कटोरा भर खून/३
३
आसमान पर सुबह की सुफेदी छा चुकी थी जब लाश लिए हुए बीरसिंह किले में पहुंचा । वह अपने हाथों पर कुंअर साहब की लाश उठाये हुए था । किले के अन्दर की रिआया तो आराम में थी केवल थोड़े-से बुड्ढे, जिन्हें खांसी ने तंग कर रक्खा था, जाग रहे थे और इस उद्योग में थे कि किसी तरह बलगम निकल जाए और उनकी जान को चैन मिले । हां, सरकारी आदमियों में कुछ घबराहट-सी फैली हुई थी और वे लोग राह में जैसे-जैसे बीरसिंह मिलते जाते उसके साथ होते जाते थे, यहां तक कि दीवानखाने की ड्योढ़ी पर पहुंचते-पहुंचते पचास आदमियों की भीड़ बीरसिंह के साथ हो गई, मगर जिस समय उसने दीवानखाने के अन्दर पैर रक्खा, आठ-दस आदमियों से ज्यादा न रहे । कुंअर साहब की मौत की खबर यकायक चारों तरफ फैल गई और इसलिए बात-की-बात में वह किला मातम का रूप हो गया और चारों तरफ हाहाकार मच गया ।
दीवानखाने में अभी तक महाराज करनसिंह गद्दी पर बैठे हुए थे । दो-तीन
दीवारगीरों में रोशनी हो रही थी, सामने दो मोमी शमादान जल रहे थे । बीरसिंह तेजी के साथ कदम बढ़ाए हुए महाराज के सामने जा पहुंचा और कुंअर
साहब की लाश आगे रख अपने सर पर दुहत्थड़ मार रोने लगा ।
जैसे ही महाराज की निगाह उस लाश पर पड़ी उनको तो अजब हालत हो गई । नजर पड़ते ही पहिचान गए कि यह लाश उनके छोटे लड़के सूरजसिंह की है । महाराज के रंज और गम का कोई ठिकाना न रहा । वे फूट-फूट कर रोने लगे और उनके साथ-साथ और लोग भी हाय हाय करके रोने और सर पीटने लगे ।
हम उस समय के गम की हालत और महल में रानियों की दशा को अच्छी तरह लिख कर लेख को व्यर्थ बढ़ाना नहीं चाहते, केवल इतना लिख देना बहुत होगा कि घण्टे-भर दिन चढ़ने तक सिवाय रोने-धोने के महाराज का ध्यान इस तरफ नहीं गया कि कुँअर साहब की मौत का सबब पूछें या यह मालूम करें कि उनकी लाश कहां पाई गई ।
आखिर महाराज ने अपने दिल को मजबूत किया और कुंअर साहब की मौत के बारे में बीरसिंह से बातचीत करने लगे ।
महा० : हाय, मेरे प्यारे लड़के को किसने मारा ?
बीर० : महाराज, अभी तक यह नहीं मालूम हुआ कि यह अनर्थ किसने किया ।
महाराज ने उन दोनों मुसाहबों में से एक की तरफ देखा जो बीरसिंह को लेने के लिए खिदमतगारों के साथ बाग में गए थे ।
महा० : क्यों हरीसिंह, तुम्हें कुछ मालूम है ?
हरी० : जी कुछ भी नहीं, हां इतना जानता हूं कि जब हुक्म के मुताबिक हम लोग बीरसिंह को बुलाने गये तो इन्हें घर न पाया, लाचार पानी बरसते ही में इनके बाग में पहुंचे और इन्हें वहाँ पाया । उस समय ये नंगे बदन हम लोगों के सामने आये । इनका बदन गीला था इससे मुझे मालूम हो गया कि ये कहीं पानी में भीग रहे थे और कपड़े बदलने को ही थे कि हम लोग जा पहुँचे । खैर, हम लोगों ने सरकारी हुक्म सुनाया और ये भी जल्द कपड़े पहिन हम लोगों के साथ हुए । उस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द था । जब हम लोग बाग के बीचोंबीच अंगूर की टट्टियों के पास पहुँचे तो यकायक इस लाश पर नजर पड़ी !
महा० : (कुछ सोच कर) हम कह तो नहीं सकते क्योंकि चारों तरफ लोगों में बीरसिंह नेक, ईमानदार और रहमदिल मशहूर हैं, मगर जैसाकि तुम बयान करते हो अगर ठीक है तो हमें बीरसिंह के ऊपर शक होता है ! हरी० : तावेदार की क्या मजाल कि महाराज के सामने झूठ बोले ! बीरसिंह मौजूद हैं, पूछ लिया जाय कि मैं कहाँ तक सच्चा हूं ।
बीर० :(हाथ जोड़कर) हरीसिंह ने जो कुछ कहा, वह बिल्कुल सच है--मगर महाराज, यह कब हो सकता है कि मैं अपने अन्नदाता और ईश्वर-तुल्य मालिक पर इतना बड़ा जुल्म करूँ !
महा० : शायद ऐसा ही हो, मगर यह तो कहो कि मैंने तुमको एक मुहिम पर जाने के लिए हुक्म दिया था और ताकीद कर दी थी कि आधी रात बीतने के पहिले ही यहाँ मे रवाना हो जाना, फिर क्या सबब है कि तीन पहर बीत जाने पर भी तुम अपने बाग ही में मौजूद रहे और तिस पर भी वैसी हालत में जैसा कि हरीसिंह ने बयान किया ? इसमें कोई भेद जरूर है !
बीर० : इसका सबब केवल इतना ही है कि बेचारी तारा के ऊपर एक आफत आ गई और वह किसी दुश्मन के हाथ में पड़ गई, मैं उसी को चारों तरफ ढूंढ़ रहा था, इसी में देर हो गई । जब तक मैं ढूँढ़ता रहा, पानी बरसता रहा, इसी से मेरे कपड़े भी गीले हो गए और मैं उस हालत में पाया गया जैसाकि हरीसिंह ने बयान किया है ।
महा० : सब बातें बिल्कुल फजूल हैं । अगर तारा का गायब हो जाना ठीक है तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं क्योंकि वह बदकार औरत है, बेशक, किसी के साथ कहीं चली गई होगी और उसका ऐसा करना तुम्हारे लिए एक बहाना हाथ लगा ।
'तारा बदकार औरत है' यह बात बीरसिंह को गोली के समान लगी क्यों- कि वे खूब जानते थे कि तारा पतिव्रता है और उन पर उसका प्रेम सच्चा है । मारे क्रोध के बीरसिंह की आँखें लाल हो गई और बदन काँपने लगा, मगर इस समय क्रोध करना सभ्यता के बाहर जान चुप हो रहे और अपने को संभाल कर बोले:
बीर० : महाराज, तारा के विषय में ऐसा कहना अनर्थ करना है !
हरी० : महाराज ने जो कुछ कहा, ठीक है ! (महाराज की तरफ देखकर) बीरसिंह पर शक करने का ताबेदार को और भी मौका मिला है ।
महा० : वह क्या?
हरी० ; कुंवर साहब जिन तीन आदमियों के साथ यहाँ से गये थे उनमें से दो
आदमियों को बीरसिंह ने जान से मार डाला और सिर्फ एक भाग कर बच गया । जब हम लोग बीरसिंह को बुलाने के लिये उनके बाग की तरफ जा रहे थे उस समय यह हाल उसी की जुबानी मालूम हुआ था । इस समय वह आदमी भी जिसका नाम रामदास है, ड्योढ़ी पर मौजूद है ।
महा० : हा ! क्या ऐसी बात है ?
हरी० : मैं महाराज के कदमों की कसम खाकर कहता हूं कि यह हाल खुद रामदास ने मुझसे कहा है ।
जिस समय हरीसिंह ये बातें कह रहा था, महाराज की निगाह कुंअर साहब की लाश पर थी । यकायक कलेजे में कोई चीज नजर आई, महाराज ने हाथ बढ़ा कर देखा तो मालूम हुआ, छुरी का मुट्ठा है जिसका फल बिलकुल कलेजे के अन्दर घुसा हुआ था । महाराज ने छुरी को निकाल लिया और पोंछ कर देखा । कब्जे पर 'राजकुमार बीरसिंह' खुदा हुआ था ।
अब महाराज की हालत बिलकुल बदल गई, शोक के बदले क्रोध की निशानी उनके चेहरे पर दिखाई देने लगी और होंठ काँपने लगे । बीरसिंह ने चौंक कर कहा, "बेशक, यह मेरी छुरी है, आज कई दिन हो गये, चोरी गई थी । मैं इसकी खोज में था मगर पता नहीं लगता था ।"
महा० : बस, चुप रह नालायक ! अब तू किसी तरह अपनी बेकसूरी साबित नहीं कर सकता !! हाय, क्या इसी दिन के लिए मैंने तुझे पाला था ? अब मैं इस समय तेरी बातें नहीं सुना चाहता ! (दर्वाजे की तरफ देख कर) कोई है ? इस हरामजादे को अभी ले जाकर कैदखाने में बन्द करो, हम अपने हाथ से इसका और इसके रिश्तेदारों का सिर काट कर कलेजा ठंडा करेंगे ! (हरीसिंह की तरफ देख कर) तुम सौ सिपाहियों को लेकर जाओ, इस कम्बखत का घर घेर लो, और सब औरत-मर्दो को गिरफ्तार करके कैदखाने में डाल दो ।
फौरन महाराज के हुक्म की तामील की गई और महाराज उठकर महल में चले गये ।