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कपालकुण्डला/द्वितीय खण्ड/६

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ ५७ से – ६२ तक

 

:६:

अवरोधमें

“किमित्यपास्या भरणानि यौवने
धृतं त्वया वार्द्धक शोभि वल्कलम्।
वद प्रदोषे स्फुट चन्द्र तारका
विभावरी यद्यरुणाय कल्पते॥”
—कुमारसंभव।

यह सभीको अवगत है कि किसी समय सप्तग्राम महासमृद्धशालिनी नगरी थी। रोम नगरसे यवद्वीपतकके सारे व्यवसायी इस महानगरी एकत्रित होते थे। लेकिन वंगीय दशम-एकादश शताब्दीमें इस नगरीकी समृद्धितामें लघुता आयी। इसका प्रधान कारण यही था कि उस समय इस महानगरीके पादतलको धोती हुई जो नदी बहती थी, वह क्रमशः सूखने और पतली पड़ने लगी। अतः बड़े-बड़े व्यापारी जहाज इस सँकरी राहसे दूर ही रहने लगे इस तरह यहाँका व्यवसाय प्रायः लुप्त होने लगा। वाणिज्यप्रधान नगरोंका यदि व्यवसाय चला गया, तो सब चला गया। सप्तग्रामका सब कुछ गया। वंगीय एकादश शताब्दीमें इसकी प्रतियोगितामें हुगली नदी बनकर खड़ी हो गयी। वहाँ पोर्तगीज लोगोंने व्यापार प्रारम्भ कर दिया। सप्तग्रामकी धन-लक्ष्मी यद्यपि आकर्षित होने लगी, फिर भी सप्तग्राम एकबारगी हतश्री हो न सका। तबतक वहाँ फौजदार आदि राज-अधिकारियोंका निवास था। लेकिन नगरीका अधिकांश भाग बस्तीहीन होकर गाँवका रूप धारण करने लगा।

सप्तग्राम के एक निर्जन उपनगर भागमें नवकुमारका निवास था। इस समय सप्तग्राम की गिरी हुई दशाके कारण अधिक आदमियोंका आगमन न होता था। राजपथ लता-गुल्मादिसे आच्छादित हो रहे थे। नवकुमारके घरके पीछे एक विस्तृत घना जङ्गल है। घरके सामने कोई आध कोसकी दूरीपर एक नहर बहती है, जो वनको घेरती हुई पिछवाड़ेके जङ्गलमें से बही है। मकान साधारण ईंटोंका बना हुआ पक्का है। है तो दो-मञ्जिला, किन्तु आज-कलके एक खण्डके मकानोंकी जैसी ऊँचाई उसकी है।

इसी घरकी ऊपरी छतपर दो युवतियाँ खड़ी हो चारों तरफ देख रही हैं। संध्याका समय है। चारों तरफ जो कुछ दिखाई पड़ता है, अवश्य ही वह नयन मोहक है। पासमें ही एक तरफ घना जङ्गल है, जिसमें विविध प्रकारके पक्षी झुण्ड के झुण्ड बैठे कलरव कर रहे हैं। एक तरफ वह नहर, मानों रूपहली रेखाकी तरह बल खाती चली गयी है। दूसरी तरफ नगरकी विस्तृत अट्टालिकाएँ अपना सर ऊँचा किये मानों कह रही हैं कि वसन्त-प्रिय-मधुर सौन्दर्य प्रियजनों का यहाँ निवास है। एक तरफ बहुत दूर नावोंसे सजी हुई भागीरथीकी धारा है, जिसके विशाल वक्षःस्थलपर सांध्यतिमिरका आवरण धीरे-धीरे गाढ़ा हो रहा है।

वे जो दो नवीना मकानके ऊपर खड़ी हैं, उनमें एक चन्द्र-रश्मि-वर्णवाली, अविन्यस्त केशराशिके अन्दर आधी छिपी हुई है; दूसरी कृष्णांगी है। वह सुमुखी षोडशी है। उसका जैसा नाटा कद है, वैसे ही बाल चेहरा भी छोटा है, उसके ऊपरी हिस्सेके चारों तरफसे घुँघराले बाल लटक रहे हैं। नेत्र अच्छे बड़े, कोमल, सफेद मानों बन्द कली के सदृश हैं, छोटी-छोटी उँगलियाँ साथिनीके केशोंको सुलझाती हुई घूम रही हैं। पाठक महाशय समझ गये होंगे कि वह चन्द्ररश्मि-वर्णवाली और कोई नहीं, कपालकुण्डला है; दूसरी कृष्णांगी उसकी ननद श्यामासुन्दरी है।

श्यामासुन्दरी अपनी भाभीको ‘बहू’, कभी आदर पूर्वक ‘बहन’, कभी ‘मृणा’ नामसे सम्बोधित कर रही थी। कपालकुंडला नाम विकट होने के कारण घर के लोगोंने उसका नाम ‘मृण्मयी’ रखा है; इसीलिये संक्षिप्त नामसे ‘मृणा’ कहकर बुलाती है। हमलोग भी कभी-कभी कपालकुंडलाको मृण्मयी नामसे पुकारेंगे।

श्यामासुन्दरी अपने बचपन की याद की हुई एक कविता पढ़ रही थी—

‘—बोले—पद्मरानी, बदनखानी, रेते राखे ढेके।
फूटाय कलि छटाय अलि प्राण पतिके देखे॥
आबार-बनेरलता, छड़िये पाता, गाछेर दिके धाय।
नदीर जल, नामले टल, सागरते जाय॥
छि-छि-सरम टूटे, कुमुद फूटे चादर आलो देले।
बियेर कने राखते नारी फूलशय्या गेले॥
मरि एक ज्वाला विधिर खेला, हरिबे विषाद।
बरदरशे भाई रसे, भाङ्गे लाजेर बाँज॥

[]

‘क्यों भाभी! तुम तपस्विनी ही रहोगी?’

मृण्मयीने उत्तर दिया,—“क्यों, क्या तपस्या कर रही हूँ?”

श्यामासुन्दरीने अपने दोनों हाथों से केशतरंगमालाको उठाकर कहा,—“तुम अपने इन खुले बालोंकी चोटी नहीं करोगी?”

मृण्मयीने केवल मुस्कराकर श्यामासुन्दरीके हाथसे बालोंको हटा लिया।

श्यामासुन्दरी ने फिर कहा,—“अच्छा, मेरी साध तो पूरी कर दो। एक बार हम गृहस्थोंके घरकी औरतोंकी तरह शृङ्गार कर लो। आखिर कितने दिनोंतक योगिनी रहोगी?”

मृ०—जब इन ब्राह्मण सन्तानके साथ मुलाकात नहीं हुई थी, तो उस समय भी तो मैं योगिनी ही थी।

श्यामा॰—अब ऐसे न रहने पाओगी।

मृ॰—क्यों न रहने पाऊँगी?

श्या॰—क्यों? देखोगी? तुम्हारे योगको तोड़ दूँगी। पारस पत्थर किसे कहते हैं जानती हो?

मृण्म्यीने कहा,—“नहीं।”

श्यामा॰—पारस पत्थरके स्पर्शसे राँगा भी सोना हो जाता है।

मृ॰—तो इससे क्या!

श्या॰—औरतोंके पास भी पारस पत्थर होता है।

मृ॰—वह क्या?

श्या॰—पुरुष! पुरुषकी हवासे योगिनी भी गृहिणी हो जाती है। तूने उसी पारस-पत्थरको छुआ है! देखना—

बांधाबो चूलेर राश, पराबो चिकन वास,
खोपाय दोलाबो तोर फूल।
कपाले सींथिर धार, काँकालेते चन्द्रहार,
काने तोर दिबो जोड़ा दूल॥
कुङ्कुम चन्दन चूया, बाटा भेरे पाया गुया,
राङ्गामुख राङ्गा हाबे रागे।
सोनार पुतली छेले, कोले तोर दिबो फेले,
देखी भालो लागे कि ना लागे॥

मृण्मयीने कहा—ठीक, समझ गयी। समझ लो कि पारस पत्थर मैं छू चुकी और सोना हो गयी। चोटी भी कर ली, गलेमें चन्द्रहार पहन लिया, चन्दन, कुंकुम, चोआ, पान, इत्र सब ले लिया, सोनेकी पुतली तक हो गयी। समझ लो, यह सब हो गया। लेकिन इतना सब होनेसे क्या सुख हुआ!

श्यामा॰—तो बताओ न कि फूलके खिलनेसे क्या सुख है?

मृ॰—लोगोंको देखनेका सुख है, लेकिन फूलका क्या?

श्यामासुन्दरीके मुखकी कांति गम्भीर हो गयी। प्रभातकालीन वायुके स्पर्शसे कुमुदिनीकी तरह आँखें नाच उठीं। बोली—फूलका क्या, यह तो बता नहीं सकती। कभी फूल बन कर खिली नहीं लेकिन तुम्हारी तरह कली होती तो खिलकर अवश्य दुःखका अनुभव करती।

श्यामा कुलीन पत्नी है।

हम भी इस अवकाशमें पाठकोंको बता देना चाहते हैं कि फूलको खिलनेमें ही सुख होता है। पुष्परस, पुष्पगन्ध वितरित करनेमें ही फूलका सुख है। आदान-प्रदान ही पृथ्वीके सुखका मूल है; तीसरा और कोई मूल नहीं। मृण्मयी वनमें रहकर कभी इस बातको हृदयंगम कर नहीं सकी; अतएव इस बातका उसने कोई जवाब न दिया।

श्यामा सुन्दरीने उसे नीरव देखकर कहा—अच्छा यदि यह न हुआ तो बताओ तो भला, तुम्हें क्या सुख है?

कुछ देर सोचकर मृण्मयीने कहा—बता नहीं सकती। शायद वही समुद्रके किनारे वन-वनमें घूमनेसे ही मुझे सुख है।

श्यामा सुन्दरी कुछ आश्चर्यमें आई। उन लोगोंके यत्नसे मृण्मयी जरा भी उपकृता नहीं हुई, इस ख्यालसे कुछ क्षुब्ध भी हुई। कुछ नाराज भी हुई। बोली—अब लौट जानेका कोई उपाय है?

मृ०—कोई उपाय नहीं।

श्यामा०—तो अब क्या करोगी?

मृ०—अधिकारी कहा करते थे—यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।

श्यामा सुन्दरीने मुँहपर कपड़ा रखकर हँसकर कहा—बहुत ठीक महामहोपाध्याय महाशय! क्या हुआ?

मृण्मयीने एक ठण्ढी साँस लेकर कहा—जो विधाता करेंगे, वही होगा। जो भाग्यमें बदा है, वही भोगना होगा!

श्यामा०—क्यों, भाग्यमें क्या है? भाग्यमें सुख है। तुम ठंढी साँस क्यों लेती हो?

मृण्मयीने कहा—सुनो! जिस दिन स्वामीके साथ यात्रा की, यात्राके समय भवानीके पैरपर बेल-पत्ती चढ़ाने गयी। मैं बिना माताके पैरपर बेल-पत्र चढ़ाये कोई काम नहीं करती थी। कार्य यदि शुभजनक होता, तो माता अपने पैरसे पत्र गिराती नहीं थी। यदि अमंगलका डर होता है तो माताके पैरसे वह बेलपत्र गिर पड़ता है। अपरिचित व्यक्ति के साथ विदेश जाते शंका मालूम हुई। शुभाशुभ जाननेके लिए ही मैं यात्राके समय गयी। लेकिन माताने त्रिपत्र धारण नहीं किया, अतएव भाग्यमें क्या है, नहीं कह सकती।

मृण्मयी चुप हो गयी। श्यामा सुन्दरी सिहर उठी।

 


  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    बोले—पद्मरानी, बदनखानी, रेते राखे ढेके।
    फूटाय कलि, जूटाय अलि, प्राणपतिके देखे॥
    आबार—बनेर लता, छड़िये पाता, गाछेर दिके धाय।
    नदीर जल, नामले ढल, सागरेते जाय॥
    छि-छि—सरम टूटे, कुमुद फूटे, चाँदेर आलो पेले।
    बियेर कने राखते नारि फूलशय्या गेले॥
    मरि—एकि ज्वाला, विधिर खेला, हरिषे विषाद।
    परपरशे, सबाई रसे, भाङ्गे लाजेर बाँध॥