कवि-रहस्य/17 नाना शास्त्र परिचय
नाना शास्त्रों का ज्ञान कवि को आवश्यक होता है । इसके उदाहरण में कुछ पद्य यहाँ उद्धृत किये जाते हैं । जिनसे यह ज्ञात होगा कि यह आव-श्यकता केवल कपोलकल्पित नहीं है, हमारे हिन्दी के भी जो मौलिक कवि होगये हैं उन्हें इन शास्त्रों का अच्छा ज्ञान था और बिना ऐसे ज्ञान के वे ऐसे आदर्श-कवि नहीं होते ; ये उदाहरण केवल दिङमात्रप्रदर्शन के लिए हैं । जितने पद्यों में ऐसे शास्त्र-ज्ञान भासित हैं उन सभों का संग्रह करना असंभव है ।
[इन उदाहरणों के संकलन में मुझे मेरे शिष्य श्रीयुत धीरेन्द्र वर्माजी से बड़ी सहायता मिली है] ।
वैद्यक परिचय
रावन सो राजरोग बाढ़त बिराट उर,
दिन दिन विकल सकलमुखराँक सो ।
नाना उपचार करि हारे सुर सिद्ध मुनि,
होत न बिसोक ओत पावै न मनाक सो।
राम की रजाय तें रसायनी समीरसूनु
उतरि पयोधिपार सोधि सरवाक सो ।
जातुधान बुट, पुटपाट लंक जातरूप,
रतन जनत जारि कियो है मृगांक सो॥
रामायणपरिचय
घूर धरत नित शीश पर, कहु रहीम किहि काज ।
जिह रज मुनिपत्नी तरी सो ढूंढ़त गजराज ॥
जैसी हो भवितव्यता तैसी बुद्धि प्रकास ।
सीता हरिवै तें भयो रावणकूल को नास ॥
जो पुरुषारथ ते कहूँ सम्पति मिलति रहीम ।
पेट लागि बैराटघर तपत रसोई भीम ॥
छल बल समै बिचारि कै अरि हनियै अनयास।
कियौ अकेले द्रोनसुत निस पांडव कुलनास ॥
द्यूतपरिचय
मन तू समझि सोच विचार ।
भक्ति बिन भगवान दुर्लभ कहत निगम पुकार ॥
साध संगति डारि फासा फेरि रसना सारि ।
दाव अबकें पर्यो पूरो उतरि पहिली पार ॥
वाक सत्रे सुनि अठारे पंच ही कों मारि ।
दूर ते तजि तीन काने चमकि चौक बिचार ।।
काम क्रोध जंजाल भूल्यो ठग्यो ठगनी नारि ।
सूर हरि के पद भजन बिन चल्यो दोउ कर झार॥
वृक्ष, पक्षी इत्यादि परिचय
तरु तालीस तमाल ताल हिंताल मनोहर,
मंजुल बंजुल तिलक लकुच कुल नारिकेलवर ।
एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहैं,
सारी शुक कुल कलित चित्त कोकिल अलि मोहैं।
शुभ राजहंस, कलहंस कुल, नाचत मत्त मयूरगन ।।
अति प्रफुलित फलित सदा रहै केशवदास विचित्र वन ॥ .
ज्योतिषपरिचय
उदित अगस्त पंथ जल सोखा । जिमि लोभहि सोखै संतोषा ॥
श्रवण मकर-कुडल लसत, मुख सुखमा एकत्र ।
शशि समीप सोहत मनो श्रवण मकर नक्षत्रं ॥
भाल बिसाल ललित लटकन वर, बालदसा के चिकुर सोहाये ।
मनु दोउ गुरु सनि कुज आगे करि ससिहि मिलन तम के गन आये ।।
चाणक्य (कूटनीति) परिचय
जाकी धन धरती लई ताहि न लीजै संग ।
जो संग राखे ही बनै तो करि डारु अपंग ।।
तौ करि डारु अपंग फेर फरकै सो न कीजै ।
कपट रूप बतराय तासु को मन हर लीजै ।
कह गिरधर कविराय खुटक जै है नहि वाकी।
कोटि दिलासा देब, लई धन धरती जाकी ।
तेरह मंडल मंडित भूतल भूपति जो क्रम ही क्रम साधै ।
कैसेहु ताकहँ शत्रु न मित्र सुकेशवदास उदास न बाधै ।
शत्रु समीप, परे तेहि मित्र से, तासु परे जो उदास कै जोवै ।
विग्रह संधिन दाननि सिंधु लौं लै चहुँ ओरनि तौ सुख सोवै॥
मोक्षोपायपरिचय
मुक्तिपुरी दरबार के, चारि चतुर प्रतिहार ।
साधुन को सतसंग, सम, अरु संतोष, विचार ।
चारि में एकह जो अपनावै ।
तो तुम पै प्रभु आवन पावै ।।
माधव ! मोह फाँस क्यों टूटै ?
बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रंथि न छूटै ।
घृत पूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै।
ईंधन अनल लगाइ कलप-सत औटत, नास न पावै ।।
तरु कोटर महँ बस बिहंग, तरु काटे मरै न जैसे ।
साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं जैसे।
अंतर मलिन, विषय मन अति तन पावन करिय पखारे।
मरै न उरग अनेक जतन बलमीक बिबिध बिधि मारे।।
तुलसिदास हरि-गुरु-करुना-बिनु बिमल बिबेक न होई ।
बिनु बिबेक संसार घोर निधि पार न पावै कोई ।।
विवेकपरिचय
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय ।
नाम भजो तो अब भजो, बहुरि भजोगे कब्ब ।
हरियर हरियर रूखड़े, ईंधन हो गये सब्ब ॥
कितक दिन हरि सुमिरन बिनु खोये।
पर निंदा रस में रसना के जपने परत उबोये ॥
तेल लगाइ कियो रुचि मर्दन बस्त्रहिं मलि मलि धोये।
तिलक लगाइ चले स्वामी बनि बिषयनि के मुख जोये।
कालबली ते सब जग कंपत ब्रह्मादिकहू रोये।
‘सूर’ अधम की कहौ कौन गति उदर भरे परि सोये ॥
सूरज मुसल, नील पहारी, परिध नील,
जामवंत असि, हनू तोमर प्रहारे हैं ।
परशा सुखेन, कुंत केशरी, गवय शूल,
विभीषण गदा, गज भिदिपाल तारे हैं ।
मोगरा द्विविद, तीर कटरा, कुमुद नेजा,
अंगदशिला, गवाक्ष विटप विदारे हैं ।
अंकुश शरभ, चक्र दधिमुख, शेष शक्ति,
बाण तिन रावण श्रीरामचंद्र मारे हैं ।
वैशपरिचय
राज राज दिगबाम. भाल लाल लोभी सदा।
अति प्रसिद्ध जग नाम, काशमीर को तिलक यह ॥
आछे आछे असन, बसन, बसु, वासु, पशु,
दान, सनमान, यान, बाहन बखानिये ।
लोग, भोग, योग, भाग, बाग, राग, रूपयुत
भूषननि भूषित सुभाषा सुख जानिये ।
सातो पुरी तीरथ, सरित, सब गंगादिक,
केशोदास पूरण पुराण, गुन गानिये ।
गोपाचल ऐसे गढ़, राजा रामसिंह जूसे
देशनि की मणि, महि मध्यदेश मानिये ॥
हय-गज-लक्षणपरिचय
तरल, तताई, तेजगति, मुख सुख, लघु दिन देखि ।
देश, सुवेश, सुलक्षणै, बरनहु बाजि बिशेखि ॥
मत्त, महाउत हाथ में, मंद चलनि, चलकर्ण ।
मुक्तामय, इभ, कुंभ शुभ, सुन्दर, शर, सुवर्ण ।
हमरे कौन जोग व्रत साधै ?
मगत्वच, भस्म, अधारि, जटा को, को इतनो अवराधै ?
जाकी कहूँ थाह नहिं पैये अगम अपार, अगाधै।
गिरिधरलाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधै ?
आसन, पवन, विभूति, मृगछाला, ध्याननि को अवराधै ?
सूरदास मानिक परिहरि के राख गाँठि को बाँधै ?
संगीतपरिचय
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल ।
काम क्रोध को पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल ।
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा शब्द रसाल ।
भरम भरयो मन भयो पखावज, चलत कुसंगति चाल ॥
तृस्ना नाद करत घट भीतर नाना विधि दै ताल ।
माया को कटि फेंटा बाँध्यो, लोभ तिलक दै भाल ।।
कोटिक कला काँछि देखराई, जल थल सुधि नहिं काल ।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल ॥
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क्षेमेन्द्र ही का एक और ग्रन्थ बड़े चमत्कार का है, 'औचित्य- विचारचर्चा'। इसमें एक एक पद्य उदाहरण देकर दिखलाया है कि रचना में कवि को कितनी सावधानता अपेक्षित है । और इस सावधानता से सामान्य वाक्यों में भी कैसी सरसता——और थोड़ी ही असावधानता से कैसी विरसता——आ जाती है । इनके कुछ उदाहरणार्थ हिन्दी-कवियों के कुछ पद्य उद्धृत किए जाते हैं ।
गुण-औचित्य
(परशुरामगर्वोक्ति——ओज)
भूपमंडली प्रचंड चंडीस-कोदंड खंडयौ
चंड बाहुदंड जाको ताही सों कहतु हौं ।
कठिन कुठार धार धारिबे की धीरताहि,
बीरता बिदित ताकी देखिए चहतु हौं ।
तुलसी समाज राज तजि सो बिराज आजु,
गाज्यो मृगराज गजराज ज्यों गहतु हौं
छोनी में न छाँड्यो छप्यौ छोनिप को छो ना छोटो,
छोनिप-छपन बाँको विरुद बहतु हौं ।।
(माधुर्य--प्रसाद)
नूपुर कंकन किंकिन करतल मंजुल मुरली
ताल मृदंग उपंग चंग एक सुर जुरली ।
मृदुल मधुर टंकार, ताल झंकार मिली धुनि,
मधुर जंत्र की तार भँवर गुंजार रली पुनि ।
तैसिय मृदुपद पटकनि चटकनि कर तारन की,
लटकनि मटकनि झलकनि कल कुंडल हारन की ।
साँवरे पिय के संग नृतत यों ब्रज की बाला,
जनु घन-मंडल-मंजुल खेलति दामिनिमाला ॥
पद-औचित्य
सीस-मुकुट, कटि काछिनी, कर-मुरली उरमाल ।
इहिं बानक मो मन सदा, बसौ बिहारीलाल ॥
इस वर्णन के लिए कृष्ण के नामों में ‘बिहारीलाल’ नाम सब से अधिक उपयुक्त है ।
करौ कुबत जगु, कुटिलता तजों न दीन दयाल।
दुखी होहुगे सरल हिय बसत, त्रिभंगीलाल ।।
इस वर्णन के लिए ‘त्रिभंगीलाल’ नाम ही उचित है । कोई दूसरा नाम रखने से भाव नष्ट हो जायगा ।
पद-अनौचित्य
सिद्ध सिरोमणि संकर सृष्टि संहारत साधु समूह भरी है
यहाँ संहार के वर्णन में ‘संकर’ पद का प्रयोग उचित नहीं है।
अलंकार-औचित्य
अलि नवरंगजेब, चम्पा सिवराज है ।
इन रूपकों का प्रयोग अत्यन्त उचित हुआ है । औरंगजेब शिवाजी के पास नहीं जाता यह भाव अलंकार से स्पष्ट हो जाता है ।
राधे सोने की अंगूठी, स्याम नीलम नगीना है ।
रस-औचित्य
(रौद्र वर्णन में हास्य की सहायता)
निपट निदरि बोले बंचन कुठारपानि,
मानि त्रास औनिपन मानौ मौनता गही ।
रोषे माषे लषन अकनि अनखौहीं बातैं,
तुलसी बिनीत बानी बिहँसि ऐसी कही ।
“सुजस तिहारो भरो भुवननि, भृगुनाथ !
प्रगट प्रताप आपु कहो सो सबै सही ।
टूटयो सो न जुरैगो सरासन महेसजी को,
“रावरी पिनाक में सरीकता कहा रही ?”
रस-अनौचित्य
(वनवास के करुण वर्णन तथा आश्रमों के शांत वातावरण में निम्न लिखित हास्य-रस उचित नहीं मालूम होता)
बिंध्य के बासी उदासी तपोव्रतधारी महा, बिनु नारि दुखारी ।
गौतम तीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिवृन्द सुखारी।
है हैं सिला सब चंद्रमुखी परसे पद-मंजुल-कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायक जू करुना करि कानन को पगुधारे।
देश-औचित्य
सकल जन्तु अविरुद्ध, जहाँ हरि मृग संग चरहीं,
काम क्रोध मद लोभ रहित लीला अनुसरहीं ।
सब ऋतु सन्त बसन्त कृष्ण अवलोकन लोभा,
त्रिभुवन कानन जा विभूति करि सोभित सोभा ।
श्रीअनन्त महिमा अनन्द को बरनि सकै कवि,
संकरवन सो कछुक कही श्रीमुख जाकी छबि ।
देवन में श्रीरमारमण नारायण प्रभु जस,
कानन में श्रीवृन्दाबन सब दिन सोभित अस ।
कृष्ण की रासलीला के स्थल वृन्दावन का यह वर्णन उपयुक्त है ।
वेई सुर-तरु प्रफुलित फुलवारिन मैं
वेई सरवर हंस बोलन मिलन को ।
वेई हेम-हिरन दिसान दहली जन मैं
वेई गजराज हय गरज-पिलन को ।
द्वार द्वार छरी लिये द्वार पौरिया हैं खरे,
बोलत मरोर बरजोर त्यों भिलन को ।
द्वारिका तें चल्यो भूलि द्वारका ही आयों नाथ
माँगियो न मो पै चारि चाउर गिलन को ॥
नोट-सुदामापुरी का द्वारिकापुरी के समान यह वर्णन उपयुक्त है । देशअनौचित्य
मरु सुदेश मोहन महा, देखहु सकल सभाग ।
अमल कमल कुल कलित जहँ, पूरण सलिल तड़ाग ।
निपात-औचित्य
चितु दै देखि चकोर त्यों, तीजैं भजै न भूख ।
चिनगी चुगै अंगार की, चुगै कि चन्द्रमयूख ॥
यहाँ ‘कि’ का उपयोग उचित हुआ है ।
निपात-अनौचित्य
राम राम जब कोप करयो जू, लोक लोक भय भूरि भरयो जू ।
वामदेव तब आपुन आये, रामदेव दोऊ समुझाये ।।
यहाँ ‘जू’ का प्रयोग केवल छन्द की पूर्ति के लिए हुआ है ।
काल-औचित्य
कोउ कहै अहो स्याम चहत मारन जो ऐसे,
गिरि गोबरधन धारि करी रक्षा तुम कैसे ?
ब्याल, अनल, विष ज्वाल ते राखि लई सब ठौर,
अब बिरहानल दहत हौ हँसि हँसि नन्दकिसोर
कृष्ण के वियोग में उद्धव के सन्मुख गोपियों के इस वचन में भूत तथा वर्तमान काल का प्रयोग उचित हुआ है ।
काल-विरोध दोष इस काल से भिन्न प्रकार का है। केशव ने कविप्रिया में इसका उदाहरण निम्नलिखित दिया है:——
प्रफुलित नव नीरज रजनि, बासर कुमुद बिशास।
कोकिल शरद, मयूर मधु, बरषा मुदित मराल॥
यों रहीम सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत।
ज्यों बड़री अंखिया निरखि, आँखिन को सुख होत।
लोक परलोक हूँ, तिलोक न बिलोकियत
तो सो समरथ चष चारिहूँ निहारिए।
कर्मकाल, लोकपाल, अग जग जीवजाल,
नाथ हाथ सब, निज महिमा बिचारिए।
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर
तुलसी सो, देव! दुखी देखियत भारिए।
बाहु तरुमूल, बाहुसूल, कपिकच्छु बेलि
उपजी, सकेलि, कपि, खेलही उखारिये॥
तुलसीदास के बगल में बड़ी पीड़ा है। हनुमान् से उसे दूर करने को प्रार्थना कर रहे हैं। पीड़ा की तुलना 'कपिकच्छुबेल' से करना अत्यन्त उपयुक्त है क्योंकि कहा जाता है कि इस विशेष बेल को बन्दर देखते ही उखाड़ डालता है। अतः 'बेल' के साथ 'कपिकच्छु' विशेषण उपयुक्त है।
इस कवित्त की अन्तिम पंक्ति में कपि शब्द का प्रयोग भी सार्थक है।