कविता-कौमुदी १/२ विद्यापति
विद्यापति ठाकुर
महामहोपाध्याय विद्यापति ठाकुर मैथिल ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम गणपति ठाकुर, पितामह का जयदत्त ठाकुर और प्रपितामह का धीरेश्वर ठाकुर था इनका जन्म मिथिला देश के बिसपी ग्राम में हुआ था।
विद्यापति का जन्म किस संवत में हुआ, इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता। बाबू नगेन्द्रनाथ गुप्त द्वारा संकलित विद्यापति की पदावली में राजा शिवसिंह के सिंहासनारोहण विषयक एक कविता है। उसके ऊपर के दो पद हम यहाँ प्रस्तुत करते हैं:—
"अनल रन्ध्र कर लक्खन नरवय सक समुद्द कर आगनि ससी
चैत कारि छठि जेठा मिलिओ बार वेहप्पय जाउ लसी"
इससे केवल इतना पता चलता है कि लक्ष्मणसेन (लक्खन) द्वारा प्रचारित सन् २९३ (शकाब्द १३२४, विक्रम संवत् १४५९) में राजा शिवसिंह गद्दी पर बैठे। विद्यापति राजा शिवसिंह के दरबार में थे। दरबार में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। राजा ने इनको विसपी ग्राम दान दे दिया था उसका दानपत्र अभी तक इनके वशजों के पास है। उस पर सन् २९३ लिखा है। इससे अनुमान होता है कि राजा ने गद्दी पर बैठने की खुशी में विसपा ग्राम विद्यापति को दे दिया था। राज दरबार में अपनो विद्वत्ता के बल पर इतना सम्मान प्राप्त करने के समय किसी मनुष्य की आयु कम से कम कितनी होनी चाहिये, इसकी कल्पना करके सन् २९३ के उतना समय पहले विद्यापति का जन्म काल अनुमान कर लेना चाहिये।
विद्यापति को पदावली में बहुत से पद्य ऐसे हैं जिन में राजा शिवसिंह और उनकी रानी लखिमा देवी का नाम आया है। शृंगार रस का जहाँ कोई मधुर वर्णन आया हैं, वहाँ विद्यापति ने लिखा है कि इस रस को राजा शिवसिंह और लखिमा देवी ही जानती हैं। रानी लखिमा देवी के विषय में ऐसा कहने की स्वतन्त्रता जब कवि को प्राप्त थी तब इससे प्रकट होता है कि विद्यापति को राजा शिवसिंह बहुत मानते थे।
विद्यापति प्रतिभाशाली कवि और संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में पाँच उत्तम ग्रन्थ बनाये जिनका मिथिला में बड़ा आदर है। मैथिल भाषा में इनके बनाये बहुत से पद हैं, जो मिथिला में कामकाज के अवसर पर गृहस्थों के यहाँ गाये जाते हैं, और इनके कुछ पदों का बंगदेश में भी विशेष आदर है। इसी से कुछ बंगाली महाशय इनको भी बंगाली कवि कहते हैं, परन्तु ये बंगाली नहीं थे।
इनकी कविता में शृंगार रस प्रधान है। संयोग वियोग के छोटे छोटे भावों को भी दिखाने में इन्होंने बड़ी पटुता दिखलाई है। हमने इनकी कविता में से कुछ अच्छे अच्छे पद चुन कर आगे संग्रह कर दिये हैं, उसके पढ़ने से पाठकों को सहज ही में यह पता चल जायगा कि इन्होंने भावों के झलकाने में कितनी सूक्ष्मदर्शिता का परिचय दिया है। इनकी कविता को चैतन्य महा प्रभु बहुत पसंद करते थे। वास्तव में इनकी कविता बड़ी ही श्रुति मधुर और भाव-विभूषिता है।
विद्यापति ने पारिजात-हरण और रुक्मिणी-परिणय नामक दो नाटक ग्रन्थ भी बनाये हैं, हिन्दी में पहले नाटककार विद्यापति ही हैं।
इनकी कविता की भाषा हिन्दी है, केवल थोड़े से ऐसे शब्द हैं जो मिथिला में बोले जाते हैं। अपनी कविता में स्थान स्थान पर इन्होंने ठेठ हिन्दी शब्दों का अच्छा प्रयोग किया है।
इनकी कविता के कुछ चुने हुए पद यहाँ हम उद्धृत करते हैं। बहुत से पद चमत्कार पूर्ण होने पर भी हमने छोड़ दिये, क्योंकि उनके भावों में अश्लीलता अधिक थी। नन्दक नन्दन कदम्बेरि तरु तरे धिरे धिरे मुरलि बलाब।
समय संकेत निकेतन बरसल वेरि बेरि बोलि पठाव॥
सामरी तोरा लागि अनुखने विकल मुरारि।
जमुना का तिर उपवन उदवेगल फिरि फिर ततहि निहार।
गोरस बिके अबइते जाइते जनि जनि पुछ बनमारि॥
तो हे मतिमान सुमति मधुसूदन वचन सुनह किछु मोरा।
भनइ विद्यापति सुन बर जौवति बन्दह नन्दकिशोरा॥१॥
कि कहब हे सखि आजुक बात,
मानिक पड़ल कुयनिक हात।
कांच कांचन न जानय मूल,
गुंजा रतन करइ समतूल।
जे किछु कभु नहिं कला रस जान,
नीर खीर दुहुँ करे समान।
तन्हि सो कहाँ पिरित रसाल,
बानर कण्ठे कि मोतिय माल।
भनइ विद्यापति इह रस जान,
बानर मुँह कि शोभय पान॥२॥
सजनी अपद न मोहिं परबोध।
तोड़ि जोड़िअ जाहाँ गैंठे पर पड़ ताहाँ तेज तम परम विरोध॥
सलिल सनेह सहज थिक सीतल ई जानइ सबे कोइ।
से जदि तपत कए जतने जुड़ाइय तहअओ विरत रस होइ॥
मेल सहज हे कि। रिति उपजाइअ कुल ससि नीली रंग
अनुभवि पुनि अनुभवए अचेतन पड़ए हुतास पतङ्ग॥३॥
कालि कहल पिआ ए साँझ हिरे जायब मोये मारू देश।
मोये अभागिली नहिं जानल रे सङ्ग जइतँओ योगिनी वेश॥
हृदय बड़ दारुन रे पिया बिनु बिहरि न जाइ।
एक शयन सखि सुतल रे अछल बालभु निस भोर।
न जानल कति खन तेजि गेलरे बिछुरल चकवा जोर॥
सून सेज हिय सालइ रे पियाए बिनु घर मोये आजि।
विनति करहु सुसहेलिनि रे मोहि देह अमिहर साजि॥
विद्यापति कवि गाओल रे आवि मिलत पिय तोर।
लखिमा देइ वर नागर रे राय शिवसिंह नहिं भोर॥४॥
हमर नागर रहल दर देश,
केऊ नहिं कहि सक कुशल सँदेश।
ए सखि काहि करब अपतोस,
हमर अभागि पिया नहि दोस।
पिया बिसरल सखि पुरुष पिरीति,
जखन कपाल वाम सब विपरीति।
मरमक वेदन मरमहिं जान,
आनक दुख आन नहि जान।
भनइ विद्यापति न पुरइ काम,
कि करति नागरि जाहि विधि वाम॥५॥
लोचन धाए फोधायेल हरि नहिं आयल रे।
शिव शिव जिवओ न जाए आसे अरुझाएल रे॥
मन करि तहँ उड़ि जाइअ जहाँ हरि पाइअरे।
पेम परसमनि जानि आनि उर लाइल रे॥
सपनहु संगम पाओल रंग बढ़ाओल रे।
से मोर विहि विघटाओल निन्दओ हेरायल रे॥
भनइ विद्यापति गाओल धनि धइरज कर रे।
अचिरे मिलत तोहिं बालम्भु पुरत मनोरथ रे॥६॥
सरसिज बिनु सर सरबिनु सर सिज की सरसिज बिनु सूरे।
जौवन बिनु तन तनु बिनु जौवन की जीवन पिय दरे॥
सखि हे मोर बड़ देव विरोधी॥७॥
माधव कत तोर करब बड़ाई।
उपमा तोहर हम ककरा कहब कहितहुँ अधिक लजाइ॥
जो श्रीखंड सौरभ अति दुर्लभ तौं पुनि काठ कठोर।
जौं जगदीश निशाकर तौं पुन एकहि पक्ष इजोर॥
मनि समान अओरो नसि दूसर तनिकहुं पाथर नामें।
कनक कदलि छोट लज्जित मैं रहु की कहु ठामहि ठामें॥
तोहर सरिस एक तोह माधव मन होइछ अनुमाने।
सज्जन जन सों नेह कठिन थिक कवि विद्यापति भाने॥८॥
सखि कि पुछसि अनुभव मोय।
सेही परत अनुराग बखानइत तिले तिले नूतुन होइ॥
जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधुर बोल श्रवणहि सुनल श्रुति पथे परस न गेल॥
कत मधु जामिनअ रभसे गमाओल न बुझल कैसन केल।
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिआ जुड़न न गेल॥
कत विदगध जन रस अनुगमन अनुभव काहु न पेख।
विद्यापति कह प्राण जुड़ाइत लाखवे न मिलल एक॥९॥
ब्रह्म कमण्डल वास सुवासिनि सागर नागर गृह वाले,
पातक महिष विदारण कारण धृत करवाल वीचि माले,
जय गंगे, जय गंगे, शरणागत भय भंगे॥१०॥
पिया मोर बालक हम तरुणी,
कोन तप चुकालौंह भैलौंह जननी।
पहिर लेल सखि इक दछिनक चीर,
पिया के देखैत मोर दगध सरीर।
पिया लेलि गोद कै चललि बजार,
हटिया के लोग पूछें के लागु तोहार।
नहिं मोर देवर कि नहिं छोट भाइ,
पुरब लिखल छल स्वामी हमार॥११॥
सखि मोर पिया,
अबहुँ न आओल कुलिश हिया।
नखर खोयाअलुँ दिवस लिखि लिखि,
नयन अन्धाओलुँ पिया पथ पेखि,
आयब हेत कहि मोर पिया गैला,
पूरवक जेत गुन बिसरिल मेला।
भनहि विद्यापति शुन अवराइ,
कानु समझाइते अब चलि जाइ॥१२॥
मधुपुर मोहन गेल रे मोरा विहरत छाति।
गोपी सकल बिसरलनि रे जत छिल अहिवाति॥
सुतिल छलहुँ अपन गृहरे निन्दई गेलउ सपनाइ।
करसों छुटल परसमनि रे कोन गेल अपनाइ॥
कत कहबो कत सुमिरब रे हम भरिय गराणी।
आनक धन सो धनवन्ति रे कुबजा भेल राणी॥
गोकुल चान चकोरल रे चोरी गेल चंदा।
बिछुड़ि चललि दुहु जोड़ी रे जीव इह गेल धन्दा॥
काक भाष निज भाखह रे पहु आओत मोरा।
क्षीर खाँड़ भोजन देवरे भरि कनक कटोरा॥
भनहिं विद्यापति गाओल रे धैरज धर नारी।
गोकुल होयत सुहाओन रे फेरि मिलत मुरारी॥१३॥
अंगने आओब जब रसिया,
पलटि चलब हम इषत हँसिया।
रस नागरि रमनी,
कत कत जुगुति मनहिं अनुमानी।
आवेशे आँचरे पिया धरबे,
जाओब हम जतन बहु करबे।
कंचुया धरब जब हठिया,
करे कर बाँधव कुटिल आध दिठिया।
रभस माँग पिय जबहीं,
मुख मोड़विहँसि बोलब नहिं नहिं।
सहजहि सुपुरुख भमरा,
मुख कमल मधु पीयब हमरा।
नैखने हरब मोर गेयाने,
विद्यापति कह धनि तुय धेयाने॥१४॥
सरस बसंत समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धोरे।
संपनहु रूप बच्चन यक भाषिय मुख से दुरि करु चीरे॥
तोहर वदन सम चाँद होअथि नहिं जैयौ जतन बिह देला॥
कै वेरि काटि बनावल नव कय तैयो तुलित नहिं भेला।
लोचन तूअ कमल नहिं भैसक से जग के नहिं जाने।
से फिर जाय लुकैनह जल भय पंकज निज अपमाने॥
भनहि विद्यापति सुन वर जीवित ईसम लछमि समाने।
राजा शिवसिंह रूपनरायन लखिमा देइ प्रति भाने॥१५॥
जइत देखलि पथ नागरि सजनी आगरि सुबुधि सथानि।
कनकलता सम सुन्दरि सजनी विह निरमावल आनि॥
हस्ति गमनि जंगा चलइत सजनी देखइत राजकुमारि।
जिनका यह न सुहागिन सजनी पाय पदारथ चारि॥
नील वसन तन घेरलि सजनी सिरै लेल चिकुर सँभारि।
तापर भमर पिवय रस सजनी बैसल पंख पसारि॥
केहरि सम कटि गुन अछि सजनी लोचन अंबुज धारि।
विद्यापति यह गाओल सजनी गुन पाओलि अवधारि॥१६॥