी बिगाड़ न सके। यह साफ मालूम पड़ता है कि संन्यासी यथाशीघ्र कम्पनी के अधिकार-भुक्त प्रदेश से भाग जाना चाहते हैं। पर मुझे विश्वास है कि उनके कुछ गिरोहों के साथ हमारी किसी न किसी सेना का मुकाविला अवश्य ही हो जायगा और वह उनकी उद्दण्डता का उन्हें पूरा पूरा दण्ड दे सकेगी।

यद्यपि यह असम्भव है, तथापि इन संन्यासियों के उपद्रवों के कारण मालगुजारी में कमी पड़ने की सम्भावना मालूम होती है; क्योंकि कहीं के लोग तो सचमुच इनसे सताये गये हैं और कहीं के लोग झूठमूठ यह बहाना निकालेंगे कि वे लोग भी संन्यासियों द्वारा लूटे-खसोटे गये हैं। इसी विचार से बोर्ड आफ़ रेवेन्यू ने यह प्रस्ताव किया है कि मालगुजारी में कमी पड़ने का कोई कारण नहीं सुना जायगा और त्रुटि करनेवालों को दण्ड दिया जायगा। इस तरह से वे लोग कम्पनी को हानि से बचाने की पूरी चेष्टा कर रहे हैं। जहां-तहां सीमापर पलटने रख दी जायंगी, ताकि फिर [ १८८ ]संन्यासी न घुसने पायें या और तरह के लुटेरे डाकुओं का उपद्रव न होने पाये। यह सावधानी गत बार के संन्यासी विद्रोह को देखकर ही काम में लायी गयी है। जहां तक मेरा ख्याल है, थोडी सी ही सेना से यह काम हो जायगा और मुझे आशा है कि आगे से संन्यासी भी यहां उपद्रव न करने पायेंगे।"

२० मार्च १७७१ को हेस्टिंग्ज ने लारेन्स के नाम निम्नलिखित पत्र लिखा था:—

"गत वर्ष संन्यासियों ने जैसा उपद्रव किया था, वैसा ही इस वर्ष के प्रारम्भ में भी हुआ। पर चूंकि हमलोग पहले ही ले उनका सामना करने के लिये तैयार थे और उन्होंने पहले ही धक्के में खूब मुंहकी खायी, इसी से हमलोगों ने उन्हें एकदम देश से बाहर कर दिया है। हमलोगों ने कुछ घुड़सवार उनके पीछे लगा दिये हैं, जिससे वे बहुत डर गए हैं, क्योंकि पैदल सिपाहियों से तो वे दौड़ने में जीत जाते थे पर घोड़ों की बराबरी नहीं कर सकते। मेरा इरादा उन्हें उत्तर पूर्व प्रदेश से भगा देने का है, जहां उन लोगों ने अड्डा कायम कर रखा है। मैं उन जमींदारों-की भी पूरी मरम्मत कर देना चाहता हूं, जो उन्हें शरण और सहायता दे रहे हैं।"


परिशिष्ट ख
संन्यासी-विद्रोह का इतिहास
(हण्टर रचित "बंगाल के ग्रामों का इतिहास" से उद्धृत)

"कौन्सिल ने १७७३ में लिखा था—'डाकुओं का एक दल संन्यासी या फ़कीर का वेश बदाये, इन मुल्कों को तबाह करता [ १८९ ]फिरता है। ये तीर्थयात्री के रूप में रहते हैं और बंगाल के प्रधान भाग को लूटते-खसोटते हैं। ये जहां जाते वहां भीख मांगकर खाते, चोरी करते, डाका डालते या जैसा मौका देखते, वैसा कर बैठते हैं। अकाल के बाद कई वर्षों तक इनके दल में वे किसान भी मिलते चले गये, जिन्हें न तो बीजके लिये अन्न मिल सका, न जमीन जोत ने के लिये हल-फावड़े मिले। १७७२ के जाड़ों में इन लोगों का प्रायः ५० हजार का दल दक्षिण बंगाल के हरे-भरे प्रदेशों में लूट-पाट मचाता और घरों को जलाता रहा। कलक्टरों ने सेना से काम लिया; कुछ सफलता भी मिली, पर अन्त में हमारे सिपाहियों की बुरी तरह हार हुई और उनका अध्यक्ष कप्तान टामस समस्त सैनिकों के साथ खेत रहा। जाडों के अन्त में कौन्सिल ने कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स के पास लिखा कि एक चतुर सेनाध्यक्ष के अधीन भेजी हुई सेना ने सफलता के साथ उनका मुकाबिला किया है। पर एक ही महीने के बाद यह मालूम हुआ कि यह सूचना भी ठीक नहीं थी। सन् १७७२ की १३वी मार्च को वारन हेसिंटग्ज को यह बात स्वीकार करनी पड़ी कि कप्तान टामस के बाद जो सेनाध्यक्ष भेजा गया था उसकी भी वही गति हुई और यद्यपि जमीन्दारों के दिये हुए जवानों के साथ-साथ चार पलटने उनके मुकाबिले खड़ी थीं तथापि संन्यासियों की कुछ हानि नहीं हुई। मालगुजारी की वसूली न हो सकी। देशवासी भी उन्हीं डाकुओं के तरफदार हो रहे और गांवों पर से हुकूमत उठ-सी गयी। इस तरह की घटनाए यहां हर साल होती रहती हैं और इसे ही लोग बंगाल का शान्तिमय जीवन बतलाते हैं!"

 

समाप्त

[ १९० ] 

हिन्दी पुस्तक एजेन्सी माला
स्थायी प्राहकोंके लिये नियम—

१—प्रत्येक व्यक्ति ।।) आने प्रवेश-शुल्क जमाकर इस माला-स्वामी ग्राहक बन सकता है। उक्त ।।) लौटाये नहीं जायंगे।

२—स्थायी ग्राहकों को मालाकी प्रकाशित प्रत्येक पुस्तक पौन मूल्यन मे मिल खकेगी। एक से अधिक प्रतियां पौन मूल्य में मंगा सकेंगे।

३—पूर्व प्रकाशित पुस्तकों के लेने न लेने का पूर्ण अधिकार स्थायी ग्राहकों को होगा, पर सालभर में जितनी पुस्तकें प्रकाशित होंगी,उनमें से कम कम ६) रु॰ की पुस्तकें प्रति वर्ष अवश्य लेनी होगी।

४—पुस्तक प्रकाशित होते ही उसकी सूचना स्थायी ग्राहकों के पास मेज दी जाती है। स्वीकृति मिलनेपर पुस्तक वी॰ पी॰ द्वारा सेवा म भेजी जाती है। जो ग्राहक वी॰ पी॰ नहीं छुड़ावेंगे उनका नाम स्थायी ग्राहकों की श्रेणी से काट दिया जायगा। यदि उन्होंने वी॰ पा॰ न छुड़ाने का सपष्ट कारण बतलाया और वी॰ पी॰ खर्च (दोनों ओरका) देना स्वीकार किया तो उनका नाम ग्राहक श्रेणी में पुनः लिख लिया जायगा।

५—हिन्दी पुस्तक एजेन्सी माला के स्थायी ग्राहकों को माला की नए-प्रकाशित पुस्तकों के साथ अन्य प्रकाशकों की कम से कम १०) रु॰ की लागत की पुस्तकें भी पौन मूल्य में दी जायंगी, जिनकी नामावली हर नए-प्रकाशित पुस्तक की सूचना के साथ भेजी जाती है।

६—हमारा वर्ष विक्रनीय संवत्से प्रारम्भ होता है।

मालाकी विशेषतायें

१—सभी विषयोंपर सुयोग्य लेखकों द्वारा पुस्तकें लिखायी जाती हैं।

२—वर्तमान समय के उपयोगी विषयों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

३—मौलिक पुस्तकें ही प्रकाशित करने की अधिक चष्टा की जाती है।

४—पुस्तकों को सुलभ और सर्वोपयोगी बनाने के लिये कम से कम मूल्य रखने का प्रयत्न किया जाता है।

५—गम्भीर और रुचिकर विषय ही मालाको सुशोभित करते है।

६—स्थायी साहित्य के प्रकाशन का ही उद्योग किया जाता है। [ १९१ ] 

१-सप्तसरोज
ले॰ उपन्यास-सम्राट श्रीयुक्त प्रेमचन्दजी

प्रेमचन्दजी अपनी प्रतिभा के कारण हिन्दी संसार में अद्वितीय लेखक माने गये हैं। यह कहानियां उन्हीं के कलम की करामात हैं। इस सप्तसरोज-में सात अति मनोहर उपदेशप्रद गल्पें हैं, जिनका भारत की प्रायः सभी भाषाओं में अनुवाद निकल चुका है। यह हिन्दी साहित्य सम्मेलन की प्रथमा परीक्षा तथा कई राष्ट्रीय पाठशालाओं की पाठ्यपुस्तकॉ में और सरकारी युनिवर्सिटियों की प्राइजलिस्ट में है। मूल्य केवल ।।)। यह चौथा संस्करण है।

२-महात्मा शेखसादी
लेखक उपन्यास-ससाठ् श्रीयुक्त "प्रेमचन्द"

फारसी भाषां के प्रसिद्ध और शिक्षाप्रद गुलिस्तां बोस्तां के लेखक महात्मा शेखसादीका बड़ा मनोरंजक और उपदेशप्रद जीवनचरित्र, अनूठा ब्रमण वृत्तान्त, नीतिकथायें, गजलें, कसीदे इत्यादिका मनोरमक संग्रह किया गया है। महात्मा शेखसादी का चित्र भी दिया गया है। मूल्य ।।)

३-विवेक बचनावली
लेखक स्वामी विवेकानन्द

जगत्प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्दजीके वहुमूल्य विचारों और अद्भुरा उपदेशों का बड़ा मनोरञ्जक संग्रह। बड़ी सीधी सादी और सरल भाषामें प्रत्येक बालक,खी, वृद्धके पढ़ने तथा मनन करने योग्य । ४८ पृष्ठों का मूल्य ।)

४-जमसेदजी नसरवानजी ताता
लेखक स्वर्गीय पं° मन्मन द्विवेदी गजपुरी बी° ए°

श्रीमान् धनकुवेर ताताकी जीवनी बड़ी प्रभावशाली और प्रोजस्विनी भाषाम लिखी गयी है। इस पुस्तकको यू° पी° और बिहारके शिक्षावि-भागने अपने पारितोषिक-वितरणमें रखा है। सचित्र पुस्तकका मूल्य केवल ।) [ १९२ ] 

६-सेवासदन
लेखक उपन्यास-सम्राट् श्रीयुक्त "प्रेमचन्द"

हिन्दी-संसार का सबसे बड़ा गौरवशाली सामाजिक उपन्यास। यह हिन्दी का सर्वोत्तम, सुप्रसिद्ध और मौलिक उपन्यास है। इसकी खूबियों पर मड़ी आलोचना और प्रत्यालोचना हुई है। पतित-सुधार का बड़ा अनोखा मन्त्र, हिन्दू-समाज की कुरीतियां जैसे अनमेल विवाह, त्यौहारों पर वेश्यांनृत्य और उसका कुपरिणाम, पश्चिमीय ढङ्गपर स्त्री-शिक्षा का कुफल, पतित आत्माओं के प्रति घृणा का भाव इत्यादि विषयों पर लेखक ने अपनी प्रतिभा की वह छटा दिखायी है कि पढ़ने से ही आनन्द पाप्त हो सकता है। कुछ दिनों तक सभी पत्रों की आलोचना का मुख्य विषय यह उपन्यास रहा है। दूसरा संस्करण, मनोहर स्वदेशी कपड़े की सजिल्द पुस्तक का मूल्य २॥)

७-संस्कृत कवियों की अनोखी सूझ
लेखक पं° जनार्दन भट्ट एम° ए°

संस्कृत के विविध विषयों के अनोखे भावपूर्ण उत्तमोत्तम श्लोकों का हिन्दी पादार्थ सहित संग्रह। यह ऐसी खूबी से लिखा गया है कि साधारण मनुष्य भी पढ़कर आनंद उठा सकें। व्याख्यानदाताओं, रसिको और विद्यार्थियों के बड़े कामकी पुस्तक है। दूसरा संस्करण, मूख्य ।=)

८-लोकरहस्य
लेखक उपन्यास-सम्राट् श्रीयुक्त बंकिमचन्द्र चटर्जी

यह "हास्यरस" पूर्ण ग्रन्थ है। इसमें वर्तमान धार्मिक, राज-नीतिक और सामाजिक त्रुटियों का बड़े मजेदार भाव और भाषामें चित्र खींचा गया है। पढ़िये और समझ समझकर हँसिये। कई विषयों पर ऐसी शिक्षा मिलेगी कि आप आश्चर्य में पड़ जायगे। अनुवाद भी हिन्दी के एक प्रसिद्ध और अनुभवी हास्य रस के लेखक की लेखनी का है। बढ़िया एण्टिक कागज पर छपी पुस्तक का मूल्य ॥=) [ १९३ ] 

९–खाद
लेखक श्रीयुक्त मुख्तारसिंह वकीख

मारत कृषिप्रधान देश है। कृषि के लिये खाद सबसे बड़ा आवश्यकीय पदार्य है। बिना खाद के पैदावार में कोई उन्नति नहीं की जा सकती। यूरोप वाले खादके बदौलत ही अपने खेतों में दूनी चौगुनी पैदावार करते है। इसलिये इस पस्तक में खादों के भेद तथा किन अनों के लिये कौन सी खादकी आवश्यकता होती है इनका बड़ी उत्तमता से वर्णन किया गया है, चित्रों द्वारा भली प्रकार दिखलाया गया है। इसे प्रत्येक कृषक तथा कृषिप्रेमियों को अवश्य रखना पहिये। मूल्य सचित्र और सजिल्दका १)

१०–प्रेम-पूर्णामा
लेखक उपन्यास-सम्राठ् श्रीयुक्त "प्रेमचन्द"

प्रेमचन्दजी की लेखनी के सम्बन्ध में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। जिन्होंने उनके "प्रेमाश्रम" "सप्तसरोज" और "सेवासदन" का रसास्वादन किया है उनके लिये तो कुछ लिखना व्यर्थ है। प्रत्येक गल्प अपने २ बाकी निराली है। ज़मींदारों के अत्याचार का विचित्र दिग्दर्शन कराया गया है। भाषा और भाव की उत्कृष्टता का अनूठा संग्रह देखना हो तो इस ग्रन्थ को अवश्य पढ़िये। इसमें श्रीयुक्त "प्रेमचन्द"जी की १५ अनूठी गरूपों का संग्रह है। बीच बीच में चित्र भी दिये गये हैं। खादी की सुन्दर सजिल्द पुस्तक का मूल्ब २)

११–आरोग्यसाधन
लेखक म° गांधी

बस, इसे महात्माजी का प्रसाद समझिये। यदि आप अपने शरीर और वनको प्राकृत रीतिके अनुसार रखकर जीवन को सुखमय बनाना चाहते हैं, यदि आप मनुष्य-शरीर को पाकर संसार में आनन्द के साथ कुछ कीर्ति कमाना चाहते हैं तो महात्माजी के अनुभव किये हुए तरीके से रहकर अपने जीवन को सरल, सादा और स्वाभाविक बनाइये और रोगमुक्त होकर आनन्द से जीवन विताइये। तीसरा संस्करण, १३० पृष्ठकी पुस्तक का दाम केवल ।-) [ १९४ ] 

१२–भारत की साम्पत्तिक अवस्था
लेखक श्रीयुक्त राधाकृष्ण झा, एम° ए°

यदि भारत की आर्थिक अवस्था, यहां के वाणिज्य-व्यापारके रहस्यों, कृषि की दुर्व्यवस्था और मालगुजारी तथा अन्यान्य टैक्सों की भरमार का रहस जानना चाहते हैं, यदि आप यहां का उत्पन्न कच्चा माल और वह कितनी कितनी संख्या में विलायत को ढोया चला जाता है, उसके बदले में हमें कौन कौन सा माल दिया जाता है, आने और जानेवाले मालों पर किस मीयत से कर बैठाया जाता है, यहां प्रत्येक वर्ष कहीं न कहीं अकाल क्यों पड़ता है, हम दिन पर दिन क्यों कौड़ी कौड़ी के मोहताज हो रहे हैं, इत्यादि बातों को जानना चाहते हैं तो इस पुस्तक को एक बार अवश्य पढ़ें। यह पुस्तक साहित्यसम्के उनकी परीक्षा में है। ६५० पृष्ठ की खादी की सुन्दर सीजल्द पुस्तक का मूल्य ४)

१३–भाव चित्रावली
चित्रकार श्रीधीरेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय

इस पुस्तक में एक ही सजन के विविध भावों के १०० रंगीन और सादे चित्र दिखलाये गये हैं। आप देखेंगे और आश्चर्य करेंगे और कहेंगे कि ऐं। सब चित्रों में एक ही आदमी! गङ्गोपाध्याय महाशय ने अपनी इस कला से समाज और देश की बहुत सी कुरीतियों पर बड़ा जबर्दस्त कटाच किया है। चित्रों के देखने से मनोरञ्जन के साथ साथ आपको शिक्षा भी मिलेगी। खादी की सजिल्द पुस्तक का मूल्य ४)

१४–राम बादशाहके छ: हुक्मनामे

स्वामी रामतीर्थजी के छः व्याख्यानों का संग्रह उन्हीं की जोरदार भाषा में। स्वामीजी के ओजस्वी और शिक्षाप्रद भाषणों के बारे में क्या कहना है, जिसने अमरीका, जापान और यूरोप में हलचल मचा दी थी। इन व्याख्यानों-को पढ़कर प्रत्यक भारतवासी को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिय। उर्दू के सब्दो का फुटनोट में अर्थ भी दिया गया है। स्वामीजी की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के तीन चित्र भी हैं। पुस्तक बढ़िया ऐंटिक कागज पर छपी है। मुल्य सुन्दर खादी की सजिल्द पुस्तकका १।) [ १९५ ] 

१५–मैं नीरोग हूं या रोगी
ले° प्रसिद्ध जलचिकित्सक डाक्टर लुईकूने

यदि आप स्वस्थ रहकर आनन्द से जीवन बिताना, डाक्टरों, वैद्यों और हकीमों के फन्दे से छुटकारा पाना, प्राकृतिक नियमानुसार रहकर सुख तथा शान्तिका उपभोग करना चाहते हैं तो इस पुस्तक को पढ़िये और लाभ उठाइये। जर्मनी के प्रसिद्ध डा° सुईकूने की इस पुस्तक का मूल्य ।)

१६–रामकी उपासना
ले° रामंदास गौड़ एम° ए°

स्वामी रामतीर्थ से कौन हिन्दू परिचित न होगा। उनके उपदेशो का अवय और सनन लोग बड़ी ही श्रद्धाभक्ति से करते है। प्रस्तुत पुस्तक उपासना के विषय में लिखी गयी है। उपासना की आवश्यकता, उसके प्रकार, परब्रह्म में मनको लीन करना, सच्ची उपासना के बाधक और सहायक, सच्चे उपासकों के लक्षण आदि बातें बड़ी ही मार्मिक और सरल भाषा में लिखी गयी है । हिन्दू गृहस्थों के लिये पुस्तक बड़ी ही उपयोगी है। सुन्दर एण्टिक कागजपर छपी है। कवरपर उपासना की मुद्रा में स्वामी रामतीर्थजी का एक चित्र भी है। ४८ पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ।)

१७–बच्चों की रक्षा
ले° डाक्टर लुईकूने

डाक्टर खरंकूने जर्मनीके प्रसिद्ध डाक्टर हैं। आपने अपने अनुभवो को अब बीमारियों के दूर करने का प्राकृतिक उपाय निकाला है। आपकी सब- चिकित्सा आजकल घर घर में प्रचलित है। इस पुस्तक में डाक्टर साहब नेयह दिखलाया है कि बच्चों की रक्षा की उचित रीति क्या है और उसके अनुसार न चलने से हम अपनी सन्ततिको किस गर्त में गिरा रहे है। स्त्रियों-के लिये विशेष उपयोगी है। विद्यालयों की पाठ्य पुस्तकों में रखने योग्य है। सुन्दर एपिटक कागज के ४८ पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ।-) [ १९६ ] 

१८–प्रेमाश्रम
ले° उपन्यास सम्राट् श्रीयुत प्रेमचन्दजी

जिन्होंने प्रेमचन्दजी की लेखनी का रसास्वादन किया है उनके लिये इसकी प्रशंसा करना व्यर्थ है पुस्तक क्या है, वर्तमान दशा का सच्चा चिन्न है। किसानों की दुर्दशा, जमींदारों के अत्याचार, पुलिस के कारनामे, वकीकों और डाक्टरों का नैतिक पतन, धर्म के ढोंग में सरल हृदया स्त्रियों का फंस जाना, स्वार्थसिद्धि के कलुषित मार्ग, देशसेवियों के कष्ट और उनके पवित्र चरित्र, सच्ची शिक्षा के लाभ, गृहस्थी के झंझट, साध्वी स्त्रियों का चरित्र, सरकारी नौकरी का दुष्परिणाम आदि भावों को लेखक ने ऐसी खूबी से चित्रित किया है कि पढ़ते ही बनता है, एक बार शुरू करनेपर बिना पूरा किये छोड़ने को दिल नहीं चाहता। ठूंस ठूंस कर मैटर भर देने पर भी पृष्ठ संख्या ६५० हो गयी। खादी की जिल्दका ३॥) रेशमी ३॥)

१९–पंजाबहरण
ले° पं° नन्दकुमारदेव शर्मा

यह सिक्खोंके पतन का इतिहास है। १९ वीं सदी के आरम्भ मे सिक्स-साम्राज्य महाराज रणजीत सिंह के प्रताप से समृद्धशाली हो गया था। उनके मरते ही आपस की फूट, कुचक्र, अंग्रेजों के विश्वाधात से उसका किस प्रकार पतन हुआ। जो अंग्रेज जाति सभ्यता की डींग हांकती है, उसने अपने परम प्रिय मित्र महाराज रणजीत सिंह के परिवार के साथ किस घातक नीति का व्यवहार किया इसका वास्तविक दिग्दर्शन इस पुस्तक से होता है। इससे अंग्रेजों के सेञ्च पराक्रम का भी पूरा पता चलता है। जो अंग्रेज जाति आज गली गली ढिंढोरे पीट रही है कि "हमने भारत को तब वार के बल जीता है" उनके सारे पराक्रम विलियानवाला के युद्ध में लुप्त हो गये थे और यदि सिक्खों ने मिलकर एक बार उसी प्रकार और हराया होता तो शायद ये लोग डेराडण्डा लेकर कुंच ही कर गये होते। पुस्तक बड़ी खोजसे लिखी गयी है। मोटे कागजपर २५० पृ० का मूल्य केवल २) [ १९७ ] 

२०-भारत में कृषिसुधार
ले° प्रो° दयाशंकर एम° ए°

प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने बड़ी खोज के साथ दिखलाया है कि भारत की गरीबी का क्या कारण है, कृषिका अधःपतन क्यों हुआ है, जिसके फलस्वरूप भारत परतन्त्रता की श्रृंखला में जकड़ गया। अन्य देशों की तुलना में यहां की पैदावार की क्या अवस्था है और उसमें किस तरह सुधार किया जा सकता है। सरकार का क्या धर्म है और वह उसका किस तरह प्रतिपालन कर रही है, किस प्रकार प्रजाकी उन्नति के मार्ग में काटे बिछाये जा रहे हैं इत्यादि बातों का दिग्दर्शन लेखक ने बड़ी मार्मिक भाषा में दृढ़तर प्रमाणों के साथ किया है। पुस्तक अपने ढंगकी निराली है और बड़ी ही उपादेय है। २५० पृष्ठ की सचित्र पुस्तक का मूल्य १।।।)

२१-देशभक्त मैजिनी के लेख
'भूमिका ले° दैनिक "आज" के सम्पादक
बाबू श्रीप्रकाश बी° ए° एल° एल° बी° बेरिस्टर-ऐट-ला

इटली का इतिहास पढ़ने वालों को भली भांति विदित है कि १८बी सदीमें इटली की क्या दशा थी। परराजतन्त्र के दमनचक्र में पड़कर इटली सारे यातनायें भोग रहा था। न कोई स्वतन्त्रापूर्वक लिख सकता था और न बोल सकता था। कहने का मतलब यह है कि भारत की वर्तमान दशा इटली की उस समय की दशा से ठीक मिलती-जुलती है। इटली- एकदम निर्जीव हो गया था। ऐसी ही दशा देशभक्त मेजिनी ने अपनाे खोकर शंखनाद किया और नवयुवकों को चेतावनी दी कि उठो, आलस को त्यागो, माता वसुन्धरा वलिदान चाहती है। प्रत्येक नवयुवक के शरीर में स्वतन्त्रता प्राप्त करने की ज्योति जग उठी। ग्रन्थ के अन्त में संक्षेप में मजिनी का जीवन चरित्र भी दिया गया है। अनुवादक पण्डित छविनाथ पाण्डेय बी° ए°, एल° एल° बी°। पृष्ठसंख्या २६० मूल्य केवल २) [ १९८ ] 

२२–गोलमाल

जिन लोगों ने "चौबे का चिट्ठा" और "गोबर गणेशसंहिता" पढ़ी है, वे गोलमाल के मर्मको भलीभांति समझ सकते हैं। रा° ब° काली प्रसन्न घोष ने बंगला के 'भ्रान्ति विनोद' में समाज में प्रचलित कुछ बुराइयों की—जिसे वर्तमान समाज ने प्रायः अनिवार्य और क्षम्य मान लिया हे—मार्मिक भाषा में चुटकीली है। प्रत्येक निबन्ध अपने ढंग का निराला है। 'रसिकता और रसीली' बातों से लेकर 'दिगन्त मिलन' तक समाज की बुराइयों की आलोचना से भरा है। उसी प्रान्ति विनोद का यह गोलमाल हिन्दी अनुवाद है। २०० पृष्ठ, मूल्य १=)

२३–१८५७ ई° के गदर का इतिहास
ले° पण्डित शिवनारायण द्विवेदी

सिपाही विद्रोह क्यों हुआ? यह प्रश्न अभीतक प्रत्येक भारत- बासी के हृदय को आन्दोलित कर रहा है। कोई इसे सिपाहियों का क्षणिक जोश, कोई सिपाहियों की बेजड़ बुनियाद, धर्मभीरता और कोई इसे राजनीतिक कारण बतलाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक अनेक अंग्रेज इतिहासज्ञों की पुस्तकों की गवेषणापूर्ण छानबीन के बाद लिखी गयी है। पूरे प्रमाणसहित इसमें दिखलाया गया है कि सिपाहियों की क्रान्ति के लिये अंग्रेज अफसर पूर्णतः दोषी हैं और यदि उन्होंने शंष्टा की होती तो लार्ड डलहौजी की कुटिल और दोषपूर्ण नीति के रहते हुए भी इतना रक्तपात न हुआ होता। प्रस्तुत पुस्तक से इस बात का भी पता लगता है कि इस रक्तपात की भीषणता बढ़ाने में अंग्रेजों ने भी कोई रात उठा नहीं रखी थी। प्रथम भाग के सजिल्द प्रायः ६००पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ३॥) द्वितीय भागकी सजिल्द प्रायः ८०० पृष्ठ का मूल्य ४॥) [ १९९ ] 

२४–भक्तियोग
ले° श्रीयुक्त अश्विनी कुमार दत्त

कौन भगवान् की प्रेम से सेवा नहीं करना चाहता! कौन भगवद्-भक्ति के रसका आनन्द नहीं लेना चाहता! आदर्श भक्तों के जीवन का रहस्य कौन नहीं जानना चाहता! हृदय की साम्प्रदायिक संकीर्यता को त्याग कर, सुन्दर मनोहर दृष्टान्तों के साथ साथ, धर्मशास्त्रो और उच्च कोटि के विद्वानों, भक्तों और महात्माओं के अनुभवों से भक्ति का रहस्य जानने के लिये इस ग्रन्थ का आदि से अन्त तक पढ़ जाना आवश्यक है। ईश्वरभक्तों के बिये हिन्दी साहित्य में अपने का यह एक अपूर्ण ग्रन्थ है। पृष्ठ १६८। मूल्य सजिल्द १॥)

२५–तिब्बत में तीन वर्ष
ले° जापानी यात्री श्रीइकाई कावागुची

तिब्बत एशिया खंड का एक महत्वपूर्ण अङ्ग है, परन्तु वहां के निवासियो-की धर्मोधता तथा शिक्षा के अभाव के कारण अभी तक वह खंड संसार की दृष्टि से ओझल ही था, परन्तु अब कई यात्रियों के उद्योग और परिश्रम से वहां का बहुत कुछ हाल मालूम हो गया है। सबसे प्रसिद्ध यात्री कावागुची की यात्रा का विवरण हिन्दी-भाषा-भाषियों के सामने रक्खा जाता है। इस पुस्तक में आपको ऐसी भयानक घटनाओं का विवरण पड़ने को मिलेगा जिनका ध्यान करने मात्र से ही कलेजा कॉप उठता है, साथ ही ऐसे रमणीक स्थानों का चित्र मी आपके सामने आयेगा जिनको पढ़कर आनन्द के सागर में लहराने लगेंगे। दार्जिलिंग, नैपाल, हिमालय की बर्फीली चोटियां, मानसरोवर का रमबीय दश्य तथा कैलाश आदिका सविस्तर बखांन पढ़कर आप ही आनन्दलाम करेंगे। इसके सिवा वहा के रहन-सहन, विवाह शादी, रीति-रिवाज एवं धार्मिक सामाजिक, राजनैतिक अवस्थाओं का भी पूर्ण हाल विदित हो जायगा। ५२५ पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य २॥) अजिल्द २॥=) [ २०० ]

२६–संग्राम
ले० उपन्याससम्राट् श्रीयुक्त प्रेमचन्दजी

मौखिक उपन्यास एवं कहानियां लिखने में प्रेमचन्दजी ने हिन्दी में वह नाम पाया है जो आजतक किसी हिन्दी-लेखक को नसीव नहीं हुआ उनके लिखे उपन्यास 'प्रेमाश्रम एवं सेवासदन' तथा 'सप्तसरोज' प्रेमपूर्णिमा और 'प्रेमपचीसी' आदि पुस्तकों की सभी पत्रों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।

इन उपन्यासों और कहानियों को रचकर उन्होंने हिन्दी-संसार में नवयुग उपस्थित कर दिया है, नये तथा पुराने लेखकों के सामने भाषा की प्रौढ़ता मौलिकता, विषय की गम्भीरता और रोचकता का आदर्श रख दिया है।

उन्हीं प्रेमचन्दनी की कुशल लेखनी द्वारा यह 'संग्राम' नाटक लिखा गया है। यों तो उनके उपन्यासों में ही नाटक का मजा आ जाता है फिर उनका लिखा नाटक कैसा होगा यह बताने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। प्रस्तुत नाटक में मनोभावों का जो चित्र खींचा है वह आप पढ़कर ही अन्दाजा लगा सकेंगे। बढ़िया-एन्टिक कागजपर प्रायः २७५ पृष्ठों में रूपी पुस्तकका मूल्य केवल १॥)

२७–चरित्रहीन
ले० श्रीयुक्त शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय

बंगाल में श्रीयुक्त शरत् बाबू के उपन्यास उच्च कोटि के समझे जाते हैं। तथा उनके लिखे उपन्यासों का बंगला में बड़ा आदर है। उनके लिए उपन्यास पढ़ते समय आंखों के सामने घटना स्पष्ट रूप से भासने लगती है। युवा पुरुष बिना पूर्ख देख रेखके किस तरह चरित्रहीन हो वैठते हैं, सच्चा स्वामिभक्त सेवक किस तरह दुर्व्यसनके पंजों से अपने मालिक को छुड़ा सकता है। इसके अतिरिक्त पति-पत्नी का प्रेम, पतिव्रता की पति सेवा और विधवा जिया दुष्टों के बहकावे में पड़कर कैसे अपने धर्मकी रक्षा कर सकती है, इन सब बातों का इसमें पूर्णरूप से दिग्दर्शन कराया गया है। पृष्ठ ६६४ जिल्दसहित मूल्य ३।) रेशमी ३॥) [ २०१ ] 

२८–राजनीति-विज्ञान
ले° सुखसम्पति राय भण्डारी

आज भारत राजनीति-निपुण मे होने के कारण ही दासता की यातनाओ को मोग रहा है। हिन्दी में राजनीति की पुस्तकों का अभाव जानकर ही यह पुस्तक निकाली गई है। मुनरोस्मिथ, रो, ब्लंशले, गार्नर आदि पाश्चात्य राजनीति विशारदों के अमूल्य ग्रंथों के आधार पर यह पुस्तक लिखी गई है। राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इकरार-सिद्धान्त, शक्तिसिद्धान्त, राज्य और राष्ट्र की व्याख्या आदि राजनीति के गूढ़ रहस्यों का प्रतिपादन बड़ी खूबी से इस ग्रन्थ में किया गया है। इस राजनीतिक युग में राजनीति-प्रेमी प्रत्येक पाठक को इस पुस्तक की एक प्रति पास रखनी चाहिये। राष्ट्रीय स्कूलों की पाठय पुस्तकों में रखी जाने योग्य है। २१६ पृ° की पुस्तक का मूल्य १।=) है।

२९–आकृति-निदान
ले° जर्मनीके प्रसिद्ध बल-चिकित्सक डा° लूईकूने
'सम्पादक-रामदास गौड़ एम° ए°'

आज संसार डाक्टर लूईकूने के आविष्कारों को आश्चर्य की दृष्टि से देखता है। उसी लूईकूने की अंग्रेजी पुस्तक 'The Science of Facial Expression' का यह अनुवाद है। इसमें लगभग ६० चित्र दिये गये है जो बहुत सुन्दर पार्ट पेपरपर छपे है। उन चित्रों के देखने से ही सब मालूम हो जाता है कि इस चित्र में दिये हुए मनुष्य में यह बीमारी है। जब बीमारियों की प्राकृतिक चिकित्सा-विधि भी बतलाई गयी है। यदि पुस्तक समझ कर पढ़ी जाय और चित्रों का गौर से अवलोकन किया जाय तो मनुष्य एक मामूली डाक्टर का अनुभव सहज ही प्राप्त कर सकता है। इतने चित्रो के रहते भी पुस्तक का मूल्य केवल १।।) रखा गया है। [ २०२ ] 

३०-चीर केशरी शिवाजी
ले° पं° नन्दकुमारदेव शर्मा

महाराज क्षत्रपति शिवाजी का नाम किसी से छिपा नहीं है। हिन्दू-धर्मपर विधर्मियोंद्वारा होते हुए अत्याचार से बचानेवाले, गो-ब्राह्मण-भक्त, सच्चे धर्मवीर, कर्मवीर, राष्ट्रवीर 'वीर-केशरी शिवाजी' की इतनी बड़ी जीवनी अभीतक नहीं निकली थी। अंग्रेजी इतिहास-लेखकों ने शिवाजी के सम्बन्ध में अनेकों बाने बिना किसी प्रमाण के आधार पर मनमानी लिख डाली है। उन सबका समाधान एतिहासिक प्रमाणोंद्वारा लेखक ने बड़ी खूबी के साथ किया है। औरंगजेब की कुटिल चालों को शिवाजी ने किस प्रकार शह देकर मात किया, दगाबाज अफजलखाँ की दगाबाजी का किस प्रकार अन्त किया, हिन्दुओं के हिन्दुत्व को कैसे रक्षा की, किस प्रकार मराठा-राज्य स्थापित किया, इन सब विषयों का बड़ी सरल और ओजस्विनी भाषा में वर्णन किया है। लगभग ७५० पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य खद्दरकी जिल्द सहित ४) रेशमी सुनहली जिल्द सहित ४।)

३१-भारतीय वीरता
ले° श्रीयुक्त रजनीकान्त गुप्त

कौन ऐसा मनुष्य होगा जो अपने पूर्वजो की कीर्ति-कथा न जानना चाहता हो। महाराणा प्रतापसिंह के प्रताप, वीर-केशरी शिवाजी की वीरता, गुरु गोविन्दसिंह की गुरुता और महाराजा रणजीतसिंह के अद्भुत शौर्य और रणकौशल ने आज भी भारत के गौरव को कायम रखा है। रानी दुर्गावती, पद्मावती, किरणदेवी आदि भारत रमणियों की वीरता पढ़कर आज भी भारतीय अबलायें बल प्राप्त कर सकती है। ऐसे वीर भारत के सपूतों और आर्ध्य-ललनाओं की पवित्र चरित्र-कथायें इसमें वर्णित है। इसकी १६-१७ आवृत्तियां बंग-भाषा में हो चुकी हैं। अनुवाद भी सरल और ओजस्विनी भाषा में हुआ है। कवरपर तीनरङ्गा सुन्दर चित्र है। भीतर ८ चित्र दिये गये हैं। प्रत्येक नर-नारीको यह पुस्तक पढ़नी चाहिये। २७५ पृष्ठ की सचित्र पुस्तक का मूल्य केवल १।।।) है। [ २०३ ] 

३२–रागिणी
ले°: मराठी के प्रसिद्ध उपन्यासकार
श्रीयुक्त वामन मल्हारराव जोशी एम° ए°


अनुबादक–हिन्दी नवजीवन के सम्पादक तथा हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक
श्रीयुक्त पं° हरिभाऊ उपाध्याय

रागिणी है तो उपन्यास, परन्तु इसे केवल उपन्यास कहने से सन्तोष नहीं होता। क्योंकि आजकल उपन्यासों का काम केवल मनोरंजन और मनबहलाव होता है। इसको तर्क-शास्त्र और दर्शन-शास्त्र भी कह सकते हैं। इसमें जिज्ञासुओं के लिये जिज्ञासा, प्रेमियों के लिये प्रेम और अशान्त जनों के लिये विमल शान्ति मिलती है। वैराग्य खण्डका पाठ करने से मोह-माया और जगत की उलझनों से निकलकर मन में स्वाभाविक ही भक्ति-भाव उठने लगता है। देशभक्ति के भाव भी स्थान-स्थान पर वर्हित हैं। लेखक की कल्पना-शक्ति और प्रतिभा पुस्तक के प्रत्येक वाक्य से टपकती है। सभी पात्रों की पारस्परिक बातें और तर्क पढ़ पढ़कर मनोरजंन तो होता ही है, बुद्धि भी पुखर हो जाती है। भारतीय साहित्य में पहले तो 'मराठी' का ही स्थान ऊँचा है फिर मराठी- साहित्य में भी रागिणी एक रत्न है। भाषा और भाव की गम्भीरता सराहनीय है। उपाध्याय जी के द्वारा अनुवाद होने से हिन्दो में इसका महत्व और भी बढ़ गया है। लेखक की लेखनशैली, अनुवादक की भाषा-शैली जैसी सुन्दर है, आकार भी वैसा ही सुन्दर, छपाई वैसी ही साफ है। ऐसी सर्वांगपूर्ण सुन्दर पुस्तक आपके देखने में कम आवेगी। लगभग ८०० पृष्ठ की सजिल्द पुस्तक का मूल्य ४) और सुंदर रेशमी मनहनी जिल्दका ४॥) [ २०४ ] 

३३–प्रेम-पचीसा
ले° उपन्या स-सम्राट् श्रीयुक्त प्रेमचन्दजी

प्रेमचन्दजी का नाम ऐसा कौन साहित्य-प्रेमी है जो न जानता हो। जिन प्रेमाश्रम की धूम दैनिक और मासिक पत्रों में प्रायः बारह महीने से मची हुई है उसी प्रेमाश्रम के लेखक बाबू प्रेमचन्दजी की रचनाओं मेंसे एक यह भी है। 'प्रेमाश्रम', 'सप्त सरोज', प्रेम पूर्णिमा' और 'सेवासदन' आदि उपन्यासों और कहानियोंका जिसने रसास्वादन किया है वह तो इसे बिना पढ़े रह ही नहीं अकता। इसमें शिक्षाप्रद मनोरञ्जक २५ अनूठी कहानियां हैं। प्रत्येक कहानी अपने अपने ढङ्गकी निराली है। कोई मनोरञ्जन करती है, तो कोई सामाजिक कुरीतियोंका चित्र चित्रण करती है। कोई कहानी ऐसी नहीं है जो धार्मिक अथवा मैतिक प्रकाश न डालती हो। पढ़ने में इतना मन लगता है कि कितना भी चिन्तित कोई क्यों न हो प्रफुल्लित हो जाता है। भाषा बहुत सरल है। विद्यार्थियों के पढ़ने योग्य है। ३८४ पृ° की पुस्तकका खद्दरकी जिल्द सहित बल्य २१७-रेशमी जिल्दका २॥।)

३४–व्यावहारिक पत्र-बोध
ले° पं° लक्ष्मणप्रसाद चतुर्वेदी

आजकल की अंग्रेजी शिक्षा में सबसे बड़ा दोष यह है कि प्रायः अंग्रेजी शिक्षित व्यवहार-कुशल नहीं होते। कितने तो शुद्ध बाकायदा पत्र लिखना तक नहीं जानते। उसी प्रभावकी पूर्ति के लिये यह पुस्तक निकाली गयी है। व्यापारिक पत्रोंका लिखना, पत्रों का उत्तर देना, प्रार्थनापत्रों का बाकायदा लिखना बया आफिसियल पत्रों का जवाब देना आदि दैनिक जीवन में काम आनेवाली बातें इस पुस्तक द्वारा सहज ही सीखी जा सकती है। व्यापारिक विद्यालयो (Commercial Schools) की पाठ्य-पुस्तकों में रहने लायक यह पुस्तक है। अन्यान्य विद्यालयों में भी यदि पढ़ायी जाय तो लड़कों का बड़ा उपकार हो। विद्यार्थियों के सुभीते के लिये ही खगभग १२५ पृ° की पुस्तकको कीमत ॥=) रखी गयी है। [ २०५ ] 

३५–रूसका पञ्चायती-राज्य
ले° प्रोफेसर प्राणनाथ विद्यालंकार

जिस बोल्शेविज्म की धूम इस समय संसार में मची हुई है, जिन बोल्शेविको का नाम सुनकर सारा यूरोप कांप रहा है उसी का यह इतिहास है। आरके अत्याचारों से पीड़ित प्रजा जारको गद्दी से हटाने में कैसे समर्थ हुई, मजदूर और किसानों ने किस प्रकार जार-शाही को उलटने में काम किया,आज उनकी क्या दशा है इत्यादि बातें जानने को कौन उत्सुक नहीं है! प्रजातन्त्र-राज्यकी महत्ता का बहुत ही सुन्दर वर्णन है। प्रजा की मर्जी बिना राज्य नहीं फल सकता और रूस ऐसा प्रबल राष्ट्र भी उलट दिया जा सकता है, अत्याचार और अन्याय का फल सदा बुरा होता है इत्यादि बातें बड़े सरल और नवीन तरीके से लिखी गयी हैं। लेनिन की बुद्धिमत्ता और कार्यशैली पढ़कर दांतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। किस कठिनता और अध्यवसायसे उसने इसमें पंचायती राज्य स्थापित किया इसका विवरण पढ़कर मुर्दा दिल भी हाथो उछलने लगता है। १३६ पृ° की पुस्तक का मूल्य केवल ॥।) मात्र रखा गया है।

३६–टाल्स्टायकी कहानियां
सं° श्रीयुक्त प्रेमचन्दजी

यह महात्मा टाल्स्टाय की संसार-प्रसिद्ध कहानियों का हिन्दी अनुवाद है। युरोप की कोई ऐसी भाषा नहीं है जिसमें इनका अनुवाद न हो गया हो। इन कहानियों के जोड़ की कहानियां सिवा उपनिषदों के और कहीं नहीं है। इनकी भाषा जितनी सरल, भाव उतने ही गम्भीर है। इनका सर्वप्रधान गुण यह है कि ये सर्व-प्रिय है। धार्मिक और नैतिक भाव कूट कूटकर भरे है। विद्यालयों में छात्रों को यदि पढ़ाई जायें तो उनका बड़ा उपकार हो। किसानों को भी इनके पाठसे बड़ा लाभ होगा। पहले भी कहीं से इनका अनुवाद निकला था परन्तु सर्वप्रिय न होने के कारण उपन्यास सम्राट् श्रीयुक्त प्रेमचन्दजी-द्वारा सम्पादित कराकर निकाली गयी हैं। सर्वसाधारण के हाथो तक यह पुस्तक पहुंच माय इसीलिये मूल्य केवल १) रक्खा गया है।

  1. 'जिपसी' युरोप के कञ्जरों को कहते हैं, जिनके न तो घर-द्वार होता है, न कहीं जगह। इधर-उधर घुमना और लुट-पाटकर खाना ही इनका काम है।—अनुवादक।