कविता-कौमुदी १/हिन्दी भाषा का संक्षिप्त इतिहास
हिन्दी भाषा का संक्षिप्त इतिहास
हिन्दी भाषा का संक्षिप्त इतिहास
भाषा
हृदय एक पुष्प है, भाषा उसका विकास है और भाव गन्ध हैं।
हृदय एक वाद्य यन्त्र है, रसना रीड है, इच्छा उँगली है और भाषा झंकार है।
भाषा से देश जाना जाता है। हम देश के जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश के संक्षिप्त रूप हैं। हम स्वयं देश हैं। भाषा हमारी कीर्ति हैं।
भाषा हमारी कीर्ति है, कीर्ति ही हमारा जीवन हैं, जीवन ही हमारी मनुष्यता है, और मनुष्यता ही से हम जीवित हैं।
विचार भाषा का पुत्र हैं, कार्य पौत्र है, और सम्मति कन्या है, जो प्रदान की जाती है, और दूसरे घर में जाकर वृद्धि पाती है।
प्रत्येक पूरी बात को वाक्य कहते हैं। प्रत्येक वाक्य शब्दों का समूह है। प्रत्येक शब्द एक सार्थक ध्वनि है। भाषा का समूह है।
चार पैर, पूँछ, सींग आदि अंगों से युक्त एक पशु विशेष का नाम हमने गाय रख लिया है। गाय शब्द और गाय पशु से कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं; परन्तु गाय शब्द के उच्चारण से गाय पशु का बोध तत्काल हो जाता है।
यदि हमने सब पशुओं और सब क्रियाओं का नाम न रख लिया होता तो अपने मनोगत भावों के प्रकट करने में हमें बड़ी हो कठिनता पड़ती। हाथ मुँह आदि के संकेतों से हम अपने मनोभाव पूर्ण रूप से प्रकट ही न कर सकते। संसार व्यवहार में कभी उन्नति न होती।
साधारण रूप से भाषा के दो भेद किये जा सकते हैं। एक व्यक्त, दूसरा अव्यक्त। विचारों को पूर्ण रूप से प्रकट करने वाली मनुष्य की भाषा व्यक्त कहलाती है, और पशु-पक्षी की बोली अव्यक्त। पशु-पक्षी अपनी बोली से दुःख, सुख, भय आदि मनोविकारों को प्रकट करने के सिवाय कोई नई बात नहीं बतला सकते। जब हम सोचते हैं तब भीतर ही भीतर मन से हम एक प्रकार की बातचीत करते रहते हैं। यदि हम चाहें तो उसी बातचीत को एकत्र करके लिख ले सकते हैं। बहुत समय बीत जाने पर भी हम उस लेख को देखकर यह स्मरण कर सकते हैं कि किसी दिन हमने अपने मन से इस विषय पर बात चोटकी थी। भाषा बिना यह सुगमता कैसे हो सकती है?
व्यक्त भाषा के दो भाग हैं—कथित और लिखित। जब कोई मनुष्य हमारे सामने होता है, तब उसके लिये अपने विचार प्रकट करने में हम कथित भाषा काम में लाते हैं। और जब हमें अपने विचार किसी दूर वाले मनुष्य के पास भेजने पड़ते हैं, या भविष्य के लिए चिरस्थायी रखने पड़ते हैं, तब हम लिखित भाषा का उपयोग करते हैं।
हमारे पूर्वजों ने लिखित भाषा के लिये शब्द की एक-एक मूल ध्वनि का एक चिन्ह नियत कर लिया है, जिन्हें अक्षर या वर्ण कहते हैं। पहले भाषा में केवल कान ही काम देता था, वर्णों की रचना से आँख भी भाषा के लिये उपयोगी हो गई।
पहले लोग कथित भाषा से ही काम लेते थे। बड़े छोटे सब प्रकार के विचार केवल कथन द्वारा प्रकट किये जाते थे। जो विचार सुनने वाले को प्रिय लगते थे, उन्हें वह स्मरण रखता था; और अप्रिय विचारों को, चाहे वे भविष्य में उसके लिये लाभदायक ही हों, वह उपेक्षा के भाव से देखता था। इसका परिणाम यह होता था कि आगे चल कर उस यदि पूर्वकाल के अप्रिय विचारों की ही आवश्यकता पड़ती थी तो फिर उसे सोचना पड़ता था। परंतु अक्षर-लिपि को उत्पत्ति से यह असुविधा दूर हो गई। अब विचार चिरस्थायी किये जा सकते हैं। आज ओ कुछ हम सोचते हैं उसे लिखित भाषा के रूप में रख सकते हैं और हजारों वर्ष बीत जाने पर भी वे देखे जा सकते हैं। अक्षर-लिपि की ही सहायता से तो हम आज बाल्मीकि, व्यास, कालिदास और तुलसीदास के विचारों को इस प्रकार जान सकते हैं, मानो वे स्वयं हमारे सामने आकर कह रहे हों।
भाषा सदा स्थिर नहीं रहती। उसमें परिवर्तन होता रहता है। हजारों वर्ष पहले जो भाषा बोली वा लिखी जाती थी, आज उसका वह रूप नहीं है। भाषा का नया और पुराना रूप मिलान कर देखने से यह बात आसानी से जानी जा सकती है कि परिवर्तन किस प्रकार से हुआ है। भाषा तत्व के पंडितों का कथन है कि जब भाषा में परिवर्तन रुक जाता है तब उसकी उन्नति भी रुक जाती है। सभ्यता के साथ भाषा का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सभ्यता की वृद्धि के साथ भाषा की भी वृद्धि होती है। उसमें नये विचार और उन विचारों के द्योतक नये शब्द मिलते रहते हैं, और भाषा का भंडार बढ़ता रहता है। भाषा में परिवर्तन कैसे होता है? विचार करने से इसके ये कारण जान पड़ते हैं—स्थान, जल वायु और सभ्यता का प्रभाव और उच्चारण का भेद। बहुत से शब्द जो एक देश के लोग बोल सकते हैं, दूसरे देश के लोग नहीं बोल सकते। शीत प्रधान देशों में ऐसे शब्दों का बहुत प्रयोग होता है, जिनसे भुख को अधिक खोलना न पड़े; जैसे अंग्रेजी भाषा के अधिकांश शब्द। उष्ण प्रधान देशों में ऐसे शब्द अधिक बोले जाते हैं जिनसे मुख का अधिक भाग खोलना पड़ता है; जैसे भारतीय भाषाओं के शब्द। एक ही देश में भी भिन्न भिन्न जलवायु के कारण एकही शब्द के उच्चारण में कभी कभी बड़ा अंतर पाया जाता है। मरुस्थलों के निवासी कंठ से बोले जाने वाले शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं।
विद्वानों का अनुभव है कि सृष्टि के आरम्भ काल में सब मनुष्य एकही स्थान—मध्य एशिया में रहते थे और उस समय उनकी भाषा एक थी। जब जीविका की खोज में या अन्य किसी कारण से वे भिन्न भिन्न देशों में जा बसे, तब उन देशों के जलवायु की भिन्नता के प्रभाव से उनकी आदिम एक भाषा के उच्चारण में अंतर पड़ता गया। नवीन देश में आकर नवीन वस्तुओं के लिये और स्थिति के अनुसार नवीन प्रारम्भ किये हुये कार्यों के लिये उन्हें नवीन शब्दों की कल्पना करनी पड़ी, जिनसे उनकी आदिम भाषा को नवीन शब्दों से अलंकृत नवीन रूप धारण करना पड़ा। परन्तु जब सब मनुष्य साथ ही रहते थे और उनकी भाषा भी एक थी, उस समय बोल चाल में जो शब्द प्रचलित थे, उनमें से अधिकांश शब्द नवीन देश को नवीन भाषा में थोड़े परिवर्तन के साथ ज्यों के त्यों रह गये। यहाँ हम भिन्न भिन्न भाषाओं के कुछ समानार्थ शब्दों का संग्रह कर के अपने कथन को खुलासा किये देते हैं:—
संस्कृत | मीडी | यूनानी | लैटिन | अंगरेज़ी | फ़ारसी | हिन्दी |
पितृ | पतर | पाटेर | पेटर | फ़ादर | पिदर | पिता |
मातृ | मतर | माटेर | मेटर | मदर | मादर | माता |
भ्रातृ | ब्रतर | फ्राटेर | फ्रेटर | ब्रदर | ब्रादर | भ्राता |
नाम | नाम | ओनोमा | नामेन | नेम | नाम | नाम |
अस्मि | अह्नि | ऐमी | सम | ऐम | अम | ह्मूम |
इत्यादि इन शब्दों की समानता ही इस बात का प्रमाण है कि हम सब के पूर्वज कभी एक भाषा बोलते थे, आदिम स्थान से, जहाँ पर सब साथ ही साथ रहते थे, जो लोग पश्चिम को गये, उनसे ग्रीक, लैटिन, अंग्रेज़ी आदि भाषा बोलने वाली जातियों को उत्पत्ति हुई और जो लोग पूर्व को आये उनके दो भाग हो गये, एक भाग फारस को गया और दूसरा काबुल होता हुआ भारतवर्ष पहुँचा। पहले दल ने ईरान में मीडी भाषा के द्वारा फ़ारसी भाषा की सृष्टि की, ओर दूसरे दल ने संस्कृत का प्रचार किया। जिससे प्राकृत का जन्म हुआ और फिर प्राकृत के द्वारा संस्कृत से हिन्दी आदि भाषाएँ निकलीं।
अब हम यह दिखलाना चाहते हैं कि उच्चारण भेद से भाषाओं में भिन्नता कैसे हो जाती है। प्रत्येक भाषा का विद्वान् और ग्रामीण मनुष्य भिन्न भिन्न प्रकार से बोलते हैं। विद्वान् लोग शब्दों का शुद्ध उच्चारण करते हैं, ग्रामीण लोग उसे अपनी इच्छानुसार सुगम बना लेते हैं। इससे किसी प्रधान भाषा की, बिगड़ते बिगड़ते कई नई बोलियाँ बन जाती हैं। यहाँ हम कुछ ऐसे शब्द उपस्थित करते हैं, जिनका अर्थ एक है परन्तु विद्वानों और ग्रामीणों के उच्चारण में अंतर है। जैसे—
शुद्ध शब्द | उच्चारण-भेद | शुद्ध शब्द | उच्चारण-भेद |
---|---|---|---|
भूमि | भुई | आकाश | अकास आकास |
पानीय | पानी | सूर्य | सूरज |
शरीर | सरीर | श्वास | साँस |
विद्वानों और ग्रामीणों का यह उच्चारण-भेद नया नहीं है, रामायण के समय के भी शिष्ट समाज में बोली जाने वाली भाषा भिन्न थी, और सर्वसाधारण बोलचाल की भाषा भिन्न। बाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड, सर्ग ३०, श्लोक १७, १९ में अशोकवृक्ष पर हनुमान जी चिंता करते हैं—
अहं ह्यतितनुश्चैव वानरश्च विशेषतः।
वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्॥
यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना माँ सीता भीता भविष्यति॥
अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्।
अर्थात् मैं तो लघु शरीरी और वानर हूँ। पर यहाँ मनुष्यों की वाणी संस्कृत बोलूँगा। यदि द्विजाति के समान संस्कृत बोलूँगा तो सीता मुझे रावण समझ कर डर जायगी। इसलिये मुझे अर्थयुक्त साधारण मनुष्यों की बोलचाल की भाषा बोलनी चाहिये।
इससे प्रकट होता है कि रामायण के समय में साधारण मनुष्यों की भाषा देववाणी संस्कृत से भिन्न थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य संस्कृत बोलते थे और शूद्र संस्कृत शब्दों के अशुद्ध उच्चारण वाली कोई अन्य भाषा। अशोक के शिला लेखों और पतंजलि के ग्रन्थों से भी पता चलता है कि आज से कोई बाईस सौ बरस पहले उत्तर भारत में एक ऐसी भाषा प्रचलित थी, जो कई बोलियोँ से मिलकर बनी थी। कालिदास ने भी शकुन्तला नाटक में दो प्रकार की भाषा का व्यवहार दिखलाया है। स्त्री बालक और शुद्र से संस्कृत भाषा का ठीक ठीक उच्चारण नहीं बन सकने के कारण एक नवीन भाषा का जन्म हुआ, जिसका नाम "प्राकृत" हुआ। संस्कृत भाषा व्याकरण के नियमों से ऐसी जकड़ी हुई हैं कि उसके विकारग्रस्त होने की कोई संभावना नहीं हैं। सर्व साधारण लोग अपने अशुद्ध उच्चारण के कारण कहीं संस्कृत भाषा का रूप बिगाड़ न दे, इसलिये विद्वानों ने प्राकृत भाषा का एक नया रूप स्वीकार किया और उसका व्याकरण बनाकर उसे एक स्वतंत्र भाषा बना दी। प्राकृत का सब से पुराना व्याकरण वररुचि का बनाया हुआ मिलता है। संस्कृत को नियमित करने में पाणिनि का व्याकरण सब से अधिक प्रसिद्ध हैं।
संस्कृत के शब्दों का प्राकृत और हिन्दी में कैसा रूप बन गया है, इसे दिखाने के लिए नीचे हम कुछ शब्द प्रस्तुत करते हैं:—
संस्कृत | प्राकृत | हिन्दी |
---|---|---|
कर्म्म | कम्म | काम |
हस्त | हथ्थ | हाथ |
भगिनी | बहिणी | बहिन |
धृष्ट | धिट्ठी | ढीठ |
वार्ता | वत्त | बात |
पुस्तकम् | पोत्थओ | पोथी |
दुग्ध | दुद्ध | दूध |
कर्ण | कन | कान |
घृतम् | घिअम् | घी |
मेघः | मेहो | मेह |
गम्भीरम् | गहिरम् | गहिरा |
कुछ संस्कृत शब्द ऐसे हैं जो हिन्दी में ज्यों के त्यों व्यवहृत होते हैं। जैसे—
बल, हल, बन, मन, धन, जन, दूर, सूर, नदी, शीत, वर्षा, समुद्र, बसन्त, साधु, सन्त, दिन, राजा, कवि, काम, क्रोध इत्यादि।
ऊपर के प्रमाणों से यह बात समझ में आ सकती है। कि प्रत्येक प्रचलित भाषा में नवीन भावों के द्योतक नवीन शब्द और उसी भाषा के अपभ्रंश शब्द नित्य ही बढ़ते रहते हैं। जब ऐसे शब्दों की अधिकता होती है तब वे सब अपभ्रंश शब्द और कुछ उस प्रचलित भाषा के विशुद्ध शब्द मिलकर एक नई बोली का रूप धारण करते हैं, और फिर अपनी उन्नति का नवीन क्षेत्र तैयार कर लेते हैं।
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति
हिन्दी का पुराना नाम हिन्दवी या हिन्दुई हैं जिसका अर्थ है—हिन्दुओं की भाषा। इसलिये हिन्दी के विषय में कुछ कहने के पहिले हिन्दू शब्द पर विचार कर लेना उचित जान पड़ता है।
भारतवर्ष की आर्यजाति का नाम "हिन्दू" क्यों और कब से पड़ा, यह विचारणीय बात है। संस्कृत साहित्य में हिन्दू शब्द का कहीं उल्लेख नहीं। न तो वेद में, न उपनिषद् में, न स्मृति में और न पुराणों ही में इस शब्द का कहीं पता है। फिर यह कहाँ से आया और इसमें कौन सी ऐसी विशे पता देखकर इतनी बड़ी एक सुसभ्य जाति ने उसे ग्रहण कर लिया? इस प्रश्न का उत्तर देना सहज नहीं।
मेरुतन्त्र में एक स्थान पर "हिन्दू" शब्द आया है। इस सम्बंध के कुछ श्लोक हम यहाँ उद्धृत करते हैं:—
पश्चिमाम्नाय मन्त्रास्तु प्रोक्ताः पारस्य भाषया।
अष्टोत्तर शताशीतिर्येषां संसाधनात्कलौ॥
पञ्चखाना सप्तमीराः नवसाहा महाबलाः।
हिन्दूधर्म प्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तिनाः॥
हीनञ्च दूषयेत्येव हिन्दूरित्युच्यते प्रिये।
पूर्वाम्नाये नवशतं षडशीति प्रकीर्तिता॥
फिरङ्ग भाषया मन्त्रा येषां संसाधनात्कलौ।
अधिया मंडलानाञ्च संग्रामेष्वपराजिताः॥
इङ्गरेजा नव षट्पञ्च लण्डजाश्वापि भाविनः।
शिव रहस्य में भी एक स्थान पर ऐसा कहा गया है:—
हिन्दूधर्म प्रलोप्रारो भविष्यन्ति कलीयुगे।
हमें तन्त्र और शिव रहस्य के ये श्लोक पीछे से मिलाये हुये जान पड़ते हैं। क्योंकि पूर्वकाल में यदि हिन्दूधर्म कोई धर्म होता तो उसका उल्लेख स्मृति और पुराणों में कहीं न कहीं अवश्य होना। अतएव हम इन श्लोकों को किसी सुचतुर संस्कृतज्ञ की करामात समझ कर अप्रामाणिक सकते हैं।
हिन्दू शब्द हमें फ़ारसी भाषा में मिलता है। फ़ारसी का एक पथ सुनिये—
अगर आं तुर्क शीराज़ी बदस्त आरद दिले मारा।
बख़ाले हिन्दुवंश बख़शम समरकंदों बुखारारा॥
यह आज से कोई साढ़े पाँच सौ बरस पहले का हाफ़िज़ मिलता है, और इसी से इंडिया शब्द की उत्पति हुई जान पड़ती है। उच्चारण—भेद से सिंधु का किसी ने हिन्द बना लिया, किसी ने इंडस।
मेरी राय में अब इस बात में संदेह नहीं रह जाता कि हमारे देश का नाम हिन्द और हमारा नाम हिन्दू इस देश में मुसलमानों के आने से बहुत पहले ही पड़ चुका था। मुसलमानों ने हमारा यह नाम नहीँ रक्खा। अब प्रश्न यह है कि इस शब्द का उल्लेख हमारे संस्कृत ग्रन्थों में क्यों नहीं मिलता। मेरी समझ में इसका कारण यही जान पड़ता है कि हिन्दू शब्द संस्कृत भाषा का नहीं हैं; और हमने यह नाम स्वयं नहीं रक्खा है बल्कि विदेशी हमें इस नाम से पुकारते थे। जैसे अमेरिका यूरोप अदि देशों के लोग हमें इंडियन नाम से पुकारते हैं, परन्तु हम लोग अपनी पुस्तकों में अपने को हिन्दू ही लिखते हैं, इंडियन नहीं लिखते। अब प्रश्न यह है कि विदेशियों का रक्खा हुआ "हिन्दू" नाम हमने स्वीकार क्यों कर लिया? इसका उत्तर यही है कि पूर्व काल में भारत और ईरान से घनिष्ठ सम्बन्ध था, दोनों देशों की भाषा में बहुत कुछ समानता थी, दोनों देशों के रीति रस्म में बहुत कुछ एकता थी, पुराण ग्रन्थों में दोनों देशों में वैवाहिक सम्बन्ध तक की चर्चा पाई जाती है। अतएव नित्य के संसर्ग से हमारे लिये उनके रक्खे हुये हिन्दू नाम को पहले हमने कौतूहल वश स्वीकार किया, फिर धीरे धीरे इस नाम ने हमारे उर्वर मस्तिष्क में अपनी जड़ जमाली। परन्तु हमने संस्कृत ग्रन्थों में अपना प्राचीन नाम ही कायम रक्खा, केवल बोलचाल में हम अपने को हिन्दू कहने लगे।
कितनी ही विदेशी जातियाँ इस देश में भाई और मिल-जुल कर एक हो गई, इसी तरह यह हिन्दू नाम भी विदेश से भाया और यहाँ हमारा हो गया। अतएव हिन्दू नाम को घृणा की दृष्टि से देखने का हमे कोई कारण प्रतीत नहीं होता। यह हिन्दू नाम हमारे और ईरान वासियों के प्राचीन सम्बन्ध की यादगार है।
हम ऊपर लिख आये है कि मुसलमानों ने हमारा नाम हिन्दू नहीं रक्खा, पृथ्वीराज रासो से भी यह प्रमाणित हो सकता है। चंद बरदायी ने रासों से अनेक स्थलों पर हिन्दू और हिन्दुस्थान शब्द लिखे हैं। चंद बरदायी से पहले मुसलमानों को इस देश में आये ही कितने दिन हुए थे कि उनका रखा हुआ नाम एक विशाल जाति में इतना प्रचार पा जाता कि एक बार और स्वजात्याभिमानी कवि अपनी कविता में उस नाम को स्थान देता। स्वदेश और स्वजाति के जिस नाम से समाज अच्छी तरह परिचित रहता है, कवि लोग उनके लिये प्रायः वही नाम अपनी कविता में लिखते हैं। आजकल भी हिन्दी भाषा के कवि अपनी कविता में आवश्यकता पड़ने पर अपने देश का नाम भारत या हिन्दुस्थान ही लिखते हैं। इन्डिया नहीं। अब यह बात ध्यान में आ सकती हैं कि चंद वरदायों से हज़ारों वर्ष पहले, जब कि पृथ्वी मंडल पर मुसलमानों का कहीं अस्तित्व भी नहीं था, हमारी आर्य जाति हिन्दू हिन्दुस्थान नाम को अपना चुकी थी, इसी से चंद कवि को इन शब्दों के बहुल प्रयोग में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई।
अब हम हिन्दी भाषा की उत्पत्ति के विषय में विचार करते हैं:—
विक्रम संवत् के लगभग आठ नौ सौ वर्ष तक प्राकृत भाषा का प्रचार रहा। बौद्ध और जैन धर्म के संस्थापकों ने अपने सिद्धान्त ग्रंथ उम्र समय की बोलचाल प्राकृत भाषा में रखे थे। काव्य और नाटक में भी प्राकृत का प्रयोग होने लगा था।
इसके बाद प्राकृत में कुछ परिवर्तन प्रारंभ हुआ। धीरे धीरे वह यहाँ तक बढ़ा कि उसमें से अप्रभ्रंश नाम से एक नवीन भाषा का प्रादुर्भाव हुआ। अपभ्रंश शब्द का अर्थ है "बिगड़ी हुई भाषा"। प्राकृत के अंतिम वैयाकरण हेमचन्द्र सूरिने, जो बारहवीं शताब्दी में हुये थे, अपने "सिद्ध हेम शब्दानुशासन" नामक व्याकरण ग्रन्थ के आठवें अध्याय में अपभ्रंश भाषा का उल्लेख किया हैं, और उसका व्याकरण भी लिखा है। उन्होंने उस समय के ग्रन्थों से चुनकर उदाहरणार्थ सैकड़ों पद्य भी लिख दिये हैं, जिनसे उस समय की प्रचलित भाषा की खासी झलक दिखाई पड़ती है। उदाहरणार्थ अपभ्रंश भाषा का एक पद्य हम यहाँ देते हैं—
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कन्तु।
लज्जाज्जंतु वयंसिअहु जद भग्गा बरु एन्तु॥
अर्थात् हे बहन अच्छा हुआ जो मेरा पति मारा गया, यदि भागा हुआ घर आता तो मैं सखियों में लज्जित होती।
अपभ्रंश भाषा उस समय केवल मामूली भेद के साथ भारत के बहुत से प्रदेशों में बोली जाती थी। हेमचन्द्र के मरने के बाद, थोड़े ही वर्षों में, भारत में राज्य विप्लव हुआ। आपस की फूट से एक विशाल साम्राज्य टुकड़े २ हो गया। स्नेह सम्बन्ध टूट गया, छोटे छोटे सैकड़ोँ राज्य कायम हुए। एक राज्य के निवासी दूसरे राज्य के निवासियों को शत्रु समझने लगे, विदेशी विजेताओं के पैर ज़में, और भारत की फूट से वे लाभ उठाने लगे।
इस राज्य क्रांति का प्रभाव भाषा पर भी पड़ा। परस्पर ईर्ष्या द्वेष के कारण व्यावहारिक सम्बन्ध संकुचित हुआ, उसी के साथ भाषा की एक रूपता में भी अन्तर आने लगा। प्रदेश का सम्बन्ध विच्छेद होते ही उनमें व्यापक भाषा अपभ्रंश भी प्रत्येक प्रान्त में भिन्न भिन्न रूप में विकसित होने लगी। उसी समय से अपभ्रंश भाषा से गुजराती, पंजाबी, राजपूतानी मालवी और हिन्दी शाखाएँ निकलने लगीं और १५ वीं शताब्दी में पहुँचकर ये अपने भिन्न भिन्न वातावरण में फूलने फलने लगी। हमारा हिन्दी भाषा दो अपभ्रंश भाषाओं के मिश्रण से बनी है, एक पश्चिमी हिन्दी, दूसरी पूर्वी हिन्दी। पश्चिमी हिन्दी का स्थान राजपूताना ओर उसके पूर्वीय प्रांत हैं, और पूर्वी हिन्दी का अवध बघेलखंड और छत्तीसगढ़।
हिन्दी भाषा का विकास विक्रम को तेरहवीं शताब्दी के मध्यभाग से प्रारम्भ हुआ है। उसी समय से मुसलमानों का अधिकार भी इस देश में बढ़ने लगा। इससे हिन्दी भाषा में अरबी फ़ारसी के भी शब्द मिल गये। चंद बरदायी ने रासो की भाषा के सम्बन्ध में लिखा है:—
उक्ति धर्म विशालस्य राजनीति नवं रसं।
षट भाषा पुराणं च कुरानं कथितं मया॥
इसमें कुरान से उसका तात्पर्य मुसलमानी शब्दों से है। उक्त श्लोक से यह प्रकट होता है कि पृथ्वीराज रासो जिस भाषा में लिखा गया है उसमें षट्भाषा और अरबी फारसी के शब्दों का मेल है। उसकी षट्भाषा में एक भाषा पुरान हिन्दी भी है। उसका एक नमूना देखिये—
कहाँ लगि लघुता बरनवों कविन दास कवि चंद।
उन कहि ते जो उब्बरी सोऽब कहौं करि छंद॥
हमारी सम्मति में चंद ही हिन्दी का सब से पुराना कवि है। यद्यपि उसके पहले के कवियों की कविता में भी हिन्दी के रूप की कुछ झलक दिखाई पड़ती है, परन्तु चंद की कविता में हिन्दी का एक स्वतंत्र रूप स्पष्ट हो गया है।
हिन्दी का पुराना नाम
हिन्दी का सबसे पुराना नाम "भाषा" है। म॰ म॰ पं॰ सुधाकर द्विवेदी स्वरचित गणक तरंगिणी के ३३ पृष्ठ पर भास्वती की भाषा टीका का एक उदाहरण उद्धत करते हैं। उसमें भाषा शब्द आया है। उसका एक वाक्य यह है—
"सो देख कै वनमाली शिष्यार्थ भाषा टीका कीन्ह"
यह टीका सं॰ १४८५ की बनी है। तुलसीदास ने रामायण में "भाषा" शब्द लिखा है—
भाषा निवद्धमति मंजुलमातनीति।
भाषा भनित मोरि मति थोरी।
पर उन्होंने अपने फ़ारसी पंचनामें में हिन्दवी शब्द का उपयोग किया है। सं॰ १६८० में बनी गोरा बादल की कथा में जटमल ने "हिन्दवी" भाषा का प्रयोग किया हैं। आज कल भी बहुधा पुस्तकों के नामों और टीकाओं में हिन्दी के स्थान पर "भाषा" शब्द प्रयुक्त होता है, जैसे भाषा भास्कर, भाषा टीका आदि। पादरी आदम साहब लिखित उपदेश कथा में, जो सं॰ १८९४ में दूसरी बार छपी, इस भाषा का नाम "हिन्दुषी" लिखा है। "पदार्थ विद्यासार" नामक पुस्तक में, जो सं॰ १९०३ में छपी है, "हिन्दी भाषा" नाम आया है। मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी पद्मावत में लिखा है:—
तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहि।
जामें मारग प्रेम का सबै सराहैं ताहि॥
मालूम होता हैं कि पहले हिन्दू लोग इस भाषा को "भाषा" और मुसलमान लोग "हिन्दुई" या "हिन्दुवी" कहते थे।
सं० १८६१ के बने हुये "प्रेमसागर" में लल्लू लाल जी ने इस भाषा का नाम "खड़ी बोली" लिखा है। उन्होंने ही एक जगह अपनी भाषा का नाम "रेख़ते की बोली" लिखा है। जान पड़ता है, भाषा का नाम "रेख़्ता" उस समय रक्खा गया, जब इसमें अरबी, फ़ारसी के शब्द भी मिलने लगे। मुसलमानों में सर्व प्रथम कवि अमीर खुसरो, जिनकी मृत्यु सं॰ १३८२ में हुई, ऐसी भाषा में कविता कर गये हैं जो आजकल की खड़ी बोली से बहुत मिलती जुलती है; उसमें अरबी फ़ारसी के शब्दों का मेल नहीं। एक नमूना देखिये—
तरवर से एक तिरिया उतरी उसने खूब रिझाया।
बाप का उसके नाम जो पूछा आधा नाम बताया।
इससे मालूम होता है कि खुसरो के समय में ही वर्त्तमान खड़ी बोली का रूप बन चुका था।
अब हम हिन्दी साहित्य की क्रमोन्नति पर विचार करना चाहते हैं। साहित्य के दो भाग हैं—गद्य और पद्य। यहाँ हम क्रमशः दोनों भागों के क्रम-विकास की चर्चा करते हैं।
गद्य
हिन्दी गद्य के उदाहरण महाराज पृथ्वीराज के समय के मिलते हैं। यहाँ उस समय के दो एक पत्रों की प्रतिलिपि दी जाती है:—
श्रीहरी एकलिगो जयति
श्री श्री चित्रकोट बाई साहब श्री पृथुकुवर बाई का वारण गाम मोई आचारज भाई रुसी केसजीबाँच जो अपने श्री दली सुँ भाई लंगरी राय जी आयो है जो श्रीदली सुँ श्री हजूर को बी खास रुका आयो है जो भारी भी पदारवा की सीखवी हैं नेदली काका जी बेद है जो कागद वाचत चला आवजी थानेमा आगे जाइगे पड़ेगा थाके वास्ते डाक बैठी है श्री हजूर बी हुक्म बेगीयो है जो थे ताकीद सुँ आवजो थारे मंदर को व्याव कामारथ अवार करोगा दली सु आआ पाछे करोगा और थे सबेरे दन अठे आद्यसो सं॰ ११४५ चैत सुदी १३। सही
यह विक्रम सं॰ १२३५ का पत्र है, उस समय जो संवत् प्रचलित था वह विक्रम संवत् से ९० वर्ष कम है। ऊपर के पत्र का अर्थ यह हैं—
श्री हरि एकलिंगजी की जय हो। मोई ग्राम निवासी आचार्य भाई ऋषीकेश जी को चित्तौर से बाई साहब श्री पृथाकुवँरि बाई का संवाद बाँचना। आगे भाई श्री लंगरीराय जी भी दिल्ली से आये हैं और श्री दिल्ली से हुजूर का खास रुक्का भी आया है जिससे मुझको भी दिल्ली जाने की आज्ञा मिली है। काकाजी अस्वस्थ हैं। सो कागज बाँचते चले आओ! तुमको हमसे पहले जाना पड़ेगा। तुम्हारे वास्ते डाक बैठाई गई है। श्री हजूर (समरसिह) ने भी आज्ञा दी है। सो ताकीद जानकर जल्दी आओ! जो तुम्हारे मंदिर की स्थापना जल्दी स्थिर हुई हैं, सो हम लोगों के दिल्ली से लौटने पर होगी। इतनी जल्दी आओ कि दिन का सबेरा वहाँ हो तो शाम यहाँ हो। मितो चैत सुदी १३, संवत् ११४५।
दूसरा पत्र—मेवाड़ की एक सनद, सं॰ १२२९
स्वस्ति श्री श्री चीत्रकोट महाराजाधीराज तपे राज श्री श्री रावल जी श्री समर सी जी बचनातु दा अमा आचारज ठाकर रुसीकेष कस्य थाने दली सु डायजे लाया अणी राज में ओषद धारी लेवेगा ओषद ऊपरे मालकी थाकी है ओ जनाना में थारा बंसरा दाल ओ दूजा जावेगा नहीँ और थारी बैठक दली में ही जी प्रमाणो परधान बरोबर कारण होवेगा।
भावार्थ
श्री चित्रकोट (चित्तौर) के महाराजाधिराज रावल समरसिंह की आज्ञा से आचार्य ऋषीकेश को—तुमको दिल्ली से दायजे में लाया। राज्य में तुम्हारी दवा ली जायगी, दवा पर तुम्हारा अधिकार हैं, और अंतःपुर में तुम्हारे वंशजों के सिवाय दूसरा नहीं जायगा, और दरबार में तुमको प्रधान के बराबर आसन मिलेगा, जैसे दिल्ली में था।
गद्य के क्रम विकास के कुछ उदाहरण
सं॰ १४०७—महात्मा गोरखनाथ जी
स्वामी तुम्हैं तो सतगुरु अम्है तो सिष सबद एक पूछिबा, दया करि कहिबा, मनन करिबा रोस। पराधीन उपरांति बंधन नाहीँ, सु आधीन उपरांति मुकुति नाहीं।
सं॰ १६००—गोस्वामी बिट्ठलनाथ जी
प्रथम की सखी कहत है, जो गोपीजन के चरण विष सेवक की दासी करि जो इनके प्रेमामृत में डूब के इनके मंदहास्य ने जीते हैं अमृत समूह ता करि निकुंज विषै शृंगार रस श्रेष्ठ रसना कीनी से पूर्ण होत भई।
सं॰ १६२९—गंगा भाट (चंद छंद बरनन की महिमा से) इतना सुन के बादशाह जी श्री अकबर शाहाजी आदसेर सोना नरहरदास चारन को दिया।
सं॰ १६४८—गोस्वामी गोकुलनाथ जी
(चौरासी और दो सौ बावन बैष्णवों की वार्ता से) श्री गुसाईं जी के सेवक एक पटेल की वार्ता। सो वह पटेल वैष्णवराज नगर में रहेतो हतो। वा पटेल वैष्णव के दो बेटा हते और एक स्त्री हती।
सं॰ १६६०—नाभादास जी
तब श्री महाराज कुमार प्रथम वशिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भये।
सं॰ १६६९—गोस्वामी तुलसीदास
सं॰ १६६९ समये कुमार सुदी तेरसी बार शुभदीने लिषीतं पत्र अनंदराम तथा कन्हई के अंस विभाग पुर्वसु जे आग्य दुनहु जने मागा जे आग्य मैशे प्रमान माना।
सं॰ १६७०—बनारसी दासजी
सम्यग् दृष्टी कहा सो सुनो। संशय, विमोह, विभ्रम ए तीन भाव जामैं नाहीं से सम्यग दृष्टी।
सं॰ १६८०—जटमल (गोरा बादल की कथा से) हे बात कीला चित्तौड़गढ़ के गोरा बादल हुआ है जीनकी वार्ता की किताब हींदवी में बनाकर तैयार करी है।. . . . . . ये कथा सोल से अस्सी के साल में फागुन सुदी पूनम के रोज बनाई।
सं॰ १७६७—सूरति मिश्र (कवि प्रिया की टीका से)
सीस फूल सुहाग अरु बेंदा भाग ए दोऊ आये पावड़े सोहे सोने के कुसुम तिन पर पैर धरि आये हैं।
सं॰ १७८६—दास
धन पाये ते मूर्खहू बुद्धिवंत ह्वै जातु है। और युवावस्था पाये ते नारी चतुर ह्वै जाति है। उपदेश शब्द लक्षणा सो मालूम होता है औ वाच्यहू में प्रगट है।
स॰ १८६०—लल्लू जी लाल
निदान श्री कृष्णचन्द्र के पास बैठा सुन सुन घबड़ा कर अर्जुन बोला कि हे देवता तू किसके आगे यह बात कहै है और क्यों इतना खेद करै हैं।
सं॰ १८६०—सदल मिश्र (नासकेतोपाख्यान से)
कुंडमें क्या अच्छा निर्मल पानी कि जिसमें कमल कमल के फूलों पर भौंरे गूँज रहे थे, तिसपर हंस सारस चक्रवाकादि पक्षी भी तीर तीर सोहावन शब्द बोलते, आसपास के गाछों पर कुहू कुहू कोकिलैं कुहुक रहे थे जैसा बसंत ऋतु का घर ही होय।
उन्नीसवीं शताब्दी की समाप्ति तक हिन्दी गद्य का क्रम प्रायः ऐसा ही रहा। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ ही में हिन्दी गद्य का रूपही बदल गया, और उसने एक नवीन युग में पदार्पण किया। हिन्दी गद्य के इस नये युग की चर्चा हम कविता-कौमुदी के दूसरे भाग में करेंगे।
पद्य
हिन्दी गद्य से पद्य में विशेष उन्नति हुई हैं। पद्य के द्वारा थोड़े समय और थोड़े शब्दों में अधिक प्रभावोत्पादक बातें कही जा सकती हैं। उसके कंठस्थ रखने में भी सुविधा होती है, अक्षरों मात्राओं और पदों का नियम बद्ध संगठन होने से उसके पढ़ने में भी आनन्द आता है। तथा पद्य का संबन्ध गान विद्या से है और गान विद्या मनुष्य मात्र को प्रिय है, यहाँ तक कि वह पशु पक्षी तक का हृदय भी मोहित करने की शक्ति रखती है, इन कारणोँ से पद्य की ओर लोगों की स्वाभाविक रुचि बढ़ती गई। गद्य में उपरोक्त गुण नहीं; इसी से पूर्वकाल में उसका प्रचार भी कम हुआ। परन्तु उपरोक्त गुण न रहने पर भी आजकल पद्य की अपेक्षा गद्य का प्रचार अधिक क्यों हैं, इसका कारण यह है कि गद्य में ही संसार का प्रतिदिन का व्यवहार चलता है। बोलकर जो कुछ काम हमलोग करते कराते हैं, सब में गद्य का उपयोग करते हैं। इसलिये थोड़े ही परिश्रम से अपने मानसिक भावों को गद्य द्वारा प्रकट करने की शक्ति मनुष्य आ सकती है। पद्य में यह सुगमता नहीं। उसके लिये अधिक परिश्रम करना पड़ता है, नियम सीखने पढ़ते हैं, मस्तिष्क के विचारों को पद्य के पेचीले रास्ते से घुमा फिरा कर निकालना पड़ता है, इसी से उसमें अधिक समय लगता है। अधिक से अधिक परिश्रम करने पर भी मनुष्य पद्य में इतनी पटुता नहीं प्राप्त कर सकता कि उसके द्वारा वह गद्य की तरह धारा प्रवाह रूप से बातचीत कर सके। पद्य के लिये प्रतिभा चाहिये। सब मनुष्य प्रतिभा सम्पन्न नहीं। अतएव जिनमें प्रतिभा है, पद्य-रचना के अधिकारी वे ही हैं। गद्य-रचना आसान है, क्योंकि वही प्रतिदिन की बोलचाल है। उसमें उन्नति करना सर्व साधारण के लिये सुगम है।
गद्य की अपेक्षा पद्य में जो विशेषताएँ हैं, संस्कृत-साहित्य में भी उनपर विशेष ध्यान दिया गया है। हाथ मुँह धोने, दातुन करने, बाल सँवारने आदि साधारण कामों की बातें भी मनु आदि ने पद्य में कही हैं। वही क्रम हिन्दी के आदि काल में भी ग्रहण किया गया। उस समय के प्रतिभा सम्पन्न लोगों को जो कुछ कहना हुआ, उन्होंने सब पद्य में कहा। आजकल मनुष्यों के जीवन चरित्र प्रायः गद्य में लिखे जाते हैं, पूर्व काल में पद्य में लिखे जाते थे। इसमें संदेह नहीं कि गद्य की अपेक्षा पद्य में लिखा हुआ जीवन- चरित्र अधिक प्रभावशाली हो सकता है, परन्तु पद्य-रचना का कार्य उतना सुगम नहीं, जितना गद्य का।
हिन्दी-पद्य के विषय में दो एक बातें और कहने की हैं। वे यह हैं कि संस्कृत कविता में जैसा वर्णवृत्तों का प्राधान्य है, वैसा हिन्दी में नहीं। पुराने कवियों में तो शायद ही किसी ने वर्णवृत्तों में कविता की हो। यदि किसी ने की भी हैं, वर्णवृत्त के नियम का उसने अच्छी तरह से पालन नहीं किया है। मात्रिक छंदों में अपने भावों को सरलता पूर्वक वर्णन करने में उसे जैसी सफलता मिली है वैसी वर्णवृत्तों में नहीं। पुराने कवियों के विषय में एक यह बात भी ध्यान देने के योग्य है कि उनमें ऐसे कवियों को संख्या अधिक जिन्होंने अन्य छंदों की अपेक्षा घनाक्षरी और सवैया छंदों में ही अधिक रचना की है। यों तो तुलसी ने दोहे चौपाई में ही सारी राम कथा कह डाली है, बिहारी ने दोहों ही दोहों में रस भरा हैं, चंद और केशव ने विविध छंदों में अपने मनोर भाव प्रकट किये हैं; किन्तु घनाक्षरी और सवैया लिखने वाले कवियों की ही संख्या अधिक है। आजकल इन छंदों की उतनी क़दर नहीं रही। अब कितने ही नये छंदों का प्रचार बढ़ रहा है। आजकल वर्णवृत्तों में भी कविता सफलता के साथ होने लगी है।
हिन्दी पद्य-रचना के विषय में एक बात यह विशेष उल्लेख के योग्य है कि इसमें प्रारंभ काल से ही तुकबंदी का प्रचार है। संस्कृत में जैसे अतुकान्त कविता का बाहुल्य है, हिन्दी मैं वैसा ही, बल्कि उससे भी विशेष, तुकबंदी का प्राधान्य है। मात्रिक छंदों में तुकबंदी के बिना भाषा का माधुर्य कम हो जाता है। हाँ, वर्णवृत्तों में अनुकान्त रूप नहीं खटकता। पहले के कवि वर्णवृत्तों में प्रायः नहीँ के बराबर ही कविता रचते थे, अतः बेतुकी की ओर उनका ध्यान हो नहीं गया।
आदि काल से लेकर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पहले तक का हिन्दी-पद्य का क्रम विकास कविता-कौमुदी (प्रथम भाग) में दिखलाया हो गया है, इस कारण से इस विषय में हम और उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं समझते।
हिन्दी और वैष्णव
वैष्णव सम्प्रदाय में चार भेद हैं—विष्णु सम्प्रदाय, रामानुज सम्प्रदाय, मध्व सम्प्रदाय और वल्लभ सम्प्रदाय। इन चारों सम्प्रदायों के मुख्य आचार्य विष्णु, रामानुज, मध्व और वल्लभ थे। विष्णु स्वामी द्रविड़ देश के रहने वाले थे। इनका जन्म दिल्ली में किसी राजा के मंत्री के घर हुआ था। इन्होंने शाङ्कर मत का खंडन किया है। रामानुज स्वामी भी द्रविड़ देश निवासी थे। इनके पिता का नाम "केशव" और माता का "मति" था। मध्वाचार्य गुजराती थे। इनका जन्म गुजरात में सं॰ १९९९ में हुआ। वल्लभाचार्य का जन्म सं॰ १५३५ आन्ध्रदेश (दक्षिण) में हुआ। इन्होंने भागवत दशम स्कंध का पद्य में अनुवाद किया है।
राम और कृष्ण वैष्णवों के प्रधान उपास्य देव हैं। ये विष्णु के अवतार माने जाते हैं। चंद बरदायी ने रासो के पहले ही छंद में गुरु को नमस्कार कर साकार लक्ष्मीश विष्णु को स्मरण किया है। आगे चल कर उसने दस अवतारों की कथा अलग अलग लिखी है। इससे मालूम होता है कि उसके चित पर वैष्णव धर्म का विशेष प्रभाव था। और हिन्दी का आदि कवि भी वही माना जाता है। अतएव यह कहा जा सकता है कि वैष्णवों ही ने हिन्दी का उसके जन्मकाल से लालन पालन किया है। हिन्दी के साथ वैष्णवों का अधिक सम्बंध होने का एक कारण और भी हैं। वह यह है कि हिन्दी उस प्रदेश की भाषा है, जहाँ वैष्णवों के आराध्य देव राम और कृष्ण ने अवतार धारण किया था। जिस स्थान पर उन्होंने लीला की, उस स्थान वहाँ के निवासियों और उनकी भाषा से वैष्णवों का प्रेम होना स्वाभाविक ही है। राम और कृष्ण का कीर्त्तन करने में वैष्णव कवियों का एक ताँता सा बंध गया। हिन्दी में आज तक शायद हो ऐसा कोई कवि हुआ हो जिसने किसी न किसी रूप में रामकृष्ण का गुण गान न किया हो।
पंद्रहवीं शताब्दी में स्वामी रामानंद हुये। उन्होंने मानों हिन्दी भाषा में वैष्णव धर्म की नीव दृढ़ कर दी। उनके पश्चात् ही भक्त शिरोमणि सूरदास ने सं॰ १५४० में जन्म लिया। सूरदास ने अपनी कविता के द्वारा हिन्दी का गौरव मुसलमान सम्राट अकबर के दरबार तक फैला दिया। इसी शताब्दी में दक्षिण देश से आकर स्वामी वल्लभाचार्य ने कृष्ण भक्ति को और भी चमत्कृत कर दिया। सूरदास और वल्लभाचार्य की संयुक्त शक्ति ने वैष्णव सम्प्रदाय में कृष्ण भक्ति की एक बाढ़ सी ला दी। इसी अवसर में स्वामी हरिदास, हित हरिवंश और नन्ददास की मधुर ध्वनि गूँजने लगी। वैष्णव दल में एक से एक प्रतिभाशाली कवियों ने जन्म लेकर हिन्दी भाषा द्वारा जनता का मन ऐसा खींच लिया कि देश में चारों ओर हिन्दी कविता सहस्त्र धारा होकर उमड़ चली। अभी लोग इस आनन्द लहरी में स्नान करके तृप्त हो ही रहे थे कि हिन्दी कवियों के शिरोमणि तुलसीदास आ पहुँचे। इनकी कलम ने हिन्दी में वैष्णव धर्म को अजर अमर बना दिया। आज इनके समान प्रतिभाशाली कवि हिन्दी में कोई नहीं। आज अनपढ़ सपढ़ सब में तुलसीदास वैष्णव धर्म की चर्चा करते हुये पाये जाते हैं। तुलसीदास के समान आज भारतवर्ष भर में किसी हिन्दी कवि का आदर नहीं।
वैष्णव कवियों की कविता का रस चखकर मलिक मुहम्मद जायसी और रहीम ऐसे कितने ही मुसलमान कवि अपनी कविता द्वारा वैष्णव धर्म का प्रचार करने लगे। और रसख़ान तो जाति पाँति सब जोड़ कर स्वयं वैष्णव हो गये।
सूर और तुलसी के पीछे हिन्दी के जितने कवि हुये, सब राम और कृष्ण के कीर्त्तन में उत्तरोत्तर वृद्धि करते चले आये। ग्रामीण कवियों ने अपनी रोज की बोलचाल में भी कविता रची। उसके द्वारा गाँव के अनपढ़ लोगों में वैष्णव धर्म का खूब प्रचार हुआ। एक उदाहरण देखिये:—
हरे हरे केसवा हरु रे कलेसवा
तोरा के रटत महेसवा रे।
तोरे नाम जपत बा पुजत बा
सबसे प्रथम गनेसवा रे॥
जल बरसैला धान सरसैला
सुख उपजैला मधवा रे।
प्रागदास प्रहलदवा के कारन
रघवा ह्वै गैलें बघवा रे॥
गाँव के लोग अपनी रोजमर्रा की बोलचाल को कविता को बड़े ध्यान से सुनते और खूब समझते हैं। तात्पर्य यह कि हिन्दी भाषा द्वारा वैष्णव धर्म का सम्मान बढ़ा और वैष्णव धर्म के साथ हिन्दी का प्रचार हुआ।
हिन्दी और जैन
जैन-साहित्य में हिन्दी का रूप सोलहवीं शताब्दी से स्पष्ट होने लगा हैं। उसके पहले वह प्राकृत और अप्रभ्रंश में ऐसी गुथी थी कि हम उसे हिन्दीं नहीं कह सकते। सं॰ १५८० में ठकुरसी नामक एक कवि ने "कृष्ण चरित्र" नामक एक छोटी सी कविता-पुस्तक लिखी, उसमें से एक छप्पय हम यहाँ उद्धृत करते हैं—
कृपणु कहै रे मीत मञ्झु घरि नारि सतावै।
जात चालि धणु खरचि कहै जो मोह न भावै॥
तिहि कारण दुब्बलौ रयण दिन भूख न लागै।
मीत मरणु आइयौ गुज्झु आँखौ तू आगै॥
ता कृपण कहै रे कृपण सुणि, मीत न कर मन माँहि दुखु।
पीहरि पठाइ दै पापिणी ज्यों को दिण तूँ होइ सुखु॥
इस छंद में हिन्दी भाषा की एक स्पष्ट मूर्ति निकल आने में बहुत थोड़ी कसर दिखाई पड़ती है।
सत्रहवीं शताब्दी में सुप्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदास हुये। इनका जन्म सं॰ १६४३ में, जौनपुर नगर में हुआ। इन्होंने अपनी कविता में हिन्दी का रूप स्पष्ट कर दिया। इनके नाटक समय सार, अर्द्ध प्रसिद्ध हैं। अर्द्ध कथानक, इनका सबसे अच्छा ग्रंथ है। इसमें इन्होंने अपना ५५ वर्ष का आत्म-चरित लिखा है। इस ग्रंथ से इनकी कविता की थोड़ी सी बानगी आगे दिखलाते हैं:—
सं॰ १६७३ में आगरे में प्लेग का प्रकोप हुआ। उसका वर्णन इन्होंने ऐसा किया है:—
इस ही समय ईति बिस्तरी, परी आगरे पहिली मरी।
जहाँ तहाँ सब भागे लोग, परगट भया गाँठ का रोग।
निकसै गाँठि मरै छिन माँहिँ, काहू की बसाय कछु नाहिं।
चूहे मरैं वैद्य मरि जाहिँ, भयसो लोग अन्ननहिँ खाहिँ।
जब अकबर बादशाह के भरने का समाचार जौनपुर पहुँचा, उस समय वहाँ के निवासियों की क्या दशा हुई, उसका वर्णन सुनिये:—
इसही बीच नगर में सोर भयो उदंगल चारिहु ओर।
घर घर दर दर दिये कपाट हटवानी नहिँ बैठें हाट।
भले वस्त्र अरु भूषन भले ते सब गाड़े धरती तले।
घर घर सबनि बिसाहे सस्त्र लोगन पहिरे मोटे वस्त्र।
ठाढ़ौ कम्बल अथवा खेस नारिन पहिरे मोटे बेस।
ऊँच नीच कोऊ न पहिचान धनी दरिद्री भये समान।
चोरी धारि दिसै कहूँ नाहिँ योंहीं अपभय लोग डराहिँ।
एक बार बनारसी दास परदेश में अपने साथियों के सहित कहीं ठहरे, इतने में पानी बरसने लगा। तब सब भाग कर सराय में गये, वहाँ जगह नहीं थी। बाज़ार में कहीँ खड़े होने को स्थान नहीं था। सब के किवाड़ बंद थे। उस समय का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है:—
फिरत फिरत फावा भये बैठों कहै न कोइ।
तलै कींच सों पग भरे ऊपर बरसत तोइ॥
अंधकार रजनी विषैं हिमरितु अगहन मास।
नारि एक बैठन कह्यों पुरुष उठ्यो लै बाँस॥
बनारसीदास प्रतिभावान् कवि थे। इनके पश्चात् भूधर दास आदि और भी कई अच्छे कवि हुये, जिन्होंने हिन्दी भाषा में बड़ी ललित कविताएँ रची हैं। जैन विद्वानों ने पूर्व काल से ही हिन्दी की उन्नति और उसके प्रचार में हाथ बटाया है। आज भी हिन्दी के लिये उनका उद्योग कम नहीं।
हिन्दी और सिक्ख
सिक्खों के आदि गुरु नानक देव ने हिन्दी का बहुत प्रचार किया। उन्होंने यात्राएँ भी बड़ी दूर दूर की की थीं। सिख विद्वानों का कथन है कि वे जहाँ जहाँ जाते थे वहाँ हिन्दी ही में धर्मोंपदेश करते थे। उनके कहे हुये वचन सब हिन्दी ही में हैं। सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव जी हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक थे। अपने से पहले हुये गुरुओं की वाणी का संग्रह करके "गुरु ग्रंथ साहब" की रचना उन्होंने ही की है। यह सिक्खों का धर्म ग्रंथ है, और अब तक करतार पुर में मौजूद है। गुरु तेग बहादुरने औरंगजेब को हिन्दी ही में संसार की असारता का उपदेश दिया था।
सिक्ख सम्प्रदाय में हिन्दी का सब से अधिक सम्मान गुरु गोविन्द सिंह के समय में हुआ। गुरु गोविन्द सिंह का वर्णन कविता-कौमुदी में आ गया है। ये स्वयं हिन्दी के अच्छे कवि थे। हिन्दी में शिक्षा देने के लिये इन्होंने कई पाठशालायें खोली थीं। इनके सिवा भाई सन्तोष सिंह ने भी हिन्दी का बहुत कुछ हित साधन किया है। ये सिक्खों में हिन्दी के महाकवि कहे जाते हैं। इनके रचे "सूर्य प्रकाश" नामक ग्रंथ को सिक्ख लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं।
काशी में शिक्षा प्राप्त करने के लिये गुरु गोविन्द सिंह के भेजे हुये संत गुलाब सिंह ने भी हिन्दी की बड़ी सेवा की है। इनके लिखे हुये चार ग्रंथ आजकल उपलब्ध होते हैं। सब हिन्दी में हैं, और वेदान्त प्रेमी सिक्खों में उनका बड़ा आदर है।
वर्त्तमान काल में भी सिक्ख सम्प्रदाय में ज्ञानी ज्ञान सिंह द्वारा हिन्दी का अच्छा प्रचार हो रहा है। इन्होंने हिन्दी कविता में "ग्रंथ प्रकाश" नामक ग्रंथ की रचना की है।
हिन्दी और गुजराती
गुजराती का हिन्दी के साथ बहुत निकट का सम्बन्ध है। अच्छी हिन्दी जानने वाला थोड़े ही परिश्रम से गुजराती सीख सकता है।
गुजरात में गुजराती भाषा के साहित्य का जन्म नरसी मेहता और मीराबाई के समय से हुआ। मीराबाई की जीवनी और कुछ कविता कविता-कौमुदी में दी हुई हैं। उससे यह साफ़ प्रकट होता है कि मीराबाई की कविता की भाषा कैसी है। कहीं कहीं मारवाड़ी और गुजराती बोलचाल के शब्द आ गये हैं नहीं तो वह विशुद्ध हिन्दी ही है। यहाँ हम नरसी मेहता का एक पद लिखते हैं। उससे पाठक आसानी से समझ लेंगे कि गुजराती और हिन्दी में कितना अंतर है।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीड़ पराई जाणे रे!
पर दुःखे उपकार करे तोए मन अभिमान न आणे रे॥
सकल लोक माँ सौने बन्दे निन्दा न करे केनी रे।
वाच, काछ, मन निश्चय राखे धन धन जननी तेनी रे॥
सम दृष्टी ने तृष्णा त्यागी पर स्त्री जेने मात रे॥
जिह्वा थकी असत्य न बोले पर धन नव झाले हाथ रे॥
मोह माया व्यापे नहिँ जेने दृढ़ वैराग्य जेना मन माँ रे।
राम नाम सूँ ताली लागी सकल तीरथ तेना तन माँ रे॥
वणलोभी ने कपट रहित छे काम कोध निवार्या रे।
भणे नरसैयों तेनूँ दर्शन करताँ कुल एकोतेर तार्या रे।
बहुत थोड़े शब्द इसमें ऐसे हैं, जो हिन्दी वाले न समझ सकते हों। परन्तु भाव तो सब समझ लेंगे।
नरसी मेहता के पहले गुजरात में गुजराती भाषा बोली तो आती थी किंतु उसका कोई साहित्य नहीं था। ब्रजभाषा की कविता को ही विद्वान और कवि लोग पढ़ते और लिखते थे। गुजराती में ब्रजभाषा का आधिक्य है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि वल्लभ सम्प्रदाय का आदर गुजरात में बहुत है। वल्लभ सम्प्रदाय का भक्ति-साहित्य ब्रजभाषा में बहुत है। इससे गुजरात में धार्मिक भाव के साथ ब्रजभाषा का भी प्रभाव बढ़ गया।
गुजराती कवियों ने हिन्दी के बहुत से छंदों को अपनाया है और उनमें रचनाएँ की हैं।
हिन्दी में जैसे तुलसीदास की चौपाई, सूरदास के पद और गिरिधर की कुंडलियाँ प्रसिद्ध हैं, वैसे ही गुजराती में नरसी मेहता की प्रभाती, मीराबाई के भजन, सामल के छप्पय, दयाराम की गरभियाँ, और नर्मदाशंकर के रोला छंद की महिमा है। सुप्रसिद्ध कवि दयाराम की कविता तो हिन्दी से बहुत ही मिलती जुलती हैं। लीजिए, एक उदाहरण देखिये:—
हरदम कृष्ण कहे श्रीकृष्ण कहे तू ज़बाँ मेरी।
यही मतलब खातर करता हूँ खुशामद मैं तेरी॥
दही और दूध शक्कर रोज खिलाता हूँ तुझे।
तौ भी हर रोज़ हरनाम न सुनाती मुझे॥
खोई जिन्दगानी सारी सोइ गुनाह माफ़ तेरा।
दया मत भूले प्रभुनाम आख़िर वक्त मेरा॥
बँगला और मराठी की अपेक्षा गुजराती का हिन्दी से अधिक सम्बन्ध है। इस समय भी गुजराती साहित्य में हिन्दी की बहुत छाया वर्त्तमान है।
हिन्दी और मुसलमान
मुसलमान जब से इस देश में आये, तभी से हिन्दी के साथ उनका घनिष्ट सम्बन्ध रहा। राज्य का सब कामकाज हिन्दी ही में होता था। मुहम्मद क़ासिम, महमूद ग़ज़नवी और शहाबुद्दीन गोरी ने हिन्दुस्तान में अपना दफ़्तर हिन्दी ही में रक्खा था। उनकी तवारीख़ों से इन बातों का साफ़ साफ़ पता चलता हैं। हसन गाँगूँ ब्राह्मणी ने गाँगूँ ब्राह्मण को अपने हिसाब का दफ्तर सौंपा था। अकबर के समय में तो हिन्दी का महत्व बहुत बढ़ गया था। वह स्वयं हिन्दी मैं कविता रचता था। अपने बेटे जहाँगीर को भी उसने हिन्दी सिखाई, और अपने पोते खुशरो को तो छः वर्ष की अवस्था में ही हिन्दी सीखने के लिये भूदत्त भट्टाचार्य के सुपुर्द कर दिया था। शाहजहाँ अपनी मातृभाषा के समान हिन्दी भाषण में अधिकार रखता था। शाहजहाँ के दरबार में हिन्दी कवियों का अच्छा सम्मान था। उसका बड़ा लड़का दारा तो हिन्दी और संस्कृत में अपने बाप दादाओं से भी बढ़कर निकला। उसने उपनिषदों का फ़ारसी भाषा में उलथा किया। औरङ्गजेब यद्यपि हिन्दुओं से बड़ा द्वेष रखता था, हिन्दी से विमुख वह भी नहीं था। एक बार शाहजादा मोहम्मद आज़म ने कुछ आम औरङ्गजेब के पास भेजे और प्रार्थना की कि इनके नाम रख दो। औरङ्गजेब ने बेटे को लिखा कि तुम स्वयं विद्वान होकर बूढ़े बाप को क्यों कष्ट देते हो, खैर तुम्हारी प्रसन्नता के लिये आमों का नाम मैंने सुधारस और रसना विलास रक्खा है।
शाही दरबारों में हिन्दी गवैयों का भी बड़ा आदर था। तानसेन को अकबर ने पहले ही मुजरे में एक करोड़ का इनाम दिया था। बैरमखाँ खानखाना ने बाबा रामदास को एक लाख रुपये एक ही दिन दे डाले थे। शाहजहाँ ने महापात्र जगन्नाथ राय त्रिशूली के बराबर रुपये तौल दिये थे। उसी ने कलावंत लाल खाँ को गुणनिधि की उपाधि दी थी। हिन्दी का इतना आदर था कि मुसलमान गवैये भी हिन्दी ही राग रागिनियाँ गाते थे। हिन्दू गवैयों का तो कहना ही क्या हैं, मुसलमान गवैये अब तक भी हिन्दी राग रागिनियाँ गाते हैं।
मुसलमानी राजत्वकाल का इतिहास और हिन्दी का इतिहास यदि मिलाकर देखा जाय तो यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि मुसलमानों की उन्नति के साथ हिन्दी की उन्नति हुई है और उनके अधःपतन के साथ एक बार हिन्दी का भी रंग फीका पड़ गया था। जब मुसलमानी शासन का सूर्य उन्नति पर था, हिन्दी के बड़े बड़े प्रतिभाशाली कवि उसी समय में हुये थे। मुसलमानों की उन्नति के समय हिन्दी इस तरह फूली फली, कि उसके सुमधुर सुगंध और स्वाद से आजकल हम लोग बहुत आनन्द पा रहे हैं। हिन्दी के इस नाते से मुसलमानों की ओर हमारा प्रेम बढ़ जाता है। हिन्दी की इस उन्नति से मुसलमानों को गर्व होना चाहिये।
यहाँ तक तो बादशाहों की कथा हुई, अब हम यह दिखलाना चाहते हैं कि मुसलमान कवियों ने हिन्दी की उन्नति में कितना हाथ बटाया है।
चौदहवीं शताब्दी में सुप्रसिद्ध मुसलमान कवि अमीर खुसरो हुये। उनका फ़ारसी और हिन्दी की मिलावट का एक ग़ज़ल सुनिये:—
ज़े हाले सिसकी सकुन तगाकुल
दुराय नैना बनाय बतियाँ।
किं ताबे हिजराँ न दाम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाय छतियाँ॥
शबानै हिजराँ दराज़ चूँ
जुल्फ़ी रोज़े बसलत चु उम्र कोतह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ॥
इसमें जितना अंश हिन्दी में कहा गया है, वह कितना सरल हैं, सुनते ही समझ में आ जाता है। खुसरो के नाम से बहुत सी पहेलियाँ प्रचलित हैं, वे भी ऐसी सरल हैं, कि बच्चों तक की समझ में आ जाती हैं।
खुसरो के सिवाय और भी बहुत से मुसलमान कवियों ने हिन्दी में कविता की हैं। उनमें से कुछ के नाम नीचे लिखे जाते हैं। साथ ही यह भी लिख दिया जाता है कि उनके रचे हुये कौन कौन से ग्रन्थ उपलब्ध हैं:—
कवि | ग्रन्थ |
---|---|
१—अकबर | फुटकर कविताएँ |
२—कादिर बख्श | „„ |
३—अब्दुर्रहीम खानखाना | "कविता-कौमुदी" में वर्णन देखिये। |
४—उसमान | क॰ कौ॰ में देखिये, |
५—मलिक मुहम्मद जायसी | „„ |
६—सैयद इब्राहीम (रसखान) | „„ |
७—मुबारक | „„ |
८—अहमद | वेदान्त कविता |
९—बहाव | बारह माला |
१०—अब्दुर्रहमान | यमक शतक |
११—जलील | फुटकर |
१२—याकूब खाँ | रसिकप्रिया की टीका |
कवि | ग्रन्थ |
---|---|
१३—जुल्फिकार | सतसई की टीका |
१४—अनवर खाँ | अनवर चंद्रिका |
१५—प्रेमी यमन | अनेकार्थ नाम माला |
१६—आजम | नखशिख |
१७—सैयद गुलाब नबी | रसप्रबोध, अङ्ग दर्पण |
१८—तालिब अली | नखशिख |
१९—नबी | फुटकर |
२०—आलम | क॰ कौ॰ देखिये |
किसी किसी मुसलमान कवि ने तो हिन्दी में ऐसी अच्छी कविता की हैं, कि उसके एक एक पद पर कितने ही हिन्दू कवियों की कविता न्योछावर कर दी जा सकती है। अंत में बड़े साहस और संतोष के साथ हम यह कह सकते हैं कि पिछले सहृदय मुसलमान बादशाहों और कवियों ने हिन्दी की जो सेवा की है वह कभी न कभी अवश्य हिन्दू मुसलमानों के भाषा विषयक विरोध को दूर करने में समर्थ होगी।
रामनरेश त्रिपाठी