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कर्मभूमि/पहला भाग १

विकिस्रोत से
(कर्मभूमि/ भाग 1 से अनुप्रेषित)

हंस प्रकाशन, पृष्ठ १ से – ५ तक

 

हमारे स्कूलों और कालेजों में जिस तत्परता से फ़ीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फ़ीस का दाख़िल होना अनिवार्य है। या तो फ़ीस दीजिए, या नाम कटाइए; या जब तक फ़ीस न दाखिल हो, रोज कुछ जुर्माना दीजिए। कहीं कहीं ऐसा भी नियम है, कि उस दिन फ़ीस दुगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख को दुगुनी फ़ीस न दो, तो नाम कट जाता है। काशी के क्वींस कालेज में यही नियम था। ७वीं तारीख को फ़ीस न दो, तो २१वीं तारीख को दुगुनी फ़ीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था। ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था, कि गरीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जायँ। वह हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है। वह किसी के साथ रिआयत नहीं करता। चाहे जहां से लाओ; कर्ज लो, गहने गिरो रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फ़ीस जरूर दो, नहीं दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जाएगा। जमीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रिआयत की जाती है। हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने ही नहीं दिया जाता। वहाँ स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है। कचहरियों में पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय यह राज है। देर में आइए तो जुर्माना, न आइए तो जुर्माना, सबक न याद हो तो जुर्माना, किताबें न खरीद सकिये तो जुर्माना, कोई अपराध हो जाए तो जुर्माना, शिक्षालय क्या है जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफ़ों के पूल बाँधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देनेवाले, पैसे के लिए ग़रीबों का गला काटनेवाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा को बेच देनेवाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है?

आज वही वसूली की तारीख है। अध्यापकों की मेजों पर रुपयों के ढेर लगे हैं। चारों तरफ़ खनाखन की आवाजें आ रही हैं। सराफ़े में भी रुपये की ऐसी झंकार कम सुनाई देती है। हरेक मास्टर तहसील का चपरासी बना बैठा हुआ है। जिस लड़के का नाम पुकारा जाता है, वह अध्यापक के सामने जाता है, फ़ीस देता है और अपनी जगह पर आ बैठता है। मार्च का महीना है। इसी महीने में एप्रिल, मई और जून की फ़ीस वसूल की जा रही है। इम्तहान की फ़ीस भी ली जा रही है। दसवें दर्जे में तो एक-एक लड़के को ४०) देने पड़ रहे हैं।

अध्यापक ने बीसवें लड़के का नाम पुकारा—अमरकान्त!

अमरकान्त ग़ैरहाजिर था।

अध्यापक ने पूछा—क्या आज अमरकान्त नहीं आया?

एक लड़के ने कहा—आये तो थे, शायद बाहर चले गये हों?

'क्या फ़ीस नहीं लाया है?'

किसी लड़के ने जवाब नहीं दिया।

अध्यापक की मुद्रा पर खेद की रेखा झलक पड़ी। अमरकान्त अच्छे लड़कों में था। बोले—शायद फ़ीस लाने गया होगा। इस घण्टे में न आया, तो दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी। मेरा क्या अख्तियार है। दूसरा लड़का चले—गोवर्धनलाल!

सहसा एक लड़के ने पूछा—अगर आपकी इजाजत हो, तो मैं बाहर जाकर देखूँ।

अध्यापक ने मुस्कराकर कहा—घर की याद आई होगी। खैर, जाओ, मगर दस मिनट के अंदर आ जाना। लड़कों को बुला-बुलाकर फ़ीस लेना मेरा काम नहीं है।

लड़के ने नम्रता से कहा—अभी आता हूँ। क़सम ले लीजिए, जो हाते के बाहर जाऊँ।

यह इस कक्षा के संपन्न लड़कों में था, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा बैठकबाज। हाजिरी देकर गायब हो जाता, तो शाम की खबर लाता। हर महीने फीस की दूनी रकम जुर्माना दिया करता था। गोरे रंग का, लांबा, छरहरा, शौक़ीन युवक था जिसके प्राण खेल में बसते थे। नाम था मोहम्मद सलीम।

सलीम और अमरकान्त दोनों पास-पास बैठते थे। सलीम को हिसाब लगाने में, तर्जुमा करने में अमरकान्त से विशेष सहायता मिलती थी। उसकी कापी से नक़ल कर लिया करता था। इससे दोनों में दोस्ती हो गई थी। सलीम कवि था। अमरकान्त उसकी ग़ज़लें बड़े चाव से सुना करता था। मैत्री का यह एक और कारण था।

सलीम ने बाहर जाकर इधर-उधर निगाह दौड़ाई, अमरकान्त का कहीं पता न था। जरा और आगे बढ़े, तो देखा, वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ा है। पुकारा—अमरकान्त! ओ बुद्धूलाल! चलो फ़ीस जमा करो, पण्डितजी बिगड़ रहे हैं।

अमरकान्त ने अचकन के दामन से आँखें पोंछ लीं, और सलीम की तरफ़ आता हुआ बोला——क्या मेरा नम्बर आ गया?

सलीम ने उसके मुँह की तरफ़ देखा, तो आँखें लाल थीं। वह अपने जीवन में शायद ही कभी रोया हो। चौंककर बोला——अरे, तुम तो रो रहे हो! क्या बात है?

अमरकान्त साँवले रंग का, छोटा-सा दुबला-पतला कुमार था। अवस्था बीस की हो गई थी; पर अभी मसें भी न भीगी थीं। चौदह-पंद्रह साल का किशोर-सा लगता था। उसके मुख पर एक वेदनामय दृढ़ता, जो निराशा से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी, अंकित हो रही थी, मानो संसार में उसका कोई नहीं है। इसके साथ ही उसकी मुद्रा पर कुछ ऐसी प्रतिभा, कुछ ऐसी मनस्विता थी, कि एक बार उसे देखकर फिर भूल जाना कठिन था।

उसने मुस्कराकर कहा—कुछ नहीं जी, रोता कौन है!

'आप रोते हैं, और कौन रोता है। सच बताओ क्या हुआ है?'

अमरकान्त की आँखें फिर भर आयीं। लाख यत्न करने पर भी आँसू न रूक सके। सलीम समझ गया। उसका हाथ पकड़कर बोला—क्या फ़ीस के लिए रो रहे हो? भले आदमी, मुझसे क्यों न कह दिया। तुम मुझे भी ग़ैर समझते हो? क़सम खुदा की, बड़े नालायक आदमी हो तुम। ऐसे आदमी को गोली मार देनी चाहिए! दोस्त से भी ग़ैरियत! चलो क्लास में, मैं फ़ीस दिए देता हूँ; जरा-सी बात के लिए घण्टे भर से रो रहे हो। वह तो कहो मैं आ गया, नहीं तो आज जनाब का नाम ही कट गया होता!

अमरकान्त को तसल्ली तो हुई; पर अनुग्रह के बोझ से उसकी गर्दन दब गयी। बोला——पण्डितजी आज मान न जायेंगे?

सलीम ने खट्टे होकर कहा——पण्डितजी के बस की बात थोड़े ही है, यह सरकारी क़ायदा है, मगर हो तुम बड़े शैतान, वह तो खैरियत हो गयी, मैं रुपये लेता आया था, नहीं खूब इम्तहान देते! देखो, आज एक ताज़ा ग़ज़ल कही है। पीठ सहला देना——

आपको मेरी वफ़ा याद आई,
खै़र है आज यह क्या याद आई।

अमरकान्त का व्यथित चित्त इस समय ग़ज़ल सुनने को तैयार न था; पर सुने बगैर काम भी तो नहीं चल सकता। बोला——नाज़ुक चीज़ है। खूब कहा है। मैं तुम्हारी ज़बान की सफ़ाई पर जान देता हूँ।

सलीम यही तो ख़ास बात है भाई साहब! लफ्ज़ों की झंकार का नाम ग़ज़ल नहीं है। दूसरा शेर सुनो——

फिर मेरे सीने में एक हूक उठी,
फिर मुझे तेरी अदा याद आई

अमरकान्त ने फिर तारीफ़ की——लाजवाब चीज़ है। कैसे तुम्हें ऐसे शेर सूझ जाते हैं?

सलीम हँसा——उसी तरह, जैसे तुम्हें हिसाब और मजमन सूझ जाते हैं। जैसे ऐसोसियेशन में स्पीचें दे लेते हो। आओ पान खाते चलें।

दोनों दोस्तों ने पान खाये और स्कूल की तरफ़ चले। अमरकान्त ने कहा——पण्डितजी बड़ी डांट बतायेंगे।

'फीस ही तो लेंगे!'

'और जो पूछें, अब तक कहाँ थे?'

'कह देना, फ़ीस लाना भूल गया था।'

'मुझसे तो न कहते बनेगा। मैं साफ़-साफ़ कह दूँगा।'

'तो तुम पिटोगे भी मेरे हाथ से!"
संध्या समय जब छुट्टी हुई और दोनों मित्र घर चले, तो अमरकान्त ने कहा——तुमने आज मुझ पर जो एहसान किया है......

सलीम ने उसके मुँह पर हाथ रखकर कहा——बस खबरदार, जो मुँह से एक आवाज भी निकाली। कभी भूलकर भी इसका जिक्र न करना।

'आज जलसे में आओगे?'

'मजमून क्या है, मुझे तो याद नहीं।'

'अजी वही पश्चिमी सभ्यता है।'

'तो मुझे दो चार पाइंट बता दो, नहीं मैं वहां कहूँगा क्या ?"

'बताना क्या है। पश्चिमी सभ्यता की बुराइयाँ हम सब जानते ही हैं। वही बयान कर देना।'

'तुम जानते होगे, मुझे तो एक भी नहीं मालूम।'

'एक तो यह तालीम ही है। जहाँ देखो वहीं दुकानदारी। अदालत की दुकान, इल्म की दुकान, सेहत की दुकान, इस एक पाइन्ट पर बहुत कुछ कहा जा सकता है।'

'अच्छी बात है, आऊँगा।'