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कर्मभूमि/पहला भाग २

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कर्मभूमि
प्रेमचंद

हंस प्रकाशन, पृष्ठ ५ से – ८ तक

 

अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे। उनके पिता केवल एक झोपड़ी छोड़कर मरे थे; मगर समरकान्त ने अपने बाहुबल से लाखों की सम्पत्ति जमा कर ली थी। पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी। हल्दी से गुड़ और चावल की बारी आयी। तीन बरस तक लगातार उनके व्यापार का क्षेत्र बढ़ता ही गया। अब आढ़ते बन्द कर दी थीं। केवल लेन-देन करते थे। जिसे कोई महाजन रुपये न दे, उसे वह बेखटके दे देते और वसूल भी कर लेते। उन्हें आश्चर्य होता था, किसी के रुपये मारे कैसे जाते हैं ऐसा मेहनती आदमी भी कम होगा। घड़ी रात रहे गंगास्नान करने चले जाते और सूर्योदय के पहले विश्वनाथजी के दर्शन करके दुकान पर पहुँच जाते। वहाँ मुनीम को जरूरी काम समझाकर तगादे पर निकल जाते और तीसरे पहर लौटते। भोजन करके फिर दुकान आ जाते और आधी रात तक डटे रहते थे भी भीमकाय। भोजन तो एक ही बार करते थे। पर खूब डटकर। दो-ढाई सौ मुग्दर के हाथ अभी तक फेरते थे। अमरकान्त की माता का उसके बचपन ही में देहान्त हो गया था। समरकान्त ने मित्रों के कहने सूनने से दूसरा विवाह कर लिया था। उस सात साल के बालक ने नयी माँ का बड़े प्रेम से स्वागत किया ; लेकिन उसे जल्द मालूम हो गया, कि उसकी नयी माता उसकी ज़िद और शरारतों को उस क्षमादृष्टि से नहीं देखतीं, जैसे उसकी माँ देखती थी। वह अपनी माँ का अकेला लाड़ला लड़का था, बड़ा जिद्दी, बड़ा नटखट। जो बात मुँह से निकल जाती उसे पूरा करके ही छोड़ता। नई माताजी बात बात पर डाँटती थीं। यहाँ तक कि उसे माता से द्वेष हो गया। जिस बात को वह मना करतीं, उसे वह अदबदाकर करता। पिता से भी ढीठ हो गया। पिता और पुत्र में स्नेह का बन्धन न रहा। लालाजी जो काम करते, बेटे को उससे अरुचि होती। वह मलाई के प्रेमी थे, बेटे को मलाई से अरुचि थी। वह पूजा-पाठ बहुत करते थे, लड़का इसे ढोंग समझता था। वह परले सिरे के लोभी थे, लड़का पैसे को ठीकरा समझता था।

मगर कभी-कभी वराई से भलाई पैदा हो जाती है। पुत्र सामान्य रीति से पिता का अनुगामी होता है। महाजन का बेटा महाजन, पण्डित का पण्डित, वकील का वकील, किसान का किसान होता है ; मगर यहाँ इस द्वेष ने महाजन के पुत्र को महाजन का शत्रु बना दिया। जिस बात का पिता ने विरोध किया, वह पुत्र के लिए मान्य हो गयी, और जिसको सराहा, वह त्याज्य। महाजनी के हथकण्डे और षडयन्त्र उसके सामने रोज़ ही रचे जाते थे। उसे इस व्यापार से घृणा होती थी। इसे चाहे पूर्वसंस्कार कह लो; पर हम तो यही कहेंगे, कि अमरकान्त के चरित्र का निर्माण पितृ-द्वेष के हाथों हुआ।

खारयत यह हुई कि उसके कोई सौतेला भाई न हुआ। नहीं शायद वह घर से निकल गया होता। समरकान्त अपनी सम्पत्ति को पुत्र से ज्यादा मूल्यवान् समझते थे। पुत्र के लिए तो सम्पत्ति की कोई जरूरत न थी; पर सम्पत्ति के लिए पुत्र की जरूरत थी विमाता की तो इच्छा यही थी, कि उसे बनवास देकर अपनी चहेती नैना के लिए रास्ता साफ कर दे; पर समर कान्त इस विषय में निश्चल रहे। मजा यह था कि नैना स्वयं भाई से प्रेम करती थी, और अमरकान्त के हृदय में अगर घरवालों के लिए कहीं कोमल स्थान था, तो वह नैना के लिए था। नैना की सूरत भाई से इतनी मिलती-जुलती थी, जैसे सगी बहन हो। इस अनुरूपता ने उसे अमरकान्त के और भी समीप कर दिया था। माता-पिता के इस दुर्व्यवहार को वह इस स्नेह के नशे में भुला दिया करता था। घर में कोई बालक न था और नैना के लिए किसी साथी का होना अनिवार्य था। माता चाहती थी, नैना भाई से दूर रहे। वह अमरकान्त को इस योग्य न समझती थी कि वह उसकी बेटी के साथ खेले। नैना की बाल-प्रकृति इस कूटनीति के झुकाये न झुकी। भाई-बहन में यह स्नेह यहाँ तक बढ़ा कि अन्त में विमातृत्व ने मातृत्व को भी परास्त कर दिया। विमाता ने नैना को भी आँखों में गिरा दिया, और पुत्र की कामना लिये संसार से विदा हो गयी।

अब नैना घर में अकेली रह गई। समरकान्त बाल-विवाह की बुराइयां समझते थे। अपना विवाह भी न कर सके। वृद्ध-विवाह की बुराइयां भी समझते थे। अमरकान्त का विवाह करना जरूरी हो गया। अब इस प्रस्ताव का विरोध कौन करता?

अमरकान्त की अवस्था १९ साल से कम न थी; पर देह और बुद्धि को देखते हुए, अभी किशोरावस्था ही में था। देह का दुर्बल, बुद्धि का मंद। पौधे को कभी मुक्त प्रकाश न मिला, कैसे बढ़ता, कैसे फैलता। बढ़ने और फैलने के दिन कुसंगति और असंयम में निकल गये। दस साल पढ़ते हो गये थे और अभी ज्यों-त्यों करके आठवें में पहुँचा था। किन्तु विवाह के लिए यह बातें नहीं देखी जातीं। देखा जाता है धन, विशेषकर उस बिरादरी में जिसका उद्यम ही व्यवसाय हो। लखनऊ के एक धनी परिवार से बात-चीत चल पड़ी। समरकान्त की तो लार टपक पड़ी। कन्या के घर में विधवा माता के सिवा निकट का सम्बन्धी न था, और धन की कहीं थाह नहीं। ऐसी कन्या बड़े भागों से मिलती है। उसकी माता ने बेटे की साथ बेटी से पूरी की थी। त्याग की जगह भोग, शील की जगह तेज, कोमल की जगह तीव्र का संस्कार किया था। सिकुड़ने और सिमटने का उसे अभ्यास न था और वह युवक-प्रकृति की युवती व्याही गयी युवती प्रकृति के युवक से, जिसमें पुरुषार्थ का कोई गुण नहीं। अगर दोनों के कपड़े बदल दिये जाते, तो एक दूसरे के स्थानापन्न हो जाते। दबा हुआ पुरुषार्थ ही स्त्रीत्व है।

विवाह हुए दो साल हो चुके थे; पर दोनों में कोई सामंजस्य न था। दोनों अपने अपने मार्ग पर चले जाते थे। दोनों के विचार अलग, व्यवहार अलग, संसार अलग। जैसे दो भिन्न जलवायु के जन्तु एक पिंजरे में बन्द कर दिये गये हों। हाँ तभी से अमरकान्त के जीवन में संयम और प्रयास की लगन पैदा हो गई थी। उसकी प्रकृति में जो ढीलापन, निर्जीवता और संकोच था वह कोमलता के रूप में बदलता जाता था। विद्याभ्यास में उसे अब रुचि हो गयी थी। हालाँकि लालाजी अब उसे घर के धन्धे में लगाना चाहते थे--वह तार-वार पढ़ लेता था और इससे अधिक योग्यता को उनकी समझ में जरूरत न थीपर अमरकान्त उस पथिक की भाँति, जिसने दिन विश्राम में काट दिया हो, अब अपने स्थान पर पहुँचने के लिए दूने वेग से कदम बढ़ाये चला जाता था।