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कपालकुण्डला/तृतीय खण्ड/७

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ ८९ से – ९० तक

 

:७:

उपनगरके किनारे

“I am settled; and bent up.
Each corporal agent to this terrible feat.”
Macbeth.

दूसरे कमरेमें जाकर लुत्फुन्निसाने अपना दरवाजा बन्द कर लिया। वह दो दिनोंतक उस कमरेसे बाहर न निकली। इधर दो दिनोंमें उसने अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्यका निश्चय कर लिया। स्थिर होकर वह दृढ़प्रतिक्ष हुई। सूर्य अस्त होना चाहते थे। उस समय लुत्फुन्निसा पेशमनकी सहायतासे अपना श्रृंगार करने लगी। आश्चर्यकारी वेशभूषा थी! पेशवाज नहीं,पाजामा नहीं, ओढ़नी नहीं; रमणी वेशका कोई चिह्न नहीं था। जैसी वेशभूषा उसने की, उसे शीशेमें देखकर उसने पेशमनसे पूछा,—“क्यों पेशमन! क्या मैं पहचानी जा सकती हूँ?”

पेशमन बोली—“किसकी मजाल है?”

लु०—तो मैं जाती हूँ। मेरे साथ कोई भी न जायगा।

पेशमन कुछ संकुचित होकर बोली—“दासीका कसूर माफ हो तो एक बात पूछूँ?”

लुत्फुन्निसाने पूछा—“क्या?”

पेशमनने पूछा—“आपकी मन्शा क्या है?”

लुत्फुन्निसा बोली—“केवल यही कि कपालकुण्डलाका उसके पतिसे चिरविच्छेद हो जाये इसके बाद वह मेरे होंगे।”

पे०—बीबी! जरा मजेमें विचार कर लीजिए; वह घना जंगल होगा; रात हुआ चाहती है; आप अकेली रहेंगी।

लुत्फुन्निसा इसका कोई जवाब न दे घरसे बाहर हुई। सप्तग्राम में जिस जनहीन उपप्रान्तमें नवकुमार रहते हैं, वह उसी तरफ चली। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उसे रात होगयी। नवकुमारके घरके समीप ही एक घना जंगल है; पाठकोंको यह याद रह सकता है। उसीके किनारे पहुँचकर वह एक पेड़के नीचे बैठ गयी। कुछ देर बैठ, वह अपने औत्साहसिक कार्यके बारेमें सोचने लगी। घटनाक्रम अपूर्व रूपमें उसका सहायक हो गया।

लुत्फुन्निसा वहाँ बैठी थी, वहाँसे उसे बराबर उच्चरित होनेवाला कोई कण्ठस्वर सुनाई पड़ा। उसने उठकर चारों तरफ देखा, एक रोशनी जलती दिखाई दी। लुत्फुन्निसाका साहस पुरुषसे भी बढ़कर था। जहाँसे रोशनी आ रही थी, वह उधर ही चली। पहले पेड़की आड़से देखा, बात क्या है! उसने देखा कि रोशनी यज्ञ-होमकी है और मनुष्य-कंठ मन्त्रोच्चारण है। मन्त्रमें केवल एक नाम सुन पड़ा। परिचित नाम सुनते ही, लुत्फुन्निसा यज्ञकर्ताके पास जा बैठी।

इस समय वह वहीं बैठी रही। पाठकोंने बहुत कालसे कपालकुण्डलाकी खबर नहीं पायी है। अतः कपालकुण्डलाकी खबर जरूरी है।