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कबीर ग्रंथावली

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कबीर ग्रन्थावली
कबीर, संपादक डॉ० श्यामसुन्दरदास

लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ आवरण से – ११ तक

 

 

कबीर ग्रन्थावली

[ डॉ॰ श्यामसुन्दरदास द्वारा सम्पादित कबीर ग्रन्थावली के अनुसार ]

 

भूमिका-लेखक

डॉ॰ त्रिलोकीनारायण दीक्षित

एम॰ ए॰, एम॰ एड॰, पी-एच॰ डी॰, डी॰ लिट्॰

रीडर, हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय

 

टीकाकार।

डॉ॰ सावित्री शुक्ल

एम॰ ए॰, एम॰ एड॰, पी-एच॰ डी॰, डी॰ लिट्

हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय

(केवल साखी विभाग)

डॉ॰ राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी

बी॰ ए॰, बी॰ एस-सी॰, एम॰ ए॰, साहित्यरत्न,

पी-एच॰ डी॰, डी॰ लिट्

हिन्दी विभाग राजा बलवन्तसिंह कॉलेज, आगरा

(पद एवम् रमैणी)

मूल्य : पन्द्रह रुपये

प्रकाशन केन्द्र

न्यू बिल्डिंग्स, अमीनाबाद, लखनऊ

 
 

प्रकाशक
प्रकाशन केन्द्र
न्यू बिल्डिंग्स, अमीनाबाद, लखनऊ

 

सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन

 

प्रियंवदा प्रेस, आगरा—२

 

पाठकों के प्रति

कबीर की कथा अकथ है। उनका साहित्य अथाह है। प्रस्तुत पुस्तक इसी अथाह की थाह लेने का एक विनम्र प्रयास है।

कबीरदास की रचनाओं को लेकर कई ग्रन्थों का संपादन किया गया है। डा॰ श्यामसुन्दरदास द्वारा संपादित 'कबीर ग्रन्थावली' में हमको कबीर दास के काव्य का सर्वाधिक प्रामाणिक स्वरूप प्राप्त होता है। प्रस्तुत पुस्तक को लिखते समय उक्त 'कबीर ग्रन्थावली' को ही आधार माना गया है।

कबीरदास और कबीर साहित्य को लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और आगे भी लिखा जाएगा। उनकी ग्रन्थावली पर टीकाएँ, 'सजीवन भाष्य' आदि कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। सबमें कबीर के काव्य को समझने-समझाने का प्रयत्न किया गया है। इनमें प्रत्येक का अपना निजी महत्व है।

कबीर के काव्य पर लिखी गई अधिकांश टीकाओं में प्रायः छन्दों के भावार्थ ही दिए गए हैं। अप्रचलित शब्दों तथा दुरूह पदावली को या तो छोड़ दिया गया है अथवा भावार्थ लिखकर विषय को चलता कर दिया गया है। इससे न तो पूरे छन्द की संगति ही बैठती है और न उसका अर्थ ही स्पष्ट होता है। ऐसी स्थिति मे जिज्ञासु पाठक की संतुष्टि नहीं हो पाती है और कबीर का काव्य कठिन, दुरूह, नीरस एवं अटपटा कह दिया जाता है।

मेरी धारणा है कि कबीर को जीवन और जगत का व्यापक अनुभव था। उनकी आध्यात्मिक अनुभूति अत्यन्त गहरी थी। अनुभूतिजन्य पारलौकिक ज्ञान को देश-काल द्वारा आबद्ध लौकिक भाषा में व्यक्त करना यदि असम्भव नहीं, तो दुष्कर अवश्य है। इसी कारण विश्व-चेतना प्रसूत ज्ञान को जब वैयक्तिक चेतनापरक मन ग्रहण करता है, तो उसमें रहस्यात्मकता का समावेश स्वभावतः हो जाता है। फलतः अभिव्यक्ति भी रहस्यात्मक हो जाती है, और बौद्धिकता की कसौटी पर कसने पर वह प्रायः अपूर्ण ही प्रतीत होती है। कबीर का काव्य बहुत कुछ इसी प्रकार का है। उनके काव्य को समझने के लिए हृदय की आँखें आवश्यक हैं। उनका काव्य बुद्धि-विलास की वस्तु न होकर ध्यान और अनुभव का विषय है। कबीर क्या कहना चाहते हैं—इस प्रश्न का उत्तर खोजने पर ही उनकी वाणी का अर्थ खुलता है, अन्यथा वह अकथ कथा ही बना रहता है। अर्थ खुल जाने पर अध्येता चमत्कृत हो उठता है। और काव्य के उपकरणों की झंकार अनहद नाद के समान उसके कानों में गूँजने लगती है। मैंने कबीर के काव्य को इसी रूप में देखने दिखाने का प्रयास किया है। यह बात दूसरी है कि मैं अपने पात्र को लघुता के अनुरूप ही उनके साहित्य-सागर का रस प्राप्त कर सका हूँ।

मैंने प्रत्येक शब्द का अर्थ दिया है, प्रत्येक छन्द का संदर्भ दिया है और तब भावार्थ लिखा है, जिससे पाठक के सम्मुख अर्थ सम्बन्धी किसी प्रकार की उलझन न रह जाये। कबीर ज्ञानी भक्त और भक्त योगी थे। इसी मान्यता के आधार पर मैंने उनके द्वारा प्रणीत प्रत्येक छन्द के अर्थ की आद्यन्त संगति स्थापित करने की चेष्टा की है। आशा है सहृदय पाठकों को अर्थ समझने में विशेष कठिनाई नहीं होगी।

भावार्थ के पश्चात अलंकारों का निर्देश कर दिया गया है और उसके नीचे कबीर के मन्तव्य एवं उनकी चिन्तन-पद्धति को स्पष्ट करते हुए 'विशेष' के अन्तर्गत आवश्यक टिप्पणियाँ दे दी गई हैं।

मुझे विश्वास है कि इस टीका को पढ़ने के बाद कबीर का काव्य दुरूह और अटपटा नहीं लगना चाहिए। वह वाणी के लिए अकथ रहा है और आगे भी रहेगा। मेरी क्या सामर्थ्य है, जो उसको कथनीय बना सकूँ? प्रकाशन केन्द्र लखनऊ के स्वामी श्री पद्मधर मानवीय के प्रति मैं विशेष आभारी हूँ जिनकी कृपा के फलस्वरूप इस पुस्तक का प्रकाशन सम्भव हो सका है।

इस समय मैं केवल कबीर के पदों और उनकी रमैंणियों पर ही लिख सका हूँ। उनकी "साखियों" को लेकर फिर कभी विज्ञ पाठकों के सम्मुख उपस्थित होऊँगा।

कबीर की अकथ कथा को अपनी सामर्थ्य के अनुसार वर्णन करके मैंने आत्म-संतोष अनुभव किया है। आशा है हमारे सुधी पाठक भी इसको पढ़ कर संतुष्ट होंगे।

आगरा
कातिक पूर्णिमा
संवत् २०२८
विनीत—
राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी
 
 

श्रद्धेय बाबू जी
के
अदृश्य चरणों
पर
सादर, सविनय, सप्रेम
समर्पित

 

प्राक्कथन

कबीर साहित्य अपनी विभिन्न विशेषताओं के कारण हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सहजता, सरलता, स्वाभाविकता की दृष्टि में यह अद्वितीय है। कबीर अपने युग के सर्वाधिक चेतनशील प्राणी थे। उनकी वाणी में युग की प्रवृत्तियों की प्रतिध्वनि और समस्याएँ मुखरित हैं। उनका साहित्य, उनके समाज सुधारक, धर्म सुधारक, क्रान्तिकारी और अद्भुत समन्वयकारी रूप को प्रस्तुत करता है। कवियों के आलोचक और निन्दक कबीर स्वतः महाकवि, अद्भुत काव्य शक्ति से सुसम्पन्न, सम्वेदनशील महाकवि थे। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जितने बड़े महाकवि थे, उतने बड़े महामानव भी। अन्तस और माननिक परिस्थितियों को प्रभावित करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। वे समाज के उन्नायक सत्य के गायक और उच्चकोटि के आत्मदर्शी थे। उनकी अभिव्यंजना शक्ति बड़ी शक्तिशाली और प्रवल थी। वे सन्तमत के प्रवर्त्तक थे और दलित वर्ग के सबसे बड़े हिमायती थे। उनके साहित्य की उपयोगिता इसी बात से अनुमानित हो सकती है। कि आज का युग पुरुष, जननायक, महामना, उदारचेता मनस्वी गाँधी भी उनसे प्रभावित था।

कबीर साहित्य, कबीर-दर्शन और कबीर की साखियों की विवेचना और टीका अनेक विद्वानों ने की हैं। इस दिशा मे यह एक और अभिनव प्रयास है। महाकवि तुलसीदास ने सत्य ही कहा है कि—

"सब जानत प्रभु प्रभुता सोई।
तदपि कहे बिनु रहा न कोई॥"

इस टीका या भाष्य में लेखिका ने कबीर साहित्य के सम्बन्ध में अपनी अनुभूति और प्रतिक्रिया को व्यक्त करने की चेष्टा को है और इस बात का प्रयत्न किया है कि पाठकों को कबीर को आत्मा के दर्शन सही रूप में कराये जा सकें।

लेखिका ने अनुभव प्राप्त जिन विद्वान लेखकों, आलोचकों की रचनाओं का उपयोग किया है, उनके प्रति हृदय से कृतज्ञता प्रगट करती है।

 
१५ जुलाई, १९६८
सावित्री शुक्ल
 
 

विषय-सूची

भूमिका  
विषय पृष्ठ
कबीर का युग १—६४
(१) गुरुदेव कौ अंग ६५
(२) सुमिरन कौ अंग ८३
(३) बिरह कौ अंग १०४
(४) ग्यान विरह कौ अंग ११८
(५) परचा कौ अंग १३१
(६) रस कौ अंग १३३
(७) लाबि कौ अंग १३६
(८) जर्णा कौ अंग १३७
(९) हैरान कौ अंग १३९
(१०) लै कौ अंग १४०
(११) निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग १४१
(१२) चितावणी कौ अंग १४६
(१३) मन को अंग १६६
(१४) सूषिम मारग कौ अंग १७५
(१५) सूषिम जनम कौ अंग १७८
(१६) माया कौ अंग १७९
(१७) चाँणक कौ अंग १८८
(१८) करणी बिना कथरणों को मंग १९५
(१९) करणी बिना कथणी कौ अंग १९६
(२०) कामी नर कौ अंग १९८
(२१) सहज कौ अंग २०५
(२२) साँच कौ अंग २०७
(२३) भ्रम विधौसण कौ अंग २१२
(२४) भेष कौ अंग २१५
(२५) कुसंगति कौ अंग २२३
(२६) संगति कौ अंग २२५
(२७) असाघ कौ अंग २२८
(२८) साथ कौ अंग २२९
  पृष्ठ
(२९) साध साषीभूत कौ अंग २३२
(३०) साध महिमां कौ अंग २३८
(३१) मधि कौ अंग २४१
(३२) सारग्राही कौ अंग २४४
(३३) विचार कौ अंग २४५
(३४) उपदेश कौ अंग २४८
(३५) वेसास कौ अंग २५१
(३६) पीव पिछांणन कौ अंग २५६
(३७) बिकँताई कौ अंग २५७
(३८) सम्रथाई कौ अंग २६०
(३९) कुसबद कौ अंग २६३
(४०) सुबद कौ अंग २६४
(४१) जीवन मृतक कौ अंग २६७
(४२) चित कपटी भेष कौ अंग २७२
(४३) गुरुसिष हेरा कौ अङ्ग २७३
(४४) हेत प्रीति सनेह कौ अङ्ग २७७
(४५) सूरा तन कौ अङ्ग २७९
(४६) काल कौ अंग २९२
(४७) जीवनी कौ अंग ३०२
(४८) अपारिष कौ अंग ३०४
(४९) पारिष कौ अंग ३०६
(५०) उपजणि कौ अंग ३०७
(५१) दया निरबैरता कौ अंग ३१०
(५२) सुन्दरि कौ अंग ३११
(५३) कस्तूरिया मृग कौ अंग ३१३
(५४) निंद्या कौ अंग ३२५
(५५) निगुणाँ कौ अंग ३१८
(५६) वीनती कौ अंग ३२१
(५७) साषीभूत कौ अंग ३२४
(५८) बेली कौ अंग ३२५
(५९) अबिहड़ कौ अंग ३२७
 

 

भूमिका

वीरगाथा काल के अवसान काल में हिन्दी काव्य-धारा की दिशा में अभिनव परिवर्तन के लक्षण परिसूचित होने लगे। मुसलमानों की तलवार के पानी में हिन्दू जनता निमग्न होती जा रहीं थी। मुसलमानों की प्रबल पराक्रम, आतंक, और ध्वन्सात्मक प्रतिभा के समक्ष हिन्दू जनता का ठहर पाना दुस्तर हो रहा था। महमूद गज़नवी के सत्रह हमलों ने ध्वस सोमनाथ की छिन्न-भिन्न मूर्त्ति के समक्ष हिन्दुओं का विश्वास, आस्थाएँ और धार्मिक भावनाएँ शतशः खण्डों में विच्छिन्न होकर धूल धूसरित हो रही थी। मुसलमानों की बढ़ती हुई शक्ति, फहराती हुई इस्लाम की ध्वजा और विनाशकारी गति के समक्ष हिन्दुओं के अस्तित्व पर प्रश्न वाचक चिन्ह अंकित हो गया। उत्तर-पश्चिम से आक्रमणकारियों की बढ़ती हुई फौजों ने हिन्दू राष्ट्र, हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म के अस्तित्व को धूल धूसरित कर डाला। हिन्दुओं के पास न जन-बल था, न आत्मबल न संघबल वे किस साहस पर और किस आधार पर मुसलमानों की केन्द्रीभूत सत्ता का सामना करते। मुसलमानों के शौर्य और संगठन के समक्ष हिन्दुओं का जन-बल और आत्म-बल क्षीण पड़ता जा रहा था, उनकी स्थिति व परिस्थिति न केवल शोचनीय थी वरन् अनिश्चित भी थी। अलाउद्दीन ख़िलजी के उद्भव विकास और उत्कर्ष होते-होते उत्तरी-भारत मुसलमानों के अधिपत्य में आ चुका था। और दक्षिण-भारत की स्थिति भी सुरक्षित नहीं थी। देवगिरि के शासक रामचन्द्र को पद्दलित करके उसके राज्य को अपनी सीमा मे मिला लिया। वारंगल, होयमिल, महाराष्ट्र, कर्नाटक की राज्य सीमाओं को अलाउद्दीन ने अपनी सीमा में सम्मिलित कर लिया। दक्षिण में कृष्ण और तुंगभद्र के मध्यस्य सीमा पर अधिकार सम्प्राप्त करने के लिए विजय नगर और बहमनी राज्यों में संघर्ष चलता रहता था। सिन्धु-प्रदेश यद्यपि राजपूतों के अधिकार में था, फिर भी मुसलमानों को आतंक पूर्ण छाया से उन्मुक्त नहीं थी। समस्त देश पर मुसलमानों का प्रभाव क्रमशः बढ़ता जा रहा था। हिन्दुओं के हृदय में भय की भावना बढ़ती जा रही थी और वे मुसलमानों से लोहा लेने की अवस्था से दूर होते जा रहे थे। चारणों के स्वर क्रमशः क्षीण होते जा रहे थे और उनके स्थान पर भारतीय जनता निर्बल के वल क्रमशः वीरगाथा काल को उत्तेजना पूर्ण ओज से समर्पित चुनौती के स्वर क्षीण होते गए और उनका स्थान खंजरी और भाला ने लिया। हिन्दुओं की अवस्था विवज्ञता से पूर्ण और असाहाय अवस्था से अभिशप्त थी वे वर्तमान और समक्ष विद्यमान अभिशापों से मुक्ति पाने के लिए 'अशरण-शरण' निर्गुण, निर्विकार, निर्विकल्प ब्रह्म की शरण में पहुँचने की चेष्टा कर रहे थे। क्रमशः हिन्दुओं का जीवन परिवर्तित होता जा रहा था। उनके मन्दिर मूर्त्तियों के ध्वंस हो जाने के कारण शून्य और छिन्न-भिन्न अवस्था में पड़े थे। वे किस भावना को लेकर मन्दिरों मे प्रवेश करते? हिन्दुओं की सामाजिक, सास्कृंतिक, धार्मिक, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बहुमुखी प्रतिबन्ध लगा दिए गए थे। उनकी रसमयी जीवनधारा नीरस और शुष्क होने लगी थी। उनका राजनीतिक हष्टिकोण, निराशा के तिमिर से अच्छादिक होता जा रहा था। जब वीर ही न रहे तो चारण किसकी गाथा गाते और किसको सुनाते? राजनीतिक वातावरण क्रमशः शान्त होता चला जा रहा था। ऐसे वातावरण में हिन्दू जनता निर्गुण ब्रह्म की शरण में जाने का प्रयास करने लगी। निर्गुण ब्रह्म की कल्पना बड़ी उदात्त, उदार, विशाल थी। मुसलमानों का शासन, मूर्त्ति-उपासना के बिल्कुल विरुद्ध था। इसलिए देश की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए निर्गुण ब्रह्म की उपासना ही इस जटिल समस्या का हल था। कबीरदास संतमत के प्रवर्त्तक थे। उन्होंने हिंदू धर्म के मूल सिद्धान्तों को इस्लाम धर्म के आचारभूत सिद्धान्तों के साथ समान स्तर पर रखकर एक नए मत, एक नए पंथ की कल्पना को जिसमें ईश्वर एक अद्वैत, सगुण-निर्गुण से परे, निराकार, निर्विकार, निर्विकल्प और अनादि था। इस प्रकार के ब्रह्म की कल्पना न हिन्दुओं के लिए नई थी और न मुसलमानों के लिए। उपनिषदों में ऐसे ही ब्रह्म की उपासना का उपदेश दिया गया है। इस्लाम भी इस प्रकार के ब्रह्म की कल्पना से सवर्था परिचित था दोनों ही धर्मों के मिश्रण से एक अभिनव पंथ का स्वरूप प्राप्त हुआ, जो संतमत के नाम से भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में, और हिन्दी-साहित्य के इतिहास मे परिचित और विख्पात हुआ। सच बात यह है कि सतमत के विकसित होने, फूलने-फलने और प्रचारित होने का बहुत कुछ श्रेय इस्लाम धर्म को है। इस मत मे साधना का सच्चा, सरल, शुध्द और कल्याणकारी स्वरूप, भारतिय जनता को दॄष्टिगत हुआ। इस मत के कल्याणकारी सीमा में वाह्याचार, काया-प्रक्षालन, मूर्त्ति-पूजा, व्रत, तीर्थ वाग-नमाज सब कुछ हराम है, निषिद्ध है, और प्रसन्नता की बात यह है, कि यह मत हिन्दू-मुसलमान दोनों को ही सुमाद्ध और सरल प्रतीत हुआ। कर्मकाण्ड की वे दुरुहताएँ, जटिलताएँ और विपमताएँ जो हिन्दू और इस्लाम धर्म मे विद्धमान थी यहाँ पर मान्यता न प्राप्त कर सकी। संतमत में दोनों धर्मों के सार तत्वों को सिद्धान्तों के रूप में ग्रहण कर लिया गया।

संतमत में ब्रह्म की कल्पना बड़ी स्पृहणीय है। वह एक, अद्वैत, निर्गुण, निर्विकार, निर्विक्लप, अनादि, अनन्त, अजन्म, अजात, अमर, अनाम और अभेद वह सगुण और निर्गुण से परे है। वह अनिर्वचनीय है, वह अलख और निरजन है। संसार के कण कण में वह परिव्याप्त है। ब्रह्म की अनुभूति सद्गुरु की कृपा ही होती है। संतमत में माया त्रिगुणात्मक है वह साधना में बाधक है। माया दो प्रकार की मानी गई है, एक विद्या और दूसरी अविद्या। अविद्या माया से ग्रसित प्राणी सांसारिक भोग विलासों में अनुरक्त रहता है। और विद्या सृष्टि की सृजनात्मक शक्ति है, ईश्वर प्राप्ति में सहायक है। अविद्या माया 'खाड' के समान मधुर है।

जगत—सन्त काव्य में जगत का जो स्वरूप विकसित हुआ है वह क्षण भंगुरता से परिपूर्ण है। यह जीवन नश्वर है और संसार अस्थिर हैं। संसार के कण-कण में ब्रह्म व्याप्त है और संसार उस ब्रह्म में पूर्णतया परिव्याप्त है। कबीर ने स्वतः कहा है—

खालिक खलक खलक मैं खालिक।
सब घट रह्यों समाई।
लोक जानि ना भूलो भाई॥

सन्त साहित्य में इसी जगत की प्रस्थापना हुई है।

सन्त मत के प्रवर्त्तक कबीर थे कबीर का व्यक्तित्व युग प्रवर्त्तक और महान या कबीर जिस युग में अवतरित हुए थे वह बिडम्बनाओं, विषमताओं और विविध प्रकार के पारस्परिक विरोधों का युग था।

 

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