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कपालकुण्डला/चौथा खण्ड/५

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ १०५ से – १०८ तक

 

:५:

दरवाजेपर[]

“Stand you a while apart
Confine yourself, but in a patient list.
—Othello

सन्ध्यासे पहले जब कपालकुण्डला गृहकार्यमें लगी हुई थी, उसी समय वह पत्र जूड़ेसे खसककर गिर पड़ा था। कपालकुण्डलाको पता न रहा। उसे नवकुमारने देख लिया। जूड़ेसे पत्र गिरते देख उन्हें आश्चर्य हुआ। कपालकुण्डलाके वहाँसे हट जानेपर उन्होंने पत्रको पढ़ा, उसके पढ़नेसे एक ही सिद्धान्त सम्भव है। “जो बात कल सुनना चाहती थी, वह आज सुनेंगी?” वह कौनसी बात है? क्या प्रणय वाक्य? क्या ब्राह्मणवेशधारी मृण्मयीका उपपति है? जो व्यक्ति पहली रातकी घटनासे अवगत नहीं है, वह केवल यही सोच सकता है।

स्वामीके साथ सती होनेके समय अन्य किसी कारणसे जब कोई जीता हुआ चितारोहण करता है और चितामें आग लगा दी जाती है तो पहले धुएँसे उसके चारों ओरका स्थान घिर जाता है, फिर क्रमशः लकड़ियोंके बीचसे एक-दो अग्निशिखा सर्प जिह्वाकी तरह उसके अंगपर आकर आक्रमण करती हैं, फिर अन्तमें ज्वालमाला चारों तरफसे घेर लेती है और शिरपर्यन्त अग्नि पहुँच कर उसे दग्ध कर राख बना देती है।

पत्र पढ़नेपर नवकुमारका भी यही हाल हुआ। पहले समझे नहीं, फिर संशय, निश्चयता, अन्तमें ज्वाला। मनुष्यका हृदय एकबारगी दुःख या सुख बर्दाश्त कर नहीं सकता; क्रमशः ग्रहण
कर सकता है। पहले तो धुएँने नवकुमारको घेर लिया; इसके बाद अग्निशिखा हृदयपर ताप पहुँचाने लगी, अन्तमें हृदय भस्म होने लगा। उन्होंने विचारकर देखा कि अबसे पहले किन बातोंमें कपालकुण्डला अबाध्य रही है। उन्होंने देखा कि यह स्वतन्त्रता ही है। वह सदा स्वतन्त्र रही, जहाँ कहीं घूमने गयी अकेली। दूसरोंके शिकायत करनेपर भी नवकुमारने कभी उसपर सन्देह न किया, लेकिन आज वह सब यादकर उन्हें प्रतीति होने लगी।

यंत्रणाका प्रथम वेग निकल गया। नवकुमार एकान्तमें चुपचाप बैठ कर रोने लगे, रोनेके बाद कुछ स्थिर हुए। इसके बाद उन्होंने अपना कर्त्तव्य निश्चित किया। आज वह कपालकुण्डलासे न कहेंगे। रातको कपालकुण्डला जब यात्रा करेगी, तो उसका पीछा करेंगे और इसके बाद अपना जीवन-त्याग देंगे। कपालकुण्डलाको कुछ न कहेंगे, बल्कि अपना प्राणनाश करेंगे।

ऐसा सोचकर वह कपालकुण्डलाके जानेकी राह खिड़की द्वारा देखते रहे। कपालकुण्डलाके निकलकर जानेके बाद नवकुमार भी उठकर चले, लेकिन इसी समय कपालकुण्डला फिर वापस आई। यह देख वह धीरेसे खिसक गये। अन्तमें कपालकुण्डलाके फिर बाहर होनेपर, जब नवकुमार भी बाहर चले, तो उन्हें दरवाजेपर एक दीर्घाकार पुरुष खड़ा दिखाई दिया।

वह व्यक्ति कौन है; क्यों खड़ा है, जाननेकी कोई इच्छा नवकुमारको न हुई। वह केवल कपालकुण्डलापर निगाह रखे हुए चले, अतएव खड़े मनुष्यकी छातीपर घक्का दे उन्होंने उसे हटाना चाहा, लेकिन वह हटा नहीं।

नवकुमारने कहा—“कौन हो तुम? हट जाओ, मेरी राह छोड़ो।”

आगन्तुक बोला—“क्या नहीं पहचानते, मैं कौन हूँ?” यह
शब्द समुद्रनादवत् जान पड़ा। नवकुमारने और गौरसे देखा—वही पूर्वपरिचित—कापालिक।

नवकुमार चौंक उठे। लेकिन डरे नहीं। सहसा उनका चेहरा प्रसन्न हो गया। उन्होंने पूछा—“क्या कपालकुण्डला तुमसे मिलने जा रही है?”

कापालिकने कहा,—“नहीं?”

आशा-प्रदीप जलते ही बुझ गया। नवकुमारका चेहरा फिर पहले जैसा हो गया। बोले—“तो तुम राहसे हट जाओ।”

कापालिकने कहा—“राह छोड़ दूँगा, लेकिन तुमसे कुछ कहना है, पहले सुन लो।”

नवकुमार बोले,—“तुमसे मेरी कौनसी बात है? क्या तुम फिर मेरा प्राण लेने आये हो? तो ग्रहण करो, इस बार मैं मना न करूँगा। तुम जरा ठहरो, मैं अभी आता हूँ। मैंने क्यों न देवतुष्टिके लिये प्राण दिया! अब उसका फल भुगत रहा हूँ। जिसने मेरी रक्षा की थी, उसीने नष्ट किया। कापालिक! अब अविश्वास न करो। मैं अभी लौटकर, आत्म-समर्पण करता हूँ।

कापालिकने उत्तर दिया—“मैं तुम्हारे वधके लिए नहीं आया हूँ, भवानी की वैसी इच्छा नहीं। मैं जो करने आया हूँ, उसमें तुम्हारा भी अनुमोदन है। घर के अन्दर चलो, मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो।”

नवकुमारने कहा—“अभी नहीं, फिर दूसरे समय सुनूँगा। तुम जरा मेरी अपेक्षा करो। मुझे बहुत जरूरी काम है, पूरा कर अभी आता हूँ।”

कापालिकने कहा—“वत्स! मैं सब जानता हूँ तुम उस पापिनीका पीछा करोगे। मैं जानता हूँ, वह जा रही है। मैं अपने साथ तुम्हें वहाँ ले चलूँगा। जो देखना चाहते हो दिखाऊँगा, लेकिन जरा मेरी बात सुन लो। डरो नहीं।”

नवकुमारने कहा—“अब मुझे तुम से कोई डर नहीं, आओ।”

यह कहकर नवकुमार कापालिकको लेकर अन्दर गये और एक आसनपर उसे बिठाकर तथा स्वयं बैठते हुए बोले—“कहो!”

 


  1. इधर एक अध्यायको छोड़ दिया गया है।