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कपालकुण्डला/तृतीय खण्ड/१

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ ६३ से – ६८ तक

 

तृतीय खण्ड

भूतपूर्वमें

“कष्टोऽयं खलु मृत्यु भावः”

कपालकुण्डलाको लेकर नवकुमारने जब सरायसे घरकी यात्रा की तो मोती बीबीने वर्द्धमानकी तरफ यात्रा की। जबतक मोती बीबी अपनी राह तय करें, तबतक हम उनका कुछ वृत्तान्त कह डालें। मोतो बीबीका चरित्र जैसा महापातकसे भरा हुआ है, वैसे ही अनेक तरहसे सुशोभित है। ऐसे चरित्रका विस्तृत वृत्तान्त पढ़नेमें पाठकोंको अरुचि न होगी।

जब इनके पिताने हिन्दू-धर्म बदलकर मुस्लिम धर्म ग्रहण किया, तो उस समय इनका हिन्दू नाम बदलकर लुत्फुन्निसा पड़ा। मोती बीबी इनका नाम कभी नहीं था। फिर भी छिपे वेशमें देश-विदेश भ्रमणके समय यह कभी-कभी नाम पड़ जाता है। इनके पिता ढाकामें आकर राजकार्यमें नियुक्त हुए। लेकिन वहाँ अनेक स्वदेशीय लोगोंका आना-जाना हुआ करता था। अपने देशमें जान-पहचानवालोंके सामने विधर्मी होकर रहना भला जान नहीं पड़ता। अतएव वह कुछ दिनोंमें अच्छी ख्याति लाभ कर अपने मित्र अनेक उमरा लोगोंसे पत्र लेकर सपरिवार आगरे चले गये। अकबर बादशाहके सामने किसीका गुण छिपा नहीं रहता था। शीघ्र ही इन्होंने अपने गुण प्रकट किये। इसके फलसे वह आगरेके उमरा लोगोंमें गिने जाने लगे। इधर लुत्फुन्निसा भी यौवनमें पदार्पण करने लगी। आगरेमें आकर इन्होंने फारसी, संस्कृत, नृत्यगीत, रसवादन आदिमें अच्छी शिक्षा ग्रहण कर ली। राजधानीकी सुन्दरियों और गुणवतियोंमें यह अग्रगण्य बनने लगीं। दुर्भाग्यवश लुत्फुन्निसाके पूर्ण युवती होनेपर जान पड़ा कि उसकी मनोवृत्ति दुर्दमनीय और भयानक है। इन्द्रियदमनकी न तो इच्छा थी और न क्षमता ही थी। सद् और असद् में समान प्रवृत्ति थी। यह कार्य अच्छा है और यह बुरा, ऐसा सोच कभी उसने कार्य नहीं किया। जो अच्छा लगता था, वही काम करती थी। जब सत् कर्मसे अन्तःकरण सुखी होता, तो वह करती और असत्‌कर्मके समय भी वही करती। यौवनकालकी दुर्दमनीय मनोवृत्तिके अनुकूल ही लुत्फुन्निसा भी बन गयी। उसके पूर्वपति वर्त्तमान हैं, उमरा लोगों में किसीने उसके साथ शादी न की। वह भी शादी की लालायित न रही। मन ही मन सोचा, फूल-फूलपर घूमनेवाली भ्रमरीको एक का बनाकर बाँध क्यों दूँ? पहले कानाफूसी हुई, इसके बाद मुँह पर कलंककी कालिमा लग गयी। उसके पिताने विरक्त होकर उसे घरसे निकाल दिया।

लुत्फुन्निसा गुप्त रूपसे जिन्हें कृपा-वितरण करती रही, उनमें युवराज सलीम भी एक थे। एक उमराके कुलके कलंकका कारण होनेपर पीछे बादशाहका कोपभाजन न बनना पड़े, इस कारण खुलकर सलीमशाहने लुत्फुन्निसाको अपने महलमें नहीं रखा। अब सुयोग मिल गया। राजपूतपति मानसिंहकी बहन सलीमकी प्रधान महिषी हुई। युवराजने लुत्फुन्निसाको अपनी महिषीकी प्रधान अनुचरी बना दिया। लुत्फुन्निसा बेगमकी सखी बन गयी और परोक्ष रूपसे युवराजकी अनुग्रह-भागिनी हुई।

लुत्फुन्निसा जैसी बुद्धिमती महिला शीघ्र ही युवराजके हृदय पर अधिकार कर लेगी, यह सहज अनुमेय है। सलीमके हृदयपर उसका अधिकार इस तरह प्रतियोगीशून्य हो गया कि लुत्फुन्निसा ने प्रण कर लिया कि वह इनकी पटरानी होकर रहेगी। केवल लुत्फुन्निसाकी ही ऐसी प्रतिज्ञा हुई, यह बात नहीं, बल्कि इसका विशवास महल भरमें हो गया। ऐसी ही आशामय स्वप्नमें लुत्फुन्निसाका जीवन पतिमें लगा। लेकिन इसी समय उसकी नींद टूटी। अकबर बादशाहके कोषाध्यक्ष ख्वाजा अब्बासकी कन्या मेहरुन्निसा यवनकुलकी प्रधान सुन्दरी निकली। एक दिन कोषाध्यक्ष ने युवराज सलीम और अन्य उमराको निमंत्रण देकर घर बुलाया। उसी दिन सलीमकी मुलाकात मेहरके साथ हो गयी। उसी दिन सलीमने भी अपना हृदय मेहरुन्निसा को सौंप दिया। इतिहासप्रेमीमात्र इस घटनाको जानते हैं। इसके बाद मेहरकी शादी शेर अफगनके साथ हो गयी। यह शादी अकबरशाह के षड्यन्त्रका फल थी। यद्यपि सलीमको निरस्त होना पड़ा, लेकिन उन्होंने आशाका त्याग न किया। सलीमकी चित्तवृत्ति लुत्फुन्निसा के नखदर्पणवत् थी। वह समझ गयी कि शेर अफगनके जीवनकी खैरियत नहीं और सलीमकी महिषी मेहर ही होगी। लुत्फुन्निसाने सिंहासनकी आशा त्याग दी।

विचक्षण मुगल-सम्राट् अकबरकी परमायु पूरी हुई। जिस प्रचण्ड सूर्यकी प्रभा तुर्कीसे लेकर ब्रह्मपुत्र तक प्रदीप्त थी, उस सूर्य का अस्त हुआ। इस समय लुत्फुन्निसाने आत्मप्राधान्यकी रक्षाके लिये एक दुःसाहसिक संकल्प किया।

राजपूत राजा मानसिंहकी बहन सलीमकी प्रधान महिषी थी। खुसरू उनके पुत्र हैं। एक दिन उनके साथ अकबर बादशाहकी बीमारीकी बात चल रही थी जिस सम्बन्धमें शीघ्र ही बादशाहकी महिषी बननेकी बधाई लुत्फुन्निसा दे रही थी; प्रत्युत्तरमें खुसुरूकी जननी ने कहा—“बादशाहकी प्रधान महिषी होने से मनुष्य जन्म सार्थक अवश्य होता है, लेकिन सर्वश्रेष्ठता उसकी है जिसका पुत्र बादशाह हो और वह बादशाहजननी बने।” यह उत्तर सुनते ही लुत्फुन्निसाके हृदयमें एक चिन्तनीय अभिसन्धिका उदय हुआ। उसने उत्तर दिया—“तो ऐसा ही क्यों न हो! वह भी आपके ही इच्छाधीन है।” बेगमने पूछा—“यह कैसे?” चतुराने उत्तर दिया—“युवराज खुसरूको ही सिंहासनपर बिठाइये।”

इस बात का बेगमने कोई जवाब न दिया। उस दिन फिर यह प्रसङ्ग न उठा। लेकिन यह बात किसीको भूली नहीं। स्वामीके बदले पुत्र राज्यसिंहासनपर आसीन हो, यह बेगमकी इच्छा अवश्य है, लेकिन मेहरुन्निसाके प्रति सलीम का प्रेम जैसे लुत्फुन्निसा के हृदयमें काँटेकी तरह खटकता है, वैसे ही बेगमके हृदयमें भी खटकता है। मानसिंहकी बहन एक तुर्कमानकी कन्या की आज्ञानुवर्तिनी होकर कैसे रह सकती है? लुत्फुन्निसाका भी इस विषय में गहरा तात्पर्य था। दूसरे दिन फिर यह प्रसङ्ग उत्थापित हुआ। दोनोंका एक अभिमत स्थिर हुआ।

सलीमको त्यागकर खुसरूको सिंहासनपर बैठाना कोई असम्भव बात न थी। इस बातको लुत्फुन्निसाने बेगमको अच्छी तरह समझा दिया। उसने पूछा,—“मुगल साम्राज्य राजपूतोंके बाहुबलपर स्थापित हुआ है और आज भी निर्भर करता है। वही राजपूत कुल-तिलक मानसिंह खुसरूके मामा हैं और प्रधान राजमंत्री खान आजम खुसरूके श्वसुर हैं, इन दोनों आदमियोंके खड़े होनेपर कौन इनकी आज्ञा न मानेगा? फिर किसके बलपर युवराज सिंहासनपर अधिकार कर सकते हैं? राजा मानसिंहको राजी करना आपके ऊपर है। खान आजम और अन्यान्य उमराको तैयार करना मेरे ऊपर छोड़ दीजिये? आपके आशीर्वादसे अवश्य कृतकार्य हूँगी; लेकिन एक आशंका है कि कहीं सिंहासनासीन होनेके बाद खुसरू मुझे इन दुराचारियों को….निकाल बाहर न कर दें।”

बेगम सहचरीका अभिप्राय समझ गयी। हँसकर बोली,—“तुम आगरेमें जिस उमराकी गृहिणी होना चाहोगी, वह तुम्हारा पाणिग्रहण करेगा। तुम्हारे पति पंचहजार मंसबदार होंगे।”

लुत्फुन्निसा सन्तुष्ट हुई। यही उसका उद्देश्य था। यदि राजपुरीमें सामान्य स्त्री होकर रहना हुआ, तो फूलोंपर घूमकर रस लेनेवाली भ्रमरी बननेसे क्या फायदा हुआ? यदि स्वाधीनता ही त्याग करना होता तो बालसखी मेहरुन्निसाकी दासी होनेमें ही क्या हर्ज था? इससे तो कहीं अधिक गौरवकी बात है कि किसी राजपुरुषके गृहकी गृहस्वामिनी बनकर बैठा जाये?

केवल इसी लोभसे लुत्फुन्निसा इस कार्यमें लिप्त न हुई। सलीम उसकी उपेक्षा कर जो मेहर के पीछे पागल हो रहे हैं, उसका उसे प्रतिशोध भी लेना है?

खान आजम आदि आगरे और दिल्लीके उमरा लुत्फुन्निसाके यथेष्ठ साधित थे। खान आजम अपने दामादके लिये उद्योग करेंगे इसकी भी पूरी आशा थी। वह और अन्यान्य उमरा राजी हो गये। खान आजमने लुत्फुन्निसासे कहा—“मान लो यदि हम लोग कृतकार्य न हुए तो हम लोगोंको अपने बचावकी भी कोई राह निकाल लेनी चाहिए।”

लुत्फुन्निसाने कहा,—“आपकी क्या राय है?” खानने कहा, कहासाँचा:Sic—‘उड़ीसाके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। केवल उसी जगह मुगलोंका शासन प्रखर नहीं है, उड़ीसाकी सेना हमारे हाथ में रहना आवश्यक है। तुम्हारे भाई उड़ीसाके मंसबदार हैं। मैं कल प्रचार करुँगा कि वह युद्धमें आहत हुए हैं। तुम उन्हें देखने के बहानेसे कल ही उड़ीसाको यात्रा करो। वहाँका कार्य समाप्त कर तुरंत वापस जाओ।’

लुत्फुन्निसा इसपर राजी हो गयी। वह अपना कार्य कर लौटते समय पाठकोंसे मिली है।