सामग्री पर जाएँ

आनन्द मठ/4.3

विकिस्रोत से
आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १५८ से – १६१ तक

 

तीसरा परिच्छेद

पदचिह्नके नये दुर्गमें आज महेन्द्र, कल्याणी, जीवानन्द, शान्ति, निमाई, निमाईके स्वामी और सुकुमारी जमा हैं। सुखमें पगे हुए हैं। शान्ति भी नवीनानन्दका रूप धारण किये हुए आयी है। वह जिस रातको कल्याणीको अपनी कुटियामें ले आयी थी, उसी रातको उसने कल्याणीको इस बातको ताकीद कर दी थी कि अपने स्वामीसे यह कभी न कहना कि नवीनानन्द स्त्री है। एक दिन कल्याणोने उसे घरके भीतर बुलाया। नवीनानन्द भीतर आये। उन्होंने नौकरोंकी रोकथाम नहीं सुनी।

शान्तिने कल्याणीके पास आकर पूछा-"तुमने मुझे किस लिये बुलाया है?"

कल्याणी-“इस तरह कबतक मर्दाना वेश बनाये रहोगी? न मिलना-जुलना होता है, न बातचीत होती है। तुम्हें मेरे स्वामीके सामने अपना यह परदा हटाना पड़ेगा।"

नवीनानन्द बड़े फेरमें पड़ गये, बहुत देरतक चुप रहे, अन्तमें बोले,-"कल्याणी! इसमें अनेक विघ्न हैं।"

बस, दोनोंमें इसी विषयपर बातें होने लगी। नौकरोंने नवीनानन्दको भीतर जानेसे रोका था, उन्होंने महेन्द्रके पास जाकर खबर दी कि नवीनानन्द जबरदस्ती घरके अन्दर घुस गये हैं उन्होंने कोई रोक टोक नहीं मानी। यह सुनकर महेन्द्र बहुत विस्मित हुए और घरके अन्दर गये। उन्होंने कल्याणीके सोनेके कमरे में जाकर देखा कि नवीनानन्द घरमें एक ओर खड़े हैं और कल्याणी उनकी देहपर हाथ रखे, उनके बघछालेकी गांठ खोल रही है। महेन्द्र बड़े विस्मित, साथ ही क्रोधित भी हुए।

नवीनानन्दने उन्हें देख, हंसकर कहा-"क्यों गुसाई जी! एक सन्तानपर दूसरे सन्तानका अविश्वास कैसा?"

महेन्द्रने कहा-"क्या भवानन्दजी विश्वासपात्र थे?"

नवीनानन्दने आंखें तरेरकर कहा-“तो कल्याणी भवानन्दके शरीरपर हाथ रखकर उनके बघछालेकी गांठ भी नहीं खोलने गयी थी!" कहते कहते शान्तिने कल्याणीके हाथमें चुटकी भरी-उसे बघछाला नहीं खोलने दिया।

महेन्द्र--"इससे क्या हुआ?"

नवीना०-"आप मेरे ऊपर भले ही अविश्वास कर सकते हैं; पर कल्याणीपर क्योंकर अविश्वास कर सकते हैं?" अब तो महेन्द्र बड़े चक्कर में पड़े, बोले-"क्यों? मैंने इनपर कब अविश्वास किया?"

नवीना०-"नहीं किया, तो फिर मेरे पीछे पीछे यहांतक क्यों चले आये?"

महेन्द्र-"मुझे कल्याणीसे एक बात करनी थी, इसीलिये चला आया।"

नवीना०-"अच्छा, तो अभी जाइये। अभी इनसे कुछ बातें कर लेने दीजिये। आपका तो यहीं घर-द्वार है, जब चाहेंगे चले आयेंगे। मैं तो आज बड़ी-बड़ी मुश्किलोंसे आने पाया हूं।"

महेन्द्र तो पूरे बुद्ध, बन गये। वे कुछ भी न समझ सके कि यह मामला क्या है? ऐसी बातें तो किसी अपराधीके मुंहसे नहीं निकल सकतीं। कल्याणीके भी रंग-ढंग निराले ही थे। वह भी अपराधिनीकी तरह न भागी, न डरी, न शर्मायी बल्कि धीरे-धीरे मुस्कुरा रही थी और वह कल्याणी जो उस दिन वृक्ष- तले बैठी हुई हंसते-हंसते विष खा गयी थी वह भला कभी अविश्वासिनी हो सकती है? महेन्द्र मन-ही-मन यही सब सोच ही रहे थे कि इसी समय शान्तिने महेन्द्रको यों बुद्धू बनते देख, धीरेसे हँसकर कल्याणी पर एक तिरछी चितवनका वार किया। सहसा अंधेरा मानो दूर हो गया। महेन्द्रने देखा कि यह चितवन तो मर्दकी नहीं, स्त्रोकी है! बड़ा साहस कर महेन्द्रने नवीनानन्दकी दाढ़ी पकड़के खींच ली। नकली दाढ़ी-मूछ एक ही झटकेमें नीचे गिर पड़ी। इसो समय अवसर पाकर कल्याणीने उसके बघछाले की गांठ खोल डाली। बघछाला भी नीचे गिर पड़ा। यों परदा खुलते देख, शान्ति सिर झुकाये खड़ी रह गयी।

तब महेन्द्रने शान्तिसे पूछा-“तुम कौन हो?"

शान्ति-"श्रीमान् नवीनानन्द गोस्वामी।"

महेन्द्र-“यह सब धप्पेबाजी है। तुम स्त्री हो।" शान्ति-"अच्छा, स्त्री ही सही।"

महेन्द्र-“अच्छा, यह तो कहो, तुम स्त्री होकर हरदम जीवानन्दजीके साथ क्यों रहती हो?"

शान्ति–“मान लीजिये, कि मैंने यह बात आपसे नहीं कही।"

महेन्द्र-"क्या जीवानन्द यह जानते हैं कि तुम स्त्री हो?"

शान्ति-"हाँ, जानते हैं।"

यह सुनकर विशुद्धात्मा महेन्द्र बड़े ही दुःखित हुए। अब तो कल्याणीसे न रहा गया। वह झट बोल उठी, “ये जीवानन्द महाराजकी धर्मपत्नी, श्रीमती शान्तिदेवी हैं।"

क्षण भरके लिये महेन्द्र के चेहरेपर प्रसन्नता छा गयी। फिर उसपर अँधेरा छा गया। कल्याणी इसका मतलब समझ गयी, बोली-“यह पूर्ण ब्रह्मचारिणी है।"