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कपालकुण्डला/प्रथम खण्ड/६

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ २२ से – २८ तक

 

:६:

कापालिकके साथ

“कथं निगडसंयतासि द्रुतम् नयामि भवतीमितः”
—रत्नावली।

नवकुमार कुटीमें प्रवेश कर दरवाजा बन्द करते हुए अपनी हथेलीपर सर झुकाकर बैठ रहे। बहुत देर बैठे रहे; शीघ्र माथा न उठाया।

“यह कौन थी, देवी या मानुषी या कापालिककी मायामात्र?” नवकुमार निस्पन्द अवस्थामें हृदयमें ऐसे ही विचार करते बैठे रहे। वह कुछ भी समझ न सके।

वह अन्यमनस्क थे, इसलिये एक विशेष बात लक्ष्य कर न सके। उस कुटीमें उनके आनेसे पूर्व ही एक लकड़ी जल रही थी। इसके बाद काफी रात बीतनेपर उन्हें ख्याल हुआ कि अभीतक सायं-संध्या आदिसे वह निवृत्त नहीं हुए, और फिर जलकी असुविधाका ध्यानकर उस ख्यालसे निरस्त हुए, तो उन्हें दिखाई दिया कि कुटीमें केवल लकड़ी ही नहीं जल रही है, वरन् चावल आदि पाक द्रव्य भी एक जगह रखा हुआ है। इस सामानको देखकर नवकुमार चकित न हुए—मनमें सोचा अवश्य ही यह कापालिक द्वारा रखा गया है, इसमें आश्चर्यकी ही कौन-सी बात है?

“शस्यं च गृहमागतम्” बुरी बात तो है नहीं। “भोज्यं च उदरागतम्” कहनेसे और भी स्पष्ट समझमें आ सकता। नवकुमार भी इस चीजका माहात्म्य न जानते हों, ऐसी बात नहीं। संक्षेपमें सायंकृत्य समाप्त करनेके बाद चावलको कुटीमें रखी हुई एक हँडीमें पकाकर नवकुमारने डटकर भोजन कर लिया।

दूसरे दिन सबेरे चर्मशय्या परित्यागकर नवकुमार समुद्रतटकी तरफ चल पड़े। एक दिन पहले अनुभव हो जानेके कारण आज राह पहचान लेनेमें विशेष कष्ट नहीं हुआ। प्रातःकृत्य समाप्त कर प्रतीक्षा करने लगे। किसकी प्रतीक्षा कर रहे थे? पहले दिनवाली मायाविनी आज फिर आयेगी—यह आशा नवकुमारके हृदयमें कितनी प्रबल थी, यह तो नहीं कहा जा सकता—लेकिन इस आशाका त्याग वह न कर सके और उस जगहको भी छोड़ न सके। लेकिन काफी दिन चढ़ने पर भी वहाँ कोई न आया। अब नवकुमार उस स्थानपर चारों तरफ घूमकर टहलने लगे। उनका अन्वेषण व्यर्थ था। मनुष्य समागमका चिन्हमात्र भी वहाँ न था। इसके बाद फिर लौटकर उस स्थान पर आ बैठे। सूर्य क्रमशः अस्त हो गये, अन्धकार बढ़ने लगा; अन्तमें हताश होकर नवकुमार कुटीमें वापस आये। कुटीमें वापस आकर नवकुमारने देखा कि कापालिक कुटीमें निःशब्द बैठा हुआ है। नवकुमारने पहले स्वागत जिज्ञासा की, लेकिन कापालिकने इसका कोई उत्तर न दिया।

नवकुमारने पूछा—“अबतक प्रभुके दर्शनसे मैं क्यों वञ्चित रहा?” कापालिकने उत्तर दिया—“अपने व्रतमें नियुक्त था।”

नवकुमारने घर लौटनेकी इच्छा प्रगट की। उन्होंने कहा—“न तो मैं राह ही पहचानता हूँ और न मेरे पास राह खर्च ही है। प्रभुके दर्शनसे यद्विहित-विधान हो सकेगा, इसी आशामें हूँ।”

कापालिकने इतना ही कहा—“मेरे साथ आओ।” यह कहकर वह उदास हृदयसे उठ खड़ा हुआ। घर लौटनेसे सुभीता हो सकेगा, आशासे नवकुमार भी साथ हो लिए।

उस समयतक भी संध्याका पूरा अन्धकार फैला न था, हलकी रोशनी थी एकाएक नवकुमारकी पीठपर किसी कोमल हाथका स्पर्श हुआ। उन्होंने पलटकर जो देखा, उससे वह अवाक् हो रहे। वही अगुल्फलम्बित निविड़ केशराशिधारिणी वन्यदेवीकी मूर्ति सामने थी। एकाएक कहाँसे यह मूर्ति उनके पीछे आ गयी? नवकुमारने देखा कि रमणी मुँहपर उँगली रखकर इशारा कर रही है। वह समझ गये कि रमणी बात करनेको मना कर रही है। निषेधका अधिक प्रयोजन भी न था। नवकुमार क्या कहते? वह आश्चर्यसे खड़े रह गये। कापालिक यह सब कुछ देख नह सका था। वह क्रमशः आगे बढ़ता ही गया। उसके श्रवणारीं परिधिके बाहर चले जानेपर रमणीने धीमे स्वरमें कुछ कहा। नवकुमारके कानोंमें उन शब्दोंने प्रवेश किया। यह शब्द थे—“कहाँ! जाते हो? न जाओ। लौटो–भागो।"

यह बात कहने के साथ-साथ रमणी धीरेसे खिसक गयी। प्रत्युत्तर सुननेके लिये वह खड़ी न रही। नवकुमार पहले तो कुछ विमूढ़से खड़े रहे, इसके बाद व्यग्र इसलिए हुए कि वह रमणी किधर खिसक गयी। मनमें सोचने लगे—“यह कैसी माया है? या मेरा भ्रम है? जो बात सुनाई दी, वह आशंकासूचक है, लेकिन वह आशंका किस बातकी है? तान्त्रिक सब कुछ कर सकता है। तो क्या भागना चाहिये? लेकिन भागनेकी जगह कहाँ है?”

नवकुमार ऐसी ही चिन्ता कर थे, ऐसे समय उन्होंने देखा कि कापालिक उन्हें अपने पीछे न पाकर लौट रहा है। कापालिक ने कहा—“विलम्ब क्यों करते हो?”

जब मनुष्य अपना कर्तव्य कुछ स्थिर नहीं किये रहता, तो वह जिस कायके लिए पहले आहूत होता है, उसे ही करता है। कापालिक द्वारा पुनः बुलाये जानेपर बिना कोई प्रतिवाद किये ही नवकुमार उसके पीछे चल पड़े।

कुछ दूर जानेके बाद सामने एक मिट्टीकी दीवारकी कुटी दिखाई दी। उसे कुटी भी कहा जा सकता है और छोटा घर भी कहा जा सकता है, किन्तु इससे हमारा कोई प्रयोजन नहीं। इसके पीछे ही सिकतामय समुद्रतट है। घरके बगलसे वह कापालिक नवकुमारको लेकर चला। ऐसे ही समय तीरकी तरह वही रमणी फिर एक बाजूसे दूसरे बाजू निकल गयी। जाते समय फिर कहा—“अब भी भागो। क्या तुम नहीं जानते कि बिना नरमांसके तान्त्रिककी पूजा नहीं होती?”

नवकुमारके माथेपर पसीना आ गया। दुर्भाग्यवश रमणी की यह बात कापालिकके कानोंमें पहुँच गयी, उसने कहा—“कपालकुण्डले!”

यह स्वर नवकुमारके कानोंमें मेघ गर्जनकी गरह गूँजने लगा, लेकिन कपालकुण्डलाने इसका कोई उत्तर न दिया।

अब कापालिक नवकुमारका हाथ पकड़कर ले जाने लगा। मनुष्यघाती हाथोंका स्पर्श होते ही नवकुमारकी देहकी धमनियों का रक्त दूने वेगसे प्रवाहित होने लगा। लुप्त साहस एक बार नवकुमारमें फिर आ गया। नवकुमार ने कहा—“हाथ छोड़िये।”

कापालिकने कोई उत्तर न दिया। नवकुमारने फिर पूछा—“मुझे कहाँ ले जाते हैं?”

कापालिकने कहा—“पूजाके स्थानमें।”

नवकुमारने कहा—“क्यों?”

कापालिकने कहा—“वधके लिए।”

यह सुनते ही बड़ी तेजीके साथ नवकुमारने अपना हाथ खींचा। जिस बलसे उन्होंने अपना हाथ खींचा था, उससे यदि कोई सामान्य जन होता, तो हाथ बचा लेना तो दूर रहा, वह गिर पड़ता, लेकिन कापालिकका शरीर भी न हिला; नवकुमारकी कलाई कापालिकके हाथमें ही रह गयी। नवकुमारके हाथकी हड्डी मानो टूटने लगी। मुमुर्षुकी तरह नवकुमार कापालिकके साथ जाने लगे।

रेतीले मैदानके बीचोबीच पहुँचनेपर नवकुमारने देखा कि वहाँ भी लकड़ीका कुन्दा जल रहा था। उसके चारों तरफ तांत्रिक पूजाका सामान फैला हुआ है। उसमें नर-कपालपूर्ण आसव भी है लेकिन शव नहीं है! नवकुमारने अनुमान किया कि उन्हें ही शव बनना पड़ेगा।

कितनी ही लताकी सूखी हुई कठिन डालियाँ वहाँ लाकर पहलेसे रखी हुई थीं। कापालिकने उसके द्वारा नवकुमारको दृढ़तापूर्वक बाँधना शुरू किया। नवकुमारने शक्तिभर बलप्रकाश किया; लेकिन बल लगाना व्यर्थ हुआ। उन्हें विश्वास हो गया कि इस उम्रमें भी कापालिक मस्त हाथी जैसा बल रखता है। नवकुमारको जोर लगाते देखकर कापालिकने कहा—मूर्ख! किस लिए जोर लगाता है? तेरा जन्म आज सार्थक हुआ। भैरवी पूजा में तेरा मांसपिण्ड अर्पित होगा। इससे ज्यादा तेरा और क्या सौभाग्य हो सकता है?”

कापालिकने नवकुमारको खूब कसकर बाँधकर छोड़ रखा। इसके बाद वह वधके पहलेकी प्राथमिक पूजामें लग गया। तबतक नवकुमार बराबर अपने बन्धनको तोड़नेकी कोशिश करते रहे। लेकिन वह सूखी लताएँ गजबकी मजबूत थीं—बन्धन बहुत दृढ़ था। मृत्यु अवश्य होगी! नवकुमारने अन्तमें इष्टदेव के चरणोंमें ध्यान लगाया। एक बार जन्मभूमिकी याद आयी, अपना सुखमय आवास याद आया, एक बार बहुत दिनोंसे अन्तर्हित माता-पिताका स्नेहमय चेहरा याद आया और दो-एक बूंद आँसू ढुलककर रेतीपर गिर पड़े। कापालिक प्राथमिक पूजा समाप्त कर खड्ग लेनेके लिए अपने आसनसे उठ खड़ा हुआ, लेकिन जहाँ उसने खड्ग रखा था, वहाँ वह न मिला, आश्चर्य! कापालिक कुछ विस्मित हुआ। कारण, उसे पूरी तरह याद था, कि शामको उसने खड्गको यथास्थान रख दिया था। फिर स्थानांतरित भी नहीं किया, तब कहाँ गया? कापालिकने इधर-उधर खोजा, लेकिन वह कहीं न मिला। तब उसने पूर्व कुटीकी तरफ पलटकर जोरसे कपालकुण्डलाको पुकारा, लेकिन बारम्बार बुलाये जानेपर भी कपालकुण्डलाने कोई उत्तर न दिया। कापालिककी आँखें लाल और भौंहें टेढ़ी पड़ गयीं। वह तेजीसे कदम बढ़ाता हुआ गृह की तरफ बढ़ा। इस अवकाशमें एक बार नवकुमारने फिर छुटकारेके लिए जोर लगाया, लेकिन व्यर्थ।

ऐसे ही समय बालूके ऊपर बहुत ही समीप पैरकी ध्वनि हुई। यह ध्वनि कापालिककी न थी। नवकुमार ने नजर घुमाकर देखा, वही मोहिनी—कपालकुण्डला थी। उसके हाथोंमें खड्ग झूल रहा था।

कपालकुण्डलाने कोई उत्तर न दिया। नवकुमारने फिर पूछा—

कपालकुण्डलाने कहा—“चुप? बात न करना—खड्ग मेरे ही पास है—चोरी कर रखा है।”

यह कहकर कपालकुण्डला शीघ्रतापूर्वक नवकुमारके बंधन काटने लगी। पलक झपकते उसने उन्हें मुक्त कर दिया और बोली—“भागो, मेरे पीछे आओ; राह दिखा देती हूँ।”

यह कहकर कपालकुण्डला तीरकी तरह राह दिखाती आगे दौड़ी, नबकुमारने भी उसका अनुसरण किया।