आनन्द मठ/सत्रहवाँ परिच्छेद

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सत्रहवां परिच्छेद

भवानन्द, मठके भीतर बैठे हरि-गुण-गान कर रहे थे। इसीसमय ज्ञानानन्द नामक एक तेजस्वी सन्तान उदास मुंह, उनके पास आ खड़े हुए। भवानन्दने कहा,-"गुसाई जी! ऐसा उदास चेहरा क्यों बनाये हुए हो?" [ ६८ ] ज्ञानानन्द-"कुछ गोलमाल हुआ सा मालूम पड़ता है। कलकी घटनाके कारण मुसलमान जहां कहीं गेरुआ कपड़ा देखते हैं, वहीं धरपकड़ करने लगते हैं। अन्य सन्तानोंने तो गेरुआ वस्त्र उतार फेंके। केवल सत्यानन्द प्रभु गेरुमा पहने हुए शहरकी ओर गये हैं। कहीं वे मुसलमानोंके फन्देमें न पड़ जाय।"

भवानन्द-"उन्हें पकड़ रखे, ऐसा कोई मुसलमान इस बङ्गाल प्रान्तमें नहीं पैदा हुआ। मैंने सुना है, कि धीरानन्द उनके पीछे पीछे गये हैं। तोभी मैं जरा शहरतक घूम आना चाहता हूं, तुम मठकी रखवाली करो।"

यह कह, भवानन्दने एक सूनसान कमरेमें जा, एक बड़े भारी सन्दूकमेंसे कई तरहके कपड़े बाहर निकाले। सहसा भवानन्दका रूप ही औरका और हो गया। गेरुआ कपड़ोंके स्थानमें चूड़ीदार पायजामा, अचकन, चोगा, सिरपर अम्मामा और पैरोंमें नागौरी जूते शोभा देने लगे। ललाटसे त्रिपुण्डुके चिह्न दूर हो गये। भौरेकी तरह काली काली दाढ़ी मूंछोंसे घिरा हुआ सुन्दर मुखमण्डल अपूर्व शोभा दिखाने लगा। उस समय वे मुगल नवजवान मालूम पड़ने लगे। इस तरह मुगलका वेश बना, हथियारसे लैस होकर वे मठसे बाहर निकले। वहाँसे कोस डेढ़ कोसकी दूरीपर दो नीची पहाड़ियाँ थीं। उन पहाड़ोंपर घने उन दोनों पहाड़ियोंके बीच में एक सूनसान स्थान था। वहां बहुतसे घोड़े बंधे थे। वही मठवासियोंकी अश्वशाला थी। उन्हीं घोड़ोंमेंसे एकपर सवार हो भवानन्द नगरकी ओर चल पड़े।

जाते जाते वे सहसा एक जगह ठिठक गये। उन्होंने देखा, कि कलनादिनी तरङ्गिणीके तीरपर आसमानसे गिरे हुए नक्षत्र-की भांति, मेघसे बिछुड़ी हुई बिजलीकी नाई दमकती कान्तिवाली एक स्त्री पड़ी है। उन्होंने यह भी देखा, कि उसके शरीरमें जीवनका कोई चिह्न नहीं है और पास ही जहरकी डिबिया [ ६९ ] पड़ी है। भवानन्द विस्मित, क्षुब्ध और भीत हुए। जीवानन्दकी ही तरह भवानन्दने भी महेन्द्रकी स्त्री और कन्याको कभी नहीं देखा था। जीवानन्दने जिन कारणोंसे उनपर महेन्द्रकी स्त्री कन्या होनेका सन्देह किया था, वे कारण भवानन्दके सामने उपस्थित नहीं थे। एक तो उन्होंने ब्रह्मचारी और महेन्द्रको कैद होकर आते नहीं देखा था; दूसरे, लड़की भी वहां नहीं थी। डिबिया देखकर उन्होंने अनुमान किया, कि कोई स्त्री विष खाकर मर गयी है। यही सोचकर वे उस शवके पास चले आये और उसके सिरपर हाथ रखकर देरतक कुछ सोचते रहे। इसके बाद उन्होंने उसके सिर, बगल, पांजर, हाथ आदिपर हाथ रखकर देखा और अनेक प्रकारसे परीक्षा की, जो साधारणतः लोग नहीं जानते। तब उन्होंने मन-ही-मन कहा-“अब भी समय है, पर इसे बचाकर ही क्या करूंगा?"

इसी प्रकार भवानन्दने बड़ी देरतक सोच-विचार किया। इसके बाद जङ्गलमें जाकर वे एक वृक्षके बहुतसे पत्ते तोड़ लाये। उन्हें हाथसे ही मलकर उन्होंने उनका रस निचोड़ा और उस मुर्दक ओठमें अंगुली डाल, उसीके सहारे वह रस उसके गलेके नीचे उतारने लगे। इसके बाद उन्होंने थोड़ासा रसउसकी नाकमें भी टपकाया और कुछ हाथ पैरोंमें भी मल दिया। वे बार बार ऐसा ही करने और रह रहकर उसकी नाकके पास हाथ ले जाकर देखने लगे कि सांस चलती है या नहीं। उन्हें मालूम पड़ा, मानो उनका यत्न विफल हुआ चाहता है। इस प्रकार बहुत देरतक परीक्षा करते रहनेके बाद भवानन्दका चेहरा खिल उठा, क्योंकि उनकी अंगुलीमें धीरेसे सांस चलनेकी हवा लगी। अब तो वे और भी रस निचोड़ निचोड़कर उसे पिलाने लगे। क्रमसे जोर जोरसे सांस चलने लगी। अब नाड़ी-पर हाथ रखकर भवानन्दने देखा कि नाड़ी चल रही है। अन्तमें पूर्व दिशाके प्रथम अरुणोदयकी नाई प्रभातके खिलते हुए कमल [ ७० ] की तरह तथा अनुरागके प्रथम अनुभवकी भांति कल्याणीने धीरे धीरे आंखें खोल दी। यह देख भवानन्द उस अधमरी देहको घोड़ेपर चढ़ा जल्दी नगरकी ओर चले।