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कबीर ग्रंथावली/कबीर का युग

विकिस्रोत से
कबीर ग्रन्थावली
कबीर, संपादक डॉ० श्यामसुन्दरदास
कबीर का युग

लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १ से – ६४ तक

 

 

कबीर का युग

कबीर का आविर्भाव-काल एक संदिग्ध विषय है। इस सम्बन्ध में स्पष्ट अन्तर्साक्ष्य प्रमाण नहीं उपलब्ध है। कबीर के पदों में केवल दो स्थानों पर तत्कालीन आविर्भावकाल—शासक सिकन्दर लोदी के अत्याचार का उल्लेख मिलता है।

प्रथम संकेत रागु गौंड के चतुर्थ पद में हुआ है और द्वितीय रागु भैरव [] के अठारहवें पद में। इन पदों में काजी द्वारा कबीर पर हाथी चलवाने तथा जंजीर में बाँध कर गंगा में डुबाने के प्रयत्न का वर्णन है। परन्तु इन दोनों पदों में सिकन्दर लोदी के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है। परची आदि ग्रंथों में सिकन्दर लोदी ने जो-जो अत्याचार किए थे, उनमें उपर्युक्त दोनों घटनाएँ सम्मिलित हैं। अतः यहाँ पर इन दोनों घटनाओं को सिकन्दर लोदी के अत्याचारों के अन्तर्गत मानने में अनुमान किया जा सकता है। 'आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरू' और 'गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर' जैसी पंक्तियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने अपने अनुभवों का वर्णन स्वयं ही किया है।[] यदि उपर्युक्त दोनों पदों (रागु गौंड ४ तथा भैरउ, १८) को प्रामाणिक मान लिया जाय तो कबीर को सिकन्दर लोदी का समकालीन माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त कोई भी अन्तर्साक्ष्य नहीं उपलब्ध होता है।

कबीर को सिकन्दर लोदी का समकालीन सिद्ध करने वाले कुछ बहिर्साक्ष्य प्रमाण भी हैं। रेवरेन्ड के, बील, फर्कहर, मेकालिफ, बेसकट, स्मिथ, भण्डारकर, ईश्वरी प्रसाद[], तथा रामकुमार वर्मा[] आदि विद्वान भी इस मत से सहमत हैं कि कबीर और सिकन्दर लोदी समकालीन हैं। इनके अतिरिक्त प्रियादास जी[] ने भी कबीर और सिकन्दर को समकालीन माना है। अतः कबीरदास का युग पन्द्रहवी शताब्दी मानना असंगत न होगा। इस समय लोदी वंश के शासक सिकन्दर का राज्य था। लोदी वंश से पूर्व भारतवर्ष पर गुलाम, बलबन, खिलजी, तुगलक, तथा सैयद वंश राज्य कर चुके थे। कबीरदास से पूर्व प्रायः तीन सौ वर्षों तक मुसलमान इस देश पर राज्य कर चुके थे। राजनीतिक क्षेत्रों में मुसलमानों का ही प्रभुत्व रहा। इन तीन सौ वर्ष के मुसलमानी शासन काल मे भारतवर्ष की धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक दशा का ह्रास हो गया था। मुसलमानों की विकास शक्ति और धर्म ने देश का दृष्टिकोण ही बदल दिया। मध्य देश मे भी मुसलमानी तलवारों का पानी अनेक हिन्दू राज्यों के सिंहासन डुबो चुका था। हिन्दू राजाओं के पास न बल था, न साहस और न ऐक्य।

सिकन्दर की शक्ति, अधिकार और महत्वाकांक्षा निःसीम थी। उसके लिए कोई नियम नहीं था। देश का राज्य उसकी इच्छा और मन पर निर्भर था। देश की जनता और विशेष रूप से हिन्दू उसकी कृपा-कोर के आकांक्षी बने रहे। जनता के अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं था। उसके जीवन की सब से बड़ी सार्थकता थी शासक की आज्ञा पालन करना। सिकन्दर की राजनीति पर भी धार्मिक आदर्शों का प्रभाव था। वहाँ भी हिन्दुओं का कोई विद्रोह होता था वहाँ हिन्दुओं को जो दण्ड मिलता था वह तो था ही साथ ही उस क्षेत्र के सभी मन्दिर नष्ट करा दिए जाते थे। बात यहीं नहीं समाप्त हो जाती थी वरन् मन्दिरों के स्थान पर मसजिदों का निर्माण करा दिया जाता था।

संक्षेप में कबीर के युग की राजनीतिक परिस्थिति, अस्थिरता, विश्वासघात, धार्मिक संकीर्णता तथा अमानुषिक अत्याचारों की कथा है। राजनीतिक विद्रोह अशांति और प्रतिहिंसा की छाप सर्वत्र अंकित है। कबीर एक सहृदय व्यक्ति थे। इनके राजनीतिक प्रपंचों ने कबीर की संसार विषयक क्षणभंगुरता की भावना को और भी दृढ़ कर दिया। उन्होंने तत्कालीन शूर वीरों को सम्बोधित करके कहा कि तीर तोप से लड़ना शौर्य नहीं, शूर धर्म का निर्वाह वह व्यक्ति करता है जो माया के बन्धनों से मुक्त होकर आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हो। तत्कालीन जनता की भौतिकता भी कबीर को पसन्द नहीं आई। वे तत्वदर्शी थे। जानते थे कि जो कुछ भी भौतिक है वह क्षणिक है और इसीलिए उन्होंने भौतिकता और माया से दूर रहने के लिए बार-बार सचेत किया। कबीर ने अपने युग में जनता की स्वार्थपरता और धनलिप्सा की भी बड़ी निन्दा की है। इन्होने उदार वृत्ति और सन्तोष धारण करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

कबीर से पूर्व भारतवर्ष की राजनीतिक दशा पर ऊपर विचार हो चुका है। विगत पृष्ठों को देखने से प्रकट हो जाता है कि १२०० से १३०० ई॰ तक देश की दशा कितनी विषम बनी रही। हिन्दू समाज, हिन्दू धार्मिक परिस्थिति संस्कृति पर निरन्तर आक्रमण हो रहे थे। हिन्दू धर्म को नष्ट कर देने के लिए साम, दाम, दंड और भेद आदि सभी उपायों से प्रयत्न किया गया। हिन्दुओं की इस गम्भीर, विषम शोचनीय और नित्य ही परिवर्तनशील दशा में हिन्दुओं का धर्म संकट में पड़ चुका था। उनके राम जनता के हृदय और मस्तिष्क से विलग हो चले थे। परिस्थिति इस बात की द्योतक थी कि मूर्ति-उपासक कितने निर्बल, अशक्त और संकट में थे और दूसरी ओर मूर्ति-भजक कितने बलवान और कितने ऐश्वर्यवान् हैं। मूर्तिभंजको को सुख और ऐश्वर्य के पालने में झूलते हुए देख कर हिन्दुओं का मूर्ति-पूजा से विश्वास उठ रहा था। वे उसकी निःसारता स्पष्ट रूपेण समझ चुके थे। फलत महान् संघर्ष और क्रान्ति के इस युग में एक ऐसे धार्मिक आंदोलन की आवश्यकता थी जो देश के निवासियों को अन्धकार में प्रकाश दिखा सके। निराशा में आशा का संचार कर सके। इस आवश्यकता की पूर्ति वैष्णव आंदोलन ने की। इस आन्दोलन में परब्रह्म के लोक रक्षक लोर-पालक स्वरूप की विष्णु के रूप में प्रतिष्ठा करके, उनकी सरल भक्ति का मार्ग निराश हृदयों को प्रदर्शित किया गया। प्रस्तुत वैष्णव आन्दोलन की प्रेरणा और प्रयत्न से निराश हिन्दुओं में एक बार पुनः धार्मिक जाग्रति उत्पन्न हुई। समय-समय पर इस आन्दोलन के भी उपास्य देवों के स्वरूप में परिवर्तन होता रहा। फिर भी इसके मूल में एक भावना बराबर रही और वह भावना थी परब्रह्म के सर्वव्यापी एवं अन्तर्यामी स्वरूप की।

रामानन्द ने लोक-रक्षक 'राम' की प्रतिष्ठा की। रामानन्द की इस 'राम' भक्ति के महान् स्त्रोत्र से दो धाराये फूट निकली। प्रथम धारा थी 'राम' के सगुण रूप की, इस धारा में नाभादास, तुलसीदास आदि प्रतिभावान व्यक्ति हुए और द्वितीय धारा में 'राम' के निर्गुण रूप की उपासना हुई जिसके प्रचारक नामदेव, कबीर आदि संत हुए। इन सन्तो ने अपने सम्प्रदाय में योग की क्रियाओं को भी स्थान दिया पर सामान्य जनता ने इनके सरल उपदेशों को ग्रहण किया। इन सन्तो ने उपासना के लिए निर्माण 'ब्रह्म' का आश्रय ग्रहण किया और इस भावना ने जातीय, सांस्कृति तथा धार्मिक मतभेद के लिए अवशेष अवसर भी समाप्त कर दिये।

हिन्दू धर्म में वाह्य प्रभावों के अतिरिक्त दोष भी व्याप्त हो गये थे। धर्म के पवित्र रूप को वाह्याडम्बरों ने आच्छादित कर लिया। सद्विश्वावासों का स्थान अन्धविश्वासों ने ग्रहण कर लिया। अहिंसा, त्याग और सत्य का स्थान बलिदानों के रूप में हिंसा तथा ढोंग ने ले लिया। संक्षेप में कबीर के युग तक हिन्दू धर्म अनेक दोषों से पूर्ण था। साधना के स्थान पर बाह्याचार की प्रतिष्ठा हो रही थी। कबीर तथा अन्य कवियों ने इन दोषों की कडी़ आलोचना की है। उन्होंने अपने व्यङ्गवाणों के द्वारा तत्कालीन जनता की मनोवृत्ति और धर्म के अंधकारपूर्ण पक्ष का चित्रण किया है।

समाज में वाह्याडम्बर बढ़ रहे थे। जनता की अंध-विश्वासों पर अत्यधिक श्रद्धा थी। भूत-प्रेतों पर विश्वास की भावना का प्रसार जनता में हो रहा था। सामाजिक परिस्थिति संक्षेप में कबीर के समय में भारतीय समाज अनेक प्रकार के दोषों से युक्त था। कबीर ने जिस प्रकार धार्मिक विशृंखलाओं को दूर करने का प्रयत्न किया उसी प्रकार सामाजिक रूढ़ियाँ और दोषों को निकाल फेंकने के लिए प्रयत्न किया। समाज में व्याप्त हिन्दू, मुसलमानों की भेद भावना के विरोध में कबीर ने बार-बार समता और एकता का उपदेश दिया। कबीर ने तत्कालिन जनता को समझाया कि हिन्दू मुसलमान एक ही कर्ता की दो कृतियाँ हैं, उनमें भेद नहीं है। इसी प्रकार 'राम', 'रहीम' एक ही ईश्वर के दो नाम हैं। केवल नामों का भेद अनादि शक्तिको द्वैत नहीं सिद्ध कर सकता है। इस प्रयत्न से कबीर ने दोनों धर्माबलम्बियों के हृदयस्थ भेद भाव की संकीर्णता दूर करने का प्रयत्न किया। तत्कालीन जनता में व्याप्त असंतोष तथा प्रतिहिंसा की प्रवृत्ति के विरुद्ध भी कबीर ने सन्तोष और क्षमा का उपदेश दिया। उन्होंने क्षमावान् को परब्रह्म की रूप बताया। तत्कालीन यवनों की हिंसा प्रधान प्रवृत्ति का विरोध करते हुए कबीर ने जनता को अहिंसा और दया का उपदेश दिया। जब सभी एक ही 'साँई' की सन्तान हैं तो किस पर दया की जाय और किस पर निर्दयता। विजेता वर्ग के अत्याचारों से उत्पीड़ित हिन्दू जनता को भी कबीर ने धैर्य रखने का उपदेश दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा 'धीरे -धीरे मना धीरे सब कुछ होय।' इसी प्रकार कबीर ने अपने समकालीन समाज को उदारता की भी उपयोगिता बताई। कबीर ने जनता के लोभ, क्रोध, मोह, कपट तृष्णा आदि विषयों पर विचार प्रकट किये हैं। वास्तव में कबीर समाज को परिष्कृति और दोषरहित रूप में देखना चाहते थे।

कबीर से पूर्व और कबीर के युग में नारी का जो चित्र हमें साहित्य, धर्म तथा इतिहास में मिलता है वह अत्यन्त विवशता का चित्र है। तत्कालीन नारी जनता की भोग-लिप्सा देख कर कबीरदास ने बारम्बार भोग-विलास से दूर रहने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि पंडित और मूर्ख दोनों 'काम' में लिप्त'[] हैं। काम में लिप्त मनुष्य कभी भी 'हरि नाम' की साधना नहीं कर सकता है जिस प्रकार सूर्य और अवकार एक स्थान पर नही एकत्रित हो सकते[] है। इस प्रकार मानव की भोग-लिपसा और कामुकता की बड़ी आलोचना की। अपनी पतिव्रता स्त्री का परित्याग कर परायी स्त्री से प्रेम करने वालों का सम्बोधित कर कबीर कहते हैं कि 'दूसरे की स्त्री, चाहे वह सोने ही की क्यों न हो, उससे दूर रहना चाहिए, नहीं तो रावण के समान विनाश अवश्यम्भावी है।[] इसी प्रकार बढ़े प्रभावशाली शब्दों में कबीर ने इस प्रवृत्ति की आलोचना की। कबीर के युग में नारी भोग-विलास को वस्तु बन गई थी। इसलिए उन्होंने नारी के भोगमय स्वरूप की बड़ी निन्दा की है। आध्यात्मिक पथ से भ्रष्ट करने के कारण कबीर ने स्त्री को सर्पिणी के समान भयंकर[] व्याघ्र के समान घातक[१०] तथा भक्ति एवं मुक्ति से पतित करने वाली[११] कहा है। स्थान-स्थान पर कबीर ने नारी को माया आदि शब्दों से भी सम्बोधित किया है। परन्तु साथ ही कबीर ने नारी के कल्याणकारी रूप का समर्थन भी किया है। कबीर ने सती स्त्री की प्रशंसा की[१२] है कारण कि उसका हृदय और मन पवित्र रहता है। यह पति के साथ अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती है। इसी प्रकार कबीर ने पतिव्रता नारी का भी बड़ा समर्थन किया है। कबीर के लिए मैली कुचैली पतिव्रता भी बन्दनीय है। पतिव्रता नारी को कबीर ने शूर और दोनों के समान उच्च और अभिनन्दनीय माना है।[१३] संक्षेप में कबीर ने नारी के उस स्वरूप की निन्दा की जो मानव को आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने से रोकता है। यदि वह इस दोष से रहित है तो वह सर्वथा वन्दनीय है।

मुसलमानों के आक्रमण अकाल, अनावृष्टि, लुटेरों तथा विजेता वर्ग के शोषण ने कबीर के समय तक देश को नितान्त कंगाल बना दिया था। इसका प्रभाव मध्यवर्ग, निम्नवर्ग और किसान तथा मजदूरों परआर्थिक‌ परिस्थिति विशेष रूप से पड़ा। आर्थिक विनाश और अन्नाभव के‌ कारण जनता के लिए जीवन का प्रश्न अत्यन्त विषम बन गया। जनता के इन वर्गों के लिए ईश्वर के अतिरिक्त और किसी का सहारा नही था। इसलिए कबीर ने तत्कालीन जनता को सन्तोष धारण करने का उपदेश दिया। कारण कि, सन्तोष गजधन, वाजिधन और रत्नधन आदि सभी धनों से श्रेष्ठ है।[१४] कबीर ने मानव-सुलभ तृष्ण की भी आलोचना की, क्योंकि तृष्णा ही मनुष्य का वास्तविक काल है।[१५] तृष्णावान् मानव कही भी शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता है। शोषण के विरुद्ध भी कबीर ने जनता को उपदेश दिया।[१६] कबीर ने स्थान स्थान पर गरीबी की सराहना की है। उन्होंने गरीब को "दुतिया के चन्द्र के समान" वन्दनीय बताया है।[१७] कारण कि गरीब स्वयं सभी के उत्पीड़न को सहन करता है और प्रतिकार में किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता है। वह स्वयं अपने ठगाने में सुख का अनुभव करता है। ग़रीबी सबसे अच्छी है कारण कि लघुता से ही मनुष्य महत्ता की ओर अग्रसर होता है। कबीर ने उस धन को अभिशाप माना है जिससे ईश्वर के भजन में बाधा पड़े। इस प्रकार समय‌ की आवश्यकतानुसार कबीर ने सन्तोष और दीनता का महत्व प्रदर्शित करके दीन और भुक्तभोगी जनता को अपनी स्थिति में ही स्थिर रहने और ईश्वर प्रेम में रत रहने का उपदेश दिया।

साहित्य में धार्मिक स्थिति के चित्रण की परम्परा सरहपा से आरम्भ होती है। सरहपा के समय में पाखंड और वाह्याडम्बरों की अधिकता थी। उन्होंने ब्राह्मण, वेद, साहित्य दण्डी, यज्ञ, यन्त्र मन्त्र आदि की आलोचना की है।

जिससे ज्ञात होता है कि आठवीं शताब्दी में ही धर्म के क्षेत्र में वाह्याडम्बर और पाखण्ड समाविष्ट हो गए थे। सरहपा के पश्चात् दसवीं शताब्दी के कवियों में से तिलोपा काव्य में तत्कालीन धार्मिक स्थिति का चित्रण उपलब्ध होता है तिलोपा के समय में धर्म के मूल सिद्धान्तों को त्यागकर जनता तीर्थं, तप, बहुदेवोपासना में लग रहे थे तथा साधक भोगी हो रहे थे। योगीन्दु (१००० ई॰) के समय तक ये दोष कुछ और भी बढ़ गए। इस समय की जनता विभिन्न 'पंथों' और 'सम्प्रदायों' में भटक रही थी। शिक्षित समुदाय मानवता के धर्म को विसार कर 'पोथी पत्र' को ही धर्म सभक्त बैठा था। रामसिंह, योरीन्दु के समकालीन थे। इन्होंने भी पाखंड के उन बहुत से चित्रों की अभिव्यक्ति अपने काव्य में की है जो तत्कालीन धर्म और समाज में व्याप्त थे। उन्होंने उन 'मुण्डियों' का वर्णन किया है जो मुक्ति की आशा में सिर मुंड़ाए हुए घूम घूमकर जगत् को धोखा देने के साथ ही अपनी आत्मा को भी धोखा देते फिरते थे। कवि रामसिंह ने इन व्याप्त दोषों को बहुत निकट से देखा था। इन उपर्युक्त कवियों के समान ही नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध कवि गोरखनाथ के काव्य में भी तत्कालीन धर्म में व्याप्त दोषों तथा पाखण्डों का अच्छा चित्रण मिलता है। गोरखनाथ के समय में ब्राह्मण बहुपठित तो थे पर उन्हें सार-ज्ञान नहीं था, योगी माया में लिप्त तथा धूर्त्त, साधक निद्रा, मैथुन और माया में लिप्त थे, मन्त्र देने वाले गुरु अहंकारी थे। समय के साथ धर्म में व्याप्त दोषों में भी वृद्धि होती गयी। कबीर के समय तक जनता नितांत पथभ्रष्ट हो चुकी थी। बड़े-बड़े़ योगी माया में लिप्त थे। योगी, पंडित, सन्यासी, मौलाना, काजी सब 'मदमाते', हो रहे थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सत धर्म के भ्रष्ट होकर भटक रहे थे। पीर औलिया हिंसा में प्रवृत्त थे। हिन्दु मुसलमान दोनों ही ब्रह्म के विषय को लेकर परस्पर एक दुसरे के शत्रु बने हुए थे। हिन्दू लोग पत्थरों की पूजा में ही कर्त्तव्य पूर्त्ति समझते थे। साधु लोग वाह्याडम्बरों में प्रवृत्त होकर धन एकत्रित करते फिरते थे। सोना चाँदि के आभूषण पहनते थे। घोड़ा घोड़ियों पर सवारी करके विचरते थे। इस प्रकार साधु-समाज माया का दास हो रहा था[१८] साधुओं की भाँति मुल्ला भी पथ भ्रष्ट हो चुके थे। पीर कर्त्तव्यच्युत हो गए थे। उनमें विवेक वृद्धि नष्ट हो गई थी। वे अहिंसा मे प्रवृत थे। इन पीरों और मुल्लाओं का प्रभाव तत्कालीन मुसलमान जनता पर गम्भीर पड़ा। अपने-अपने धार्मिक नेताओं की भक्ति हिन्दू और मुसलमान सभी आचरण कर रहे थे। हिन्दुओं में महन्तों के आदर्शों का अनुकरण हो रहा था। और मुसलमानों में इन पीरों और मुल्लाओं का अंधानुकरण। धर्म के नाम पर अधर्म आचार के नाम पर अनाचार कबीर जैसे उदार दृष्टिकोण वाले व्यक्ति के लिए असह्य था। उन्होंने दोनों को खुब फटकारा।

धर्म में व्याप्त विकारों तथा वाह्याडम्बरों की निन्दा करके कबीर पथ-भ्रष्ट तथा लक्ष्यच्युत जनता को धर्म के राजमार्ग अथवा उचित मार्ग पर लाना चाहते थे। धर्म और साधना में कबीर को ऐंचातानी पसन्द नहीं थी। साधना तो अत्यन्त प्रिय विषय है। साधना के क्षेत्र में दैनिक औचित्य के मध्यस्थ कोई भी विरोधी भावनाएँ नहीं हैं। कबीर इस सत्य से परिचित थे। इसी कारण कबीर मर्म और साधना के सहज पथ को ग्रहण करने के लिए अपनी समकालीन जनता को उपदेश दिया। कबीर ने जनता को बताया कि समस्त दुरुहताओं और दाँव-पेंचों की क्या निःसारता है और सहज पथ ही सत्य पथ है जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर सकता है।"[१९] सहज पथ सबके लिए खुला है। उनमें जात-पाँति वर्ग कुल आदि का प्रतिबन्ध नहीं है। सम्प्रदाय और मत-मतांतरों की भाँति इसमें वाह्याडम्बर को आवश्यकता नहीं है।

मर्म के अन्तर्गत वाह्याडम्बरों का कोई अस्तित्व नहीं है, फिर भी हिन्दू और इस्लाम दोनों ही धर्मों में यह दोष समान रूप से वर्त्तमान है। कबीर ने देखा कि धर्म के वास्तविक रूप को वाह्याडम्बरों ने आच्छादित कर रखा है। अतः उन्होंने मतवाद, शास्त्र, कतेव, तीर्थ, व्रत, नमाज आदि की व्यर्थता जनता के समक्ष बारम्बार रखी। सबसे पहले कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थों की आलोचना की। उन्होंने बताया कि ये ग्रन्थ सभी को भ्रम में डालने के लिए रचे गए हैं।[२०] करीब ने मूर्ति-पूजा के विरोध में भी बहुत कुछ लिखा है।[२१] कबीर तो मन्दिर की नीव को ही अस्थिर मानते हैं।[२२] इसी प्रकार उन्होंने मुसलमानों की 'बाँग' और मस्जिद की व्यर्थता बताइ।[२३] हिन्दुओं की एकादशी और मुसलमानों के तीस रोजा की भी कबीर ने आलोचना की।[२४]

हिन्दू मुसलमानों की 'राम', 'रहीम' सम्बन्धी भेद-भावना को मिटाने के लिए कबीर ने ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप का उपदेश दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा 'साहेब मेरा एक है दूजा कहा न जाय।'[२५] इतना ही नहीं 'साहब' को द्वैत बताने वाले को कबीर "दूजा कुल को हाय" कहने तक का साहस रखते हैं।[२६] कबीर ने बताया कि हिन्दू और मुसलमानों की एक ही राह है।'[२७] दोनों ही एक ही कलाकार की कृतियाँ हैं। उनमें दृष्टिगत भेद मानवकृत है।

कबीर ने भेष बनाकर घूमने की प्रकृति की भी तीव्र आलोचना की है। माला, तिलक, छाप, गेरुआ वस्त्रों आदि की निःसारता पर उन्होंने बार-बार जोर दिया है।[२८]

कबीर के युग में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही के धर्म में 'हिंसा' वृत्ति समाविष्ट हो गई थी। कबीर ने काजी सैय्यद, औलिया और पीर आदि को डाँटते हुए पूछा कि 'बकरी मुर्गी का तुम किसकी आज्ञा से हनन करते हो। दिन भर तो रोजा रहते हो और रात में गाय खाते हो। भला तुम्हारा खुदा किस प्रकार से इस आचरण पर प्रसन्न होगा।' इसी प्रकार उन्होंने हिन्दू योगियों से पूछा कि "कब नारद बन्दूक चलाया।"

इस प्रकार कबीर ने तत्कालीन हिन्दू तथा मुसलमानों के धर्म में व्याप्त दोषों तथा बाह्याडम्बरों को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने दोनों विरोधी वर्गों की एकता और प्रेम का मार्ग प्रदर्शित किया और पारस्परिक विरोधी भावनाओं को शान्त करने का प्रयत्न किया।

रामानन्द के पश्चात् सन्त कवियों ने अपने उपदेशों का माध्यम हिन्दी भाषा बनाया। वे इस बात को समझ गये थे कि यदि अधिक से अधिक जनता में स्वमत का प्रचार करना है, तो हिन्दी का ही आश्रय ग्रहण करना पड़ेगा। भाषा फलतः उन्होंने हिन्दी में ही अपने विचारों को प्रकट किया। सन्तों ने विद्वत्समाज की स्तुतिनिन्दा, अथवा योग्यता-प्रदर्शन की आवश्यकता न समझ कर जनता की भाषा में ही उपदेश किया। रामानन्द ने संस्कृत के विद्वान होते हुए भी जन-हितार्थ हिन्दी में उपदेश दिये। परन्तु बाद के कवियों ने संस्कृत के विपक्ष और भाषा की सराहना भी की जिनमें से कबीर विशेष उल्लेखनीय हैं। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में संस्कृत को 'कूपजल' कहा और भाषा की बहते हुए नीर से तुलना की। इससे कबीर के भाषा विषयक आदर्श प्रकट होते हैं।

देश की संघर्षमयी परिस्थिति का कबीर पर प्रभाव पड़ा। मानव की निम्न तथा हेय प्रवृत्तियों के विरुद्ध कबीर दास ने अपने शांत एवं प्रभावशाली स्वर में क्षमा, दया, विश्वबन्धुत्व,

एकता तथा समता का संदेश दिया और अपने युग उपसंहार को सही मार्ग पर अग्रसर करने का प्रयत्न किया।

उस युग की हलचल, अशांति, आडम्बर और विडम्बना का मापदण्ड कबीर का स्वर और उनका 'सहज' संदेश है।

 

किसी भी साहित्याकार का व्यक्तित्व उसकी रचना मे प्रतिबिम्बित होता है। लेखक के व्यक्तित्व से उसके साहित्य का बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। कोइ भी मनुष्य किसी रचना से उसके लेखक के व्यक्तित्व का अनुमान लगा सकता है। कबीर (२५ वी शताब्दी ) का साहित्य उनके व्यक्तित्व का सबसे अधिक परिचायक है। कबीर के साहित्य को देखने से ज्ञात होता है कि वे सत्य (दोनो, व्यवहार और साधना ) प्रिय थे। उनमे चरित्रबल था जिसके कारण स्पष्टोक्तियाँ उनकी वानियो मे लहरे ले रही हैं। वे मान और उपमान के स्तर से ऊपर उठ चुके थे। उन्हे द्रोह, विद्रोह, अशान्ति, वैमनस्य, प्रतिहिंसा की भावना से घृणा थी। वे शान्ति प्रिय थे। अहिंसा और सरलता के वे समर्थक थे। करनी और कयनी मे वे भेद नही मानते थे। लौकिक जीवन से ऊपर उठने की उनमे साध थी। वे प्रेमी,भक्त,साबक योगी और विश्वासी थे। दुविधा से वे घृणा करते थे। भेष और वस्त्राचार तथा सत्य के नाम पर अनाचार देख कर वे जल उठते थे। समदृष्टि और सहज को जीवन मे वे कार्यान्वित करना चाहते थे। उदारता, विश्वबन्धुत्व , दोनता, धैर्य संतोष , सहन-शीलता और क्षमा उनकी चरित्रगत विशेषताएँ थी। सत्य-प्रियता के कारण उन्हे जीवन मे विरोधो के अनेक तूफानो का सामना करना पड़ा। कबीर स्वतन्त्र विचार के व्यक्ति थे। उसमे प्रतिभा थी, मौलिकता थी। उनकी वाणी मे बल और ह्रदय मे साहस था। अप्रिय सत्य कहने मे भी उन्हें कोइ संकोच नही था। मुरौव्वन और रियायत की भावना उनमे स्थान नही पा सकी थी।

लेखक के व्यक्तित्व के अध्ययन का दूसरा साधन है उपके समकालीन और परिवर्ती लेखको का उसके विषय मे कथन । कबीर सत मत के प्रवर्तक और एक विशेष परम्परा के संस्यापक थे। साहित्य और धर्म के क्षेत्र मे एक नबीन क्रान्ति के जनक थे। आलोचना की एक नवीन शैली के जन्मदाता थे। २५ वो शताब्दि के सर्वश्रेष्ठ कवि और समाज सुधारक थे। समकालीन शासक उनसे अत्यधिक प्रभावित था। (यदि किबदतियो मे जरा भी विश्वास कर लिया जाय) वे एक नवोन समाज के निर्माता थे। निश्चय ही उन्होने अपने युग को जनता को प्रभावित किया होगा और निश्चय ही उनके सिद्धान्तों को पुष्प गंगा मे अबगाहन कर उनके पश्चात नानक,   दादू,मलूक,जगजीवन,शिवनारायण,दरियद्धो,मीरा,सहजोदयावाई,घनीदास,गरीबदास,केशवदास,तुलसी (साहब) चरनदास,सुन्दरदास आदि ने भारतीय जनता मे समय-समय पर प्रकाश फैलाया। आज इस युग का महापुरूष गाँधी भी उनके सिद्धान्तों से अनुप्राणित प्रतीत होता है । कबीर के विषय मे लिखित इन सन्तो की वानियो से कबीर के व्यक्तित्व का अनुमान बडी सरलता से लग सकता है । अतिशयोक्तियो को छान कर निकाले हुए तथ्यो से कबीर का व्यक्तित्व प्रकाश मे लाया जा सकता है।

कबीर के पश्चात् धर्म और समाज के विषय मे अभिरुचि रखने वाले सभी कवियो और इतिहासकारो ने कबीर की प्रशंसा की है-चाहे वे मुसलमान हो या हिन्दू दोनो जातियो मे उनका आदर था, सम्मान था। उनकी वाणी मे प्रभावित करने की शक्ति थी। उनकी वाणी ने समय, वर्ण वर्ग, जाति और समाज के सभी स्तरो को लांघ कर एक रूप से जनता को प्रभावित किया।

साम्प्रदायिक कवियो का काव्य अतिशयोक्ति एव अतिरजना से पूर्ण होता है। फिर भी उन अतिरजनो के मुल मे तथ्य बीज-रूप मे वर्त्मान अव्श्य रहता है, इसमे कोई सन्देह नही। वरमदास (स० १४७५) कबीर के प्रधान शिष्या थे ।कबीर के पश्चात यही गही पर आसीन हुए ।इनके शब्दो मे कबीर अजर- अम्रर व्यक्ति है। प्रत्येक युग मे एक भिन्न -भिन्न नाम धारण करके अवतार ग्रहण करते है। सतयुग मे सतसुकृत नाम था, श्रेता मे मुनीन्द्र , द्वापर मे करुणा तथा कलियुग मे कबीर। कबीर सभी युगो मे माया रहित होकर विराजमान रहे है-

जुगन जुगन लीन्हा अवतारा । रहौं निरन्तर प्रगद प्रसारा ॥
सतयुग सतसुकृत कह टेरा। त्रेता नाम मुनेन्दहि मेरा ॥
द्वापर मे करुना मय कहाये। कलियुग नाम कबीर रखाये ॥
चारो युग मे चारो नाऊँ । माया रहित रहै तिहि ठाऊँ ॥
जो जाघा पहुँचे नही कोई । सुर नर नागर रहै मुख गोइ ॥

( ग्रन्थ अवनारण प्र० ३२३२)

धर्मदास के अनुसार कबीर एक दिव्य पुरुष के रूप मे दृष्टिगत होते हैं। परन्तु इस उद्धरण की अन्तिम दो पंक्तियोँ विशेष ध्यान देने योग्य है। इसमे ज्ञान होता है कि कबीर माया मोह के पाप से उन्मुक्त थे। "जो जाया पहुँचे नही कोइ" और "सुर नर नाग रहै मुख गोइ" वहाँ पर कबीर "माया रहित रहै तिहि टाऊ" कबीर ने जीवन पर्यन्त माया के बन्धनो से दूर रहने का उपदेश दिया है। उनकी
(१४)

वाणियो मे अनेक ऐसे कथन हैं। इस लिए कबीर के विषय मे धरमदास को अंतिम दो पंक्तियाँ मान्ह हैं। नाभादास जी ने भक्तमाल मे लिखा है-

(१)

कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट दरस की|
भक्ति विमुख जो धर्म सो अधरम कर्म गायो|
जोग जग्य ब्रतदान भजन बिनु तुच्छ दिखायो||
हिन्दू तुरक प्रमान रमैनी शब्दी साखी|
पक्षपात नहिं बचन,स्रब ही के हित की भाखी||
अरूढ़ दसा ह्वै जगत पर मुख देखी नाहिन भनी|
कबीर कर्म न राखी नहीं वर्णश्रम ष्ट दरसनी||

(३२७ छप्पय)

(२)

अति ही गंभीर मति सरस कबीर हियो।
लियौ भक्ति भाव जाति पाँति सब टारियै||

(कवित ५१५)

(३)

 बीनै लानौ बानौ, हियै राम मंडरानौ।
कहि कैसे कै बखानौं, वह रीति कछु न्यारियै||

(४)

 उतनोई करै जामै तन निरवाह होय|
भाय गयी श्रौर बात भक्ति लागी प्यारियै||

(कवित ५१३)

इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि (१) कबीर ने चार वर्ण चार आश्रम छ: दर्शन किसी की भी "आनि कानि" नही रक्खी ।केवल भक्ति को ही हद किया। भक्ति से विमुख धर्मो को अधर्म कहा। सतभक्ति से रहित तप, योग, दान व्रतादि तुच्छ वताए। आयं और अनायं, हिन्दू और मुसलमान को सिद्धान्त की वातों का ज्ञान कराया।(२) उनकी मति गम्भीर और अन्त:करण भक्ति से सरस था । वह भजन भाव मे संलग्न रहते थे और जाति पाति एवं वर्णाश्रम मे आस्या नहीं रखते थे ।(३) वे कपड़ा वुनने का उधम करते थे। यधपि बाह्य रूप से ताना-वाना का कायं करते थे, पर अन्त:करण से ब्रह्म मे ही लीन रहते थे।(४) उधम तो केवल उतना करते थे जितने से उनकी जीविका चल 'जाय । इसके सिवाय उनका चित पूर्ण रूपेणा ब्रह्म मे ही लगा रहता था । (५) कबीर अपने सिद्धान्त का समर्थन करना जानते थे ।सिकन्दर द्वारा उत्पीड़ित और पाखंडियो द्वारा अपमानित होने पर भी वे अपने सिद्धान्तों से अडिग रहे । उन्हें सिद्धान्तों से विचलित करने के अनेक उपाय हुए पर वे सभी विफल हो गए । भक्तमाल को इन पक्तियो से कबीर के व्यक्तित्व पर अच्छा प्रभाव पड़ता है ।नाभादास के इस कथन मे कहीं भी कोई अतिशयोक्ति नही उपलब्ध होती है । कबीर के सभी स्वाभाविक गुणो का परिचय इन उद्धरणों से प्राप्त होता है।

अकबर के समय मे अवुल फजल अल्लामी ने आइन-ए-अकबरी की रचना की। इस ग्रंथ मे कबीर के लिए "मुवाहिद" अर्थात "एकता प्रेमी" शब्द का प्रयोग हुआ है । इस ग्रन्थ मे कबीर के विषय मे लेखक ने दो बार उल्लेख किया है। १२६ पुष्ठ पर उनका परिचय देते हुए लेखक का कथन है कि "कबीर मुवाहिद यहॉं विश्राम करते हैं और आज तक उनके कारण और कृत्यो के सम्बन्व मे अनेक विश्वस्त जनश्रुतियॉ कही जाती हैं।वे हिन्दू और मुसलमान दोनो के द्वारा अपने उदार सिद्धान्तों और पवित्र जीवन के कारण पूज्य थे।"पृष्ठ १७१ पर लेखक का कथन है कि"कोई कहते हैं कि रतनपुर (सूत्रा अवध)मे कबीर की समाधि है जो ब्राह्म क्य का मण्डन करते थे । आध्यात्मिक दृष्टि का द्वार उनके सामने अशतः खुला था। उन्होने अपने समय के सिद्धान्तों का भी प्रतिकार कर दिया था।"आइन-ए-अकबरी के इन कथनो से ज्ञात होता है कि कबीर समदृष्टिवान व्यक्ति थे। वे दोनो ही वर्गो मे पूज्य थे और उद्धार सिद्धान्तों के पोषक और प्रचारक थे।

कबिर के गुरु भाई पीपा और रैदास ने प्राय:एक से ही शब्दो मे कबीर का यशोगान करते हुए कहा है:-

जाकै ईद बकरीद नित गठरे बध करै मानिये सेप सहीद पीरां।
बापि वैसी करी पूत ऐसी धरी नाव नवखंड परसिध कबीरा ॥

-पोपा

जाकॅ ईद बकरीदि कुल गठरे बधि करहि,
मानियहि सेल सहीद पीरा ॥
बापि वैसी करी पूत सरी तिहुरे,
लोक परसिधा कबीरा ॥

(रैदास)

दोनो का एक ही कथन है कि मानव का भला और बुरा होना उसके कुल

या जाति पर निभंर नही है। कुलीनता और अभिजात्य का गर्व झूठा है। जिसके कुल मे गोवध होता था,लोग बाह्मआडम्बरो मे लीन थे,उसी कबीर ने ऐसा आचरण किया कि तीन लोक नौ खंड मे प्रसिद्ध हो गया। इन पंक्तियो से कबीर का बिद्रोहात्मक आचरण प्रकट होता है। पीर शहीद,शेख के गुलाम,ईद बकरीद मे ब्रह्म का रूप देखने वाले परिवार मे उत्पन्न होकर कबीर ने भिन्न आचरण किया। इसके अतिरिक्त पीपा ने अनेक स्थलो पर कबीर की बड़ी प्रशंसा की है। उनकी वाणी का एक पद उध्दुत किया जाता है:-

जो कलिमांझ कबीर न होते ।
तौलै-वेद अरु कलिजुग मिलिकरि भगति रसातलि देते॥
अगम निगम की कहि काहै पाउ फला भामोत लगाया।
राजस तामस स्वावक कथिकथि इनही जगत भुलाया॥
सागुन कथिकथि मिला पनाया काया रोग बढ़ाया।
निरगुन नीक पियौ नहीं गुरुमुप तातै हाटै जीव निराया॥
बहता स्त्रोता दोऊ भूले दुनियां सवै भुलाई।
कलि विर्ध्दकी छाया बैठा क्यू न कलपना जाई॥
श्रंध लुकटिया गहि जु अंध परत कूप थित थोरै।
अचंन बरन दोऊ से व्यंजन आपि सबन की कोरै॥
लसे पतित कहा कहि रहेते थे कौन प्रतित मन घरते।
नांनां वानी देवि सुनि स्त्रवन बहौ मारग श्रणसरते॥
त्रिगुण रहत भगति भगवंत कीतिरि,विरला कोई पात्रै।
दया होइ जोई कृपानिधान की तौ नाम कबीरा गावै॥
हरि हरि भगति भगत कवलीन त्रिविधि रहत थित मोहै
पाखंड रुप भेप सव कंकर ग्यान सुपले सोई॥
भगाति प्रताप राएय बेकारन निज जन-जन श्राप पठाया।
नाम कबीर साम साम पर करिया तहां पीपै कछु पाया॥

भारतवर्ष मे धर्म के नाम पर कौन से अनाचार और दुराचार नहीं हुए। कबीर के समय तक धर्म का स्वच्छ सहज रुप अत्यन्त विकृत और विस्मृत हो गया था । ऐसी दशा मे कबीर ने जनता को साधना का जो मार्ग प्रदर्शित किया, वही सब से अधिक कल्याणप्रद था , साथ ही समय की मार्ग पूर्ण करता था । कबीर का व्यक्तित्व इस दृष्टि से बड़ा महत्वपुर्ण है । तथ्य तो यह है कि पीपा की प्रथम दो पंक्तियां कबीर के समस्त महत्व को प्रकाश मे ला देती हैं ।

मिर्जा मोहसिन फानी ने 'दविस्ताने मजाहिव' मे लिखा है कि--

"कबीर जुलाहानजादकि श्रज़ मोवव्हिदान मशहूर हिन्द अस्त ।
मर्दुम बारामानन गुफतन्द दरीशहर जुलाहान जादेम्त ॥"

अर्थात् "भारतवर्ष के जुलाहो मे कबीर प्रसिद्ध अद्वैत ब्रह्म का उपासक था । लोग रामानन्द से कहते हैं कि इस प्रकार के एक जुलाहे का लड़का है जो अपने को आपका शिष्य कहता है।"

गुरुग्रंथ साहब मे सिद्ध सन्तो के साथ काबीर का भी कई बार उल्लेख हुआ है । उदाहरणार्थ :--

( १ )

नाम छीवा कबीरु जुलाहा पूरे गुरते गति पाई ।

(पृ० ५६)

( २ )

हरि के नाम कबीर उजागर जनम जनम के काटे कागर ।

(पृ० २६४)

( ३ )

नाम देव कबीर विलोभनु सधन्न रैनु तरै ।
कहि रबिदास सुनहु से सबहु हरि जी उते समै सरै ॥

(पृ० ५६८)

इन सभी पंक्तियों से कबीर की भक्ति भावना पर प्रकाश पड़ता है । इसमे कोइ शका की बात नही है कि कबीर ने सवंप्रथम भारतीय समाज मे साधना के सब पथ और वाध्याचार के भेद दिखा कर जनता को नि:सार बातो से दूर रहने के लिये उपदेश दिया था । ज्ञात होना है कि वे दीन दुखियो की निरन्तर सेवा किया करते थे । कितने ही व्यक्तियो को वे अपने घर का सामान उठाकर दे देते और उन्हे संकट से उनमुक्त करते थे । चरणदास को निम्नमलिखित पक्तियां कबीर के चरित्र के उज्ज्वल पक्ष की उद्घाटिका है :--

दास कबीरा जाति जोलाहा , भये संत हितकारी ।

फ० ना० फा० ---२ एक स्थल पर चरणदास ने उन्हे आध्यात्मिक क्षेत्र के सुरमो मे विशिष्ट स्थान प्रदात किया --

कबीर दादू घने पहिर भक्तर बने ।
नामदेव सारिखे बहुत कूदे ॥
सैनसदना वली भक्त पीपा बड़ो ।
राम की ओर कूं चले सूघे ॥

माया से युद्ध करते हुए राम की ओर कूं सूघे चलने वालो मे कबीर का वास्तविक विशिष्ट स्थान है दयाबाई और धरणीदास ने कबीर को श्रेष्ठ भक्त और साधक मान है । उद्धरण के लिए उनकी बानियो के संग्रहो के क्रमश: पृ० २२ तथा पृ० १३, ३३ को देखा जा सकता है ।

ऐसा अनुभव होता है कि गरीबदास और धनी धमंदास कबीर से विशेष प्रभावित थे । गरीबदास ने कबीर और उनके स्वभाव तथा व्यक्तित्व के विषय मे बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ उल्लेख किया है । बात यह है कि कबीर को गरीबदास अपना गुरु मानते थे और इसलिये उनको दृष्टि मे कबीर का बड़ा ऊंचा स्थान था । गरीबदास की बानी (पृ० १० से १६ तक) मे कबीर के सतजुगणो का उल्लिख हुआ है । गरीबदास के अनुसार कबीर माया से रहित, स्वच्छ हृदय वाले ज्ञानवान शून्य का तत्व समभ्कने वाले गगन मन्डल मे विचरने वाले सुरत सिन्धु के गीत रचने वाले, आनन्द के उद्गम, ज्ञान और भक्ति की साकार मूर्ति मनुष्यो मे हंस, जीवित जगदोश , चार वेद छँ शास्त्र और १८ बोध के प्रकाण्ड पंडित, न्यायप्रिय जगद्गुरु शांति प्रिय , मोह और माया के विनाशक , कर्म की रेख मिटाने वाले, भक्तो के सरदार, अलख को लखने वाले, सुन्नीशाखा पर निवास करने वाले और भंवर गुफा मे रमने वाले थे । गरीबदास की दृष्टि मे कबीर समस्त सन्तो मे श्रेष्ठ हैं --

ऐसा सतगुरु हमें मिला सुरत सिन्धु के तीर ।
सब संतन सिरताज है सतगुरु अदल कबीर ॥

गरीबदास ने कबीर के स्तबन मे प्राय: सौ साखियो की रचना की है और इन साखियो मे कबीर को बडा सम्मान और गौरवपूर्ण स्थान प्रदान किया है । शायद ही किसी ने कबीर के विषय मे इतने विस्तार से लिखा हो । कबीरदास का अपने निरालेपन और फक्क्ड़पन के कारण, स्पष्टवादिता और अप्रिय सत्य कथन के कारण बढा विरोध हुआ । संत कवि मलुकदास भी इन से बहुत प्रभवित थे । इन को धर्मिक विचारधारा और सिद्धान्तों मे कबीर की वाणी लहरें ले रही हैं। उन की वाणियो मे कबीर् के प्रति बड़े ही सम्मानसूचक शब्दो का प्रयोग हुआ है । सुमीरन प्रकरण मे मलूक कबीर का आदर्श जनता के लिय प्रस्तुत करते हैं- उनका कथन है कि "सुमिरन ऐसा कीजिए जैसे दास कबीर ।" यह इस बात का द्योतक है कि कबीर ने साधना बड़ी लगन से की । साधना मे लगन और तत्परता के लिए कबीर मध्ययुगीन सन्तो मे सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं । इसलिए मलूकदास का उन्हें इस दिशा मे आदर्श मानना असंगत नहीं प्रतीत होता । मलूक को कबीर की सिद्धि पर विश्वास था जैसा कि निम्नलिखित प्ंक्तियो से ज्ञात होता है --

 हमारा सतजुरु बिरले जानै ।
सुई के नारे सुमेर चलावै सो यह रुप बखानै ॥
कीवौ जानै दास कबीरा कि हरिनावस पूता ।
की तौ नामदेव और नानक की गोरख ॠवुधता ॥

इन पक्तियो के कबीर को प्रहलाद और गोरखनाथ आदि साधको के समान पद पर व्यक्त किया गया है। यह भी उनके गौरव का द्योतक है ।

दुखहरनदास मूलक पथी थे । पर कबीर् से वे भी कम प्रभवित नहीं थे । संसार् की विधितओ को शान्त करने वाले मे जहां उन्होने गोरखनाथ नानक और मलूक के नाम गिनाये हैं, वही उन्होने कबीर के महत्व को भी अंकित किया है । देखिए --

जस कबीर जस गोरख जस नानक जस व्यास ।
तास कलीमल जग हरन को प्रगटे मलूकदास ॥

(कूपावती-- एक अप्रकाशित ग्रन्थ से)

इन पंक्तियो मे मलूक को कबीर के समान व्यक्त करके उन्हे भी महान सिद्ध् किया गया है । फिर भला कबीर के महान व्यक्तित्व के लिये क्या कहा जाय ।

कबीर को ध्रुव ,प्रहलाद और विभीषण के समान , हनुमान और अंगद के समान दास तथा रामानन्द और ननक के समान भक्त मान्ने वलो मे शिवानारायण सहाब विशेष उल्लेखनिय हैं । उनकी निम्नाकित प्ंक्तिया उल्लेखनीय है :-

घ्रुव प्रहलाद विभीषण धीरा । पांडव पांचव धरे शरीरा ॥
हनूमान ,अंगद और आनी । यही विधी प्रीति करै सय जानी ॥
रामानन्द कबीर गुसाई । नानक नाम जान एक साई ॥

                          ( २० )
                          
    एक से एक समान भये , भगत यही संसार ।
    गुरु ऋन्यास सुनायहु , जो मोहि भक्ति पियास ।
                               (गुरुन्यास -- एक अप्रकाशित रचना से )
                               
     आध्यात्मिक पक्ष मे कबीर की महता को स्वीकार करने वाले चरण्दास ने नागरिकता के उज्जवल पक्ष का चित्रण भी किया है । कबीर उपकारी , परोपकारी व्यक्ति थे । उनके जीवन-च्ररित्र से मुक्ति का मार्ग खोजने वाले पंडितो और मुल्लओ को कबीर का यह नया प्रकाश कभी भी स्वीकार नही था । कबीर के सत्यावर्णो , उच्चादर्शो का वर्ग ने बड़ा उपहास किया । देखिये गरीब दास की ये पंक्तियो इस बात को स्प्ष्ट करती हैं :- 
     
            याभी मर्द कबीर है जगत करै उपहास ।
           कैसो वनिजारा भाया , भगत बड़ाई दास ॥
           
       गरीबदास कबीर को धर्म , समाज और आध्यात्मिक क्षेत्र मे एक महान क्रांतिकारी मानते थे । इतना ही नही वे कबीर को ज्ञान के क्षेत्र मे चक्रवर्ती मानते थे :-
         ऐसा निरमल नाम है,निरमल करै सरीर|
         त्रौर ज्ञान मंडलीक है,चकवै ज्ञान कबीर ||                                                                                                                                                                                                                                    
 इसके पश्चात कबीर के विषय मे कहने के लिये क्या कुछ और  रह जाता है ।
 
    धनी धर्मदास ने कबीर को अपने युग का महापुरुष माना है। उनके अनुसार ऎसे महापुरुष बड़ॆ सौभाग्य से मिलते है । उनका संसर्ग आवागमन से मुक्त होने वाला है । (पृ० ४३ ) समान्य रुप से घमंदास ने कबीर को एक महान संत माना है ।
 
 कबीर के विषय मे संतो के उपयुक्त कथनो को पढ़ जाने के पशचात् कबीर के चरित्र और व्यक्तित्व को समस्त विशेषताऍं स्पष्ट हो जाती हैं ।
 
 समस्त सतो का कबीर के व्यक्तित्व के विषय मे मत साम्य है । सभी का मत है कि वे युग के श्रेष्ठ साधक थे और उन्होने उस मधुर ज्योति के दर्शन कर लिये थे कि समस्त संसार आलोकित है । प्राय : सभी संत कवियो ने कबीर को गोरखनाय और रामानन्द के समकक्ष स्थान दिया है । कबीर की लोकप्रियता पर सभी का एक मत है ।
 
कबीर का आविर्भाव काल -- भारतीय जन -जीवन की परम्परा बड़ी महान रही हैं । हमरे देश के महाकवियो ने सहस्त्रो पदो , छन्दो और पृष्ठो  की रचना  के बाद  भी अपेने भी विषय मे एक भी शब्द का उल्लेख नहीं किया । समस्त । रचना को कृष्णार्पण करके निवृत्त हो जाने वाले कवियों ने अपने सम्बन्ध में किंचित मात्र भी उल्लेख नही किया। कबीर इसी परम्परा के अनुयायी थे। कबीर की कविता अन्तरसाक्ष्य बहुत कम प्राप्त होता है अन्तः साक्ष्य के आधार पर वे सिकन्दर लोदी के समकालीन प्रतीत होते हैं।

निम्नलिखित विद्वानों ने कबीर को सिकन्दर लोदी का समकालीन माना है।

लेखक का नाम कबीर का समय सिकन्दर लोदी का समय
(१) बील जन्म सन् १४९०
(संवत् १५४७)
यही समय
(२) फरकहार सन् १४००–१५१७
(संवत् १४५७–१५७५)
सन् १४८९–१५१८
(संवत् १५४६-१५४७)
(३) हंटर सन् १३०३-१४२०
(संवत् १३५७–१४७७)
नही दिया।
(४) ब्रिम्स नही दिया सन् १४८८–१५१७
(संवत् १५४५–२५७४)
(५) मेकालिक सन् १३९८–१५१८
(संवत् १४५५–१५७५)
सिंहासनासीन
सन् १४८८
(संवत् १५४५)
(६) बेसकट सन् १४४०-१५१८
(सवत् १४९०–१५७५)
सन् १४९६
(संवत् १५५३)
(जौनपुर गमन)
(७) स्मिथ सन् १४४०-१५१८
(संवत् १४९७–१५७५)
सन् १४८९-१५१७
(संवत् १५४६–१५७४)
(८) भंडारकर सन् १३९८–१५१८
(संवत् १४५५–१५७५)
सन् १४८८-१५१७
(संवत् १५४५–१५७४)
(९) ईश्वरी प्रसाद ईसा की पंद्रहवी शताब्दी सन् १४८९–१५१७
(संवत् १५४६–१५७४)

इस प्रकार कबीर का जन्म संवत् तेरहवी शताब्दी के अन्त या चौदहवी शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर संवत् १८८२ के मध्य में होना चाहिए। कबीर की जन्म तिथि के सम्बन्ध में निम्नलिखित मत हैं।:—

(१) कबीर चरित्र बोध १४५५ विक्रमी जेठ सुदी पूर्णिमा दिन सोमवार।

(२) डा॰ श्याम सुन्दर दास का विश्वास है कि कबीर को जन्म तिथि के सम्बन्ध में कबीर पंथियों में प्रचलित यह दोहा सत्य है।

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार इक ठाट ठए।
जेठ सुदी घरसायत को, पूरनमासी प्रगट भए॥

कबीर रामानन्द के शिष्य थे। डॉ॰ मोहन सिंह, डॉ॰ राम कुमार वर्मा, डॉ॰ श्याम सुन्दर दास इस सम्बन्ध मे भक्त माल से मत साम्य रखते हैं। रामानन्द का जन्म समय संवत् १३७५ निश्चित किया गया है।

कबीर की मृत्यु—कबीर का निधन कब हुआ यह भी रहस्य बना हुआ है। धर्मंदास के अनुसार उनका महा प्रयाण काल १५६९ भक्तमाल की टीका के अनुसार उनका मृत्यु समय संवत् १५४९ है और जनश्रुति के अनुसार कबीर १५७५ में दिवंगत हुए।

कबीर की रचनाएँ—कबीर के नाम पर निम्नलिखित एकसठ रचनाएँ उपलब्ध है:—

(१) अगाध मंगल।
(२) अठपहरा‌
(३) अनुराग सागर।
(४) अमर मूल।
(५) अजंनाम कबीर का।
(६) अलिफनामा।
(७) अक्षर खंड की रमैनी।
(८) अक्षर भेद की रमैनी।
(९) आरती कबीर कृत।
(१०) उग्र गीता।
(११) उग्र ज्ञान मूल सिद्धान्त-दश मात्रा।
(१२) कबीर और धर्म दास को गोष्ठी।
(१३) कबीर की बानी।
(१४) कबीर अष्टक।
(१५) कबीर गोरख की गोष्ठी।
(१६) कबीर की साखी।
(१७) कबीर परिचय की साखी
(१८) कर्म काण्ड को रमैनी।

(१९) काया पंजी।
(२०) चौका पर की रमैनी।
(२१) चौंतीसा कबीर का।
(२२) छप्पय कबीर का।
(२३) जन्म बोध।
(२४) तीसा जन्त्र।
(२५) नाम महातम की साखी।
(२६) निर्भय ज्ञान।
(२७) पिय पहचानवे कौ अंग।
(२८) पुकार कबीर कृत।
(२९) बलख की फैज।
(३०) बारामासी।
(३१) बीजक।
(३२) ब्रह्म निरुपरण।
(३३) भक्ति का अंग।
(३४) भाषी षंड चौंतीस।
(३५) मुहम्मद बोध।
(३६) मंगल बोध।
(३७) रमैंनी।
(३८) राम रक्षा।
(३९) राम सार।
(४०) रेखता।
(४१) विचार माला।
(४२) विवेक सागर।
(४३) शब्द अलह टुक।
(४४) शब्द राग काफी और फगुआ।
(४५) शब्द राग गौरी और राग भैरव।
(४६) शब्द वंशावली।
(४७) शब्दावली।
(४८) संत कबीर वंदी छोर।
(४९) संतनामा।
(५०) सत्संग कौ अंग।

(५१) साधो कौ अंग।
(५२) सुरति सम्वाद।
(५३) स्वास गुञ्जार।
(५४) हिंडोरा वा रेखता।
(५५) हंस मुक्तावली।
(५६) ज्ञान गुदड़ी।
(५७) ज्ञान चौंतीसी।
(५८) ज्ञान सरोदय।
(५९) ज्ञान सागर।
(६०) ज्ञान सम्बोध।
(६१) ज्ञान स्तोत्र।

 

विश्व सहित्य के श्रेष्ठ कवियो मे,महाकवियो मे प्रतिभा-सम्पन्न सहित्य कारो मे,और उत्कृष्ट क्रन्तिकारी धर्मिक एवं सामाजिक नेताओ में,कव्य जगत मे नाना प्रकार के अभिनव,प्रतिमान संस्थापको मे,तथा मानव-जीवन के सूक्ष्म पर्यलोचोको मे कबीर पंथ के प्रवतंक,प्रबल आलोचक,प्रकाण्ड दार्शनिक ,प्रशिष्ठ स्पष्टवादी,तथा युग प्रवर्तक मानव,महामानवकवि महाकवि,और असाधरण जनवदी,विचारक तथा समाज सुधारक कबीर का स्थान विशिस्ट है। कबीर की कविता,रचना,प्रतिपद की आत्मा अप्रस्तुत योजना,भावपक्ष,कला पक्ष,मस्तिष्क पक्ष सभी कुरग अति यथार्थ,अतिवास्तविक, और अति सुपरिचित प्रतित होता है। कबीर के कव्य मे सहजता,सरलता, स्पष्टता,सुलभता और संवेदनात्मकता सहसा,शिक्षित,अशिक्षित,अध्दशिक्षित सभी के ह्रदय और मस्तिष्क को अपनी ओर आकर्षीत कर लेते है। जीवन और जगत को कबीर ने बहुत निकत,बहुत गहराई,बहुत गंम्भीरता और बहुत गौर से देखा था। आत्मानुभूति,आत्म चिन्तन,आत्म-मनन के आधर पर प्रस्तुत किये हुए कबीर आत्म कथन इसीलिये अति प्रभावशाली,अधिक प्रभावशाली,अधिक मर्मस्पर्शी और अधिक सजिव है। कबीर ने जो कुछ देख,उसे वाणी के मध्यम से यथातथ्य रुप में व्यक्त कर दिया। और इसीलिए कबीर ने रुढ़िवादी पंडितों,प्रदर्शन प्रिय सहित्यकरो,प्रचारको और अधिकसजीव हैं। कबीर ने जो कुछ देखा,उसे वारणी के माध्यम से यथथय रूप मे व्यकत कर दिया। और इसिलिये कबिर ने रूढिवदि पंडितों ,प्रदर्शन प्रिय सहित्यकारो, प्रचारकों और कवियों को चुनौती देते हुए कहा "तू कहता है कागद देखी, मै कहता हूं आंखो देखी" स्पष्ट है कि कबीर की कविता रचना, विचारधारा चिन्त्तत और प्रकाशन का आधार सत्य है, चिरन्तन सत्य है, शाशवत है। क्योकि कबीर सत्य को जीवन का आधार मानते है । कबीर की दृष्टि मे "सांच बराबर तप नहीं भूठ बराबर पाप। जाके हिरदे सांच है ता हिरदे गुरू आप"।

कबीर ने इसी सत्य की नीव पर जीवन, जगत और सहित्य को जिन भित्तियो का निर्माण किया वे बड़ी ही लोककल्यणकरि,आल्हादकारी और समन्वयकारी हैं। कबीर की कविता का हेतु,प्रयोजन,वण्यं विषय अथवा प्रतिपाध मानव है। काव्य की भूमिका मे उतर कर कबीर ने मानव-जीवन और समज का चित्रण,विवेचन और विश्लेषण किया है वह बहुत हो विशिष्ट है है। कबीर के सम्पूण कव्य का परायण कर जाने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे आलोचक कवि ने मानव-जीवन को बहुत ही निकट से देखा था। मनुष्य की समर्थ्य,अभावो,हीनताओ से कबीर भली भांति परिचित थे। उनके वण्यं विषय विश्वास, धैर्य, मे औदार्य,दैन्य, शील,विवेक,संतोष विचर जैसी प्रवृत्तियो मानवीय भावो पर सविस्तारविचार प्रकट किए गए हैं। मनुष्य क्या है,कैसा है,उसका वास्तविक रुप कैसा है,इस सम्बन्ध मे कवि ने अपने विचारो को चेतावनी,भेष,कुसंग,माया,मन,कपट,तृष्णा,अह्ं,लोभ,परनिन्दा, भेदभाव,और असत्य आदिश शिषको मे व्यक्त किये है। इन विषयो पर अभिव्यक्त भावो और विचारों का अध्ययन और विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि मानव कितना हीन और अपदस्य है। मानव पंच महाविकारो,आशाओ,और तृष्णाओन से प्रपीड़ित है। मानव सुलभ दुर्बलतायें,प्रत्येक मानव को दिग्भ्रान्त किये हुए हैं। इस प्रकार कबीर का सम्पूर्ण काव्य मानवीय प्रवृत्तियो का रोचक लेखा-जोखा है। कबीर की कविता जल-जीवन,मानव-जीवन के धरातल को प्रत्येक स्तर पर संस्पर्शों करती है। चाहे वह सामाजिक वण्यं विषय हो अथवा आध्यात्मिक,दाशनिक हो अथवा रहस्यवाद से सम्बन्धित हो,सभी क्षेत्रो मे कबीर मानव को हीनताओ,क्षुद्र्ता,और निम्न प्रवृतियों से ऊपर उठाकर आध्यात्मिकता,सामाजिकता एवं वृह्त्तार मानवता के उच्च घरातल पर प्रतिष्ठित और आसीन करने के लिये प्रयत्नशील है। मानवता के इतिहास में मानव समाज के कितने भी हिमायती उत्पन्न हुए हैं उनमे से कबीर का स्थान बड़ा उच्च और स्मृहणाय है। इसका कारण यह है कि कबीर ने जिन अनुभवो को हृदयगम किया वे सब यथार्थ और वास्तविक है। इसीलिये कबीर ने दया,विश्वबन्धुत्व और प्रेम की भावना पर विशेष जोर दिया है। कबीर ने मानववतावदी भावो से अनुप्राणित होकर कहा:-

दया दिल में राखिये,तू क्यों निरदयी होय।
साई के सब जीव है, कीडी कुंजर सोय।

दया,उदारता और क्षमा के सम्बन्ध मे कबीर ने अनेक युक्तपूणं उक्तियो को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। कबीर ने दान और क्षमा इन दो उदान्त अलौकिक गुणों के सम्बन्ध मे जाने कितनी साखियो की रचना की जिनमे से दो यहा उद्धृत की जाती है।

( १ )

दान दिये धन ना घटे, नदी न घटे नीर
आपनी आँखो देखिये,यो कीत कहे कबीर ।

( २ )

जहाँ दया तहाँ घर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ काल, जहाँ क्षमा तहाँ श्राप ।

इन पंक्तियों मे घर्मं का बडा उदान्त, व्यापक और जन कल्याणकारी रूप व्यक्त हुआ है । दया कबीर के समस्त दर्शन सिद्धान्तो और उपदेशो का सार तत्व है । कबीर को कविता की भावभूमि की एक भलकथनपयुक्त उद्धरणों से प्राप्त होती है । इसी प्रकार के महान विचार, महान सन्देश, और तत्व एव तथ्य पूर्ण कथन कबीर की कविता की विशेषतायें है । कबीर की कविता मे महान संदेशो की अभिव्यक्ति हुई है । सभ्यता, संस्कृति वैज्ञानिक प्रगति, सामाजिक मान्यताओ और लौकिक जीवन के मानदण्डो मे कितने ही परिवर्तन समुपस्थित हो जांय परन्तु कबीर के संदेश अनुभूतिपुण कथन कभी भी जूठे नही पड़ेंगे । यह अभिनवता वर्ण विषय की यह शास्वतता इसलिए है कि कबीर की अनुभूति जीवन सत्य और प्रत्यक्ष जगत से ग्रहीत हुई है । कबीर के यह शब्द कभी फीके नही पड़ेंगे और इनका प्रभाव सीधे मानवीय ह्रदय पर पडता है ।

कबीर की भव भूमि मानव के समाजिक,धार्मिक, आर्थिक और आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धित है कबीर समाज के सूक्ष्म पर्यालोहचक थे । उनके लिए समाज और धर्म मानव-जीवन के दो अभिन्न पक्ष है । समाज, धर्म का आधार लेकर ही फूलता फलता और आगे बढ़ता है, और धर्म समाज का पुरक है । तात्पर्य यह है कि दोनो अन्योन्यश्रित है । सत्य, सामाजिक और धार्मिक गुण है । विश्वाम्, धैर्य, दया,क्षमा, सन्तोष, दैन्य, शील, विवेक आदि जितने सामाजिक गुण है उतने ही धार्मिक । कबीर ने इसीलिए इन पर बडे विस्तार के साथ विचार प्रगट किया है । सम दृष्टि और समता मानव के लिये बड़े वरदान है । और कुसग मानव दया वनस्पति व पशु जगत के लेये भी समत रुप से दुखप्रद है । जनसुलभ अप्रस्तुत योजना के द्वारा कबीर ने अपने समय के कुसग से अभिशप्त मानव समाज को सम्बोधित करते हुए कहा-
(१)

केल तबहि न चेतिया, जब ढिंग जागी बेरि ।
आपके चेते क्या भया, कांटों लीन्हा घेरि ।

(२)

बुद्धि बिहूबा आदमी जाने नहीं गवांर ।
जैसे कपि परवस परयौ नाचै घर- घर वार ।

और व्यर्थ ही सतर्स गये रत कठोर हृदय वाले व्यक्तियो को सम्बोश्रिनत करते हुये कबीर ने 'संगति भई तो क्या भया, हिरदा भया कठोर । नौ नेजा पानो चढौ तऊ न भीजौ कोर ।' भेष वाह्राडम्बर, दुविधा, असत्य, अन्तोष जैसे 'दुर्गणो' जो सामाजिकता के लिए अभिशाप है, की कबीर ने कटु निन्दा की । कबीर "जस की तस धरि दीनी चदरिया' मे विश्वास करते थे । यह मानव शरीर रुपी चदरिय का उपयोग यत्न पूर्वक ही करना चाहिए और इस चदरिया का यत्न पूर्वक प्रयोग करना ही सबसे बड़ा सामाजिक गुण है । कबीर का काव्य मानव जीवन , मानव समाज और व्यक्तकी प्रत्येक दिशा का स्पर्श करता है । तभी तो आलोचको ने कहा कि कबीर मानव जीवन के सुक्ष पर्यावलोचक थे । वास्तनव मे कबीर की कविता मे मानव जीवन के विविध पक्ष, प्रवुन्तियो, भावनाये व्यक्त हुई है । मनुष्य कैसा है और उसे कैसा होना चाहिये यह कबिर की कवीता मे बहुत ही स्पष्ट रुप से , बहुत हि सुक्ष्म रुप से चित्रित हुआ है । कबीर मानव के बड़े हिमायती और सवेदनशील थे । उनकी कविता मे समाज की असंगतियो मानव जीवन को कुरूपताओं, धर्मगत विषमताओ और चतुर्दिक व्याप्त विडम्बनाओ का व्यापक चित्रण हुआ है । कबीर ने अपने काव्य का विषय इन्ही के आधार पर चित्रित किया है और इसीलिए मानव जीवन और परिस्थितियो के चितेरे कबीर का चित्रिपट बहुत व्यापक है । इन समस्त असंगतीयो के मध्य मे कबिर ने समन्वय संस्थापित करने की चेष्टा की । कबीर का समन्वय अदभुत, अनोखा और अद्वितीय है । यह समन्वय न तो विभिन्न वादो मतमतान्तरो और दर्शनो से सग्रहित विचार घारा के सुन्दर सुमनो का समुच्चय है न वह किसी प्रकार का समभौता है और न किसी यथार्थ से पलायन है । यह समन्वय तत्कालीन प्रिस्थ्ततियो और विषमताओ से अनुप्रागित होकर सस्थापित किया गया है । युगों से कुलीन और अन्त्यज, हिन्दू और मुसलमान वर्णें और वर्गों के मध्य मे विषमतायें चली आ रही थी । कबीर ने इनके मव्थ से समन्वय सस्थापित करने की चेष्टा की । कबीर के समन्यत्राद का मुलाधार परम तत्त्र है । यही परमतत्व समस्त मानव समाज का कर्त्ता है । मनुष्य दर्शनो और वर्णो के भ्रमों मे भटकता फिरता है । परन्तु वास्तविकता कुछ दुसरी है ।

जोगी गोरख गोरख करे;
हिन्दू राम नाम उच्चारि ।
मुसलमान कहे एक खुदाई,
अलह राम सति सोई ।

इसी प्रकार साधनात्मक जीवन की विषमताओ की ओर भी कबीर ने समन्वयात्मक दृष्टि से देखा । ब्रह्म कि सम्बन्ध मे कबीर ने इसी प्रकार जो चित्र अंकित किया वह समन्वयात्मक है।

वो है तैसा वोही जाने,ओही साहि आहिनही,आने|
नैनां बैन अंगोचरी, अबनां करनी सार|
बोलन के सुख कारने,कहिये सिरजनहार||

समन्वय की भावना से ही प्रेरित होकर कबीर ने कहा कि-

हंसा पय को कढि ले,और नीर निखार|
ऐसे गई जो सार को,सो जन उतरे पार||

कबीर की भाव भूमि दार्शनिकता का प्रखर रग और प्रभाव परिमलक्षित होता है । अदैवत व्रत,अनश्वर आत्मा अतिशय नश्वर ससार क्षणिक जीवन् ये सब एक एक कर कबीर की कविता मे व्यक्त हुए है।

कबीर का वर्ण विषय सत्य,वास्तविकता और यथार्थ से परिपोपित है। उनकी सधानात्मक सामाजिक,घार्मिक और दाशनिक अत्यन्त अत्यन्त यथार्थ है और उनका आधार प्रस्तुत अथवा प्रत्यक्ष है। दार्शनिक,और आध्यात्मिक का विश्लेषण भी कबीर ने बड़ी रोचक और प्रभावशाली मे किया है। उदाहरण के लिये यहाँ पर कतिपय साखियां उद्धृत की जाती है।

(१)

 यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरै या साथि|
डबका लागा फूटि गया,कछू न आया हाथि|

(२)

कस्तूरी कुंडली वसे मृग ढूंढे वन माहिं|
ऐसे घट घट राम है,दुनियां देखे नाहि|

(३)

पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जाति,
एक दिन छिप जाहिंगे,तारे ज्यु परिभात|

कबीर की कविता का वर्ण विषय स्पष्ट और हृदयग्राही है ज्ञान,विज्ञान जिन बातो का उल्लेख कबीर ने किया है वे बड़ी ही स्पष्ट है और स्पष्ट होने के कारण उनका विषय हमरे ह्रदय और मस्तिष्क को स्वयंम कर लेने से पुण सक्षम है से । कबीर ने अपने काव्य की रचना जनता के निम्न वर्ग के लिये कि थी।
(३०)

और इस वर्ग के लिए कबीर ने जिस अभिव्यंजना माध्यम को चुना वह बढ़ा ही सहज है। कतिपय उलट वासियो को छोड़ कर उनका समस्त काव्य बहुत सरल और सहज है‌। शृंगार नश्वरता,विरह और संयोग जैसे विषयो को कबीर ने बड़ी सरलता के साथ सरल भाषा के माध्यम से जनता के समक्ष उपस्थित किया।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से सुस्पष्ट हो जाता है कि कबीर की कविता की भावभूमि मे जनकल्याणकारी और लोक रंजनकारी है।कबीर की कविता मे कला पक्ष नगण्य है जो कुछ मह्त्वपूर्ण है वह हैं कबीर की भाव भूमि,कबीर का भावपक्ष,कबीर का वण्य विषय अथवा कबीर का सदेश। और इसमे सन्देह है कि कबीर अपने भावभंग के साथ पाठक अथवा श्रोता को सफलतापूवंक बाहर ले जाते है। झांझ,मंजीरा अथवा एकतारे पर गाये जाते हुए कबीर के पद हमे आत्म-विभोर कर देते है और यही कवि की सफलता है। कवि का सौभाग्य है या कवि का गौरव है। सन्त कबीर सन्तमत प्रवर्तक एवं सस्थापक थे। सन्तमत के अन्तर्गत ह्रदय उदात्त भावना भत्ति एव साधना की चरम अभिव्यत्ति हुई हैं। उसमे ह्रदय की स्वाभाविक प्रेरणा की झलक विध्यमान है। सन्तमत बहुजन हिताय, स्वच्छ्न्द एवं नैमर्गिक है। सन्तमत के सम्बन्धित साहित्य मे कृतिमता का अभाव है। काव्य की सरलता एव सहजता ही उसकी विशेषता है। इस साहित्य मे सन्तो के महान व्यक्तित्व, निर्मल हृदय था उनकी जनहित की भावना प्रतिविम्बित होती है।मध्ययुगीन साहित्य की विशेषताओ का उल्लेख करते हुए डाँ० रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि 'मध्य युगेर साधक कबीरा हिन्दी भाषाएं जे भाव रसेर ऐश्वर्य विस्तार करियाध्ने ताहर मध्ये असमान्य विशेषत्व अच्छे सेई विशेषत्व एइ जो ताहादेर रचनाय उच्च अगरे साधक एव उच्चे अगेर कवि एकग्र मिलित होइयाद्धेन एमन मिलन सर्वत्रइ दुर्लभ (सुन्दर ग्रन्थावली प्राक्कथन-सम्पादक पुरोहित हरिनारायण शर्मा) अथति मध्य युग के साधक एव कवियो ने जो भाव एवं रस का विस्तार किया है उसमे असामान्य विशेषता अकित है) वह विशेषता यह है कि उस रचना मे उच्च श्रेणी के साधक तथा उच्च श्रेणी के कवि का सम्मिलन है इस प्रकार का सम्मिलन स्वांग दुर्लभ है। सन्तमत का काव्य-साहित्य बहुत स्वतंत्रता तथा प्रभावशाली है। सन्तम्त के समस्त कवियो मे कवि कबीर सबसे अधिक प्रतिभाशाली एव मौलिक थे। मौलिकता तथा प्रतिभा मे तो कबीर हिन्दी साहित्य के सूर्य एव चन्द्र' सूरदास तथा तुलसीदास से कही अधिक बढे हुए धनी हैं।कबीर जिस कुल मे उत्पन्न हुए या कबीर का जिस कुल मे पालन-पोषण हुआ वहा न कोई सांस्कृतिक परम्परा विद्यमान थी न अध्ययन का वातावरण था न वेदशास्त्र की चर्चा। कबीर ने स्वयं कहा है कि "मसि कागद छूया नही कलम गध्यो नहि हाथ" ऐसे वातावरण मे उद्भूत होकर, परिपालित होकर कबीर धर्म सुधार, समाज परिष्कार तथा काव्या रचना के क्षेत्र मे अवतरित होकर, अपनो मृत्यु के अनन्तर ५०० वर्षो तक चर्चा मनन, अध्ययन, आलोचना और अनुसन्धान के विषय बने रहे यह कबीर का अत्तितीय प्रतिभा तथा मौलिकता का परिचायक है। कबीर ने काव्य रचना का वर्ण नही लिया था, न कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके उन्होने कही पर कुछ लिखा है। फिर भी पाँच सौ वर्षो से कवि या महाकवि के रूप मे अध्ययन के विषय बने हैं। कबीर को,रोनि कालीन कवियो की भांति पिंगल और अलंकारो का ज्ञान नहीं था न इनके आधार पर उन्होने काव्य रचना ही की तथापि उनमे काव्यानुभूति इतनी प्रबल एवं उत्कृष्ट थी कि वे सरलता के साथ महाकवि कहलाने के अधिकारी हैं। सत्य यह है कि कविता मे छ्न्द, अलंकार, शब्दशाक्ति आदि गौण है, और संदेश प्रधान है। यही संदेश कबीर की कविता की विशेषता है। कबीर की कविता मे महान संदेशों की अभिव्यक्ति हुई है। सभ्यता और संस्कृति चाहे कितनी ही विकसित हो जाय पर कबीर के ये संदेश कभी न फीके पड़ेंगे न समय की गति मे पुराने (या आउट आफ डेट) पड़ेंगे। इन सन्देशो मे आनेवाली पीढ़ियो के लिये प्रेरणा, पथ प्रदर्शन तथा संवेदना की भावना सन्निहित है। महाकवि का यही दायित्व है कि वह अपनी सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा आने वाली पीढियो को भावि मनोवृत्ति का आसानी के साथ अनुमान लगा ले और तदनुकूल साहित्य की रचना करे। कबीर मे यह शक्ति विध्यमान थी। अलंकारो से सुसज्जित न होते हुए भी कबीर के सन्देश काव्य-मय है। सच यह है कि काव्य की मर्यादा जीवन की भावात्मक एवं कल्पनात्मक विवेचना मे हैं, पिंगल मे नही। इस दृष्टि से कबीर एक अत्यधिक सफल कवि हैं। कबीर भावना की अनुभूति से मुक्त, उत्कृष्ट रहस्यावादी,जीवन का सवेदनशील सस्पर्श करने वाले और मर्यादा के रक्षक कवि थे। कबीर की काव्य कला का मूल्याकन परम्परागत पिटी-पिटाई रस, छन्द, अलंकार की कसौटी पर नही होना चाहिये। उन्होने स्वत: कहा है "तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रह्मा विचार 'तथा' कवि ने कविता मुये। उनकी कविता का लक्ष्य मानव है। पथ-भ्रष्ट, मार्ग-विभ्रात जनता तथा समाज को उचित मर्ग पर लाना ही कबीर के पूरी पूरी विवेचना हमारे समक्ष प्रस्तुत करने मे असमर्थ हैं। कवि के रूप मे कबीर जीवन के अत्यन्त निकट हैं। उनके काव्या मे रीतिकालीन अचार्यो जैसी कलबाजी तो नही है पर निश्चय ही उनकी कला उनकी स्पष्टवादिता तथा स्वाभाविकता मे है। स्वाभाविकता कबीर के काव्य की सबसे बडी शोभा और कला की सबसे बडी विशेषता है। कबीर के काव्य का आधार स्वानुभूति या यथार्थ है। उन्होने स्पष्ट रूप से कहा कि "मैं कहता हूँ आंखिन देखी? तू कहता है कागद की लेखो" कबीर अत्याधिक प्रगति-शील कवि थे। कवि, चिन्तक, दार्शनिक, समाज सुधारक, धर्म सुधारक तथा रहस्यवादी के रूप मे वे अपने समय से बहुत आगे और सक्रिय थे। क्षमना, विद्रोह, विश्वबन्धुत्व की भावना ने हमारे कवि को बड़ा उदार और जनप्रिय बना दिया था। साराशं यह कि कबीर जन्म से विद्रोही, प्रवृत्ति से समाज-सुधारक कारणो से प्रेरित होकर धर्म-सुधारक, प्रगतिशील दार्शनिक और अवश्यकतानुसार कवि थे। सरल जीवन,सत्यता एवं स्पष्ट व्यवहार उनके अन्तरंग एवं बहिरंग का सार तत्व था। उनके व्यक्तित्व का पूरा-पूरा प्रतिबिम्ब उन्केऊ सहित्य मे विधमान है। कबीर की मुक्तिया आज भी जनता मे वारम्बार उद्धत होती है,उन्की पदावली का प्रसार आज भी आकाशवाणी के द्वारा होता है। यह सब इस बात का धोतक है कि कबीर के काव्य मे कुछ ऐसी विशेषता एवं गुण है जिनकी समानता हिन्दी का कोई अन्य कवि नही कर पाता है। उनमे ऐसा अनूठापन है जिसके कारण वे किसी एक श्रेणी विशेष के कवियो मे परिगणित नही होते। उनमे कुछ ऐसा आकर्षण है जो हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।

कबीर की कविता प्रतिपाद्य मानव है। काव्य की भूमिका मे उतर कर कबीर ने मानव की खूबियो और खामियों का सूक्ष्म पर्थालोचन किया है। अपने युग मे और आज भी कबीर एकता के प्रतीक और अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार के शत्रु माने जाते है। कबीर का प्रतिपाद्य स्थूल रूप से दो भागो में विभाजनीय है। इनमें से प्रथम है रचनात्मक तथा द्वितीय आलोचनात्मक है। रचनात्मक विषयों के अन्तर्गत हमारे आलोच्य कवि ने सतगुरु नाम,विश्वास, धैर्य,दया,विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष, दैन्य, भक्ति, मुक्ति, ज्ञान, वैराग्य, शील, विवेक, विचार, जैसे अनेक विषयों पर अपने विचारों को क्रियात्मक शैली मे व्यक्त किया है। यहाँ उनकी खण्डनात्मक प्रतिभा या विशेषता के दर्शन नहीं होते है। अपने काव्य मे उन्होने इन विषयो की महता पर ही प्रकाश डाला है और प्रेम, विश्वास एवं भक्ति के उच्चादर्शो के प्रचार एव प्रसार के लिए प्रयत्न किया है। इन विषयो के प्रतिपादन में जीवन को उदात्त भावो की ओर ले जाने का संकेत है। ये प्रसंग उनके काव्य की उच्च भूमिका है। यहाँ मानव की हिनताओ का दिग्दर्शन नहीं कराया गया है। अब प्रतिपाद्य के दूसरे पक्ष पर आइए । वहाँ कवि कबीर की आलोचनात्मक प्रतिभा का व्यापक प्रदर्शन हुआ है। यहाँ कवि के अतिरिक्त वे आलोचक, सुधारक, पथ-प्रदर्शक और समन्वय-कर्ता के रूप में भी दृष्टिगत हुए हैं। इस पक्ष में विशेष परिगणनीय विषय है चेतावनी, मेष, कुसग, माया, मन, कपट, कनक-कामिनी, आशा, तृष्णा, अह, लोभ परनिन्दा, भेदभाव, जातिवर्णादि। इन प्रसंगो का अध्ययन करते ही आभासित हो जाता है कि मानव कितना हीन प्राणी है। वह काम-क्रोध मद, लोभ, अहंकार से प्रपीड़ित है। आशा एवं तृप्णा जीवन के लिए बड़े अभिशाप है। ये नित्य मानव को दिग्भ्रांत करके किये रहते हैं। कबीर के काव्य का यह पक्ष यह स्थापित करता है कि मानव वड़ा हीन है। सन्तकाव्य में इन्हीं विषयों को लेकर कवियों ने अपने विचारो

का० सा० फा०—३ को प्रकट किया। देखने मे विषय लघु है पर ये मानव जीवन का व्यापक रूप से स्पर्श करते है ।

कवि कबीर की अभिव्यंजना शैली बड़ी शक्तिशाली, समर्थ और प्रभावशाली, है। पतिपाद्य के एक-एक अंग को लेकर अशिक्षित, निरक्षर, संस्कारविहीन, पर परम्पराओं के प्रभाव से विहीन इस कवि ने सैकड़ो साखियों की रचना की है। आश्चर्य की बात यह है कि प्रत्येक साखी मे अभिनवता है, यद्यपि प्रतिपाद्य वही है।

साखियों में समान रुप से विद्यमान है । रमणीयता और अभिनवता जो काव्य की परिभाषा के अंग है कबीर के काव्य में सवंत्र विद्यमान है । कबीर ने ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, योग, हठयोग, जैसे दुरुहतम विषयों को अपनी अभिव्यंजना शैली के माध्यम से बड़े सुबोध एवं सरल रूप में व्यक्त कर दिया है । माया, आशा, तृष्णा आदि विषयों का बड़े रोचक ढंग से रहस्योंद्घातन किया है । चेतावनी को अग "अध्ययन करते जीवन और मृत्यु, सृष्टि और विनाश, ब्रह्म और जीव जैसे विषयों को कबीर ने अपनी अभिव्यंजना शैली के द्वारा इतना सुबोध बना दिया है कि शिक्षित और अशिक्षित समान रूप से उनके उपदेश और संकेतों को ग्रहण कर सकता है । लगभग ५०० वर्षों से जो कवि निम्न और अशिक्षित वर्ग का पथ प्रदर्शक और घर्म सुधारक माना जाता था आज उच्चतम उपाधियों के लिए अनुसंधान का रहस्य बना हुआ है । कबीर की अभिव्यंजना शक्तिश की विशेषताएँ है सरलता, सुबोधता, सहजता, अभिनवता और प्रभावित करने की अद्वितीय शक्ति उनकी वाणियों मे साहित्यिक अभिव्यक्ति हुई है । उदाहरणार्थ कतिपय साखियाँ यहाँ उद्पृत की जाती है-

( १ )

बुरा जो देखन मैं चला जग में बुरा न कोय ।
जो दिल खोजा आपना मुझ सा बुरा न कोय ।।

( २ )

चुन चुन चिड़िया महल बनाया लोग कहें घर मेरा है
न घर मेरा न घर तेरा चिड़िया रैन बसेरा है ।।

( ३ )

देखन के सबको भले जिसे सीत के कोट ।
रवि के उदै न दीसही, बाँधे न जल की पोट ।।

(३५)
(४)

तन सराय मन पाहरू मनसा उतरी आय।
कोउ काहू का है नही,देखा ठोंकि बजाय॥

इन साखियो मे अभिव्यक्ति सत्य सबको प्रभावित करता है।कबीर को 'हाड जरै ज्यो लाकडो,केस जरै ज्यो घास,' 'पानी केरा बुलबुला जस मानुष को जाति। 'तथा' यह तन काचा कुंभ है लिये फिरै था साथ। 'टपका लागा फूटिया, कछु नहिं आया हाथ 'आदि साखियो मे अभिव्यंजना शक्ति विशेष रूप से प्रभावशाली है कि उनमे सत्य की अभिव्यक्त हुई है। उपनिषदो को दुरूह उक्तियो को कबीर ने बडी सरलतम भाषा मे व्यक्त किया है।--

पानी ही थे हिम भया हिम हवे गया विलाय ,
जो कुछ था सोई भया अब कुछ कहा न जाय॥

तथा

 हेरत हेरत हे सखी रहा कबीर हेराय ।
बूंद समान समुद्र में सोकत हेरा जाय॥

मे तत्व और रहस्य को अभिव्यक्ति हुई है। निम्नलिखित दो साखियो मे कबीर का अभिव्यजना कौशल दर्शनीय है:--

 पिय का मारग सुगम है तेरा भजन अचेड़ा।
नाच न जानै बापुरी कहॅ आगना टेढ़ा॥

तथा

पिय का मारग कठिन है खाँडा हो जैसा ।
नाचत निकसी बापुरी फिर घूघॅट कैसा ॥

तथा किंचित शब्दो के हेर-फेर से साखियो के प्रतिपाद्य मे कितना अन्तर पड़ गया है।कबीर प्रमुख रूप से अनाचारो के विरूद्ध आवाज़ उठाने वाले दार्शनिक कवि थे। उनकी अभिव्यजना शैली की शक्तिमता"चेतावनो"प्रमुग मे दृष्टिगत होती है। दो एक उदाहरणों से कथन सपष्ट हो जाएगा--

 आछे दिन पाछे पाछे गए, गुरु से फिता न हेत।
अब पछताया क्या करे जब चिड़िया चुग गइ खेत॥

तथा

 मनुष्य ज्न्म दुर्लभ अहें होय न बारम्बार ।
तरबर से पत्ता झरे ,घहुरि न लागै डार ॥

सारांश यह कि कवि कबीर कि अभिव्यंजना भक्ति उनके, व्यक्तित्व के जनु-कूल तथा मनुष्य है।जिस प्रकार उसकी द़ृष्टि मे तीक्षगुना तथा तीव्रता की टमी प्रकार से उनकी अभिव्यंजना प्रतिभा भी प्रखर थी।अन्य सन्तो की वानियो मे कबीर की रचनाएँ मिलाकर रख दीजिए परन्तु विशिष्टता के कारण वे कबीर की रचनाएँ कहलाकर रहेगी। निम्नलिखित साखी से उनके व्यक्तित्व की किंचित थाह और अभिव्यंजना शक्ति का लेश परिचय मिल जायेगा ।

 खुली खेलो संसार में,बांधि न सकै कोय।
घाट जगाती क्या करे,सिर पर पोट न होय॥

यहाँ पर जिस पोठ की ओर कबीर का संकेत है वह दुष्कर्मों की पोठ है और खुली खेलो से तात्पर्य है सच्चाई या ईमानदारी का व्यवहार । कबीर ने उपनिषदो की परम्परा से ब्रह्म का वर्णन बड़ी सरल शैली मे किया है-

 जाके मुँह माथा ही नहीं रूपक रूप ।
पुहुपवास से पतला ऐसा तत अनूप॥

जाति पांति की निन्दा करते हुए बड़े सक्षेप मे कबीर ने तत्व की बात कह दी है-

एक बूंद एकै मलमूतर ,एक चाँम एक गूदा।
एक जाँति थे सब उतपना कौन बाहम्न कान सुदा॥

तथा

एकै पवन एक ही पानी एक जोति संसारा।
एक ही खाक घड़े सब भाँड,एक ही सिरजन हारा॥

ब्रहा,जीव ,माया आदि के रहस्यो को भी कबीर ने प्रभावशाली एवं स्पष्ट शैली मे व्यक्त कर दिया है। कबीर की अभिव्यंजना शक्ति बेजोड़ थी।

कबीर के काव्य मे बुद्धि तत्व की प्रधानता है। पाश्चात्य काव्य शास्त्रियो के अनुसार काव्य के लिए बौद्धिकता या बुद्धितत्व आवश्यक है। जिस रचना मे बुद्धि तत्व विद्यमान माना जाता है वह रचना स्यायो महत्व को प्राप्त करती है। ऊपर कहा जा चुका है कि कबीर के काव्य मे इस तत्व की प्रधानता है। कबीर का बुद्धि तत्व सरस तथा रोचक है उसमे शष्कता या नीरसता का स्पर्श नही होने पाया। निश्चय ही आत्मा,परमात्मा,जीव,जगत आदि नीरस विषय हैं परन्तु कबीर ने इन बौद्धिक समस्याओ का समाधान करने के लिए सरल भाषा,भावमयी अनुभूतियो तथा मधुर कल्पनादि का सहारा लिया है। बात यह है कि कबीर अपने प्रतिपाद्य को जनता के उस स्तर के लिए प्रस्तुत करने जा रह्ं थे जो निरक्षर था, अशिक्षित था। ऐसे वर्ग के लिए बौध्दिक समस्याओ को रोचक एवं सरल ढंग से प्रस्तुत करना ही उचित था। कबीर ने यही किया। उपर्युक्त समस्याओ तथा विषयो को लेकर कबीर ने अनेकानेक ऐसे पदो की रचना की है जो अपनी मौलिकता को खोये बिना रोचकता के रंग मे अनुरंजित हैं। बुद्धितत्व प्रधान होते हुए भी कबीर वादो के पीछे नही लगे। केशवदास के समान न उन्होने अपने को भक्त कवि प्रमाणित करने के लिये विज्ञान गीता की रचना की न देव के समान भक्ति के रग-पुंह मे पगडी रगने की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उनकी दार्शनिक तत्व विवेचना मे हृदय का योग है। सत्य यह है कि कबीर की तुलना मे इतनी सरसता, सरलता तथा भाव-पूर्ण शैली मे दार्शनिक एव आध्यात्मिक तत्वो की विवेचना और अभिव्यंजना और कोई कवि कर ही न सका। कबीर ने बुद्धि को तर्कपूर्ण कसौटी पर भावना को कसा। प्राचीन परम्पराओ, बहुदेवोपासना, मूर्ति पूजा, जप, तप, तिलक, माला आदि की उपयोगिता पर कबीर ने तर्कपूर्ण शैली मे विचार किया। कबीर की निम्न लिखित साखियो पर ध्यान दीजिए-

( १ )

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तत कथा गियानी॥

( २ )

हेरत हेरत हे सखी रहा कबीर हेराइ।
समुन्द समाना बूंद में सो कत हेरा जाइ॥

( ३ )

झल उठी झोली जली, खपरा फूटिम फूति।
जोगी था सो रमि गया आसिणि रही विभूति॥

( ४ )

जल भर कुम्भ जलै बिच परिया बाहर भीतर सोई।
तको नाम कहन को नांहीं दूजा भोखा होई॥

( ५ )

पंच तत्व का पुतरा जगति, रची में कीव।
मैं तोहि पूछो पंडिता, शब्द बड़ा की जीव॥

कबीर के काव्य में बौद्धिक तत्व किन कोटी का है इन उदाहरणो से स्पष्ट हो जायेगा। स्मरण रखना चाहिए इस साहित्य की रचना निम्न् वर्गो के लिए हुई थी जो साहित्यकारो को सुवेदना की परिधि से सदैव ही वंचित रहे हैं। ऐसे ही व्यक्तियो से कबीर कहते हैं कि :

मूँड़ मुँडाए हरि मिलै तो कौन न लेय मुड़ाय।
बार बार के मूड़ते भेड़ न बैकुन्ठ जाय॥

बुद्धितत्व के सम्बन्ध मे दो उध्दरण देकर दूसरे प्रसंग मे कबीर के काव्य पर विचार करेंगे:-

( १ )

हरती चढ़िए ज्ञान को, सहज ढुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है भूकन दे भक्त मारि॥

( २ )

पाणी केरा पृतला राखा पवन संवारि।
नांनां वाणी बोलिया, ज्योति घरी करतारि॥

बुद्धितत्व के समान कबीर के काव्य मे भावना-तत्व की भी प्रचुरता है। यदि कबीर कोरे बुद्धिवादी होते तो उनकी रचनाओ मे भावना पक्ष का अभाव होता। कबीर के काव्य मे जो रसात्मकता है उसका प्रमुख कारण भावना-तत्व का विद्यमान होना है। श्रृंगार रस की जो निर्मल धारा कबीर मे उपलब्ध होती है वह भी प्रस्तुत कथन की पुष्टि करती है। कबीर की रचनाओ मे उपलब्ध यह श्रृंगार रस और भावना तत्व मानव को वासना के पाप पंक से निकाल कर निर्मलता के सच्चे रूप के दर्शन कराने मे सहायक है। इस भावना मे सत्य की अनुभूति और ज्ञान की गम्भीरता समन्वित है। उदाहरणथं यहाँ कतिपय साखियॉं उद्धृत की जाती है। इनमे भावनातत्व की गम्भीरता देखिए:-

( १ )

नैनों की कोठरी पुतरी पलंग बिछाय।
पलकों की चिक डारि कै पिय को लिया रिझाय॥

( २ )

प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस।
तन में, मन में, नैन में,ताको कहाँ संदेस॥

( ३ )

प्रीति जो लागी घुल गई, पैठि गई मन माँहि।
रोम रोम पिउ पिउ करै मुख की सरधा नाहिं॥

( ४ )

प्रेम छिपाया ना छिपै जा घट परगट होय।
जो पैं मुख बौलै नहीं तो नैन देत हैं रोय॥

कबीर की साखियाँं, पदो एवं अन्य रचनाओ से ऐसी ही न जाने कितनी पंक्तियॉं निकाली जा सकती हैं जो भावना-तत्व से ओत-प्रोत है । दुलहिन गावहु मगल चार 'इसी कोटि का पद है । सबकी आलोचना करने वाला, सबको डाट फटकार कर दोष निदंशन करने वाला कबीर, फक्कड, अवखड़, मस्त कबीर इतना रससिक्त होगा, यह आश्चर्य की बात प्रतीत होती है। इतनी बाह्य कठोरता के बावजूद भी कबीर अन्तस बड़ा कोमल था इसलिए वह कहता है :-
( १ )

सन घट रमता सांइया सुनी सेज न कोय॥

( २ )

लागी लगन छूटै नहीं जीभ चोंच जरि जाय।
मीठा कहा अंगार में जाहि चकोर चबाय॥

( ३ )

कहै कबीर मुख कहा न जाई, ना कागद पर अंक चढ़ाई।
मानो मुंगेसम गुड़ खाई, कैसे बचन उचारा हो ॥

संगीत मे राग का जो महत्व और उपयोगिता होती है वही काव्य जगत के अन्तर्गत कल्पना का स्थान है। शब्द जगत मे राग जिस दायित्व की पूर्ति करता है। उसी दायित्व को भाव जगत मे कल्पना का उद्भव, विधान एवं विकास होता है। कल्पना-शक्ति एवं प्रकार का सौन्दर्य-वोधात्मक एव चेतनता से सम्पन्न व्यापार है । कल्पना काव्य सौन्दर्य के विकास मे विशेष सहायक होनी है । कवि के सौन्दर्य त्रोव को शक्ति देने का बहुत कुछ श्रेय इसी कल्पना को है। कल्पना के समागत से कविता रुचिर मनोवेगो के हेतु रमणीयता का सजंन करती है। कल्पना का क्षेत्र व्यापक , व्यापार अद्भभुत तथा कार्य महत्वपूर्ण है। आचार्य मम्मट ने अपने 'का व्यप्रकान' मे व्यक्ति को विशेष सस्कारो फलस्वरूप कविता वीज रूप नमुरपन्न माना है। सस्कृत के आचर्यों ने कल्पना के स्थान पर पक्ति का प्रतिभा की स्थितप्रतिपादन किया है उद्भभावना है । उनकी कल्पनाशक्ति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमे व्यावहारिकता तथा कलात्मकता का सुन्दर सभन्वय है।सन्तो ने भाव या वणर्य विषय को ही काव्य की आत्मा या सब कुछ मानकर वाह्यावरण एवं कलात्मक उपकरणों को जुटाने का प्रयास नही किया है। उन्होने भावो की अभिव्यक्ति के लिए जिन-जिन उपकरणों को स्वीकार किया है वे सब अत्यन्त स्वाभाविक एवं सहज हैं । कबीर एवं अन्य सन्तो ने कल्पना को काव्य मे इस लिए स्थान दिया कि उनका वण्यंविषय अविकाधिक प्रभावशाली, स्पष्ट तथा चमत्कारपूर्ण बन सके! अब यहाँ पर कबीर की कविता से कल्पना के सम्बन्ध मे कुछ उद्भरण देंगे :

( १ )

गुरु तुम्हारा शिष कुम्भ है गढ़ि-गढ़ि काढै खोट ।
अंतर हाथ सहार दे बाहर बाहै चोट ॥

( २ )

मन ताजी चेतन चढ़ै लहौकी करै लगाम ।
सबद गुरु का ताजाना कोई पहुँचे साधु सुजाना ॥

( ३ )

हरिहै खांड रेत महि बिखरी हाथी चुनि ना जाय ।
कहि कबीर गुरु भली बुझाई किटी होई के खाय॥

( ४ )

हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरै ज्यों घास ।
सबका जरता देखिकर भये कबीर उदास ॥

( ५ )

पिया ऊँची रे अटरिया तोरी देखन चली!
ऊँची अटरिया जरदकिनरिया, लागी नाम कि डोरी ।
चाँद सुरज सम दियना वस्तु है ता भिचु भुल डगरीया।
आठ मर्रातिव द्स दरवाजा नौ में लागी किवरिया ।
खिरकी वेंठ गोरी चितवन लागी,उपरा झांपप झोपड़िया||

इन पाँच उद्भरणों की तेरह पंक्तियों मे कबीर की कल्पनाशक्ति, उस कल्पानाशति को विविघसा और शक्तिमता सरलता के साथ मूल्यांकन किया जा साकता है। सतगुरु को अंग माया को अंग, चेतावनी को अंग आदि प्रसंगो मे कवि कल्पनाशक्ति का वैभव दशंतीय है । शब्द, साखी और पदो में समान रुप मे कबीर की। कल्पना शक्ति बिखरी पड़ी हुई है। उसे 'कोटी होइ कै' खाना और खोजना पड़ेगा। कबीर की कल्पना का उत्कर्षं उन पंक्तियों में विशेष रुचिकर है जहाँ वे संसार का वर्णन करते हैं।

सुगवा पिंजरवा छोरि कर भागा॥
इस पिंजरे में दस दरवाजा, दसौ दरवाजौ किनरवा लागा।
अखियन सेती नीर बहन लाग्यौ
अब कस नाही तुं बोलत अभागा।
कहत कबीर सुना भाई साधो, उड़िगे हंस टूटि गया तागा।
तथा
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो[२९]
सतगुरु है रंगरेज चुनरि मोरी रंग डारी[३०]
हसा करो नाम नौकरी[३१]
आई गवनवां की सारी,[३२]
उमिरि अबहि मोरी बोरी[३२]

आदि कल्पना के पारखी द्वार विशेष रूप से पठनीय है। इन कबीर की कल्पना शक्ति की विविधिता और स्पष्टता दिखाई पड़ती है। कबीर ने कल्पना के चुनाव में औचित्य पर भी ध्यान दिया है यह उनको मनोवैज्ञानिकता का परिचायक है। किसी वस्तु या व्यापार का वर्णन या कल्पना करते समय प्रत्यक्ष एवं कल्पित के साथ उसके साम्य तथा सम्बन्ध को ध्यान में रखना नितान्त आवश्यक है। प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत के साम्य पर ही कल्पना का औचित्य निर्भर माना जाता है। कबीर तथा अन्य सन्तो ने इस बात पर विशेष ध्यान दिया है। वे न हवाई किलों के निर्माण मे विश्वास करते थे, न फालतू बातों का प्रतिपादन ही करते थे। निम्नलिखित उद्धरणों से इस कथन की पुष्टि होगी:—

(१)

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥

( ४२ )
                 ( २ )

सौना सज्जन साधु जन,टूटि जुरै सो बार ।

दुर्जन कुम्भ कुंमार का एकै धका दरार ॥

                 ( ३ )

मूरख से क्या बोलिये सठ से कहाँ बसाय ।

पाहन में क्या मारिये चोखा ती र नसाय ॥

                 ( ४ )
लिखा लिखी की है नही देखा देखि की बात ।

दूल्हा दुलहन मिलि गये फिकी पडी बरात ॥

   इन साखियो मे कल्पना औचित्यपूर्ण प्रतीत होती है ।
  आचायँ राम्चन्द्र शुक्ल ने भाव समन्वित कल्पना को सच्ची कवि कल्पना माना है । सच्ची कल्पना वही है जो अन्तस के शुद्ध भावो को जाग्रुत कर दे तथा तत्सम्वन्धित भावो को पूगांतथा व्यंञित कर दे । सन्तो कि कल्पना अनुभुति और भावुकता के आधार पर सजित है, इसलिए वह प्रभावित करने की शक्ति और भाद-व्यंजकता से सम्पन्न है । उनकी कल्पना और वण्यं विषय जन जीदन से ग्रहणा किए गए है ।इसलिए उनमे भाव व्यजक्ता है । कबीर की भाव व्यंजकपूर्ण कतिपय उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं ।
 
                 ( १ ) 
                 

माली आवत देखकर कलियन करी पुकार ।

फूलेर फुले चुन लिए काल्हि हमारी बार ॥

                 ( २ ) 

पानी केरा बुदबुहबुदा अस मानुस की जात ।

देखत ही छिप जायगा ज्यों तारा परभात ॥

साहि्व तुमहि दयाल हौ, तुम लगि मेरी दोर ।

जैसे काग जहाज को , सूझे और न ठौर ॥

इन साखियो मे नश्वरता तथा आत्म समर्पण का भाव व्यजित हो उठता है । यही है कवि की कल्पना की सफलता । कबीर की कल्पना शिक्षित अशिक्षित को प्रभावित करने मे समर्थ है ।

मानव के ह्रुदय एव मस्तिप्क मे ऐसी अनेक बाते जन्म प्रहण करती रहती है । जिनकी अभिव्यक्ति वह सामान्यता व्यवहत भाषा के मध्यम से नही कर सकता है । ऐसी ह्र्दयानुभुति विम्त्रो या संकेतो द्वारा भी नहीं अभिव्यक्त्त हो सकती है । इसी लिए सूक्ष्म एवं अर्द्ध स्पष्ट भावो की अभिव्यक्ति के लिए मानव ने प्रतीको की कल्पना की ओर उन्हे जन्म दिया । विद्वानो का कथन है कि मानव सभ्यता के विकास मे प्रतीको का उतना ही योग है जितना हमारे जीवन के विकास मे वायु या प्रकाश का । प्रतीको का जन्म उद्भव विकास यथार्थ वस्तुओं के आधार पर होता है । काल्पनिक वस्तुएँ या वे वस्तुएँ जो निराकार है, उन्हे प्रतीको के माध्यम से नही व्यक्त किया जा सकता है और यदि वे मनाव की विकसित चिंतन शक्ति के आधार पर व्यक्त भी कर डाली गई तो सत्य से दूर, यथार्थ से परे और प्रभावित करने की शक्ति से विहीन होगी । प्रतीको का जन्म जगत तथा जीवन की अर्थ भूमि से होती है । जीवन के साहचर्य से प्रतीको के अर्थ और प्रतीक का महत्व बढता है । माननीय अनुभवो से निकट रहकर प्रतीको मे सजीवता, अर्थ व्यक्तित्व की स्थापना होती है ।

यथार्थ रूप से समक्ष विद्यमान रहने वाले पदार्थों के अतिरिक्त प्रत्यक्ष जगत मे विद्यमान रहने वाले अनेक पदार्थ हैं, जो इन्द्रियगत नही होते हैं फिर भी उनकी कल्पना तक विश्वास, एवं अनुमान द्वारा कर ली जाती है। आत्मा और परमात्मा ऐसे ही विषय है। इनके अगोचर होने के कारण विभिन्न मतवादियो मे भांति-भांति की घारगाएं प्रचलित है। ब्रह्मविद्या के विशेषज्ञ आत्मा को परमात्मा का अंश मानते है पर मनोविज्ञान स्वयं परमत्मा का अत्मा की सत्ता पर सिद्ध करना चहता है । इनका वरगंन करना हमारी भाषा और सामथ्यं के बाहर है। सन्तो के इन अकथनीय विषयो को काल्पनिक प्रतीको के द्वारा स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। प्रतीक केवल साहित्य की ही शक्ति नही होते है, वरन् वे जातीय एव सास्कृतिक अनुभव की शक्ति है। हर पीढ़ी आवश्यकतावश नये प्रतीको को गढ़ लेती है और प्रचीन प्रतीको को नए अर्थ और दृष्टि से देखती है। प्रतीक अपने व्यक्तित्व मे अनेक प्रकार के रहस्यो को समाहित रखता है। उनका कर्तव्य है उन रहस्यो को मधुर ढंग से व्यक्त कर देना। प्रतीक भावुकता तथा अनेक प्रकार के ज्ञान के सार तत्व है। प्रतीक रहस्य नही है न रहस्य प्रतीक बन सकते है फिर भी दोनो मे अविच्छिन्न सम्बन्ध नही है। प्रतीको के मध्यम से निरपेक्ष सत्य की। प्रावृति को रहस्यवाद मानना चाहिए। रहस्यवाद प्रत्यक्ष जीवन की अन्त्मूर्त चेतना को प्राप्त करना चाहता है और प्रतीक उसका आभास मात्र देने का प्रयान करता है । प्रतीक प्रणाली बडी प्रचीन है । दार्शनिक विचारो की व्यजना के लिए यदिक ऋपियो ने भी प्रतीको को माध्यम बनाया था । ऋषियों ने उपनिषदो मे ब्रह्म का वरगंन, सूर्य, चन्द्रादि प्रतीको के माध्यम से किया था । मुष्ट्कोपनिषद मे भी एक सत्य पर प्रतीको के माध्यम से विचार स्पष्ट करते हुए कहा गया है 'द्वसुपर्णा‌ सयुजा मरा, या ममनिचदा परिस्वजति' इसी परम्परा मे सन्तो ने भी प्रतीको के माध्यम से अपना रहस्यानुभुति की अभिव्यक्ति की है । संत साहित्य मे दाम्पत्य एव्ं वात्सल्य प्रतीको का प्रचुर प्रयोग हुआ है। कभी-कभी प्रतीकात्मक पदो का अर्थ स्पष्ट करने के लिए सन्तो ने पंडित, पन्ड, मुल्ले और मौलवियो तक को चुनौती दे डाली है । कबीर का तो विश्वास है कि जो उनके प्रतीको को नही समझता है उससे वार्तालाप करने से कोई लाभ ही नही है :-

जो कोई समझे सैन में, तासे कहिये बैन ।
सैन बैन समझै नहीं, तासे कहुनहि कहन ॥

सन्तबानी सग्रह भाग १, पृष्ट ४५१३०)

कबीर की कविता मे प्रतीको का बाहुल्य है। कबीर के दास्ग्र भाव के प्रतीको मे दास तथा ब्रह्मा की एकात्मकता का भाव बड़ा आकर्षक बन पड़ा है:-

मै गुलाम मोहि बेचि गुंसाई। तन मन धन मेरा राम ज के ताई॥
आनि कबीरा घाट उतारा। सोई ग्राहक सोई बेंचन हारा॥
वेवें राम तो राखै कौन। राखै राम तो वेचै हारा॥
कहै कबीर मैं तन मन पारया। साहिब अपना छिन न बिसराया॥

इसी प्रकार कबीर के साहित्य मे वात्सल्य प्रतीको का बाहुल्य है :-

हरि जननी मैं बालक तेरा, काहे न अवगुन बकसहु मेरा।
सुत अपराध करै दिन केते, जननी के चित रहैन तेते॥
कर गहि केस करै जो घाता, तऊ न तो उतारै माता।
कहै कबीर एक बुद्धि बिचारी, बालक दुखी दुखी महतारी

कबीर ने दाम्पत्य प्रतीको की भी रचना की है। इस कोटि के प्रतीक बढे रसमतय और मधुर है। उदाहरणार्थ-

दुलहिन गावहु मंगलचार, हम धरि आयो हो राजा राम भरतार ।
तन रति कर मैं मन रति करिहू पंच तत वराता।
राम देव मोहि व्याहन आये मैं जोवन मदमाती॥
सरीर सरोवर वेदी करिहू, ब्रम्हा वेद उचार।
रामदेव संग भावँरि लेहू, धनि धनि भाग हमारा॥
सुर तेतिस कोटिक आये मुनिवर सहज अठासी।
कहै कबीर हम व्याहि चलै है, पुरुष एक अविनासी ॥

कबीर की रचनाओं में सांकेतिक प्रतीक,[३३] पारिभाषिक प्रतीक, संख्यामूलक प्रतीक,[३४] रूपात्मक प्रतीक[३५] तथा प्रतीतात्मक उल्टवासियों के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं‌। प्रतीकात्मक उल्टवासियों की रचना करने में कबीर बड़े कुशल थे। प्रतीकात्मक उल्टवासियों के भी दो भेद है—प्रथम वे जो प्रतीक प्रधान है। द्वितीय रूपक प्रधान, रूपक प्रधान में प्रतीक गौण रहता है। उदाहरणार्थं रूपक प्रधान उल्टवासी देखे।

हरि के पारे बड़े पकाये, जनि जारे तिनि खाये।
ज्ञान अचेत फिरै नर लोई, ताते जनमि-जनमि डहकाये॥
धौल मंदलिया बैलरवाबी, कउवा ताल बजावै।
पहिर चोलना गदहा नाचै, भैसा निरति करावै॥
स्यंध बैठा पान कतरै, मूस गिलौरा लावै।
उदरी बपुरी मंगल गावै, कछु एक आनन्द सुनावै॥
कहै कबीर सुनहु रे सन्तो, गनरी परवत खावा।
चकवा बेसि अंगारे निगलै, संमद अकासे धावा॥

प्रतीक प्रधान उल्टवासी

कैसे नगर करौ कुद्वारी, चंचल पुरिप विचक्कन नारी।
बैल बियाह गाय भई बाँझ, बछरा दूहै तीन्यू सांझ॥
मकड़ी घर भावी छटिहारी, मास पसारि चोल्ह रखवारी।
मूसा केवट नाम बिलइया, मोड़क सोवै साप पहरिया।
नित उठि ख्याल सिंध सू जूझे, कहै कबीर कोई बिरला बूझे॥

कबीर की प्रतीक योजना के संबन्ध में उपर्युक्त उद्धगरण से अनुमान लगाया जा सकता है। वास्तव में कबीर साहित्य सुन्दर प्रतीक योजना से भरा पड़ा है। पग-पग पर कबीर ने सुन्दर प्रतीकों के माध्यम से अकथनीय या कठिनाई से वर्णित होने वाले अनुभव को व्यक्त कर दिया है। प्रतीक सच्चे रहस्यवादी की बड़ी भारी शक्ति होती है। इसी प्रतीक के माध्यम से वह हृदय के भार को कम करता है। कबीर इसके अपवाद नहीं थे। कबीर के प्रतीक (उल्टवासियों के अतिरिक्त) कही दुर्बोधं और कठिन नहीं है। उनके प्रतीक भाव को ग्रहण करने में सहायक सहयोग देने वाले हैं। अंपढ़ जनता के लिये कबीर के ये प्रतीक और भी अधिक वरदान स्वरूप है। कबीर के प्रतीकों में प्रभावसाम्य के कारण सदृश भावना जाग्रत होती है। वे पाठकों के भावों और विचारों को भी प्रबुद्ध करने में सहायक है कबीर के प्रतीकों की ये विशेषताएँ काव्य रचना की क्षमता को प्रमाणित करती है।

काव्य के दो पक्ष होते हैं—भाव और विभाव। ये उभय अन्योन्याश्रित है। अप्रस्तुत योजना या विभाव पक्ष काव्य का अभिन्न अंग है काव्य में कलात्मकता एवं रमणीयता का संचार करने का समस्त श्रेय और दायित्व अप्रस्तुत योजना पर है। कवि के हेतु अप्रस्तुत योजना की शक्ति प्रकृति का बड़ा भारी वरदान है। सभी कवियों को यह प्रतिभा समान रूप से नहीं सम्प्राप्त होती है। उपमा के क्षेत्र में सभी कालीदास की प्रतिद्वंद्विता नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार की प्रतिभा का मूल कारण है वासना और संस्कार। दण्डी का अभिमत है कि अद्भुत प्रतिभापूर्व वासनागुणानुबन्धी अर्थात् कवि की प्रतिभा में पूर्वं वासना का गुण विद्यमान रहता है। वारभट्ट ने प्रतिभा को ही काव्य की उत्पत्ति का कारण मानते हुए कहा है प्रतिभा कारणान्तस्य। हेमचन्द्र ने भी कहा है कि—

प्रतिभैवच कवीना काव्यकरण कारणम्।
व्युत्पत्यभ्यासी तस्या एवं संस्कारकारकौ न तु काव्य हेतु॥

कवि के व्यत्तित्व में अप्रत्यक्ष रूप से पूर्ववर्ती संस्कारों के रूप में अद्भुत काव्य-प्रतिभा विद्यमान रहती है। यह प्रतिभा कवियों में अनेक रूपों से पल्लवित होती है। अप्रस्तुत की सम्यक् एवं प्रभावशाली योजना नरक कार्य नहीं है। इसके लिए कवि में अनेक विशेषताओं का होना परमावश्यक है। यह आवश्यक है कि वह लोकशास्त्र के तत्वों सूक्ष्म ज्ञाता हो। कवि में जितनी अधिक सहृदयता तथा अन्तदृष्टि होगी, वह जितना ही अधिक अनुभवी होगा उतनी ही सुन्दर उसको अप्रस्तुत योजना होगी और वह अप्रस्तुत योजना हृदयग्राही तथा मार्मिक भी होगी। इस सब के लिए यह भी आवश्यक है कि कवि अपने हृदय में संवेदनशीलता को जाग्रत करे तथा जीवन एवं प्रकृति का सूक्ष्म पर्यालोचक बने। यहाँ पर यह आवश्यक होगा कि यद्यपि कबीर शास्त्र के ज्ञाता, काव्य शास्त्र के आचार्य और विद्वान नहीं थे। परन्तु दण्डी ने जिसे प्रतिभा तथा हेमचन्द्र ने जिसे संस्कार रूप में काव्य कौशल कहा है वह कबीर में प्रचुर रूप में विद्यमान था। इनके अतिरिक्त कबीर की दूरदर्शिता, रसज्ञता, सहृदयता तथा संवेदनशीलता ने उनके काव्य में अप्रत्यक्ष रूप से विभाग पक्ष को सुन्दर और प्रभावशाली बना दिया था। कबीर के लिए काव्य रचना एक साधन था साध्य नहीं। उनकी कविता में हृदय की सत्यता का चित्रण हुआ है। सत्य जीवन और अनुभव की कलात्मक अभिव्यंजना करने के पीछे कबीर न काव्य के बहिरंग की ओर ध्यान नहीं दिया। सन्त कबीर के साहित्य में वह सतर्कता एवं सावधानी नहीं उपलब्ध होती है जो लिखित साहित्य के लिए अपेक्षित है। कबीर का काव्यादर्श इस बात का पोषक है कि वे कवि-कर्म को निन्दनीय मानते हैं। काव्यसौन्दर्य की अभिवृद्धि के कृत्रिम साधनों, छन्द, अलंकारादि की ओर उनकी दृष्टि नहीं गई। इसीलिए उनके साहित्य पर अलंकारों का मुलम्मा चढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया गया। कबीर के साहित्य में जो अलंकार उपलब्ध है जिनकी योजना कवि प्रतिभा अज्ञान रूप से भावों को प्रभाव पूर्ण बनाने के लिये किया करती है। अन्य सन्तों के काव्य में भी उपमा, रूपक तथा अनुप्रासादि अलंकारों की प्रचुरता का यही एक मात्र कारण है। रहस्यदृष्टा इन सन्तों के रूपक तथा उपमाये दैनिक जीवन से सम्बन्ध रखती है। उन्हें प्रतीकात्मक मूर्तभावों के हेतु कही दूर जाने की आवश्यकता नहीं। कबीर के काव्य में रूपक,[३६] उपमा,[३७] दृष्टांत,[३८] अद्भुत,[३९] स्वाभावोक्ति[४०], अतिशयोक्ति[४१], सहोक्ति,[४२] विशेषोक्ति,[४३] अन्योक्ति,[४४] लोकोक्ति,[४५] उदान्त,[४६] विभावना,[४७] विरोधाभास,[४८] व्यतिरेक,[४९] विचित्र,[५०] विषम,[५१] अनन्वय,[५२] असंगति,[५३] काव्यलिंग,[५४] श्लेष,[५५] यमक,[५६] अनुप्रास[५७] आदि के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। कबीर के काव्य में प्रयुक्त अलंकारों में सर्वत्र औचित्य प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ यहाँ पर कतिपय साखियाँ उद्धृत की जाती है:—

(१)

मनुष जन्म दुर्लभ अहै, होय न बारम्बार।
तरुवर से पत्ता भरै, बहुरि न लागै डार॥

(२)

पूजा सेवा नेम व्रत गुडियन का सा खेल।
जबलगि पिउपरिचय नहीं, तब लगि संसय मेल॥

(३)

विरह कमण्डल कर लिये, बैरागी दोउ नैन।
मागे दरस मधुकरी छके रहै दिन रैन॥

कबीर की अप्रस्तुत योजना पूर्णतया गुण व्यापार, फल, रूप साम्य पर आधारित है। यह औचित्य उनकी उलटवासी साहित्य में भी उपलब्ध होता है। यह तभी सम्भव हो सकता जब कि सादृश्य स्वरूप अधिक और भावोत्तेजक हो। यदि अप्रस्तुत विधान स्वरूप अधिक मात्र है, तो वहाँ सौन्दर्य सृष्टि ही होती है। भावानुकूल साम्य योजना यथार्थं कही जाती हैं। कबीर के काव्य में उपलब्ध अप्रस्तुत योजना यथार्थता से उदाहरणार्थं :—

(१)

यह तन काँचा कुम्भ है लिया फिरै का साथि।
ढबका लागा फूटि गया कछु न आया हाथि॥

 

(२)

पानी केरा बुलबुला अस मानुस की जाति।
देखत ही छिप जायगी ज्यों तारे परभाति॥

(३)

हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरै ज्यों घास।
सब जग जरता देखि करि भये कबीर उदास॥

इन साखियों में नश्वरता का भाव अनेक अप्रस्तुत विवानी द्वारा व्यक्त किया है। इनके पढ़ने से संसार की नश्वरता के प्रति भावोतेजन के साथ ही स्वरूप बोध में भी सहायता मिलती है। भावों को सुचारु व्यंजना के लिए ही अप्रस्तुत योजना की जाती है। भाव-व्यंजना में भी कवि की पटुता प्रतिबिम्बित होती है। जो कवि जितने सुन्दर भावों की व्यंजना कर सकता है, वह उतना ही अधिक पाठकों को प्रभावित एवं आल्हादित कर पाता है। अतः आवश्यक है कि भावों में ये नवीनता हो और सुचारुता हो। इसके लिये प्रबल अनुभूति की अपेक्षा है। संतों और विशेषतया कबीर की अनुभूति बड़ी गहन थी। अनुभूति की गहनता में पहुँचकर ही उन्होंने रूपको एवं अन्योक्तियों की रचना की है। भावों की सुन्दर व्यंजना के लिये निम्नलिखित पद पठनीय है।

सतगुरु है रंगरेज चुनर मेरी रंगि डारी।
स्याही रंग छुड़ाइ केरे, दियो मंजीठा रंग।
धोये से छूटै नहीं रे, दिन दिन होत सुरंग॥
भाव के कुण्ड नेह के जल में प्रेम रंग देई बोर।
चसकी चास लगाइ केरे, खूब रंगी झकझोर॥
सतगुरु ने चुनरी रंगी रे, सतगुरु चतुर सुजान।
सब कुछ उन पर वार दूँ रे, तन मन धन औ प्रान॥
यह कबीर रंगरेज गुरु रे, मुझ पर हुए दयाल।
सीतल चुनरी ओढ़ि के रे, भइहौ मगन निहाल॥

इसी प्रकार कबीर के पद 'मन फूला फूला फिरे जगत में कैसा नाता रे' तथा 'हंसा करो नाम नौकरी' भावा व्यंजकता की दृष्टि से उत्तम पद है। कबीर के काव्य में अप्रस्तुत विधान की ध्वन्यात्मिकता बड़ी प्रभावशाली है। ध्वन्यात्मक अप्रस्तुत योजना मार्मिक मानी गई है। 'मन फूला फूला फिरे' में कितनी सुन्दर ध्वन्यात्मक है। कबीर के अप्रस्तुत विधान में व्यंग्यों को बहुत स्थान मिला है। अनुचित न होगा यदि कहा जाय कि कबीर इस दिशा में सिद्धहस्त थे। उनके व्यंग बड़े मार्मिक और प्रभावशाली होते हैं। उदाहरणार्थ यहाँ तीन साखियाँ दी जाती है—

(१)

पण्डित केरी पोथिया ज्यों तीतर का ज्ञान।
औरन सगुन बतावही आपन फन्द न जान॥

(२)

पण्डित और मसालयी दोनों सूझै नाहिं।
औरन को करै चाँदन आप अघेरे माहिं॥

(३)

नारी की झाईं परत अन्धा होत भुजंग।
कबीर तिनकी कौन गति नित ही नारी संग॥

संक्षेप में कबीर की अप्रस्तुत योजना सरल प्रभावशाली एवं कृत्रिमता विहीन है।

संसार की असारता, विषम रीति-नीति, स्वार्थीघता, निम्न प्रवृत्तियों और कटु अनुभवों ने कबीर में विचित्र तीखापन तथा आलोचनात्मक प्रवृत्ति समुत्पन्न कर दी थी। इसीलिये उनकी साखियों में अनुभूति की गहनता दिखाई देती है। संसार की गति देखकर उसमें प्रतिकार की ऐसी भावना जाग्रत हो उठी थी कि वे नीति विषयक उक्तियों के द्वारा जनता को जाग्रत करने के लिए अग्रसर हुए। कबीर के काव्य में नीति सम्बन्धी अनेक उक्तियाँ मिलती हैं। इनमें एक चतुर व्यक्ति की जैसी दूरदर्शिता एवं एक दूरदर्शी के सदृश सुझाव देने को अद्भुत क्षमता थी। उदाहरणार्थं यहाँ कतिपय साखियाँ उद्धृत की जाती है :—

(१)

देह धरे का दण्ड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगतै ज्ञान से, मूरख भुगतै रोय॥

(२)

जुआ चोरी मुखबिरी, व्याज घूस, पर नार।
जो चाहे दीदार को एती वस्तु निबार॥

(३)

जग में बैरी कोउ नहीं, जो मन सीतल होय।
यह आपा तू डारि दे, दया करै सब कोय॥

 

(४)

मारग चलते जो गिरै, ताको नाहीं दोस।
कह कबीर बैठा रहै, ता सिर करड़े कोस॥

(५)

जो तो को फोटा बुवै, ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है, वाको है तिरसूल॥

(६)

दुर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय।
बिना जीव की स्वांस से, लौह भस्म हो जाय॥

(७)

जो देखे सो कहै नहिं, कहं सो देखै नांहि।
सुनै सो समभावै नहीं, रसना दृग सरबन काहि॥

इन साखियों में गम्भीर ज्ञान और अनुभूति की अभिव्यंजना हुई है।

प्रस्तुत सक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि काव्य रचना कबीर का साध्य या लक्ष्य नहीं था फिर भी महान सन्देशों की अभिव्यक्ति के लिये उन्हें काव्य को माध्यम बनाना पड़ा। धर्म गुरु होने के साथ-साथ कबीर कवि भी थे। डॉ॰ हजारी प्रमाद द्विवेदी के शब्दों में "भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया—बन गया तो सीधे-सीधे नहीं तो दोहा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को ना ही कर सके। और हर जगह कहानी की रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी भाषा बहुत कम लेखकों में पाई जाती है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य रसिक काव्यानन्द का अस्वाद कराने वाला समझे, तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है। फिर व्यंग करने में चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्दी नहीं जानते इस प्रकार यद्यपि कबीर ने कही काव्य लिखने की प्रतिज्ञा नहीं की है तथापि उनकी आध्यात्मिक रस की गगरी से छलके हुए रस से काव्य की कटोरी में भी कम रस इकट्ठा नहीं हुआ है।

हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न ही नहीं हुआ।—मस्ती, फक्कड़ स्वभाव और सब कुछ झाड़ फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया। उनकी बानियों में सब कुछ को हटाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है। उसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य साधारण जीवन रस भर दिया है। "इस व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृय, समालोचक संभाल नहीं पाया है। ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि न कहा जाय तो क्या कहा जाय?"

कबीर साहित्य पर इस्लाम का प्रभाव

हिन्दी साहित्य पर इस्लाम का प्रभाव अत्याधिक भावुकता के रूप में पड़ा कबीर और मीरा की बेचैनी, बोधा और घनानन्द की विह्वलता, विद्यापति और सूरदास की भावाकुलता में इसका प्रत्यक्ष प्रमाण दृष्टिगत होता है। ज्ञानाश्रयी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के विचारों में हिन्दू मुस्लिम समन्वय का भाव अत्यन्त पुष्टता पर पहुँच चुका था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है:—

"जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचार पद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था, उसी को कबीर ने सूफियों के ढरें पर उपासना का ही नहीं प्रेम का ही विषय बनाया। उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पथ खड़ा किया।"

इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कबीर धार्मिक कवि थे, और उनकी दृष्टि भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार सांसारिकता की ओर कम और परलोक की ओर अधिक थी। मानव-जीवन को भी उन्होंने महत्व दिया वह समाज सुधारक के रूप में भी उल्लेखनीय हैं। उनकी समाज सुधार से सम्बन्धित कविताओं में प्रचलित वाह्याडम्बरों के प्रति विरोध की ध्वनि थी। किन्तु अपने सिद्धान्त का जो अंश उन्होंने सूफियों से लिया वह स्पष्टतया इस बात का पोषक है कि वे इस्लामी संस्कृति से किसी न किसी सीमा तक प्रभावित थे। प्रेम की बेचैनी और विरह की व्याकुलता का जो चित्रण संत कबीरदास ने किया, उससे हिन्दी साहित्य में एक नवीन परम्परा की स्थापना हुई। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि भारतीय भावुकता का सामन्जस्य कबीर की कविता में हुआ। कबीर के द्वारा स्थापित इन मान्यताओं का पालन अन्य सन्तो ने किया।

कबीर की निम्नलिखित पंक्तियों में प्रेम की पीड़ा, और प्रेमी के हृदय की जो व्यग्रता वर्णित है उसे देखिए:—

"अंखियन तो झाँई पड़ी, पथ निहारि निहारि।
जिहृवा तो छाला पड़े, नाम पुकारि पुकारि॥"

यह भारतीय साहित्य के लिए नवीन बात थी। इसके पीछे सूफियों की विरहानुभूति का ही प्रभाव है।

सूफियों के दर्शन के अनुसार जीव ब्रह्म से मृत्यु के पश्चात् मिल सकता है। इससे दूसरा सिद्धान्त यह निकला को शीघ्र से शीघ्र मृत्यु को प्राप्त किया जाय, जिससे ब्रह्म से मिलन हो। भारत में इसके पूर्व बौद्ध भी जीवन के दीपक को बुझा देने को अपना परम उद्देश्य मानते थे। जैन साधक तो जीवन दीप बुझने के पूर्व शरीर को अधमरा कर देने के समर्थक थे। मृत्यु का भय है, यह बात अभी तक स्पष्ट शब्दों में किसी ने भी नहीं कहा था। परन्तु सन्त कबीर को जब ब्रह्म वियोग की तीव्र अनुभूति हुई तो उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया की मृत्यु त्याज नहीं काम्य है:—

"जिन मरने से जग डरे सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूँ कब देखि हैं पूरण परमानन्द॥"

भारतीय जीवन में इस प्रकार की विचारधारा को आश्रय नहीं दिया जाता था, परन्तु इस्लाम या सूफी प्रभाव के कारण इस प्रकार की भावना का विकास हुआ। भक्त कवियों ने जीवन की उपयोगिता भगवान की सेवा करने में ही बताई। उनकी दृष्टि में सेवा के सामने मोक्ष प्राप्ति भी तुच्छ था परन्तु कबीर पर इसका प्रभाव न पड़ा वे फारसी के सूफी कवियों से ही अधिक प्रभावित हुए और मृत्यु को काम्य और मोहक बना दिया। यह प्रभाव हम आधुनिक हिन्दी कविता में भी देखते है।[५८]

इस प्रकार सूफी कवियों के प्रेम की विरहानुभूति एवं प्रिय से मिलन की आकांक्षा से प्रभावित हुए, कबीर ने परमात्मा को पति और अपने को 'बहुरिया' माना है। विरह एवं मिलन की बेचैनियों का भी मार्मिक चित्रण किया।

सूफी कवियों द्वारा नर-नारी के शारीरिक मिलन से जीव ब्रह्म मिलन की जो उपमा दी गयी, उसका भी प्रत्यक्ष प्रमाण हमें भारतीय भक्ति धारा में दृष्टिगत होता है। शृंगारिकता का गहरा पुट इसी कारण आया है। परन्तु यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इस धारा का आगमन मुसलमानों के पूर्व भी आरम्भ में चुका था।

अब यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सूफी काव्य का प्रभाव किस वातायन से आया। ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों के यहाँ प्रेम का आलम्बन निर्गुण ब्रह्म था। इसी कारण प्रेम को दीप्त करने का कोई स्पष्ट आधार इन कवियों को न प्राप्त था। अतएव प्रेम भाव की महत्ता का प्रतिपादन करने के लिए कबीर ने विरह की अनुभूति पर आश्रित आहों के आधार पर हृदय के फटने, आँखों में झाँई पड़ने, जीभ में छाले पड़ने के माध्यम से यह भी स्पष्ट कर दिया कि जो 'शीश उतारे भुइ धरै' वही उसको प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार कबीर द्वारा इस्लाम एवं हिन्दू संस्कृतियों का समन्वय हुआ। सूफियों से बहुत पूर्व ही कबीर ने प्रेम की महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा था:—

"ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।"

 

 

कबीर साहित्य की महान परम्पराएँ

साहित्य एवं जीवन द्वारा परम्पराओं का जन्म भी होता है और परिपालन भी होता है। कबीर ने हमारे साहित्य की अनेक परम्पराओं को अपनी महत्वपूर्ण जन कल्याणकारी रचनाओं के द्वारा बल प्रदान किया, और साहित्य की महान् परम्पराओं को जीवन प्रदान किया। भूत की घटनाओं और वर्तमान के कठोर सत्यों को इन्होंने भविष्य से शृंखलाबद्ध कर दिया। उनके साहित्य में संस्कार गत रूढ़ियों, साहित्यिक मान्यताओं और तत्कालीन परिस्थितियों का अद्भुत समन्वय एवं चित्रण मिलता है। परम्परा भूत और वर्तमान के सोपानो को पार करती हुई भविष्य की ओर अग्रसर होती है। दूसरे शब्दों में वह अतीत से भविष्य की ओर प्रगति की मूल धारा है, जो क्रमशः चली आ रही है, परन्तु उस सरिता के समान जो कही पर तीव्र गति से और कही पर मध्यम गति से बहती रहती है। इसमें सदैव एक तारतम्य रहता है, और यही इसकी प्रभावित करने की शक्ति है।

कबीर की परम्परा को समझने के पूर्व उनकी एक दो सामान्य विशेषताओं की ओर ध्यान देना आवश्यक है। कबीर स्वभाव से ही बुद्धिवादी और क्रान्ति प्रिय संत थे। उनका रूढ़ि विरोध क्रान्ति की सीमा तक पहुँच गया था। साथ ही उनके निष्कपट व्यवहार ने उन्हें अत्याधिक लोक प्रिय बना दिया है। कबीर सच्चे सत्यान्वेषक थे। सत्य का अन्वेषण उन्होंने कोरे वाग्जाल पर ही नहीं किया है, वरन अनुभवों की शिला पर सत्य की खोज के साथ-साथ धर्म के सामान्य तत्वों पर अधिक बल दिया। सामान्यतया कबीर साहित्य की मुख्य परम्पराएँ है:—

(१) मानवतावाद (२) धार्मिकता (३) जातीयता (४) प्रगतिशीलता (५) शाश्वतता (६) सजीवता

मानवतावाद

कबीर साहित्य की सर्व प्रथम महान परम्परा मानवतावाद है। भारतीय दर्शन के इतिहास में मानवतावाद के चिन्तन और विषलेशण का सर्वोत्तम समय या उपनिषद् काल। यथा ग्रीक दार्शनिकों ने भी आत्म ज्ञान और आत्म विश्लेषण पर बहुत जोर दिया है। आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेना मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य समझा जाता था। मनुष्य का सवश्रेष्ठ विकास या आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेना। इसके बाद और कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता है। आत्म ज्ञान के अनन्तर मनुष्य का परम कर्तव्य समझा जाता है, उस ब्रह्म का साक्षात्कार अथवा प्राप्त करना जो समस्त जगत का हेतु कारण या कर्त्ता है। इस प्रकार आत्म ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े दार्शनिकों ने महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की और अपने विचारों के प्रसार के लिए अथक परिश्रम किया। सम्राटों और शासकों के दरवार में विद्वान् एवं ज्ञानी पुरुष ज्ञान प्राप्ति की चर्चा के तदनुसार वातावरण का प्रसार करके मानवतावाद का उपदेश दिया करते थे। उनके चिन्तन और चर्चा विषय होता था "ज्ञान" एवं "मानवतावादी विचार।"

इसमें सन्देह नहीं है कि वह मानवतावादी दृष्टिकोण जिसका प्रचार भारतीय दार्शनिकों ने समय-समय पर किया था, एक बड़े भारी कल्याणकारी वातावरण के प्रचार में अत्याधिक सहायक हुआ। इस विचार धारा ने एक ऐसे वातावरण की सृष्टि की जहाँ मानव हृदय से मानव के प्रति सहानुभूति का स्रोत प्रस्फुटित हो उठा, और एक दूसरे को समझने में सहायता पहुँची। मानवतावाद के प्रचार में उपनिषद् साहित्य एवं तत्कालीन दार्शनिकों ने बड़ी सहायता प्रदान की। इस दृष्टि से उपनिषद् काल मानवतावाद के प्रचार के लिए सबसे उत्तम समय माना जाता है।

मानव की शाश्वत सुख की लालसा उसके अमृततत्व में ही सन्निहित रहती है। मानव के सुख का लक्ष्य या उद्देश्य शारीरिक सुख या भौतिक सम्पत्ति की प्राप्ति ही नहीं होती वरन् इसके अतिरिक्त कुछ और भी है जो मानव को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखता है और वह है 'सत्य' और उसकी प्राप्ति भौतिक सम्पत्ति और भौतिक सुख के आनन्द से मानव का चित्त कभी न कभी उचट जाता है, परन्तु सत्यं, शिव, सुन्दरम् के सान्निध्य और नैक्ट्य में रहकर मानव का मन कभी भी विकृत नहीं होता है। वास्तव में मानव जीवन का चरम उद्देश्य या लक्ष्य है, चिर सत्य की प्राप्ति करना। मानव की आत्मा की उन्नति तभी हो सकती है, जब समस्त जीवों पर समान स्नेह हो और जब सांसारिक वस्तुओं में आशक्ति न हो। भारतीय दार्शनिकों ने बारम्बार "आत्मवत सवंभूतेषु यः पश्यतिसः पंडितः" का उपदेश दिया है। हमारी चिन्तन धारा सदैव से इस बात पर जोर देती रही है कि दूसरे को आत्मवत् समझना चाहिए दूसरे के कष्टों व्यथाओं और दुःखों को अपनी अनुभूति बनाना चाहिए। इस उदार दृष्टिकोण ने भारतीय जीवन के समस्त कलुषों को धोकर उसे निर्मलता प्रदान करने का प्रयत्न किया। कहना न होगा कि इस दृष्टि ने भारतीय जीवन ने दिव्यता का संचार किया और उसे उदात्त बनाने में अपूर्व योग प्रदान किया।

मानवतावाद का आधारभूत या मूल सिद्धान्त है समस्त प्राणियों को 'आत्म' से भिन्न न समझना, समस्त जीवों में दया भाव का समान रूप से प्रसार करना, सबकी दुःख की अनुभूति को आत्मानुभूति बनाना, इसका प्रमुख कारण यह है कि सबका रचयिता एक ही है। एक ही अंश के सब अंशी हैं, फिर मानव-मानव के बीच यह विरोध कैसा? न कोई बड़ा है, न कोई छोटा, न कोई उच्च है, न कोई नीच। एक ही ईश्वर ने सबको जन्म दिया है। सब समान हैं। जाति-पांति का भेदभाव नहीं होना चाहिए। केवल कर्म से ही मनुष्य कुछ भी बन सकता है।

कबीर के शब्दों में:—

जाति न पूछो साधु की पूछो उसका ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान॥

भारतीय मानवतावाद की पृष्ठ भूमि में आध्यात्मिकता ही है। विदेशियों के भीषण आक्रमणों से भी भारतीय योगियों को शान्ति भंग नहीं हुईं। उनके यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि बिना किसी विध्न बाधा के चलते रहे। वे बाह्य संसार को छोड़कर व्यानावस्थित होकर आभ्यान्तरिक साधना में सलग्न रहे। आत्मा की स्वतंत्रता के आगे देश की स्वतन्त्रता का महत्व उनके मन में न बैठ सका। तथापि उन्होंने उसकी ओर ध्यान न दिया।

कबीर के युग में जब कि उत्तर पश्चिम से अनवरत रूप से आक्रमण हो रहे थे, भारतीय धर्म, साहित्य एव संस्कृति अत्याधिक संकट पूर्ण परिस्थितियों में स्वांस ले रही थी, और जबकि निराशा तिमिर भारतीय जनता को विनाश के गर्त का ओर उत्तरोत्तर अग्रसर कर रही थी। उस समय कबीर ने अपनी मधुर वाणी से जीवों को समता और एकता का संदेश दिया।

युग प्रवर्त्तक रामानन्द से प्रेरित और अनुप्राणित होकर सन्त कबीरदास ने मानवतावादी विचारधारा का प्रचार एवं प्रसार करने का प्रयत्न किया। इतना ही नहीं उन्होंने भारतीय चिन्तनधारा में एक नवीन परिच्छेद प्रारम्भ किया जिनके द्वारा समानता की भावना को प्रसार मिला। कबीरदास ने एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जिस पर उनके अनन्तर आविर्भूत अन्य सन्तो ने चलकर समता का उपदेश भारतीय जनता को समय-समय पर सुनाया। इनकी प्रेरणा से हिन्दी के ज्ञानाश्रयी भक्त कवियों की एक शाखा चल पड़ी। ये सन्त सभी जातियों के थे, इनकी मूल भावना श्री "हरि का भजै सो हरि का होई।" जाति-पाँति के भेदभाव से इन्हें मोह न था‌ उन्होंने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में ललकार कर कहा कि सभी एक ही ब्रह्म की कृतियाँ है। सभी एक ही कुम्हार को रचना है। फिर 'को ब्राह्मण को सूझा' भेदभाव तो मन का मैल है।

कबीर का लक्ष्य बड़ा ही व्यापक था। इन्होंने जीवों के निस्तार के लिए उच्चादर्शों के उपदेश दिए। मानव को कल्याणकारी पथ पर अग्रसर करना ही इनका सबसे बढ़ा लक्ष्य था। कबीर के हृदय में व्यथित के हेतु सहानुभूति एवं सम्वेदना की भावना थी। वे संसार को सुखी और प्रसन्न देखना चाहते थे। इसी कारण उन्होंने मानव की आर्थिक सामाजिक तथा आध्यात्मिक सभी दिशाओं को सुधारने की चेष्टा की। मानवता को सदैव ही शृंखलाओं से उन्मुक्त देखना चाहते थे और भविष्य में एक स्वस्थ एवं आशापूर्णं दृष्टिकोण के आकांक्षी थे। यह मानवतावादी दृष्टिकोण कबीर के साहित्य में ओत-प्रोत है। मानव के आध्यात्मिक और लौकिक जीवन को सुखी बनाने के हेतु कबीर ने बारम्बार सन्मार्ग एवं कल्याणकारी पक्ष की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने पारमार्थिक सत्ता की एकता निरूपित करके यह प्रतिपादित किया कि मानव-मानव में भेद नहीं है। सब प्राणी एक ही कलाकार की कृतियाँ हैं। हिन्दू और मुसलमानों ने अपनी-अपनी मिथ्या कल्पना के आधार पर ब्रह्म के सम्बन्ध में निस्सार कल्पनाएँ स्थापित कर ली हैं। माया, भ्रम अथवा अज्ञान के कारण हम सत्य को नहीं देख पाते हैं। सत्य हो ब्रह्म है और ब्रह्म ही सत्य है। उसमें द्वैत नहीं है। वह पूर्णतया अद्वैत, अगम, अज्ञात, अमर और अनन्त है। संसार का कोई भी कार्य उसकी इच्छा के बिना नहीं सम्पादित होता है। वह सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ है। उस ब्रह्म को लेकर जो भेद-भाव हिन्दू और मुसलमानो में चलते हैं वह निरी मूढ़ता का द्योतक है। अज्ञान का विसर्जन करके मूढ़ता का परित्याग करके प्रेम सद्भावना और सहृदयता का प्रसार न केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए वरदान है वरन् समाज के उत्थान और विकास के लिए भी नितान्त आवश्यक और उपयोगी है। सद्भावना के प्रसार से मनुष्य के जीवन में औदार्य, स्नेह, करुणा, प्रेम, त्याग तथा विश्वबन्धुत्व की भावनाओं का स्वतः विकास हो जाता है, जो मानव के लिए नितांत आवश्यक है। मनुष्य का स्वभाव श्रेय भी है, प्रेय भी है। धीरवान व्यक्ति दोनों को पृथक्-पृथक् दृष्टि से देखते हैं। साधु श्रेय को ग्रहण करते हैं और असाधु प्रेम को।

मानवतावाद कबीर की सबसे बड़ी विशेषता है। कबीर जैसे उदार सन्त कवि संसार में प्राणी मात्र को सुखी देखने के आकांक्षी थे।

मानवतावाद से प्रेरित होकर कबीर ने संसार को भाँति-भाँति के कल्याणकारी मार्ग प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया। उनके मानवतावाद का केन्द्र बिन्दु है अद्वैत ब्रह्म है। वही सर्वजगत का नियंता है।

ब्रह्म ही कबीर का प्रतिपाद्य और साध्य है।  

पावक रूपी साइयां, सब घट रहा समाय।
चित चकमक लागे नहीं, ता ते बुझि बुझि जाय॥

मानवतावाद विषयक अपने विचारों के प्रसार के लिए कबीर ने सप्त महाव्रतों का उपदेश दिया, जिनसे मानव का व्यक्तिगत तथा समाजगत जीवन समुन्नत बनता है। (१) सत्य (२) अहिंसा (३) ब्रह्मचर्य (४) अस्वाद (५) अस्तेय (६) अपरिग्रह (७) अभय।

सत्य ही ज्ञान है, ब्रह्म है और संसार की वास्तविक गति है। कबीर से सत्य के प्रति बड़ी श्रद्धा प्रकट की है। सत्य व्यवहार, सत्य कर्म, सत्य वचन, सत्य अनुभूति जीवन को उदात्त बनाने में सहायक होती है और इस प्रकार मानव समाज सुखी और सम्पन्न बनता है। इसलिये कबीर ने कहा था—

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदे, साँच है, ताके हिरदे आप॥

दूसरा महाव्रत है 'अहिंसा'। अहिंसा मानवतावाद की प्राण शक्ति है। जब तक हम हिंसा में लगे रहेंगे तब तक हम एक दूसरे के प्रति ममता की भावना की स्थापना कर ही नहीं सकते हैं।

कबीर की अहिंसा भावना बड़ी व्यापक है। वह तो यहाँ तक कहते हैं कि—

घट घट में वह साईं रमता,
कटुक बचन मत बोल रे॥

कबीर ने भय की भावना को भी उत्पन्न कराके अहिंसा व्रत पालन करने का उपदेश दिया है—

(१)

मास मास सब एक है, मुरगी हिरनी गाय।
आंख देख जे खात है, ते नर नरकहि जाय॥

(२)

बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल।
जे नर बकरी खात है तिनको कौन हवाल॥

अहिंसा के विषय में लिखते समय कबीर का अर्थ केवल 'बात न करना', 'जीव न मारना' हिंसा न करना ही नहीं है वरन् उस संकुचित क्षेत्र से बाहर आकर कटु वचन तक बोलने को उन्होंने मन किया है।

इसी प्रकार कबीर में ब्रह्मचार्य धारण करने का भी उद्देश दिया ब्रह्मचार्य जीवन के लिए बहुत आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य इन्द्रियों का घेरा होता है। इन्द्रियों की प्रचंड ज्वाला में जलता हुआ मानव उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार दीपक की लौ पर पतंग नष्ट हो जाता है। वासना में संलग्न मानव कभी भी साधना और परमार्थं में दत्त-चित्त नहीं हो सकता है। कबीर ने मन, वचन, कर्म से ब्रह्मचर्य, पालन करने का उपदेश दिया है। सयम जीवन के लिए सबसे बड़ा वरदान और प्रेरक शक्ति है। कबीर ने इसीलिए मानवतावादी भावना के प्रसार के लिए ब्रह्मचर्य को उपयोगी माना है। कबीर के इस प्रकार के उपदेश चेनावनी के अंग में संग्रहीत हुए हैं। इसके अतिरिक्त "पतिव्रता को अंग" में भी संयम एवं ब्रह्मचर्यं भावना की अभिव्यक्ति हुई।

उपर्युक्त इन तीन महाव्रतों पर विचार कर लेने के बाद विचारणीय हैं शेष चार महाव्रत। ये महाव्रत हैं अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह तथा अभय। कबीर ने इनके प्रति इसलिए महत्व स्थापित किया है कि ये गुण या व्रत औदार्य, विनय शीलता और व्यापक भावनाओं का सर्जन करते हैं इनके द्वारा मानव-मानव को समझने का प्रयत्न करता है और व्यापक भावनाओं को धारण करता है। कबीर ने मानव की हर प्रकार की प्रवृत्तियों की आलोचना की। उन्होंने अपने समय की जनता को बताया कि मनुष्य को एक दूसरे का शोषण नहीं करना चाहिए। सबको दीनता की भावना ग्रहण करके सच्चाई और ईमानदारी के साथ जीवन यापन करना चाहिये। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि—

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय
जस दुतिया को चन्द्रमा सीस नवै सब कोय॥

सच यह है कि यदि सभी संतोष और दीनता को ग्रहण कर ले, तो संसार के समस्त अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार तथा सघर्ष समाप्त हो जायँ और मानव, मानव बनकर जीवन यापन करने लगे। कबीर के मानवतावाद के सन्तोष एवं दीनता अभिन्न अंग हैं। इन उपदेशों ने युग युग से पीड़ित एवं निराश जनता के हृदय में आशा का संचार किया। कबीर ने काव्य रचना में संजोये हुए सरल भावों द्वारा भटकती हुई जनता का पथ प्रदर्शन किया। पथ भ्रष्ट को मार्ग दिखाई पड़ा और वाह्याडम्बर से दूर मानव एक दूसरे के दुःख एवं कष्ट की ओर ध्यान देने लगा। धीरे-धीरे जनता इस ओर आकर्षित हुई।

कबीर का विचार था कि सद्गुण व नैतिक शक्ति बहुत ही प्रभावोत्पादक होती है। इस कारण मानव में मानसिक शक्ति बढ़ाकर उत्साह भरने की चेष्टा की। उनका विचार था कि मनुष्य में वह शक्ति है, कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कबीर ने मानवतावाद की ओर अधिक से अधिक ध्यान दिया। प्रेम, अहिंसा, सत्य, शान्ति, त्याग क्षमा, दया, सहनशीलता ही मानवतावाद के गुण हैं। इस पर कबीर ने स्थान-स्थान पर प्रकाश है।

धार्मिकता

कबीर साहित्य की द्वितीय महान् परम्परा "धार्मिकता" है। इनके सम्पूर्ण साहित्य की रचना ही धर्म को दृष्टि में रख कर हुई है। यह अवश्य है कि धर्म के क्षेत्र में उन्होंने एक क्रान्ति उपस्थित कर दी। परन्तु फिर भी जिस कठोरता से रूढ़ियों का विरोध किया उसी दृढ़ता से उन्होंने बुद्धिवादी सिद्धान्तों की भी स्थापना की है। वे किसी भी बात को तभी स्वीकार करते थे, जब वह उनकी बुद्धि के अनुभव की कसौटी पर खरी उतरती थी। कबीर सच्चे सत्यान्वेषक थे। उनका धर्म बड़ा व्यापक है। जिस प्रकार उनका ब्रह्म व्यापक और सब जाति वर्गों का जन्मदाता है, उसी प्रकार उनका धर्मं भी व्यापक है। इनका धर्म सार्वभौमिक और युगों तक अभिनव बना रहने वाला धर्म है। देश काल की सीमाएँ उनके धर्म और उनके उदात्त रूप का स्पर्श नहीं कर पाती हैं। कबीर का धर्म-धनी-दीन बालक-वृद्ध, नर नारी सबके लिए समान रूप से उपयोगी और महत्वपूर्ण है। उनके व्यापक धर्म का आधार मानव की शाश्वत सद्प्रवृत्तियाँ हैं। यही शाश्वत सद्प्रवृत्तियाँ जीवन को उदात्त और समुन्नत बनाती हैं। कबीर ने मानव जीवन को उन्नत और विकासशील बनाने के लिए उपदेश दिये।

कबीर की वानियों में बारम्बार इन्हीं बातों पर जोर दिया गया है। उन्होंने औदार्य, दया, क्षमा, त्याग, सहनशीलता, अहिंसा, धैर्य और सत्य को मानव जीवन और मानव प्रकृति के अविच्छिन्न अंग माने हैं। उनके काव्य में इन विषयों पर शतश साखियों की रचना हुई और प्रत्येक साखी उनको सत्यानुभूति की दृढ़ प्रमाणित करने में समर्थ है।

कबीर का धार्मिकता वाह्यचारी, वाह्याडम्बरों पृथक और परे है। उनकी धार्मिकता में छुआ छूत, चन्दन-तिलक, व्रत माला, जर तप, जाप, नमाज और अजान में नहीं सन्निहित है। वरन उनकी धार्मिकता व्यक्त है, शुद्ध है, और उदात्त है। उनका सन्देश है, कि मानव को मानव के सहज धर्म का परिपालन करना चाहिए। उसे 'सुरत्व को जननी' मानव योनि को दूषित कर्म करके अपना नित नहीं करना चाहिए। यही कबीर की धार्मिकता है, वही अत्यन्त व्यापक धर्म है।  

जातीयता

कबीर साहित्य की तृतीय महान परम्परा जातीयता है। अपनी वाणी द्वारा कबीर ने देश की एक महान सांस्कृतिक चेतना में बाँध दिया था। देश के प्रत्येक क्षेत्र में महान सांस्कृतिक चेतना के फल स्वरूप जातीयता का विकास हुआ। उनकी भाषा में समस्त भाषाओं विभाषाओं और बोलियों का मधुर मिश्रण है। उन्होंने व्याकरण के नियमों की ओर भी ध्यान नहीं दिया। जिससे स्पष्ट हो जाता है कि जनता के सम्मुख केवल अपने भावों की अभिव्यक्ति ही करना चाहते थे। काव्य रचना की ओर उनका ध्यान न था। इनमें सन्देह नहीं कि उनकी लेखनी मुख से निकले हुए शब्द हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बन गए हैं।

कबीर की वाणी का प्रभाव जनता पर पड़ा। क्योंकि उनकी भाषा में पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, ब्रज, अवधी खड़ी बोली, आदि के उदाहरण मिलते हैं।

जातीयता का विकास सामन्ती शृंखलाओं के छिन्न-भिन्न हो जाने पर ही हुआ। कबीर जनता की मनोवृत्ति से भली भाँति परिचित थे। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि शासक वर्ग की सभ्यता संस्कार और जातीयता का जनता से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है, वरन् सामन्ती जातीयता मानव के विकास में वाधक है। जनता की संस्कृति और जातीयता का सम्बन्ध सर्वथा दूसरे वर्ग से है। परन्तु कबीर ने जातीयता के प्रचार लिए रूढ़िवादी साधनों को दूर कर नवीन साधनों को अपनाया है। जातीयता का प्रसार कबीर ने भाषा द्वारा किया है।

भाषा को जातीयता का गौरव पूर्ण अंग जीवन प्रगति माना। कबीर के शब्दों में भाषा का गौरव निम्नलिखित है:—

'संस्कीरति है कूप जल भाषा बहता नीर'

जीवन भर वह इसी बात का प्रयत्न करते रहे कि संकुचित क्षेत्र से निकल कर विस्तृत क्षेत्र में जनता जातीयता के अर्थ समझ सके। सन्त कबीर समस्त प्रकार की संकीर्णता के विरोधी थे। इसीलिये उन्होंने एक ऐसी वृहत्तर भावना का प्रतिपादन और स्थापना की जो जनता के निकट और जनता के लिए सर्वथा उपयोगी थी।

प्रगतिशीलता

कबीर साहित्य की चतुर्थ महान परम्परा है प्रगतिशीलता। सामान्यतया प्रगतिशीलता का अर्थ होता है स्पन्दनशीलता, उत्तरोत्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर रहना।

कबीर ने समाज, साहित्य, धर्म सभी में प्रगतिशील विचारों का समावेश कर युग युग से पीड़ित एवं प्रताड़ित जनता का उद्धार किया। जिन विकृत तत्वों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया जाग्रत हुई, उनमें मुख्य तत्व ये हैं:—

(१) पुरोहितवाद, (२) वर्णाक्षम धर्म, (३) मूर्ति पूजा, (४) धार्मिक अन्धविश्वास, (५) वाह्याडम्बर, (६) पूजा विधि, (७) पौराणिकता।

हिन्दू धर्म के सामान्य विश्वास अपने मूल रूप में बड़े ही सात्विक थे, परन्तु मध्य युग तक आते-आते ये सात्विक विश्वास अन्धविश्वासों में परिणित हो गये थे, और उनका प्रचार धर्म के सभी क्षेत्रों में था। मध्य युगीन जनता के लिये ये विश्वास परम्परागत रूढ़ियों के रूप में बन कर रह गये थे कबीर की वाणी ने इन्हीं विकृत रूपों का खण्डन करने में प्रवृत्त हुई। आपसी द्वेष की राक्षसी प्रवृत्ति को रोक कर कबीर सत् धर्म की प्रतिष्ठा में कटिबद्ध हो गये। रक्तपात, भौतिकता, और प्रतिकार भावना के विरुद्ध उपदेश दिये। संध्या, वंदना, पंच महायज्ञ, बलि, श्राद्ध, षोड़श-संस्कार विविध प्रकार के व्रत, तीर्थ शौचा-शौच सम्बन्धी आचारों का खंडन किया जो कि केवल परम्परागत ही रह गये थे। कबीर साहित्य प्रगतिशीलता का प्रतीक है। प्रत्येक दृष्टि से कबीर का साहित्य प्रगतिशीलता के रंग में अनुरंजित है। काव्य के अन्तरंग एवं वहिरंग उभय पक्षों में कवि पूर्णतया प्रगतिशील हैं। क्या भाषा, क्या भाव, क्या रस, क्या छन्द हर दृष्टि से उन्होंने प्रयोग किये जो उनके युग की मान्यताओं को पुष्टता प्रदान करते हुए भविष्य के लिए मानदण्ड बन गये।

शाश्वतता

संत काव्य में मानव जीवन की अनेक शाश्वत प्रवृत्तियों की बड़ी सुन्दरता के साथ चित्रण हुआ। युग-युग से मनुष्य प्रेम, क्षमा, दया, विश्वबन्धुत्व और उदारता में विश्वास करता चला आ रहा है। मनुष्य सदैव से उदात्त वृत्तियों से युक्त रहा है। हीन कार्यों से हटकर हमारा मन स्वत शान्तिमय वातावरण में रमना चाहता है। कबीर के काव्य में मनुष्य को इन्हीं जन्म जात और शाश्वत प्रवृत्तियों पर जोर दिया गया है। मानव समाज के सबर्पमय वातावरण का परित्याग करके आध्यात्मिक वातावरण में सन्तोष प्राप्त करता है। कबीर ने आध्यात्म को प्रतिष्ठा के लिए बार-बार उपदेश दिया है। आध्यात्म का विषय शाश्वत और चिरंजीवी है, इसी कारण कबीर साहित्य शाश्वत साहित्य है।

कबीर साहित्य की रचना किमी स्वार्थ भाव से प्रेरित होकर नहीं की थी। उनकी रचनाएँ स्वान्तः सुखाय और 'बहुजन हिताय' हुई थीं। इसीलिए वे रचनाओं में मानव-जीवन के हित की भावना अप्रत्यक्ष रूप से प्रवाहित होती हुई शताब्दियों से जनता को सही मार्ग पर अग्रसर कर रही है।

सजीवता

कबीर साहित्य की षष्ठ महान परम्परा सजीवता है। कबीर के प्रति यह आरोप लगाया जाता है कि वे पलायनवादी थे, और उन्होंने भारतीय जनता को पलायनवाद का हर प्रकार से पाठ पढ़ाया। जिसके फलस्वरूप भारतीय जनता अकर्मण्य बनती गई है। लेकिन तथ्य इसके विरुद्ध है। कबीर ने अपने युग की निराश जनता को आशा का प्रकाश दिखाया। उन्होंने भग्न हृदयों में उल्लास का संचार किया। जीवन को उन्होंने जीने योग्य बनाया और इस प्रकार से उन्होंने उदात्त एवं सात्विक जीवन का उपदेश देकर साहित्य के क्षेत्र में नवीन परम्पराओं को स्थापित किया। कबीर के काव्य में एक अलौकिक चेतना एवं सजीवता है। जिसकी आधारशिला आध्यात्मिक प्रणय की प्रतिष्ठा, आत्मानुभूतिगत माधुर्य, साधनात्मक रहस्यवाद और प्रतिभा आदि हैं। इन्हीं तत्वों ने कबीर के काव्य की में सजीवता एव माधुर्य का समावेश करके उसे सक्रिय बना दिया है।

 

  1. भुजा वाँधि मिलाकर डारिओ। हसती क्रोपि मूँड महि मारिओ॥
    हसती भागि कै चीसा मारैं। इआ मूरति कै हउ बलिहारै॥
    आहि मेरे ठाकुर तुमरो जोरु। काजी बकिवो हसती तोरु॥१॥
    रे महावत तुमु डारउ काटि। इसहि तुरावहु घालहु साटि॥
    हसती न तोरै घरै घिआनु। बाकै रिदै वसै भगवानु॥२॥
    किआ अपराधु संत है कीन्हा। वाँधि पोटि कुँचर कउ दीन्हा॥
    कु चरू पोट लै लै नमसकारै। बूझी नहीं काजी अधियारै॥३॥
    तीनि वार पातीआ भरि लीना। मन कठोरु अजहू न पतीना॥
    कहि कबीर हमरा गोविन्दु। चउथे पद महि जनका जिन्दु॥४॥

    (राग गौंड ४)


    तथा—
    गग गुसाइनि गहरि गम्भीर। जंजीर वाघि करि खरे कबीर॥
    मनु न डिगैं तनु काहे कउ डराइ। चरन कमलचित रहियो समाइ॥१॥
    गंगा को लहरि मेरी टुटी जंजीर। मृगछाला पर बैठे कबीर॥
    कहि कबीर कोउ सग न साथ। जल थल राखन है रघुनाथ॥

    (रागु भैरउ १८)
    —सन्त कबीर
    —डा॰ रामकुमार वर्मा

  2. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ॰ रामकुमार वर्मा, पृ॰ ३३४।
  3. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पृ॰ ३३५।
  4. सन्त कबीर पृ॰ ३८।
  5. भक्तमाल की टीका, प्रियादास।
  6. काम क्रोध मद लोभ की जब लग तट में खान।
    कहाँ मूर्ख कह पंडिता दोनों एक समान।

  7. जहाँ काम तहं नाम नहिं जहाँ नाम नहिं काम‌।
    दोनों कबहूँ ना मिलै रवि रजनी एक ठाम॥ कबीर ब॰ पृ॰ ४८

  8. परनारी पैनी छुरी विरला वाचै कोय।
    ना वहि पेट सचारिये सर्व सीन की होय॥
    रावन के दस सिर गए पर नारी के संग। कबीर ग्र॰, पृ॰ ५५, ५६

  9. कामिनी सुन्दर सर्पिणी जो छेड़ै तेहि खाय।
    जो गुरुचरन न राचिया तिनके निकट न जाय॥

  10. नैनो काजर पाइ कै गाढ़ै वाघे केस।
    हाथो मेहदी लाइ के बाघिनि खाया देस॥

  11. नारि नसावै तीन गुन जो नर पासे होय।
    भक्ति-मुक्ति निज ध्यान में पैठि न सक्कै कोय॥

  12. सती न पीसै पीसना जो पोसै सो राड।
    साधू भीख न माँगही जो माँगै सो भाँड॥

  13. पतिवरता मैली भली काली कुचित कुरूप।
    पतिव्रता के रूप पर वारो कोटि सरूप॥

  14. गोधन गजधन वाजिधन और रतन धन खान।
    जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान॥

  15. की त्रिस्ना है डाकिनी की जीवन का काल।
    और और निस दिन चहै जीवन करै विहाल॥

  16. कबिरा आप ठगाइये और न ठगिए कोय।
    आप ठगे सुख ऊपजै और ठगे दुख होय॥

  17. सब ते लघुताई झली लघुता से सब होय।
    जस दुतिया को चन्द्रमा सीस नवै व कोय॥

  18. साधु भया तो भया माला पहिरी चारि।
    बाहर भेष बनाइया भीतर भरी भगरि॥
    भक्त विरक्त लोग मन ठाना, सोना पहिरि लजाबै बाना।
    घोरी घोरा कीन्ह बटोरा, गाँव पाय जस चले करीरा॥

  19. सहज सहज सब को कहै सहज न चीन्हैं कोइ।
    जिन्ह सहजैविषया तजी सहज कहीजै सोइ॥
    सहज सहज सबको कहै सहज न चीन्है कोइ।
    पाँचू राखै परसतौ सहज कहीजै सोइ॥
    सहजै सहजै सब गए सुत विन कामणिकाम।
    एक मेक ह्वै मिलिरह्या दास कबीरा राम॥

  20. हिन्दू मुसलमान दो दीन सरहद बने
    वेद कतेव परपंच साजी।

    —ज्ञानगुदारी पृ॰ १६


    वेद किताब दोष फंद सवारा। ते फंदे पर आप विचारा॥

    —बीजक पृ॰ २६९


    चार वेद ब्रह्मा निज ठाना। मुक्ति का मर्म उनहू नहि जाना॥
    हबीबी और नवी कै कामा। जितने अमल सौ सबै हरामा॥

    —बीजक १०४, १२४

  21. पाहन पूजे हरि मिलै तौ मैं पूजूं पहार।
    ताते यह चाकी भली पीस खाय संसार॥

  22. नीव विहूणा देहुरा देह विहूणा देव।
    कबीर तहाँ विलंविया करे अलष की सेव॥

  23. काकर पाथर जोरि के मसजिद लई चुनाय।
    ता चढि मुल्ला बाग दे क्या बहिरा हुआ खोदाय॥

  24. हिन्दू एकादसि चौबिस रोजा मुसलिम तीस बनाए।
    ग्यारह मास कहौ किन टारौ ये केहि माहि समाये॥
    —बीजक पृ॰ ३८८

  25. कबीर वचनावली, पृ॰ १
  26. "जो साहब दूजा कहै दुजा कुल को होय।" २/९
  27. हिन्दू तुरुक की एक राह है सतगुरु इहै बताई।
    कहहि कबीर सुनहु हो सन्तो राम न कहेउ खुदाई॥
    —बीजक शब्द १०

  28. कर सेती माला जपै, हिरदै वहै डडूल।
    पग तौ पाला मैं गिल्या भाजण लागी सूल॥
    कर पकरैं अंगुरी गिनै मन धावै चहुँ ओर।
    जाहिं फिरायाँ हरि सो भया काठ की ठौर॥
    मूंड मुडावत दिन गए अजहूँ न मिलिया राम।
    राम नाम कहु क्या करै जे मन के औरे काम॥
    —क॰ ग्र॰ पृ॰ ४५-४६

  29. सतवानी संग्रह भाग २ पृ॰ ४।
  30. वही पृ॰ २।
  31. वही पृ॰ ३।
  32. ३२.० ३२.१ वही,
  33. कबीर ग्रंथावली पृ॰ ८४ पद १८‌।
  34. वही परया कौ अंग पद १०
  35. संत कबीर पृ॰ २२४, राग भैरव पद १७।
  36. कबीर पदावली पृ॰ ५८, ५९, ६१ तथा कबीर ग्रन्थावली पृ॰ ८७, ९३।
  37. सन्तवानी संग्रह भाग १, पृ॰ ३, ६, ८, ९, ११, १३, १५, १७, २०, २१, २५, २६, २९, ३० तथा प्रायः प्रत्येक पृष्ठ।
  38. वही पृ॰ ९, १३, २४, २६, ३१।
  39. वही पृ॰ ३१।
  40. वही पृ॰ २३, २४, २५, २६।
  41. ब्रह्मवाणी संग्रह भाग १, पृ॰ ५।
  42. {{{1}}} {{{1}}} पृ॰ २६।
  43. वही पृ॰ २, ३, ५, १७।
  44. वही पृ॰ १५१।
  45. वही पृ॰ ९-१०।
  46. वही पृ॰ भाग १ पृ॰ १।
  47. कबीर ग्रन्थावली पृ॰ १३९-१४०।
  48. वही पृ॰ २३, ८६।
  49. स॰ दा॰ स॰ भाग १, पृ॰ २।
  50. कबीर ग्रंथावली पृ॰ १४१।
  51. वही पृ॰ ९२।
  52. स॰ वा॰ स॰ भाग १ पृ॰ १।
  53. कबीर ग्रन्थावली पृ॰ ११, ८६।
  54. वही पृ॰ ६।
  55. स॰ वा॰ स॰ भाग १ पृ॰ १२।
  56. वही पृ॰ १-५०।
  57. वही पृ॰ १, ७ १४, ३३।
  58. इस असीम तम में मिलकर
    मुझको पल भर सो जाने दो
    बुझ जाने दो देव
    आज मेरा दीपक बुझ जाने दो।

    महादेवी वर्मा