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कपालकुण्डला/चौथा खण्ड/३

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ १०१ से – १०२ तक

 

:३:

स्वप्नमें

“I had a dream; which was
not at all adream.”
—Byron

कपालकुण्डलाने धीरे-धीरे दरवाजा बन्द कर दिया और शयनागारमें आयी। वह धीरेसे अपने पलंगपर सो रही। मनुष्यहृदय अनन्त समुद्र है, जब उससे प्रबल वायु समर करने लगती है तो कितनी तरंगें उठती हैं, यह कौन गिन सकता है। प्रबल वायुसे हिलता और वर्षाजलसे भींगा हुआ जटाजूटधारी कापालिकका चेहरा उसे सामने दिखाई पड़ने लगा; पहलेकी समूची घटनाओंकी कपालकुण्डला याद करने लगी। घने जंगलमें कापालिककी वह भैरवी पूजा, अन्यान्य पैशाचिक कार्य, वह उसके साथ कैसा आचरण कर भागकर आयी है, नवकुमारको बन्धन, यह सब याद आने लगा। कपालकुण्डला काँप उठी। आज रातकी सारी घटनाएँ आँखके सामने नाच उठीं। श्यामाकी औषधिकामना, नवकुमारका निषेध, उनके प्रति कपालकुण्डलाका तिरस्कार, इसके बाद अरण्यकी ज्योत्स्नामयी शोभा, वह भीषण दर्शन सब याद आया।

पूर्व दिशामें उषाकी मुकुट ज्योति प्रकट हुई, उस समय कपालकुण्डलाको तन्द्रा आ गयी। उस हल्की नींदमें कपालकुण्डला स्वप्न देखने लगी। मानों वह उसी सागरवक्षपर नावपर सवार चली जा रही है, तरणी सजी हुई, उसपर वासन्ती रंगकी ध्वजा फहरा रही है, नाविक फूलोंकी माला पहने हुए, नाव खे रहे हैं। राधेश्यामका अनन्त प्रणयगीत हो रहा है। पश्चिम गगनसे सूर्य तप रहे हैं, स्वर्ण धारामें समुद्र हँस रहा है। आकाशमें खण्ड-खण्ड मेघ भी उस धारामें स्नान कर रहे हैं। एकाएक रात हो गयी। सूर्य कहाँ चले गये! सुनहले बादल कहाँ गए! घने-काले बादल छा गये। समुद्रमें दिक्भ्रम होने लगा। किधर जाया जाय! नाव पलटी। गाना बन्द हुआ, गलेकी माला फेंक दी गयी, पताका गायब हो गयी, आँधी आयी। सागरमें वृक्ष-परिमाण लहरें उठने लगीं। लहरसे कापालिक प्रकट हुआ। बाएँ हाथमें नाव पकड़ डुबानेको तैयार हुआ। इसी समय वह ब्राह्मणवेषधारी प्रकट हुआ। उसने पूछा—“बोलो नाव डुबा दें, या बचा दें?” कपालकुण्डलाने कहा—“डुबा दो।” उसने नावको छोड़ दिया। नाव भी बोल उठी—“अब मैं भार उठा न सकूँगी, पातालमें जाती हूँ?” यह कहती हुई नाव पातालमें प्रवेश कर गयी।

पसीनेसे नहायी हुई, कपालकुण्डला स्वप्नसे जाग उठी। उसने देखा कि सबेरा हो गया है। उन्मुक्त खिड़कीसे वासन्ती हवा आ रही है। वृक्ष हलकी हवासे फूल सहित झूम रहे हैं। हिलती शाखाओंपर बैठे पक्षी गा रहे हैं। कितनी फूलोंसे लदी शाखाएँ खिड़की के अन्दर घुसी आ रही हैं। कपालकुण्डला नारी-स्वभाववश उन शाखाओंको एकत्र करने लगी। एकाएक उसमेंसे एक लिपि बाहर हुई। कपालकुण्डला पढ़ना जानती थी; उसने पढ़ा—पत्र यों था—

“आज शामके बाद कल रातकी तरह ब्राह्मणकुमारके साथ मुलाकात करो। तुम अपने बारेमें जो प्रयोजनीय बात सुनना चाहती थीं, उसे सुनोगी।—अहं ब्राह्मणवेशी।”