कटोरा भर खून/४

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कटोरा भर खून  (1984) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री
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ऊपर लिखी बारदात के तीसरे दिन आधी रात के समय बीरसिंह के बाग में उसी अंकुर की टट्टी के पास एक लांबे कद का आदमी स्याह कपड़े पहिरे इधर-से-उधर टहल रहा है । आज इस बाग में रौनक नहीं, बारहदरी में लौंडियों और सखियों की चहल-पहल नहीं, सजावट को तो जाने दीजिये, कहीं एक चिराग तक नहीं जलता । मालियों की झोपड़ी में भी अंधेरा पड़ा है बल्कि यों कहना चाहिए कि चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है । वह लाँबे कद का आदमी अंगूर की टट्टियों से लेकर बारहदरी और उसके पीछे तोशेखाने तक जाता है और लौट आता है मगर अपने को हर तरह छिपाये हुए है, जरा-सा भी खटका होने से या एक पत्ते के भी खड़कने से वह चौकन्ना हो जाता है और अपने को किसी पेड़ या झाड़ी की आड़ में छिपा कर देखने लगता है ।

इस आदमी को टहलते हुए दो घण्टे बीत गये मगर कुछ मालूम न हुआ कि वह किस नीयत से चक्कर लगा रहा है या किस धुन में पड़ा हुआ है । थोड़ी देर और बीत जाने पर बाग में एक आदमी के आने की आहट मालूम हुई । लांबे कद वाला आदमी एक पेड़ की आड़ में छिप कर देखने लगा कि यह कौन है और किस काम के लिए आया है ।

वह आदमी जो अभी आया है सीधे बारहरी में चला गया । कुछ देर तक वहां ठहर कर पीछे वाले तोशेखाने में गया और ताला खोलकर तोशेखाने के अन्दर घुस गया । थोड़ी देर बाद एक छोटा-सा डिब्बा हाथ में लिए हुए निकला और डाला बन्द करके बाग के बाहर की तरफ चला । वह थोड़ी ही दूर गया था कि उस लांबे कद के आदमी ने जो पहिले ही से घात में लगा हुआ था पास पहुँच कर पीछे से उसके दोनों बाजू मजबूत पकड़ लिये और इस जोर से झटका दिया कि वह सम्हल न सका और जमीन पर गिर पड़ा । लांबे कद का आदमी उसकी छाती पर चढ़ बैठा और बोला, "सच बता तू कौन है, तेरा क्या नाम है, यहां क्यों आया, और क्या लिये जाता है ?"

यकायक जमीन पर गिर पड़ने और अपने को बेबस पाने से वह आदमी बदहवास हो गया और सवाल का जवाब न दे सका । उस लांबे कद के आदमी ने [ २२ ]
एक घूंसा उसके मुंह पर जमा कर फिर कहा, "जो कुछ मैंने पूछा है उसका जवाब जल्द दे, नहीं तो अभी गला दबा कर तुझे मार डालूंगा !" आखिर लाचार हो और अपनी मौत छाती पर सवार जान उसने जवाब दिया : "मैं बीरसिंह का नौकर हूं, मेरा नाम श्यामलाल है, मुझे मालिक ने अपनी मोहर लाने के लिए यहां भेजा था, सो लिए जाता हूं । मैंने कोई कसूर नहीं किया, मालूम नहीं आप मुझे क्यों ......!"

इससे ज्यादे वह कहने नहीं पाया था कि उस लांबे कद के आदमी ने एक घूंसा और उसके मुँह पर जमा कर कहा, "हरामजादे के बच्चे, अभी कहता है कि मैंने कोई कसूर नहीं किया ! मुझी से झूठ बोलता है ? जानता नहीं मैं कौन हूं ? ठीक है, तू क्योंकर जान सकता है कि मैं कौन हूं ? अगर जानता तो मुझसे झूठ कभी न बोलता । मैं बोली ही से तुझे पहिचान गया कि तू बीरसिंह का आदमी नहीं है बल्कि उस बेईमान राजा करनसिंह का नौकर है जो एक भारी जुल्म और अंधेर करने पर उतारू हुआ है । तेरा नाम बच्चनसिंह है । मैं तुझे इस झूठ बोलने की सजा देता और जान से मार डालता, मगर नहीं, तेरी जुबानी उस बेईमान राजा को एक संदेसा कहला भेजना है, इसलिए छोड़ देता हूं । सुन और ध्यान देकर सुन, मेरा ही नाम नाहरसिंह है, मेरे ही डर से तेरे राजा की जान सूखी जाती है, मेरे ही नाम से यह हरिपुर शहर कांप रहा है, और मुझी को गिरफ्तार करने के लिए तेरे बेईमान राजा ने बीरसिंह को हुक्म दिया था, लेकिन वह जाने भी न पाया था कि बेचारे को झूठा इलजाम लगाकर गिरफ्तार कर लिया ! ( मोहरका डिब्बा बच्चनसिंह के हाथ से छीन कर) राजा से कह दीजियो कि मोहर का डिब्बा नाहरसिंह ने छीन लिया, तू नाहरसिंह को गिरफ्तार करने के लिए वृथा ही फौज भेज रहा है, न-मालूम तेरी फौज कहां जाएगी और किस जगह ढूंढ़ेगी, वह तो हरदम इसी शहर में रहता है, देख सम्हल बैठ, अब तेरी मौत आ पहुंची, यह न समझियो कि कटोरा-भर खून का हाल नाहरसिंह को मालूम नहीं है ! !"

बच्चन० : कटोरा-भर खून कैसा ?

नाहर० : (एक मुक्का और जमाकर) ऐसा ! तुझे पूछने से मतलब !! जो मैं कहता हूं जाकर कह दे और यह भी कह दीजियो कि अगर बन पड़ा और फुरसत मिली तो आज के आठवें दिन सनीचर को तुझसे मिलूंगा । बस जा-- हां एक बात और याद आई, कह दीजियो कि जरा कुंअर साहब को अच्छी तरह [ २३ ]बन्द करके रक्खें जिसमें भण्डा न फूटे!!

नाहरसिंह डाकू ने बच्चन को छोड़ दिया और मोहर का डिब्बा लेकर न मालूम कहां चला गया। नाहरसिंह के नाम से बच्चन यहां तक डर गया था कि उसके चले जाने के बाद भी घण्टे-भर तक वह अपने होश में न आया। बच्चन क्या, इस हरिपुर में कोई भी ऐसा नहीं था जो नाहरसिंह डाकू का नाम सुनकर कांप न जाता हो।

थोड़ी देर बाद जब बच्चनसिंह के होश-हवास दुरुस्त हुए, वहां से उठा और राजमहल की तरफ रवाना हुआ। राजमहल यहां से बहुत दूर न था तो भी आध कोस से कम न होगा। दो घण्टे से भी कम रात बाकी होगी जब बच्चनसिंह राजमहल की कई डयोढ़ियां लांघता हुआ दीवानखाने में पहुंचा और महाराज करनसिंह के सामने जाकर हाथ जोड़ खड़ा हो गया। इस सजे हुए दीवानखाने में मामूली रोशनी हो रही थी, महाराज किमखाब की ऊँची गद्दी पर, जिसके चारों तरफ मोतियों की झालर लगी हुई थी, विराज रहे थे, दो मुसाहब उनके दोनों तरफ बैठे थे, सामने कलम-दवात-कागज और कई बन्द कागज के लिखे हुए और सादे भी मौजूद थे।

इस जगह पर पाठक कहेंगे कि महाराज का लड़का मारा गया है, इस समय वह सूतक में होंगे, महाराज पर कोई निशानी गम को क्यों नहीं दिखाई पड़ती?

इसके जवाब में इतना जरूर कह देना मुनासिब है कि पहिले जो गद्दी का मालिक होता था, प्रायः वह मुर्दे को आग नहीं देता था और न स्वयं क्रिया-कर्म करने वालों की तरह सिर मुंडा अलग बैठता था, अब भी कई रजवाड़ों में ऐसा ही दस्तूर चला आता है। इसके अतिरिक्त यहां तो कुंअर साहब के मरने का मामला ही विचित्र था, जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।

बच्चन ने झुक कर सलाम किया और हाथ जोड़ सामने खड़ा हो गया। नाहरसिंह डाकू के ध्यान से डर के मारे वह अभी तक कांप रहा था।

महा॰ : मोहर लाया?

बच्चन॰ : जी....लाया तो था......मगर राह में नाहरसिंह डाकू ने छीन लिया।

महा॰ : (चौंक कर) नाहरसिंह डाकू ने!!

बच्चन॰ : जी हां। [ २४ ]महा० : क्या वह आज इसी शहर में आया हुआ है ?

बच्चन० : जी हां, बीरसिंह के बाग में ही मुझे मिला था ।

महा० : साफ-साफ कह जा, क्या हुआ ?

बच्चन ने बीरसिंह के तोशेखाने से मोहर लेकर चलने का और उसी बाग में नाहरसिंह के मिलने का हाल पूरा-पूरा कहा । जब वह संदेशा कहा जो डाकू ने महाराज को दिया था तो थोड़ी देर के लिए महाराज चुप हो गए और कुछ सोचने लगे, आखिर एक ऊंची सांस लेकर बोले-

महा० : यह शैतान डाकू न-मालूम क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ है और किसी तरह गिरफ्तार भी नहीं होता । मुझे बीरसिंह की तरफ से छुट्टी मिल जाती तो कोई-न-कोई तर्कीब उसके गिरफ्तार करने की जरूर करता । कुछ समझ में नहीं आता कि मेरी उन कार्रवाइयों का पता उसे क्योंकर लग जाता है जिन्हें मैं बड़ी होशियारी से छिपा कर करता हूं । (हरीसिंह की तरफ देख कर) क्यों हरीसिंह, तुम इस बारे में कुछ कह सकते हो ?

हरी० : महाराज ! उसकी बातों में अक्ल कुछ भी काम नहीं करती ! मैं क्या कहूं ?

महा० : अफसोस ! अगर मेरी रिआया बीरसिंह से मुहब्बत न रखती तो मैं उसे एकदम मार कर ही बखेड़ा तै कर देता, मगर जब तक बीरसिंह जीता है मैं किसी तरह निश्चिन्त नहीं हो सकता । खैर, अब तो बीरसिंह पर एक भारी इलजाम लग चुका है, परसों मैं आम दरबार करूंगा । रिआया के सामने बीरसिंह को दोषी ठहरा कर फाँसी दूंगा, फिर उस डाकू से समझ लूंगा, आखिर वह हसमजादा है क्या चीज !

महाराज ने आखिरी शब्द कहा ही था कि दर्वाजे की तरफ से यह आवाज आई, "बेशक, वह डाकू कोई चीज नहीं है मगर एक भूत है जो हरदम तेरे साथ रहता है और तेरा सब हाल जानता है, देख इस समय यहाँ भी आ पहुंचा !"

यह आवाज सुनते ही महाराज काँप उठे, मगर उनकी हिम्मत और दिलावरी ने उन्हें उस हालत में देर तक रहने न दिया, ज्यान से तलवार खैंच कर दर्वाजे की तरफ बढ़े, दोनों मुलाजिम लाचार साथ हुए, मगर दर्दाजे में बिलकुल अन्धेरा था इसलिए आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई, आखिर यह कहते हुए पीछे लोटे कि 'नालायक ने अन्धेरा कर दिया !'