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कपालकुण्डला/चौथा खण्ड/४

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ १०३ से – १०४ तक

 

:४:

संकेतानुसार

उस दिन शामतक कपालकुण्डला केवल यही चिन्ता करती रही कि ब्राह्मणवेशीके साथ मुलाकात करना चाहिए या नहीं। एक पतिव्रता युवतीके लिये निर्जन रातमें परपुरुष सम्भाषण बुरा और निन्दनीय है, केवल यही विचार कर वह मिलनेमें हिचकती थी, कारण, उसका सिद्धान्त था कि असद्उद्देश्यसे न मिलनेसे कोई हानि नहीं है। स्त्रीको स्त्रीसे या पुरुषको पुरुषसे मिलनेका, जैसा अधिकार मुझे है, वैसा ही अधिकार निर्मल चित्त रखनेपर उसे भी प्राप्त है। सन्देह केवल यह है कि ब्राह्मणवेशी पुरुष है या स्त्री। उसे संकोच था तो केवल इसलिए कि मुलाकात मंगलजनक है अथवा नहीं। पहले ब्राह्मणवेशीसे मुलाकात, फिर कापालिक द्वारा पीछा और दर्शन और अन्तमें स्वप्न, इन सब घटनाओंने कपालकुण्डलाको बहुत डरा दिया था। उसका अमङ्गल निकट है उसे ऐसा जान पड़ने लगा और उसे यह भी सन्देह न रहा कि यह अमङ्गल कापालिकके आगमनके कारण है। यह तो स्पष्ट ही उसने कहा कि बातें कपालकुण्डलाके बारेमें ही हो रही थीं। हो सकता है, उसके द्वारा कोई बचावकी भी राह निकल आये। लेकिन बातोंसे तो यही जान पड़ता है कि या तो मृत्यु अथवा निर्वासन दण्ड। तो क्या ये सारी बातें मेरे ही लिए हैं? ब्राह्मणवेशीने तो कहा था कि उसके बारेमें ही बात है। ऐसी कुमंत्रणामें ब्राह्मणवेशी जब सहकारी है, तो उससे मिलना मंगलजनक नहीं, बल्कि आफत स्वयं बुलाना होगा। लेकिन रातमें जो स्वप्न देखा उसमें तो ब्राह्मणवेशीके कथनसे जान पड़ा कि वह रक्षा भी कर सकता है।
तो क्या होगा? क्या वह स्वप्नकी तरह डुबायेगा? हो सकता है, माताजीने उसे इसीलिए भेजा हो कि उससे मेरी रक्षा ही हो। अतएव कपालकुण्डलाने मुलाकात करनेका ही निश्चय किया। बुद्धिमान ऐसा सिद्धान्त करता या नहीं, सन्देह है, लेकिन यहाँ बुद्धिमानीसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। कपालकुण्डला कच्ची उम्र की थी, अतः उसने बुद्धिमानीका विचार नहीं किया। उसने कुतूहली रमणी जैसा सिद्धान्त किया; भीमकान्त रूपराशि दर्शन लोलुप जैसा कार्य किया; नैशवनविहारिणी संन्यासीपालिताकी तरह सिद्धान्त किया और सिद्धान्त किया दीपक शिखापर पतित होनेवाले पतंगेकी तरह।

सन्ध्याके बाद बहुत-कुछ गृह-कार्य समाप्त कर कपालकुण्डलाने पहलेकी तरह वनयात्रा की। यात्राके समय कपालकुण्डलाने अपने कमरेका दीपक तेज कर दिया। लेकिन वह जैसे ही घरके बाहर हुई दीपक बुझ गया।

यात्राके समय कपालकुण्डला एक बात भूल गयी। ब्राह्मणवेशधारीने किस जगह मुलाकातके लिए लिखा है? अतः पत्र पढ़नेकी फिर आवश्यकता हुई। उसने लौटकर पत्र रखा हुआ स्थान ढूँढा, लेकिन वहाँ पत्र न मिला। याद आया कि उसने पत्रको अपने जूड़ेमें खोंस लिया था। अतः जूड़ेमें देखा, वेणी खोलकर देखा, लेकिन पत्र न मिला। घरके अन्य स्थानोंको खोजा। अतएव पूर्व स्थानपर मिलनेके ख्यालसे निकल पड़ी। जल्दीमें उसने फिर अपने खुले बाल बाँधे नहीं। अतः आज कपालकुण्डला प्रथम अनूढ़ाकी तरह उन्मुक्तकेश होकर चली।