कपालकुण्डला/तृतीय खण्ड/२

विकिस्रोत से
[ ६८ ]

:२:

दूसरी जगह

“जे यारी ते पड़े लोके उठे ताइ धरे।
बारेक निराश होये के कोथाय मरे॥
तूफाने पतित किन्तु छाड़ि बना हाल।
आजि के विफल होलो, होते पारे काल॥
—नवीन तपस्विनी

[१]

जिस दिन नवकुमारको बिदा कर मोती बीबी या लुत्फुन्निसाने बर्द्धमानकी यात्राकी, उस दिन वह एकदम बर्द्धमान तक पहुँच न सकी। दूसरी चट्टीमें रह गयी। संध्याके समय पेशमन्‌के साथ बैठकर बातें होने लगीं। ऐसे समय सहसा मोती बीबीने पेशमन्‌से पुछा,—“पेशमन्! मेरे पतिको देखा, कैसे थे?”

पेशमन्‌ने कुछ विस्मित होकर कहा,—“इसके क्या माने?” मोती बोली,—“सुन्दर थे या नहीं?”

नवकुमारके प्रति पेशमन्‌को विशेष विराग हो गया था। जिन अलङ्कारोंको मोती ने कपालकुण्डलाको दे दिया उनके प्रति पेशमन् [ ६९ ]का विशेष लोभ था। मन-ही मन उसने सोच रखा था, कि एक दिन माँग लूँगी। उस बेचारीकी वह आशा निर्मूल हो गयी। अतः कपालकुण्डला और उसके पति दोनोंके प्रति उसे जलन थी। अतएव स्वामिनीके प्रश्नपर उसने उत्तर दिया—‘दरिद्र ब्राह्मणकी सुन्दरता और कुरूपता क्या है?”

सहचरीके मनका भाव समझकर मोतीने हँसकर कहा—दरिद्र ब्राह्मण यदि उमरा हो जाये, तो सुन्दर होगा या नहीं?”

पे॰—इसके क्या मानी?

मोती—क्यों, क्या तुमने यह नहीं सुना है कि बेगमके कहने के अनुसार यदि खुसरू बादशाह हो गये तो मेरा पति उमरा होगा?

पे॰—यह तो जानती हूँ, लेकिन तुम्हरा पूर्व पति उमरा कैसे होगा?

मोती—तो हमारे और पति कौन हैं?

पे॰—जो नये होंगे।

मोतीने मुस्कराकर कहा—“मेरी जैसी सतीके दो पति, यह बड़े अन्याय की बात होगी। हाँ, यह कौन जा रहा है?”

जिसे देखकर मोतीने कहा कि यह कौन जा रहा है, उसे पेशमन् तुरत पहचान गयी। वह आगरेका रहनेवाला खान आजमका आदमी था। दोनों ही न्यस्त हो पड़ीं। पेशमन्‌ने उसे बुलाया। उस व्यक्तिने आकर लुत्फुन्निसाको कोर्निश कर पत्र दिया; बोला—“खत लेकर उड़ीसा जा रहा था। बहुत ही जरूरी खत है।”

पत्र पढ़ते ही मोती बीबीकी सारी आशालतापर तुषारपात हो गया। पत्रका मर्म इस प्रकार था:—

“हमलोगोंका यत्न विफल हो गया। मरते दम तक बादशाह अकबर हमलोगोंको बुद्धिबलसे परास्त कर गये। उनका परलोकवास हो गया। उनकी आज्ञाके बलसे युवराज सलीम अब जहाँ[ ७० ]गीरशाह हो गये। अब तुम खुसरूके लिए व्यस्त न होना। इस उपलक्ष्यमें कोई तुम्हारी शत्रुता न करे, इस चेष्टाके लिये तुरन्त आगारा आ जाओ।”

अकबर बादशाहने किस तरह इस षड्यन्त्रकी विफल किया, यह इतिहासमें अच्छी तरह वर्णित है। इस तरह उसके विस्तारकी आवश्यकता नहीं।

पुरस्कार देकर दूतको बिदा करनेके बाद मोतीने वह पत्र पेशमन् को पढ़कर सुनाया। पेशमन्‌ने सुनकर कहा—“अब उपाय?”

पे॰—(थोड़ा सोचकर) अच्छा, हर्ज ही क्या है? जैसी थी, वैसे ही रहोगी। मुगल बादशाहकी परस्त्रीमात्र ही किसी दूसरे राज्य की पटरानीकी अपेक्षा भी बड़ी है।

मोती—(मुस्कराकर) यह हो नहीं सकता। अब उस राजमहलमें मैं रह नहीं सकती। शीघ्र ही मेहरके साथ जहाँगीरकी शादी होगी। मेहरुन्निसा को मैं बचपनसे अच्छी तरह जानती हूँ। एक बारके पुरवासिनी हो जानेपर वही बादशाहत करेगी। जहाँगीर तो नाममात्र के बादशाह रहेंगे। मैंने उनके सिंहासनकी राहमें बाधा उपस्थित की थी, यह उनसे छिपा न रहेगा। उस समय मेरी क्या दशा होगी?

पेशमन्‌ने प्रायः रुआंसी होकर कहा—“तो अब क्या?”

मोतीने कहा,—“एक भरोसा है। मेहरुन्निसाका चित्त जहाँगीरके प्रति कैसा है? वह जैसी तेजस्विनी है, यदि वह जहाँगीरके अति अनुरागिनी न होकर वस्तुतः शेर अफगनसे प्रेम करती होगी, एक नहीं सौ शेर अफगनके मरवाये जानेपर भी मेहर कभी जहाँगीरसे शादी न करेगी। और यदि सचमुच मेहर भी जहाँगीरकी अनुरानिगी हो, तो फिर कोई भरोसा नहीं है।”

पे॰—मेहरुन्निसाका हृदय कैसे पहचान सकोगी?

[ ७१ ]मोतीने हँसकर कहा,—“लुत्फुन्निसा क्या नहीं कर सकती? मेहर मेरी बचपनकी सखी है—कल ही बर्द्धमान जाकर दो दिन उसकी अतिथि बनकर रहूँगी।”

पे०—यदि मेहरुन्निसा बादशाहकी अनुरागिनी न हो तो क्या करोगी?

मो०—पिताजी कहा करते थे,—“क्षेत्रे कर्म विधीयते।”

दोनों कुछ देर चुप हो रहीं। हलकी मुस्कराहटसे मोती बीबीके होठ खिल रहे थे। पेशमन्‌ने फिर पूछा,—“हँसती क्यों हो?”

मोतीने कहा,—“एक खयाल मनमें आ गया।”

पे०—“कैसा खयाल?”

मोतीने यह पेशमनको न बताया। हम भी उसे पाठकोंको न बतायेंगे। बादमें प्रकट करेंगे।

 


  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    “जे माटीते पड़े लोके उठे ताइ धरे।
    बारेक निराश होये के कोथाय मरे॥
    तूफाने पतित किन्तु छाड़िबो ना हाल।
    आजिके विफल होलो, होते पारे काल॥”
    नवीन तपस्विनी।