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कविता-कौमुदी १/१ चन्द बरदाई

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कविता-कौमुदी
रामनरेश त्रिपाठी

प्रयाग: साहित्य भवन, पृष्ठ १ से – १६ तक

 

 

कविता-कौमुदी

चंदबरदाई

चंबरदाई का नाम राजपूताने में बहुत प्रसिद्ध है। वह भारतवर्ष के अन्तिम हिन्दू सम्राट् महाराज पृथ्वीराज चौहान का राजकवि, मित्र और सामन्त था। वह भट्ट जाति के जगान (वर्त्तमान राव) नामक गोत्र का था। उसके पूर्वज पंजाब के रहने वाले थे, और उनकी यजमानी अजमेर के चौहानों के यहाँ थी।

चंद का जन्म लाहौर में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि चंद और पृथ्वीराज का जन्म एक ही तिथि को हुआ था और एक ही तिथि को दोनों ने शरीर भी छोड़ा। पृथ्वीराज का जन्म संवत् १२०५ में और मृत्यु १२४८ में हुई। अतएव चंद के भी जन्म मरण का समय यही समझना चाहिये।

चंद के पिता का नाम राववेण और विद्या गुरु का नाम गुरुप्रसाद था। वह षटभाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र, शास्त्र, पुराण, नाटक, और गान आदि विद्याओं में बड़ा निपुण था, वह जालन्धारी (जालपा) देवी का उपासक था।

चंद ने दो विवाह किये थे। उसकी पहली स्त्री का नाम कमला उपनाम मेवा और दूसरी का गौरी उपनाम राजोरा था। उसके ग्यारह सन्तति हुई, दस लड़के और एक लड़की; लड़की का नाम राजबाई था। चंद के दस पुत्रों में जल्ह बड़ा योग्य था। पृथ्वीराज की बहन पृथाबाई का विवाह, "रासो" के अनुसार, चित्तौर के रावल समरसिंह के साथ हुआ था। पृथाबाई के साथ जल्ह भी रावल जी को दहेज में दिया गया था। जब शहाबुद्दीन के साथ पृथ्वीराज के अन्तिम युद्ध में रावल समरसिंह जी मारे गये तब उनके साथ पृथाबाई सती हुई थी। सती होने के पहिले पृथाबाई ने अपने पुत्र को एक पत्र लिखा था। जिसमें सूचना दी थी कि श्रीहुज़ूर समर में मारे गये, और उनके संग रिषीकेस जी भी बैकुंठ को पधारे हैं। रिषीकेस जी उन चार लोगों में से हैं जो दिल्ली से मेरे संग दहेज में आये थे, इस लिये इनके वंशजों की खातिरी राखना। ने पाछे मारा प्यारी गरां का मनषां की षात्री राखजो। ई मारा जीव का चाकर हे जो थासु कदी हरामषोर नीवेगा"। यह पत्र माघ सुदी १२ संवत् १२४८ विक्रम का लिखा हुआ है। इससे प्रकट है कि जल्द पृथाबाई के साथ चित्तौर गया था।


चंद ने पृथ्वीराज का चरित्र जन्म से लेकर अन्तिम युद्ध तक "पृथ्वीराज रासो" नामक महाकाव्य में वर्णन किया है। अन्तिम लड़ाई के समय चंद पृथ्वीराज के साथ उपस्थित नहीं था, वह देवी के एक मन्दिर में बैठ कर "रासो" को पूरा कर रहा था। इसलिये अन्तिम लड़ाई का वृत्तान्त वह नहीं लिख सका। पीछे से उसके पुत्र जल्द ने उस युद्ध का वृत्तान्त लिखा। रासो में लिखा है कि पृथ्वीराज को शहाबुद्दीन ने पकड़ लिया था। वह उन्हें गजनी ले गया और उनकी दोनों आँखें फोड़वा कर उसने उन्हें कैदखाने में डाल दिया। "रासो" लिखकर चंद अपने घर आया और उसे जल्द को दकर वह गजनी गया। वहाँ गोरी को प्रसन्न करके वह पृथ्वीराज से मिला। उसने कौशल से पृथ्वीराज के हाथ से शहाबुद्दीन को मरवा डाला। फिर राजा ओर कवि दोनों ने कटार से अपना अपना प्राणांत वहीं किया। पृथ्वीराज के साथ चंद का जीवन चरित्र ऐसा मिला हुआ है कि उससे वह किसी तरह अलग नहीं किया जा सकता। बंद पृथ्वीराज का लँगोटिया मित्र था। वह सदा पृथ्वीराज के साथ रहता था, इसलिये जो जो घटनायें उसने लिखी हैं, उनमें, सत्य का अंश बहुत अधिक है। उसने आँखों देखी बातें लिखी हैं।

चंद महाकवि था। उसका बनाया हुआ "पृथ्वीराज रासो" हिन्दी में एक अपूर्व ग्रन्थ है। उसमें स्थान २ पर कविता के नवो रसों का वर्णन बड़ी मार्मिकता से किया गया है। चंदने पृथ्वीराज का सम्पूर्ण चरित्र अपनी स्त्री गौरी से कहा है। जिस प्रकार तुलसीदास की चौपाई, सूरदास के पद, बिहारी के दोहे, गिरधर की कुण्डलिया और पद्माकर के घनाक्षरी छन्द प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार चन्द ने छप्पय लिखने मैं बड़ा नाम पाया है।

"रासो" की कविता में संयुक्ताक्षरों की खूब भरमार है। पढ़ते समय ऐसा मालूम होता है कि जीभ को खूब ऊबड़ खाबड़ रास्ता तै करना पड़ रहा है, पर उस रास्ते में जो काव्य रस के मनोहर पुष्प खिले हुये हैं उनकी सुगन्ध से मन मुग्ध हो जाता है। "रासो" में बीर और शृङ्गार रस की कविता बहुत है, उनमें बड़ा चमत्कार और बड़ी मनोमोहकता है।

चंद की कविता की भाषा अच्छी तरह वे ही लोग समझ सकते हैं जिन्हें संस्कृत और राजपूताने की बोली का अच्छा ज्ञान हो। साधारण हिन्दी जानने वालों की समझ में वह अच्छी तरह नहीं आ सकती।

"रासो" बहुत बड़ा ग्रन्थ है। समय समय पर चंद जो कवितायें रचता था, उसे वह कण्ठस्थ रखता था, या कागज़ पर लिख लेता होगा! उन्हें पुस्तकाकार उसने ६० दिन में किया। रासो में कुल ६९ अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय किसी न किसी ऐतिहासिक घटना को लेकर लिखा गया है। पृथ्वीराज ने अपने जीवन में बहुत सी लड़ाइयाँ लड़ी थीं और उन्होंने विवाह भी कई किये थे, रासों में सब का विस्तार पूर्वक वर्णन है। चंद का जन्म लाहौर में हुआ था और वहाँ मुसलमानों का अधिक संसर्ग था इसलिये चंद की कविता में फ़ारसी के भी बहुत से शब्द आ गये हैं।

आगे हम चंद की कविता के कुछ नमूने उद्धृत करते हैं:—

पद्मावती समय
दूहा

पूरब दिस गढ़ गढ़न पति समुद शिखर अति दुग्ग।
तहँ सु विजय सुरराज पति जादू कुलह अभग्ग॥१॥
हसम हयग्गय देस अति पति सायर भ्रज्जाद।
प्रबल भूप सेवहिं सकल धुनि निसान बहु साद॥२॥

कवित्त

धुनि निसान बहु साद नाद सुरपंच बजत दिन।
दस हजार हय चढ़त हेम नग जटित साज तिन॥
गज असंख गज पतिय मुहर सेना तिय संखह।
इक नायक कर घरी पिनाक धर भर रज रख्खह॥

दस पुत्र पुत्रिय एक सम रथ सुरंग उम्मर डमर।
भंडार लछिय अगनित पदम सो पद्म सेन कूँवर सुघर॥३॥

दूहा

पद्म सेन कूँवर सुघर ता घर नारि सुजान।
ता उर एक पुत्री प्रकट मनहुँ कला ससि भान॥४॥

कवित

मनहुँ कला ससि भान कला सोलह सो वन्निय।
बाल बेल ससिता समीप अमृत रस पिनिय॥
बिगसि कमल मृग भ्रमर बैन खंजन मृग लुट्टिय।
हीर कीर अरु बिम्ब मोति नख शिख अहि घुट्टिय॥
छत्रपति गयंद हरि हंस गति विह बनाय संचै सचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय मनहु काम कामिनि रचिय॥५॥

दूहा

मनहु काम कामिनि रचिय रचिय रूप की रास।
पशु पंछी सब मोहिनी सुर नर मुनियर पास॥६॥
सामुद्रिक लच्छन सकल चौंसठि कला सुजान।
जानि चतरदस अंग षटरति वसंत परमान॥७॥
सखियन सँग खेलत फिरत महलनि बाग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन तब मन भयौं हुलास॥८॥

कवित

मन अति भयौं हुलास बिगसि जनु कोक किरन रवि।
अरुन अधर निय सुधर बिम्ब फल जानि कीर छवि॥
यह चाहत चख चकृत उह जु तक्किय भरप्पि झर।
चंच चहुट्टिय लोभ लियौ तब गहित अप्प कर॥

हरपत अनन्द मन महि हुलस लै जु महल भीतर गई।
पंजर अनूप नग मनि जटित सो तिहिं महँ रष्यत भई॥९॥
दूहा
तिही महल रय्यत भई गई। खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुट्टयो कीर सो राम पड़ावत फुल्ल॥१०॥
कीर कुँवर तन निरखि दिखि नख सिख लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै यहीं पदमिनी सरूप॥११॥
कवित
कुट्टिल केस सुदेश पौह परचियत दिक्क सद।
कमल गंध वय संघ हंस गति चलत मंद मंद॥
सेत वस्त्र सोहै सरीर नख स्वाति बुँद जस।
भमर भँवहि भुल्लहि सुभाव मकरंद वास रस॥
नैन निरखि सुख पाय सुक यह सदिन मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत मिलहि राज प्रथिराज जिय॥१२॥
दूहा
सुक समीप मन कुँवरि को लग्यो बचन कै हेत।
अति विचित्र पंडित सुआ कथत जु कथा अमेत॥१३॥
गाथा
पुच्छत वयन सु बाले उच्चरिय कोर सच्च सच्चायै।
कवन नाम तुम देस कवन यंद करय परवेस॥१४॥
उच्चरिय कीर सुनि बयनं हिन्दवान दिल्ली गढ़ अयन।
तहाँ इन्द्र अवतार चहुआन तहँ प्रथिराजह सूर सुभारं॥१५॥

पद्धरी

पदमावतीहि कुँवरी सँघत,
दुज कथा कहत सुनि सुनि सुवन्त॥१६॥
हिंदवान थान उत्तम सुदेश,
तहँ उदत द्रुग्ग दिल्ली सुदेस॥१७॥
संभरि नरेस चहुआन थान,
प्रथिराज तहाँ राजंत भान॥१८॥
बैसह बरीस षोड़स नरिंद
आजान बाहु भुअ लोक यंद॥१९॥
संभरि नरेस सोमेस पूत,
देवंत रूप अवतार धूत॥२०॥
सामंत सूर सब्बै अपार,
भूजान भीम जिम सार भार॥२१॥
जिहि पकरि साह साहाब लीन,
तिहुँ बेर करिय पानीप हीन॥२२॥
सिंगिनि सुसद्द गुन चढ़ि जँजीर,
चुक्कै न सब बेधंत तीर॥२३॥
बल बैन करन जिमि दान पान,
सतसहस सील हरिचँद समान॥२४॥
साहस सुक्रम विक्रम जुवीर,
दानव सुमन्त अवतार धीर॥२५॥
दिस च्यार जानि सब कला भूप,
कंद्रप्प जानि अवतार रूप॥२६॥

दूहा

कामदेव अवतार हुअ सुअ सोमेसर नंद।
सहस किरन झलहल कमल रिति समीप वर विंद॥२७॥
सुनत श्रवन प्रथिराज जस उमग बाल विधि अङ्ग।
तन मन चित चहुवाँन पर बस्यो सुरतह रङ्ग॥२८॥
बेस बिती ससिता सकल आगम कवियों बसंत।
मात पिता चिंता भई सोधि जुगति कौ कंत॥२९॥

कवित्त

सोधि जुगति कौ कंत कियौ तब चित्त चहीं दिस।
लयौ विप्र गुर बोल कही समझाय बात तस॥
नर नरिंद्र नरपती बड़े गढ़ द्रग्ग असेसह।
सीलवन्त कुल सुद्ध देहु कन्या सुनरेसह॥
तब चलन देहु दुज्जह लगन सगुन बंद दिय अप्प तन।
आनंद उछाह समुदह सिपर बजत नट्ट नीसान घन॥३०॥

दूहा

सवा लष्ष उत्तर सयल कमऊँ गढ़ दूरंग।
राजत राज कुमोद मनि हय गय द्रिब्ब अभंग॥३१॥
नारि केलि फल परठि दुज चौक पूरि मनि मुत्ति।
दई जु कन्या वचन बर अति अनन्द करि जुत्ति॥३२॥

भुजंग प्रयात

बिहसित बरं लगन लिनौ नरिदं,
बजी द्वार द्वारं सु आनन्द दुंर्द॥३३॥
गढ़ंनं गढ़ं पत्ति सब बोलि नुत्ते,
सब आइयं भूप कटु बस जुत्ते॥३४॥

चले दस सहस्सं असव्वार जानं,
पूरियं पैदलं तेतीस थानं॥३५॥
मदं गल्लितं मत्त सै पंच दंती,
मनो साम पाहार बुग पंति पंती॥३६॥
चलै अग्गि तेजी जु तत्ते तुखारं,
चौवरं चौरासी जु साकन्ति भारं॥३७॥
नगं कंठ नूपं अनोपं सुलालं,
रंगं पंच रंगं ढलक्कंत ढालं॥३८॥
सुरं पंच साबद्द वाजित्र वाजं,
सहस्स सहन्नाय मृग मोहि राजं॥३९॥
समुद सिर सिखर उच्छाह छाहं,
रचित मंडपं तोरनं श्रीयगाहं॥४०॥
पदमावती बिलखि घर बाल बेली,
कही कीर सों बात तब होइ केली॥४१॥
झटं जाहु तुम्ह कीर दिल्ली सुदेसं,
बरं चाहुआनं जु आनौ नरेसं॥४२॥

दूहा

आनों तुम्ह चहुआन बर अरु कहि इहैं संदेस।
साँस सरीरहि जो रहे प्रिय प्रथिराज नरेस॥४३॥

कवित

प्रिय प्रथिराज नरेस जोग लिखि करगर दिनौ।
लगु नव रंग रचि सरब दिन द्वादस ससि लिनौ॥
सें अरु ग्यारह तीस साष संवत परमानह।
जोवित्री कुल सुद्ध बरनि वर रष्षहु प्रानह॥

दिष्षंत दिष्ट उच्चरिय वर इक्क पलक बिलम्ब न करिय।
अलगार रयन दिन पंच महि ज्यों रुकमनि कन्हर वरिय॥४४॥

दूहा

ज्यों रुकमनि कन्हर वरी ज्यों वरि संभर कांत।
शिव मँडप पच्छिम दिसा पूजि समय स प्रांत॥४५॥
लै पत्री सुक यों चल्यौ उड्यो गगनि गहि वाव।
जहें दिल्ली प्रथिराज नर अट्ट जाम में जाव॥४६॥
दिय कग्गर नृप राज कर षुलि बंचिय प्रथिराज।
सुक देखत मन में हँसे कियो चलन कौ साज॥४७॥

कवित्त

उहै घरी उहि पलनि उहै दिन बेर उहै सजि।
सकल सूर सामंत लिये सब बोलि बंब बजि॥
अरु कवि चंद अनूप रूप सरसै बर कह बहु।
और सेन सब पच्छ सहस सेना तिय सष्षहु॥
चामंडराय दिल्ली घरह गढ़ पति करि गढ़ भार दिय।
अलगार राज प्रथिराज तब पूरब दिस तब गमन किये॥४८॥

दूहा

जादिन सिषर बरात गय तादिन गय प्रथिराज।
ताही दिन पतिसाह कौं भइ गज्जनै अवाज॥४९॥

कवित्त

सुनि गज्जनै अवाज चढ्यो साहाब दीन बर।
खुरासान सुलतान कास काविलिय मीर घुर॥
जङ्ग जुरन जालिम जुझार भुज सार भार भुअ।

धर धर्मकि भजि सेस गगन रवि लुप्पि रैन हुअ॥
उलटि प्रवाह मनौ सिंधु सर रुक्कि राह अड्डौ रहिय।
तिहि घरिय राज प्रथिराज सौं बंद वचन इहि विधि कहिय॥५०॥
निकट नगर जब जानि जाय वर विंद उभय भय।
समुद्र सिखर घन नद्दु इंद दुहुँ ओर घोर गय॥
अगिवानिय अगिवान कुँअर बनि बनि हय सज्जति।
दिष्षन को त्रिय सबनि गौख चढ़ि छाजन रज्जति॥
विलखि अवास कूंवरि वदन मनो राह छाया सुरत।
झंषति गवष्षि पल पल पलकि दिखत पंथ दिल्ली सुपति॥५१॥

पद्धरी

दिष्षंत पंथ दिल्ली दिसान,
सुख भयो सूक जब मिल्यो आन॥५२॥
संदेश सुनत आनन्द नैन,
उमगीय बाल मनमध्य सेन॥५३॥
तन चिकट चीर डालो उतार,
मज्जन मयंक नव सत सिँगार॥५४॥
भूषन मँगाय न सिख अनूप,
सजि सेन मनो मनमथ्थ भूप॥५५॥
सोव्रन्न थार मोतिन भराय,
झलहल करंत दीपक जराय॥५६॥
संगह सखीय लिय सहस बाल,
रुकमिनिय जेम मज्जत मराल॥५७॥
पूजीय गवरि संकरि मनाय,
दच्छिनै अंग करि लगिय पाय॥५८॥
फिर देखि देखि प्रथिराज राज,
हस मुंद्ध मुंद्ध चरपट्ट लाज॥५६॥

कर पकरि पीठ हय पर चढ़ाय,
लै चल्यो नृपति दिल्ली सुराय॥६०॥
भइ खबरि नगर बाहिर सुनाय,
पद्मावतीय हरि लीय जाय॥६१॥
बाजी सुबंध हय गय पलान,
दौरे सुसज्जि दिस्सह दिसान॥६२॥
तुम्ह लेहु लेहु मुख जंपि जोध,
हन्नाह सूर सब पहरि क्रोध॥६३॥
अग्गे जु राज प्रथिराज भूप,
पच्छै सुभयो सब सैन रूप॥६४॥
पहुँचे सु जाय तत्ते तुरंग,
भुअ भिरन भूप जुरि जोध जङ्ग॥६५॥
उलटी जु राज प्रथिराज बाग,
थकि सूर गगन धर धसत नाग॥६६॥
सामंत सूर सब काल रूप,
गहि लोह छोह वाहै सु भूप॥६७॥
कम्मान वान छुट्टहिं अपार,
लागंत लोह इम सारि धार॥६८॥
घमसान धान सब बीर खेत,
घन श्रोन बहत अरु रुकत रेत॥६९॥
मारे बरात के जोध जोह,
परि रुंड मुंड अरि खेत सोह॥७०॥

दूहा

परे रहत रिन स्वेत अरि करि दिल्लिय मुख रुक्ख।
जीति चल्यो प्रथिराज रिन सकल सूर भय सुक्ख॥७१॥

पदमावति इस लै चल्यो हरखि राज प्रथिराज।
एतेंपरिपतिसाह की भई जु आनि अवाज॥७२॥

कवित्त

भई जु आनि अवाज आय साहाब दीन सुर।
आज गहौं प्रथिराज बोल बुल्लंत गजत धुर॥
क्रोध जोध जोधा अनंत करिय पंती अनि गज्जिय।
बाँन नालि हथनालि तुपक तीरह सब सज्जिय॥
पवै पहार मनो सार के भिरि भुजान गजनेस बल।
आये हकारि हंकार करि खुरासान सुलतान दल॥७३॥

भुजंग प्रयात

खुरासान मुलतान खंधार मीर,
बलक सोवलं तेग अच्चूक तीरं॥७४॥
रुहंगी फिरंगी हलंबी समानी,
ठटी ठट्ट बल्लोच ढालं निसानी॥७५॥
मँजारी चखी मुक्ख जम्बक्क लारी,
हजारी हजारी इकैं जोध भारी॥७६॥
तिनं पप्षरं पीठ हय जीन सालं,
फिरंगी कती पास मुकलात लालं॥७७॥
तहाँ बाघ बाघं मरूरी रिछोरी,
घनं सार संमूह अह चौरँ झोरी॥७८॥
एराकी अरब्वी पटी तेज ताजी,
तुरक्की महाबान कम्मान बाजी॥७९॥
ऐसे असिव असवार अग्गेल गोलं,
भिरे जून जेते सुतत्ते अमोलं॥८०॥
तिनं मद्धि सुलतान साहाब आपं,

इसे रूप सों फौज बरनाय जापं॥८१॥
तिन' घेरियं राज प्रथिराज राजं,
चिहौ ओर घनघोर नोसान बाजं॥८२॥

कवित्त

बज्जिय घोर निसान रान चहुआन चिहौ दिख।
सकल सूर सामंत समरि बल जंत्र मंत्र तस॥
उडि राज प्रथिराज बाग लग मनो वीर नट।
कढ़त तेग मनो बेग लगत मनी बीज झट्ट घट॥
थकि रहे सूर कौलिंग गगन रगन मगन भई ओन घर।
हर हरषि वीर जग्गे हुलस हुरव रंगि नव रत्त वर॥८३॥

दूहा

हुरव रंग नव रंत वर भयौ जुद्ध अति चित्त।
निस वासुर समुझि न परत न को हार नह जित्त॥८४॥

कवित्त

न को हार नह जित्त रहेइ न रहहि सूर वर।
धर उप्पर भर परत करत अति जुद्ध महाभर॥
कहौं कमध कहौं मध्य कहौं कर चरन अंत दरि।
कहौं कंध वहि तेग कहौं सिर जुट्टि फुट्ट उर॥
कहौं दंत मत हय खुर षुपरि कुंभ भ्रसुंडह रुंड सब।
हिंदवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुबन जब॥८५॥

भुजंग प्रयात

गही तेग चहुवान हिँदवान रानं,
गजं जूथ परि कोप केहरि समान॥८६॥
करे रुंड मुंड करी कुंभ फारे,
बरं सूर सामंत हुकिं गर्ज भारे॥८७॥

करी चीह चिक्कार कार कल्प भग्गे,
मदं तंजियं लाज ऊमंग मग्गे॥८८॥
दौरे गजं अंध चहुअन केरो,
करीयं गिरद्दूँ चिहौ चक्क फरों॥८९॥
गिरद्दँ उड़ी भान अंधार रै,
गई सूधि सुज्झैं नहीं मज्झि नैनं॥९०॥
सिरं नाय कम्मान प्रथिराज राजं,
पकरिये साहि जिम कुलिंग बाजं॥९१॥
लैचल्यो सिताबी करी फारि फौंजं,
परे मीर सै पंच तहँ खेत चीजं॥९२॥
रजंपुत्त पच्चास जुज्झे अमोरं,
बजै जीत के नद्द नीसान घोरं॥९३॥

दूहा

जीति भई प्रथिराजकी पकरि साह लै संग।
दिल्ली दिसि मारगि लगौ उतरि घाट गिर गंग॥९४॥
वर गोरी पद्मावती गहि गोरी सुरतान॥
निकट नगर दिल्ली गये प्रथीराज चहुआन॥९४॥

कवित्त

बोलि विप्र सोधे लगन्न सुभ घरी परिट्ठय।
हर बाँसह मंडप बनाय करि भाँवरि गंठिय॥
ब्रह्म वेद उच्चरहिं होम चौरी जु प्रति बर।
पद्मावति दुलहिन दुल्लह प्रथिराज राज नर॥
डंड्यो साह सहाबदी अट्ठ सहस हय वर सुवर।
दै दान मान षट भेस को चढ़े राज दुग्गा हुजर॥९४॥

दूहा

चढ़े राज द्रुग्गह नृपति सुमत राज प्रथिराज।
अति अनन्द आनन्द सैं हिंदवान सिरताज॥९७॥

चंद के अन्य दोहे

सरस काव्य रचना रचौं खल जन सुनिन हसंत॥
जैसे सिंधुर देखि मग स्वान सुभाव भुसंत॥९८॥
तौ पनि सुजन निमित्त गुन रचिये तन मन फूल।
जू का भय जिय जानि कै क्यों डारियै दुकूल॥९९॥
पूरन सकल विलास रस सरस पुत्र फलदान।
अंत होइ सहगामिनी नेह नारि को मान॥१००॥
जस हीतो नागौ गिनहु ढंक्यों जग जसवान।
लंपट हारै लोह छन त्रिय जीतै बिन बान॥१०१॥
समदरसो ते निकट है भुगति मुगति भरपूर॥
विषम दरस वा नरन तें सरबदा दूरि॥१०२॥
पर योषित परसै नहीं ते जीते जगबीच।
परतिय तक्कत रैन दिन ते हारे जग नीच॥१०३॥