आनन्द मठ/3.7

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"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम्,
सदय हृद्य दर्शित पशुधातम्,
केशव धृत बुद्ध-शरीर,
जय जगदीश हरे!"

उसी समय बाहरसे न जाने किसने मेध-गर्जन की तरह बड़े ही गम्भीर स्वरसे गाया—

"ग्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालम्।
धूमकेतुमिव किमपि करालम्॥
केशव धृत कल्कि शरीर,
जय जगदीश हरे!"

शान्तिने भक्तिभावसे सिर झुकाकर सत्यानन्दके पैरोंकी धूलि सिर चढ़ायी; बोली—"प्रभो! मेरे बड़े भाग्य जो आज आपके चरणकमल यहांतक आये। आज्ञा कीजिये मुझे क्या करना होगा।"

यह कह, फिर सारङ्गीका सुर मिलाकर उसने गाया,—"तव चरणप्रणाता वयमिति भावय, कुरु कुशलं प्रणतेषु।"

सत्यानन्दने कहा,—"देवि! तुम्हारी कुशल ही होगी?"

शान्ति°-"सो कसे महाराज? आपकी आज्ञा तो मेरे वैधव्यके हेतु है।"

सत्या°—"पहले मैं तुम्हें पहचानता नहीं था। बेटी! मैं रस्सीका ज़ाेर आजमाये विना ही उसे खींच रहा था। तुम्हारा ज्ञान मुझसे कहीं बढ़ा हुआ है। अब तुम जो उपाय अच्छा समझो, करो। जीवानन्दसे यह मत कहना कि मैं सब कुछ जान गया हूं। तुम्हारे लिये वे अपनी जान बचानेकी चेष्टा कारेगें। अबतक बचाते भी रहे हैं। बस, इसीसे मेरा काम हो जायगा।"

यह सुनते ही उन नील उत्फुल्ल लोचनोंमें आषाढ़ मासमें चमकनेवाली बिजलीकी तरह क्रोधाग्नि पैदा हो आयो। शान्ति- ने कहा—"यह क्या महाराज! आप यह क्या कह रहे हैं ? मैं [ १३१ ] और मेरे स्वामी एकप्राण दो-शरीर हैं। अभी आपसे मेरी जो जो बातें हुई हैं, वह सब मैं उनसे कह दूंगी। उन्हें मरना होगा तो वे मरेंगे ही, इसमें हर्ज ही कौन-सा है? मैं भी तो उनके साथ-ही-साथ मरूंगी। उनके लिये स्वर्गका द्वार खुला है, तो क्या मेरे लिये बन्द है?"

ब्रह्मचारीने कहा-“मैं आजतक किसीसे हारा नहीं था। आज पहले पहल तुमसे हारा। मां! मैं तुम्हारा पुत्र हूं। सन्तान-पर दया करो, जीवानन्दको बचाओ, अपनी प्राणरक्षा करो, इसीसे मेरा कार्योद्धार हो जायगा।"

फिर बिजली चमक उठी। शान्तिने कहा-“मेरे स्वामीका धर्म मेरे हाथमें है। उन्हें दूसरा कौन धर्मसे हटा सकता है? इस लोकमें स्त्रीके लिये पति देवता है; परन्तु परलोकमें धर्म ही सबका देवता है। मेरे लिये मेरे पति बड़े हैं, उनकी अपेक्षा मेरा धर्म बड़ा है, और उससे भी मेरे स्वामीका धर्म बड़ा है। अपना धर्म मैं जिस दिन चाहूं छोड़ सकती हूं, पर अपने स्वामी का धर्म मैं कैसे छोड़ा दूंगी? महाराज! आपकी बात मानकर यदि मेरे स्वामी प्राण देनेको तैयार हों, तो मैं उन्हें नहीं रोकूंगी।"

यह सुन ब्रह्मचारीने लम्बी सांस लेकर कहा-"मां! इस कठोर व्रतमें बलिदान करना पड़ता है। हम सबको इसपर बलि हो जाना पड़ेगा मैं मरूंगा, जीवानन्द मरेंगे, भवानन्द मरेंगे, सभी मरेंगे। मां! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ता है कि तुम भी मरोगी। किन्तु देखो, काम करके मरना अच्छा होता है। विना काम किये मरना क्या अच्छा होगा? मैं तो केवल जन्मभूमिको ही मां समझता हूं, और किसीको मैं मां नहीं कहता। क्योंकि इस सजल-सफल धरणीके सिवा हमारी और कोई माता हो हो नहीं सकती। उसके सिवा मैंने आज केवल तुम्हींको मां कहकर पुकारा है। मां हो तो सन्तानकी भलाई करो। ऐसा काम [ १३२ ] करो जिससे कार्योद्धार हो। जीवानन्दके प्राण बचाओ। अपनी भी प्राणरक्षा करो।"

यह कह सत्यागन्द "हरे मुरारे मधुकैटभारे” गाते हुए चले गये।