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कवि-रहस्य/7 काव्य पढ़ने के ढंग

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कवि-रहस्य
गंगानाथ झा

इलाहाबाद: हिन्दुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ४१ से – ४२ तक

 

उच्चारण, यति के नियम का परिपालन--ये सब गुण रहते हैं । और उनके सुनने से ऐसा भान होता है कि कान में मधु पड़ रहा है ।

अच्छे पाठ का ढंग यही है कि सभी वर्ण अपने-अपने समुचित स्थान से उच्चरित हों और अपने समुचित रूप में और उनमें वाक्यों के अर्थ के अनुसार विराम हो ।

(७)

काव्यार्थ के--अर्थात् काव्य के विषय के --१६ योनि या मूल हैं--(१) श्रुति, (२) स्मृति, (३) इतिहास, (४) पुराण, (५) प्रमाण-विद्या--अर्थात् मीमांसा और न्याय-वैशेषिक, (६) समयविद्या-अर्थात् अवान्तर दार्शनिक सिद्धांत, (७) अर्थशास्त्र, (८) नाट्यशास्त्र,(९) कामसूत्र, (१०) लौकिक, (११) कविकल्पित कथा, (१२)प्रकीर्णक, (१३) उचितसंयोग, (१४) योक्तृसंयोग, (१५) उत्पाद्य-संयोग, (१६) संयोगविकार ।

इनके कुछ दृष्टांत यहाँ दिये जाते हैं --

(१) श्रुति में लिखा है--‘उर्वशी हाप्सराः पुरूरवसमैलं चकमे’ इतने मूल पर समस्त विक्रमोर्वशी नाटक बना ।

(२) स्मृति में नियम लिखा है कि यदि किसी के ऊपर अधिक ऋण का दावा किया जाय--वह सब का इनकार करे--तो वादी यदि ऋण के कुछ भी अंश को प्रमाणित कर सके तो अभियुक्त को कुल दावा देना होगा ।

इसी आधार पर विक्रमोर्वशी का यह श्लोक है ।

हंस प्रयच्छ मे कान्तां गतिस्तस्यास्त्वया हृता।

विभावितैकदेशेन देयं यदभियुज्यते ॥

उर्वशी से वियुक्त राजा हंस को कहता है--‘हे हंस मेरी प्रियतमा को तुम दे दो । तुमने उसकी गति ली है । और जब कुछ अंश का लेना तुम्हारा प्रमाणित हो गया तब तुम्हें सब दावा चुकाना होगा ।’

(३) इतिहास (रामायण में) रामचन्द्रजी सुग्रीव से कहते हैं--

– ४१ –

न स संकुचितः पन्था येन बाली हतो गतः ।






समये तिष्ठ सुग्रीय मा बालिपथमन्वगाः ॥

‘अर्थात् जिस मार्ग के आश्रयण से बालि मारा गया उस मार्ग का अनु-सरण मत करो अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहो ।”

इसी आधार पर यह श्लोक है--

मदं नवैश्वर्यलवेन लम्भितं विसृज्य पूर्वः समयो विमृश्यताम् ।

जगज्जिघत्सातुरकण्ठपद्धतिर्न बालिनवाहततृप्तिरन्तकः ॥

सुग्रीव को लक्ष्मणजी कहते हैं--‘अभी जो नया राज्य तुम्हें मिला है इसके मद को त्याग कर पहले जो तुमने प्रतिज्ञा की थी उसका विचार करो । यमराज की संसार-संहारेच्छा केवल बालि के मरने से तृप्त नहीं हुई ।’

(४) पुराणों में लिखा है--‘जिन जिन दिशाओं की ओर हिरण्य- कशिपु हँसकर देखता था उन उन दिशाओं को भयभीत देवता लोग नमस्कार करते थे ।’

इसी आधार पर कवि ने लिखा है--

स सञ्चरिष्णुभुंवनत्रयेऽपि यां यदृच्छयाऽशिश्रियदाश्रयः श्रियः।

अकारि तस्यै मुकुटोपलस्खलत्-करैस्त्रिसन्ध्यं त्रिदशैदिशे नमः॥

इसके प्रसंग में यह कहा गया है कि कवि जैसे जितना वेद, स्मृति,पुराण, इतिहास का आश्रयण करता है वैसे ही उतनी ही प्रशंसा का पात्र होता है ।

(५) मीमांसा का सिद्धांत है कि शब्द का अभिधेय सामान्य--जाति है--फिर विशेष भी उसका अर्थ हो जाता है--इसी आधारपर कवि कहता है--

सामान्यवाचि पदमप्यभिधीयमानं


मां प्राप्य जातमभिधेयविशेषनिष्ठम् ।


स्त्री काचिवित्यभिहिते सततं मनो मे


तामेव वामनयनां विषयीकरोति ॥

- ४२ -