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कलम, तलवार और त्याग/१०-मौ. वहीदुद्दीन 'सलीम'

विकिस्रोत से
कलम, तलवार और त्याग
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १४० से – १४९ तक

 
मौ॰ वहीदुद्दीन 'सलीम'

वहीदुद्दीन नाम, 'सलीम' उपनाम, पिता का नाम हाजी फ़रीदुद्दीन साहब, पानीपत जिला करनाल (पंजाब) के प्रतिष्ठित सैयदकुल के थे। उनके दादा मुलतान से स्थानान्तर कर पहले पाक पहन पहुँचे जहाँ हाजी फ़रीदुद्दीन साहब का जन्म हुआ। फिर पानीपत आये और इसी कसबे को वासस्थान बनाया। हाजी साहब पानीपत के सुप्रसिद्ध महात्मा हज़रत बू अली शाह क़लन्दर के मज़ार के मुतवल्ली (प्रबंधक) थे। बहुत पूजा-पाठ करनेवाले और यंत्र-मंत्र में प्रसिद्ध थे। बिहार के स्थावान क़सबे के पूजनीय सन्त मौलना सैयद ग़ौस अलीशाह लबे पर्यटन के बाद जब पानीपत पधारे तो हाजी साहब ने आग्रह करके उनको क़लन्दर साहब के हाते में ठहराया और १८ बरस तक उनकी सेवा की। मौलाना हाजी साहब पर बहुत कृपा रखते थे। आप और आपके मेहमानों के लिए दोनों वक्त हाजी साहब के घर से खाना आता था। हाजी साहब के यहाँ साधारणतः लड़कियाँ होती थीं, पुत्र सुख से वंचित थे। हज़रत की दुआ से उनको दो पुत्र प्राप्त हुए। बड़े बेटे का नाम वहीदुद्दीन और छोटे का हर्मदुद्दीन रखा गया। यही बड़े बेटे हमारी इस चर्चा के विषय मौलाना सलीम साहब हैं। क़सबे की एक शरीफ उस्तानी ने जो आया शम्मुन्निसा के नाम से प्रसिद्ध थीं, मौलाना को कुरान शरीफ कंठ कराया। इसके बाद खुद मौलाना हज़रत ग़ौस अली ने उनको सरकारी स्कूल में भरती कराया। हाजी साहब की परलोक-यात्रा के बाद उनकी पढ़ाई-लिखाई की निगरानी खुद हज़रत ही ने की। मौलाना को लड़कपन से ही फ़ारसी का शौक था। अपनी निज की कोशिश से फ़ारसी की किताबें पढ़ने और टीकाओं की सहायता से उनको समझने का यत्न करते रहे।

जब गुलिस्ताँ का तीसरा अध्याय पढ़ते थे और उनकी अवस्था कुल १४ साल की थी, हजरत मौलाना की स्तुति में फारसी में एक क़सीदा लिखी जिसमें १०१ शेर हैं और सुप्रसिद्ध कवि उर्फी के एक क़सीदे के जवाब में लिखा गया है। मौलाना ने हजरत के सामने आम मज़मे में ऊँचे स्वर से यह क़सीदा पढ़कर सुनाया जिसे सुनकर श्रोतृमण्ली विस्मय-विमुग्ध हो गई कि इस उम्र और इस योग्यता को बच्चा ऐसे क्लिष्ट भावों को क्योंकर बाँध सका। वस्तुतः यह हज़रत मौलाना का ही प्रसाद था और 'तज़किरए ग़ौसिया' में यह क़सीदा उनकी करामत के दृष्टान्त-रूप में छापा गया है। इस रचना के पुस्कार रूप में हज़रत ने एक जयपुरी अशरफ़ी और एक ज़री के काम की बनारसी चादर मौलाना को प्रदान की थी।[]

मिडिल तक पढ़ने के बाद मौलाना सलीम पानीपत से लाहौर पहुँचे, जहाँ मौलाना फैजुलहसन साहब सहारनपुरी से अरबी पढ़ी जो उस समय ओरीयंटल कालिज के अरबी के प्रोफ़ेसर थे। तफ़सीर (क़ुरान की व्याख्या) भी उन्हीं से पढ़ी। फ़िक़ाह (इसलामी धर्मशास्त्र) और तर्क तथा दर्शनशास्त्र का अध्ययन मौलाना अब्दुल अहद टौकी से किया। यह सारी पढ़ाई महज शौक़ की चीज और स्वतंत्र कार्य था। एंट्रेंस और मुन्शी फाज़िल के सिवा विश्वविद्यालय की और कोई परीक्षा पास नहीं की। हाँ विश्वविद्यालय के अध्यापकों से पाश्चात्य दर्शन, विज्ञान, रसायनशास्त्र और गणित का अध्ययन किया, पर इस सिलसिले में भी कोई परीक्षा नहीं दी। क़ानून पढ़ कर वकालत करने का विचार था, और कानून के दरजे में भरती भी हो गये थे, पर जीविका की आवश्यकता से लाचार होकर यह विचार त्याग देना पड़ा और भावलपुर रियासत के शिक्षा विभाग में नौकरी कर ली। एजर्टन कालिज भावलपुर में ६ साल काम करने के बाद रामपुर रिया
सत के हाई स्कूल के हेड मौलवी के पद पर बुला लिये गये। पर यह सिलसिला छः महीने से अधिक न चल सका। क्योंकि जेनरल अज़ीमुद्दीन जो मौलाना को मानते थे, अचानक क़तल कर दिये गये। इधर मौलाना भी ऐंठन के रोग से पीड़ित होकर ६ साल तक खाट पर पड़े रहे। इसके बाद अपने जालंधर के एक मशहूर हकीम से (जो हकीम महमूद खाँ के सहपाठी थे) यूनानी तिब्बत का अध्ययन किया और इसी तौर पर डाक्टरी का भी ज्ञान प्रप्त कर पानीपत में चिकित्सा-काये प्रारंभ किया जो कई साल तक सफलतापूर्वक चलता रहा।

इसी समय मौलाना हाजी आपको अपने साथ अलीगढ़ ले गये और सर सैयद् अहमद खाँ से मिलाया। सर सैयद की पारखी निगाह ने इस दुर्लभ रत्न को पहचान लिया और अग्रह करके अपने पास रहने पर राजी कर दिया और फिर मरते दम तक इन्हें अपने पास से हटने न दिया। मौलाना कभी किसी बात पर नाराज होकर अलीगढ़ से चले जाते तो सर सैयद अपने खास दोस्त मौलवी जैतुलआबिदीन को उनके पीछे-पीछे स्टेशन तक भेजते और मौलाना सलीम खींच-खाँचकर सर सैयद के दरबार में वापस लाये जाते। सर सैयद का नियम था कि जो शास्त्रीय या धर्म-संबन्धी विषय विचारणीय होते, उन पर मौलाना सलीम के साथ बहस मुबाहसा करते थे। दोनों दो पक्ष ले लेते और विचारणीय प्रश्न के एक-एक अंग को लेकर उस पर खूब बहस - मुबहसा और खण्डन-मण्डन करते। अन्त में किसी सिद्धान्त पर पहुँचकर विवाद समाप्त कर दिया जाता। इस सहायता के अतिरिक्त मौलाना सलीम सर सैयद को प्रथ-रचना में भी मदद देते थे और उनके लेखों का मसाला इकट्ठा करते थे। अलीगढ़ राज़ट और तहजीबुल अखलाफ़' में लेख भी लिखते थे।

सर सैयद अहमद के देहान्त के बाद मौलाना सलीम ने हाजी इसमाईल खाँ साहब रईस बतावली के सहयोग से 'मआरिफ नामक मासिक निकाला जिसको बड़ा आदर हुआ। इसी समय मौलाना के छोटे भाई. हमीदुद्दीन साहब ने 'हाली प्रेस' के नाम से
पानीपत में एक छापाखाना खोला, जो कई साल तक चलता रहा। अलीगढ़ कालिज के विद्यार्थियों की मशहूर हड़ताल समाप्त होने के बाद स्वर्गवासी नवाब मुहसिनुलमुल्क ने मौलाना को अलीगढ़ गजट की संपादक के लिए बुलाया। मौलाना कई साल तक इस कार्य को बड़े उत्साह और तत्परता के साथ करते रहे। बाद में बीमारी से लाचार होकर इस्तीफा देकर घर लौट गये, और कई साल तक एकान्त वासी रहे। फिर जब लखनऊ के क्षितिज पर 'मुसलिम गज़ट' का उदय हुआ तो पत्र के संचालकों को आप ही उसका संपादन भार उठाने के योग्य दिखाई दिये और मौलाना हली के आग्रह से अपने यह पद स्वीकार कर लिया। यह वह समय था जब आधुनिक राजनीति का आरंभ हुआ था। मुसलमानों ने राजनीति के मैदान में कुछ लड़े कदम उठाये थे मुसलिम लीग के लक्ष्य में आत्मशासन की माँग सम्मिलित हो रही थी। मुसलिम विश्वविद्यालय का विधान बन रहा था और विश्वविद्यालय में सरकार के अधिकार का प्रश्न सारी जाति का ध्यान अपनी ओर खींच रहा था। तराचलस (ट्रिपोली ?) और अधिक के युद्धों ने मुसलमानों की अनुभूति के झकझोरकर जगा दिया था और इसके कुछ ही अरसे बाद कानपुर मसजिद की घटना से सारी मुसलिम जाति के भावों में उफान आ गया था। ऐसे समय में मौलाना की शक्तिशालिनी लेखनी ने ‘मुसलिम गजट' के पृष्ठ पर जो सपाटे भरे, जो रचना-चमत्कार दिखाया वह उर्दू साहित्य की अति मूल्यवान निधि है। सच यह है कि इस जमाने में मौलाना की करामाती क़लम ने सारी मुसलिम जाति की मनोवृत्ति में स्पष्ट क्रान्ति उत्पन्न कर दी। 'मुसलिम गजट' की धूम उस समय देश के कोने-कोने में मच रही थी। अन्त में अधिकारियों की दमननीति के कारण मौलाना को मुस्लिम गजट' का संपादन छोड़ना पड़ा, पर शीघ्र ही जमींदार' के प्रधान संपादक के पद पर बुला लिये गये। उस समय जमींदार' हिन्दुस्तान का सबसे अधिक छपने और बिकनेवाला अखबार था। अंग्रेजी अखबारों में भी केवल एक स्टेस्मैन ऐसा था जिसका
प्रचार `जमींदार` से अधिक था। शेष सब पत्र उसके पीछे थे। मौलाना के ज़माने में जमींदार' बड़ी शान से निकलता रहा। अन्त में जब इसका छापाखाना जब्त हो गया तो मौलाना अपने घर चले गये।

*अमर साहित्य-सेवा

हैदराबाद में उसमानिया यूनिवर्सिटी स्थापित होने के पहले एक महकमा दासल तर्जुमा (अनुवाद-विभाग) के नाम से स्थापित किया गया था कि विश्वविद्यालय के लिए पाठ्य-ग्रन्थों का भाषान्तर करे। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई पारिभाषिक शब्दों के भाषान्तर में उपस्थित हुई। अनुवादकों के समूह अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न मत रखते थे। कोई निर्णायक सिद्धान्त दिखाई न देता था। मौलाना सलीम चूँकि इस प्रश्न पर बहुत अरसे से सोच-विचार रहे थे, इस लिए बुलाये गये। हैदराबाद पहुँचकर वह परिभाषा की कमेटियों में सम्मिलित हुए और परिभाषा-निर्माण के विषय पर एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। इस पुस्तक में मौलाना ने सिद्ध किया है कि उर्दू आर्यफुल की भाषा है, जो लोग अरबी व्याकरण के अनुसार परिभाषाएँ बनाते हैं वह वस्तुतः इस भाषा की प्रकृति के विरुद्ध कार्य करते हैं। इस बात को आपने बहुत ही सबल युक्ति-प्रमाणों से सिद्ध किया है। परन्तु पुराणपन्थी अनुवादकों ने इस पर चारों ओर यह बात फैला दी कि मौलाना अरबी के विरोधी और हिन्दी के पक्षपाती हैं। मौलाना ने इस पुस्तक में बताया है कि आर्य भाषाओं में जो सामान्य नियम हैं वे सब उर्दू में मौजूद हैं। जैसे आर्य-भाषाओं का एक नियम यह है कि दो या दो से अधिक शब्द परस्पर मिलकर समास या संयुक्त पद बन जाते हैं। इसके उदाहरण में अपने उर्दू के बहुत शब्द उपस्थित किये हैं। बताया है कि उपसर्ग (prefix) और प्रत्यय (suefix) के द्वारा शब्दनिर्माण भी आर्य भाषाओं की प्रकृति है। इसके प्रमाण में वह संपूर्ण उपर्सग और प्रत्यय लिख दिये जो हिन्दी, फारसी, तुर्की आदि भाषाओं से उर्दू में लिये गये हैं। यह भी बताया है कि यह
दोनों नियम अरबी और दूसरी सामी (सिमेटिक) भाषाओं में नहीं हैं। संयुक्त पद बनाने की जो विधियाँ उर्दू में काम में लाई जाती हैं- वे सब बताई हैं, फिर सब प्रकार की परिभाषाएँ बनाने के सिद्धान्त उदाहरण-सहित समझाये हैं। इन सिद्धान्तों को सब अधिकारी विद्वानों ने समीचीन मान लिया है और युक्त अनुवाद-विभाग में प्रायः उन्हीं के अनुसार पारिभाषिक शब्द बनाये जाते हैं।

सच यह है कि यह ग्रंथ लिखकर मौलाना ने उर्दू भाषा का इतना बड़ा उपकार किया है जिसका ऋण आनेवाली शताब्दियों तक चुकाया जायगा। पारिभाषिक शब्द बनाने की पद्धति प्रस्तुत करके उर्दू भाषा के जीवित रहने का साधन जुटा दिया और अब निश्चय ही यह एक ज्ञान विज्ञान-सम्पन्न भाषा बन जायगी और इसमें जीवित रहने की योग्यता उत्पन्न हो जायगी। मेरा तो विश्वास है कि इस पुस्तक ने मौलाना सलीम के नाम को अमर कर दिया।


उसमानिया यूनिवर्सिटी से संबन्ध

उसमानिया यूनिवर्सिटी खुलने पर मौलाना उर्दू-साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए। प्रोफेसर का पद इस विश्व- विद्यालय में उन्हीं लोगों को दिया जाता है जो यूरोप की डिग्री प्राप्त कर चुके हों, पर चार साल बाद मौलाना अपवाद रूप में प्रोफेसर बना दिये गये। उस समय आपकी अवस्था ५० साल के लगभग थी। तब से अन्तकाल तक इसी पद पर रहे।


पारिण्डत्य

मौलाना ने अरबी के संपूर्ण पाठ्य-विषय और ग्रन्थ पढ़े थे। फारसी के उच्चतम कोटि के ग्रन्थ पढ़े और पढ़ाये थे। नवीन पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान उर्दू अनुवादों के द्वारा और अंग्रेजी जाननेवालों से पुस्तकें पढ़वाकर प्राप्त किया था। जब वह सर सैयद के साहित्यिक सहकारी नियुक्त हुए तो सर सैयद पर उनकी सर्वज्ञता का सिक्का बैठ
गया और मरते दम तक उन्हें अपने पास से अलग नहीं किया। यद्यपि उन्होने उच्च अंग्रेजी शिक्षा नहीं प्राप्त की थी, पर अंग्रेज़ीदाँ से जब किसी विषय पर वार्तालाप होता था तो उनको अकसर लज्जित होना पड़ता था। प्रोफ़ेसरी के जमाने में भी वह उर्दू साहित्य की शिक्षा उसी नई प्रणाली से देते थे, जिस पर अंग्रेजी साहित्य-शिक्षा अवलंबित है।


कवित्व

मौलाना के आरंभिक जीवन-वृत्तान्त की खोज से मालूम हुआ है। कि उन्हें शायरी का शौक १४ बरस की उम्र से था। आरंभ में उर्दू ज़लें उसी ढंग की लिखीं जैसी आमतौर से लिखी जाती हैं। लाहौर में शिक्षा-प्राप्ति के समय उनके विचार बदले और उन्होने बहुत-सी इसलामी कविताएँ लिखी। उस जमाने में फारसी और अरबी भाषाओं में भी बहुत-से पद्य लिखे। इन दोनों भाषाओं में भी उनकी रचना प्रौढ़ समझी गई थी। सर सैयद् के साहित्यिक सहकारी नियुक्त होने से पहले यह सिलसिला जारी रहा, पर इस पद पर पहुँचने के बाद से गद्यरचना की ओर अधिक झुकाव हो गया था। फिर भी उर्दू शायरी नहीं छुटी। जब-तब दिल में उमंग उठती और हृदय में भरे हुए भाव पद्य-रूप में बाहर आ जाते। यह रचनाएँ जिन मित्रों के हाथ लगीं वह ले गये। इस समय की कविता अब उपलब्ध नहीं, हाँ 'मआरिफ' 'जमींदार',‘मुसलिम गजट' की फाइलों में उसका कुछ अंश विद्यमान हैं, पर सब कल्पित नामों से प्रकाशित हैं। कितनी ही रचनाओं के अन्त में एक लिबरल मुसलमान' लिखा है। असल बात यह है कि मौलाना सलीम प्रौढ़ और रससिद्ध कवि होने पर भी कवि कहलाने में सकुचाते थे और अपनी रचनाएँ प्रकाशित कराने में सदा आनाकानीं किया करते थे। मित्रों के बहुत आग्रह करने पर भी अपना शेष काव्य प्रकाशित कराने को तैयार नहीं हुए। यह अप्रकाशित काव्य हैदराबाद के प्रवास-काल से संबन्ध रखता है। उन दिनों वहाँ हर महीने एक मुशायरा हुआ।
करता था, उसमें बड़े-बड़े प्रौढ़ कवि समिलित होते थे। मित्रों के आग्रह से मौलाना भी उसमें समिलित होने लगे और मित्रों तथा शिष्यों ने उन रचनाओं को मासिकों में छपने के लिए बाहर भेजना शुरू कर दिया। गज़लो के अतिरिक्त अब उनकी स्थायी रचनाएँ भी पत्रों में प्रकाशित होने लगीं। जब मौलाना हाली जीवित थे तो मौलाना ने अकसर अपनी रचनाएँ सुनाई, पर इसलाह कभी नहीं ली। मौलाना हाली इनके कहने के ढंग और भावों की सुन्दरता पर अकसर घण्टों झुमा करते थे। कहा करते थे कि तुम तो डायरी के छिपे देवता हो।

मौलाना हाली ने अपने ‘मुकदमए शेरो शायर' में उर्दू कविता के खासकर राजलगोई के जो दोष बताये हैं, मौलाना ने उनको त्याग दिया था। गज़ल मैं जो भाव वह निबद्ध करते थे, वह प्रायः राजनीति के और नीति-संबन्धी होते थे, जो उपमा और रूपक के पर्दे में व्यक्त • किये जाते थे। समझनेवाले उन इशारों को समझते और मजे लेते थे। मौलाना के काव्य की एक बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने मुसल- मानों के सांप्रदायिक भेद को कभी प्रकट नहीं किया। हिन्दू-मुसलमानों को सदा मेल का उपदेश देते रहे। कोई बात जो किसी इसलामी फिरके या हिंदुओं के दिल को चोट पहुंचाती हो, कभी उनकी क्रम से नहीं निकली। आपने हिन्दुओं के इतिहास और साहित्य का उसी सम्मान के साथ उल्लेख किया है जिस प्रकार एक सुसंस्कृत कवि को करना चाहिए।


स्थायी रचनाएँ-

मौलाना की स्थायी रचनाएँ दो प्रकार की हैं। एक वह जो हृदय की स्फूर्ति से लिखी हैं, दूसरी वह जो अंग्रेजी कवियों की रचनाओं के आधार पर हैं। पहले प्रकार की रचनाओं में कुछ ऐसी हैं, जो रघनाशैली, नये-पुराने रूपकों की उत्प्रेक्षाओं के सुन्दर प्रयोग और सुक्ष्म गंभीर भावों के विचार से निस्सन्देह 'मास्टरपीस' कही जाने योग्य हैं। दूसरे प्रकार की रचनाओं में भी उन्होंने कवित्व के प्राण को
सुरक्षित रखा है, शाब्दिक अनुवाद की कभी यत्न नहीं किया। अतः ये रचनाएँ भी बिल्कुल ऐसी हैं जैसी अपने हृदय की प्रेरणा से लिखी जाती हैं।

मौलाना सलीम सदा इस बात का यत्न करते थे कि शेर में कोई न कोई नवीनता अवश्य हो। कहने का ढंग निराला हो या कोई नई उपमा- उत्प्रेक्षा हो, या कोई नया भाव व्यक्त किया गया हो। कोई भी नवीनता न हो, तो वह उस शेर को पसन्द न करते थे। उनके कवित्व में अध्यात्मतत्त्व भी है और दर्शन भी। अध्यात्म का अंश उस सत्संग का सफल है, जो बचपन में हजरत मौलाना सैदय गौसअली साहब का प्राप्त हुआ था और दर्शन का पुट नव्य ज्ञान का प्रसाद है। उनकी ज़िलें प्रायः सभी बढ़िया और सुन्दर हैं। पर वे ग़ज़लें सर्वोत्तम हैं जो हैदराबाद के मुशायरे में पढ़ी गई। वे प्रायः युवकों को लक्ष्य कर लिखी गई हैं, जिनकी प्रगतिशीलता को वह ग़ज़लों में भी उकसाते रहते थे। मौलाना धार्मिक कट्टरपन और पक्षपात से मुक्त थे। उनके विचार अध्यात्म' और दर्शन के प्रभाव से स्वतंत्र प्रकार के थे। इस स्वतंत्रता की झलक उनकी कविता में जगह-जगह दिखाई देती है।


गद्य-रचना

मौलाना ने गद्य लिखना प्रायः उस समय से आरंभ किया, जब वह सर सैयद के साहित्यिक सहकारी थे। सर सैयद् की सङ्गति के प्रभाव से उनके गद्य में यह विशेषता उत्पन्न हो गई कि प्रत्येक भाव को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रकट करते हैं। उनके वर्णन में कोई ऐसी ग्रंथि नहीं होती जिससे पढ़नेवाले को अर्थबोध में कठिनाई पडे़। प्रत्येक विषय को प्रवाह रूप में लिखते जाते हैं। जब जोश आता है तो उबल पड़ते हैं। और ऐसे अवसरों पर उनकी लेखनी से जो वाक्य निकल जाते हैं, वे अति प्रभावकारी और हृदयस्पर्शी होते हैं। अकारण अरबी के बड़े-बड़े शब्द लिखकर पाठक पर अपने पाण्डित्य की धाक जमाना नहीं चाहते। कहीं भी शब्दों की काट-छाँट के पीछे नही पड़ते, नये-नये पदविन्यास
रचकर पढ़नेवालों पर अपनी विद्वत्ता का सिक्का बैठाना नहीं चाहते; किन्तु प्रत्येक विषय और प्रबन्ध को आदि से अन्त तक सरल और चलते ढंग से लिखना चाहते हैं। यह बात स्वयं विषय के अधिकार में है कि किसी जगह अपने-आप ओल की धारा बह निकले और उनके विचारों को अपने प्रवाह में बहा ले जाय। इच्छा और प्रयत्न का उसमें कोई दखल नहीं होता। सारांश, गद्य-लेखन में वह सर सैयद की शैली के अनुगामी थे। अरबीदाओं का समुदाय आजकल जिस प्रकार अरबीलुमा उर्दू लिखता है, उसको वह अपने लिए पसन्द न करते थे। हालाँकि अगर वह चाहते तो अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य और अरबी भाषा पर असाधारण अधिकार के सहारे क्लिष्ट से क्लिष्ट अरबी मिश्रित भाषा लिख सकते थे। वस्तुतः उन्हें ऐसी भाषा से बड़ी घबराहट होती थी।

चूँकि इन पंक्तियों के लेखक को मौलाना की सुहबत से लाभ उठाने के बहुत अधिक अवसर मिले हैं, महीनों एक जगह का उठना-बैठना रहा है, इसलिए इस विषय में उनकी रुचि-प्रवृत्ति का विशेष रूप से पता है। अकसर ऐसा संयोग हुआ है कि मौलाना कोई दैनिक, साप्ताहिक या मासिक पत्र पढ़ रहे हैं, पढ़ते-पढ़ते किसी जगह रुक गये और अपने खास ढंग मैं उस रचना या शैली के दोष-गुण की समीक्षा आरम्भ कर दी, या स्वर के उतार-चढ़ाव या लहजे के अदल-बदल से प्रशंसा को निन्दा व्यंजित करने लगे। मौलाना कि संगति में ऐसे अवसर बहुत ही मनोरंजक होते थे।

मौलाना जिस विषय कोउठाते, अकसर उसके गंभीर ज्ञान का परिचय देते थे। इस प्रकार के निबंधों में से ‘तुलसीदास की शायरी', 'अरब की शायरी' औरंगाबाद (दक्षिण) से प्रकाशित होनेवालें त्रैमासिक 'उर्दू' में प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो चुके हैं। उनके लेख 'तहजिबुल अखलाक़', 'इंस्टिट्यूट गजट', 'मआरिफ’, ‘अलीगढ़ मन्थली' आदि पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। यह सब इकट्ठा कर दिये जायें तो एक अति सुन्दर साहित्यिक संग्रह तैयार हो सकता है।

  1. तज़किरए ग़ौसिया।