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आनन्द मठ/3.11

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १४२ से – १४७ तक

 

ग्यारहवां परिच्छेद

इसी समय टामसकी तोपें दाहिनी ओरसे आ पहंची। तब तो सन्तानोंकी सेना एकबार ही तितर-बितर हो गयी। किसीके बचनेकी कोई आशा न रही। सन्तानोंमेंसे जिसका जिधर सींग समाया, वह उधर ही भाग निकला। जीवानन्द और धीरानन्दने उन्हें रोक रखनेके लिये बड़े-बड़े यत्न किये पर न रोक सके। इसी समय बड़े ऊँचे स्वरसे आवाज आयी-“पुलपर चले जाओ, पुलपर चले जाओ, उस पार पहुंच जाओ, नहीं तो नदीमें डूब मरोगे । अंगरेजी सेनाकी ओर मुंह किये हुए धीरे-धीरे पुलपर पहुंच जाओ।"

जीवानन्दने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी, तो सामने भवानन्द नजर आये। भवानन्दने कहा-"जीवानन्द, सबको पुलपर ले जाओ, नहीं तो रक्षा नहीं है।"

तब धीरे-धीरे पीछेकी ओर हटती हुई सन्तान-सेना पुल पार करने चली। पर ज्योंही वे पुलपर पहुंचे, अंगरेजोंने मौका पाकर तोपसे पुलको उड़ा देना शुरू किया। सन्तानोंका दल नष्ट होने लगा। भवानन्द जीवानन्द और धीरानन्द तीनों एकत्र हो गये, एक-एक तोपकी मारसे बहुतसे सन्तानोंका संहार हो रहा था। भवानन्दने कहा-“जीवानन्द, धीरानन्द, आओ, तलवारें घुमाते हुए हमलोग उस तोपको चलकर छीन लें।" यह कह तीनों व्यक्ति तलवारें चमकाते हुए उस तोपके पास पहुंचे और गोलन्दाज सिपाहियोंको मार मार कर ढेर करने लगे। अन्य सन्तानगण भी उनकी मददको आ पहुंचे। तोप भवानन्दके हाथमें चली आयी। तोप कब्जे में कर, भवानन्द उसके ऊपर चढ़ गये और ताली बजाते हुए बोले-“बोलो वन्देमातरम्।" सब-के-सब 'वन्दे मातरम्' गाने लगे। भवानन्दने कहा-“इस तोपको घुमाकर अब इन सबोंकी खबर लेनी चाहिये।”

यह सुनते ही सन्तानोंने तोपका मुंह फेर दिया। फिर तो वह तोप उच्च नाद करती हुई वैष्णवोंके कानों में हरिनाम गुंजाने लगी। उसकी बाढ़के सामने सिपाहो ढेर होने लगे। भवानन्द उस तोपको खींच खांचकर पुलके मुंहपर ले आये और बोले" तुम दोनों कतारबन्दी करके सन्तान-सेनाको पुलके उस पार ले जाओ, मैं अकेला ही इस व्यूहद्वारको रक्षा करूंगा। तोप चलानेके लिये मेरे पास थोड़ेसे गोलन्दाज सिपाही छोड़ जाओ।"

बील चुने हुए जवान भवानन्दके पास रह गये और असंख्य सन्तान-सेना पुल पारकर जीवानन्द और धीरानन्दके आज्ञानुसार कतार बाँधे आगे बढ़ी। अकेले भवानन्द उन बीस जवानों की सहायतासे, एक ही तोपसे बहुत सिपाहियोंको जहन्नुमकी राह दिखलाने लगे। पर यवन-सेना भी ज्वारके समय लगातार उठती हुई तरङ्गोंके समान ही बढ़ती गयी और भवानन्दको चारों ओरसे घेरकर हैरान करने लगी। वे उन तरंगोंमें पड़कर डूबने लगे। पर भवानन्द न तो थकनेवाले थे, न हारनेवालेवे बड़े ही निडर थे। वे भी तोप दाग दाग कर कितने ही सैनिकोंको नष्ट करते चले गये। यवनगण आँधीसे उठती हुई तरङ्गोंकी तरह उनपर हमला करने लगे; पर वे बीसों जवान पुलका मोहड़ा रोके ही रहे। वार-पर-वार होनेपर भी वे न हटे और यवन पुलपर न पहुंच सके। वे वीर मानों अजेय थे। उनका जीवन मानों अमर था। इस अवसरमें दल-के-दल सन्तान

१० उसपर पहुंच गये। थोड़ी देर में सारी सन्तान सेना पुल पार कर जाती; पर इसी समय न जाने किधरसे नयी नयी तो गरज उठीं। अरररर धांयकी आवाज होने लगी। दोनों ही दल थोड़ी देर हाथ रोककर देखने लगे, कि ये तो कहांसे दागी जा रही हैं। उन्होंने देखा, कि जंगलके भीतरसे कितने ही देशी सिपाही तोपें दागते हुए चले आ रहे हैं। जंगलसे निकलकर सत्रह बड़ीबड़ी तो एक साथ ही हे साहबके दलपर आग बरसाने लगीं। घोर शब्दसे जंगल और पहाड़ गूंज उठे। सारा दिन लड़ते-लड़ते थकी हुई यवनसेना प्राणोंके भयसे काँप उठी। उस अग्निवर्षाके आगे तिलङ्ग, मुसलमान और हिन्दुस्तानी सिपाही सभी भागने लगे। केवल दो-चार गोरे खड़े-खड़े जूझ रहे थे।

भवानन्द तमाशा देख रहे थे। उन्होंने कहा-“भाइयो! देखो, वे वींटीकटे भागे जा रहे हैं। चलो, एकबार ही उनपर टूट पड़ो।” तब चोटियोंके दलको तरह कतार बाँधे हुई सन्तानसेना नये उत्साहसे पुलके इस पार आकर यवनोंपर आक्रमण करने लगी। वह अकस्मात् यवनोंपर टूट पड़ी। उन बेचारोंको युद्ध करनेका मौका ही न मिला। जैसे गङ्गाको तरङ्ग पद्धताकार मतवाले हाथीको बहा ले जाती हैं, वैसे ही सन्तानगण यवनोंको बहा ले चले। मुसलमानोंने देखा कि पीछे तो भवानन्दकी पैदल सेना है और सामने महेन्द्रकी बड़ी-बड़ी तोपे गरज रही हैं।

अब तो हे साहबने देखा कि सर्वनाश उपस्थित है। उनकी सारी सुध-बुध जाती रही-बल, वीर्य, साहस, कौशल, शिक्षा, अभिमान-सबका दिवाला निकल गया। सारी फौजदारी, बादशाही, अंगरेजी, देशी, विलायती, काली और गोरी सेना गिर गिर कर जमीन चूमने लगी। विधर्मियोंका दल भाग चला। जीवानन्द और धीरानन्द 'मार मार' करते हुए विधर्मी सेनाके पीछे दौड़ पड़े। सन्तानोंने उनकी कुल तोपें छीन लीं। बहुतसे अंगरेज़ और देशी सिपाही मारे गये। सर्वनाश समीप आया देख, कप्तान हे और वाटसनने भवानन्दके पास कहला भेजा-"हम सब तुम्हारे कैदी हैं, अब हमारी जानें छोड़ दो।” जीवानन्दने भवानन्दके मुंहकी ओर देखा। भवानन्दने मन-ही-मन कहा-“नहीं, यह तो नहीं होगा। आज तो मैं मरनेके लिये तैयार हूं।" यही सोचकर भवानन्द ऊपरको हाथ उठाये, हरि-हरि कहते हुए बोले-“मारो! मारो इन दुष्टोंको।"

अब तो एक भी प्राणी जीता न बचा। केवल २०१३० गोरे सिपाही एक जगह इकठ्ठे होकर मन-ही-मन आत्मसमर्पण करनेका निश्चय कर, जानपर खेलकर लड़ रहे थे। जीवानन्दने कहा-"भवानन्द! हमारी तो जय हो चुकी, अब लड़नेका कोई काम नहीं है। इन दो-चार व्यक्तियों को छोड़कर और कोई जीता नहीं रहा। इनको प्राणदान दे दो और घर लौट चलो।"

भवानन्दने कहा,-"एकको भी जीता छोड़कर भवानन्द नहीं लौट सकता। जीवानन्द! मैं तुम्हारी सौगन्ध खाकर कहता हूं, तुम अलग हटकर खड़े हो जाओ और तमाशा देखो। मैं अकेला ही इन बचे अंगरेजोंको मार गिराता हूं।"

कप्तान टामस घोड़ेकी पीठपर बंधा था। भवानन्दने हुक्म दिया-"उसे मेरे सामने ले आओ। पहले उसीको जान लूंगा; फिर मैं तो मरूंगा ही।"

कप्तान टामस बंगला अच्छी तरह समझता था। उसने यह बात सुनललकार कर उन अंगरेज़ सिपाहियोंसे कहा-“भाई अगरेजो! मैं तो मरता ही हूं; पर तुम लोग इंग्लैण्डके प्राचीन यशकी रक्षा करना। मैं तुम्हें ईसामसीहकी सौगन्ध देकर कहता हूं कि पहले मुझे मारकर तब इन विद्रोहियोंको मारना।"

इसी समय दायँ से एक पिस्तौल छूटी। एक आइरिशने कप्तान टामसको लक्ष्यकर यह गोली छोड़ी थी। गोली कप्तान टामसके सिरमें लगी। उसके प्राण निकल गये। भवानन्दने ज़ोर-से चिल्लाकर कहा-"मेरा ब्रह्मास्त्र व्यर्थ चला गया। अब कौन ऐसा अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव है, जो इस समय मेरो रक्षा कर सके? यह देखो, चुटीले शेरकी तरह सब गोरे मेरे ऊपर टूट रहे हैं। मैं तो मरनेके लिये आया ही हूं। अब बतलाओ कौन कौन सन्तान मेरे साथ मरना चाहते हैं।"

सबसे पहले धीरानन्द आगे आये। इसके बाद जीवानन्द। साथ ही दस, फिर पन्द्रह, फिर बीस और अन्तमें ५० सन्तान आकर वहीं इकट्ठे हो गये। भवानन्दने धीरानन्दको देखकर कहा-"तुम भी क्या हमारे ही साथ मरने आये हो?"

धीरा-"क्यों? मरनेमें भी किसीका इजारा है?” यह कहते हुए धीरानन्दने एक अंगरेजको घायल किया।"

भवा०-"नहीं, नहीं, मेरे कहनेका मतलब यह है कि तुम तो स्त्री पुत्रका मुंह देखते हुए सुखसे दिन बिताना चाहते थे।"

धीरा०-"कलवाली बातका इशारा कर रहे हो? क्या अब भी तुम्हारी समझमें कुछ न आया?" यह कहते कहते-धीरानन्द ने उस घायल गोरेको मार गिराया।"

भवा०-"नहीं"

बात पूरी भी न होने पायी थी, कि एक गोरेने भवानन्दका दाहिना हाथ काट डाला।

धीरा०-"मेरी क्या मजाल, जो मैं तुम्हारे जैसे पवित्रात्मासे वैसी बातें कहता? मैं तो उस समय सत्यानन्दका जासूस बनकर गया हुआ था।"

भवा०-“यह क्या? क्या महाराज मेरे ऊपर सन्देह करते हैं?"

उस समय भवानन्द एक ही हाथसे लड़ रहे थे। धीरानन्दने उसकी रक्षा करते हुए कहा-"कल्याणीके साथ तुम्हारी जो जो बाते हुई थीं, वे सब महाराजने अपने कानों सुन ली थीं।"

भवा०-“सो कैसे?

धीरा०-वे स्वयं वहां गये थे। देखो, सावधान हो जाओ।" इसी समय एक गोरेने भवानन्दपर हमला किया, जिसका जवाब उन्होंने हमलेसे दिया।

धीरानन्द कहते गये-“वे कल्याणीको गीता पढ़ा रहे थे, उसी समय तुम वहाँ पहुंचे। देखो, सावधान!"-"भवानन्दकी बायीं भुजा भी कटकर गिर पड़ी।

भवा०-“अच्छा, उनको मेरे मरनेका हाल सुनाते हुए कह देना कि मैं अविश्वासी नहीं हूं।"

आंखोंमें आंसू भरकर धीरानन्द युद्ध करते-करते बोले-“सो तो वे ही समझे। कल उन्होंने जो आशीर्वाद किया था उसे याद करो। उन्होंने मुझसे कह रखा था कि आज भवानन्द मरेगा, तुम उसके पास ही रहना और उससे मरते समय कह देना कि मेरे आशीर्वादसे उसे मरने के बाद वैकुण्ठवास होगा।"

भवानन्दने कहा-“सन्तानोंकी जय हो।, भाई! मरते समय एक बार 'वन्देमातरम्' गान तो मुझे सुना दो।" उसी समय धीरानन्दके आज्ञानुसार सभी युद्धोन्मत्त सन्तान ललकारके साथ 'वन्देमातरम्' गाने लगे। इससे उनकी भुजाओंमें दुगुना बल आ गया। उस भयङ्कर मुहूर्त में ही बाकी बचे हुए गोरे भी मारे गये। सारी युद्धभूमिपर सन्नाटा छा गया।

उसी मुहूर्त में भवानन्दने भी मुंहसे 'वन्देमातरम्' गाते और मन-ही-मन विष्णु भगवान्के चरण-कमलोंका ध्यान करते हुए परलोककी यात्रा की।

हाय रे रमणी रूप लावण्य! इस संसारमें सबसे बढ़कर तुझे ही धिक्कार है!