कहानी खत्म हो गई/मृत्यु-चुंबन

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मृत्यु-चुम्बन

प्राचीन भारत की एक राजनीतिक कथा पर आधारित कहानी।

कहानी का प्रारम्भ मसीह-पूर्व की छठी शताब्दी से होता है। जहां पहाड़ी नदी सहानीरा हरितवसना पर्वतस्थली को अर्धचन्द्राकार काट रही थी, वहीं उसके बायें तट पर अवस्थित शैल पर मगध-साम्राज्य की राजधानी राजगृह बसी थी। यह नगरी उन दिनों मगध-साम्राज्य का केन्द्र और विश्व की तत्कालीन जातियों और संस्कृतियों का संगम थी। मगध-साम्राज्य के अधिपति शिशुनागवंशी सम्राट बिम्बसार थे, जिनकी आयु इस समय पचास वर्ष की थी। इनके महामात्य आर्य वर्षकार उस समय के सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में अप्रतिम राजनीतिज्ञ थे। मगध में अस्सी हजार ग्राम लगते थे, और राजगृह एशिया के प्रसिद्ध छः महासमृद्ध नगरों में से एक था, जो तीन सौ योजन विस्तृत भूखण्ड में फैला था। इस साम्राज्य के अन्तर्गत अठारह करोड़ जनपद था।

एक दिन, एक प्रहर रात गए राजगृह की सूनी और अंधेरी गलियों में एक तरुण अश्वारोही ने प्रवेश किया और वह अभीष्ट स्थान की खोज में भटकता और पूछताछ करता आचार्य शाम्बव्य काश्यप के मठ के द्वार पर जा पहुंचा जो राजगृह के महावैज्ञानिक और भूत-प्रेत-वैतालों के स्वामी प्रसिद्ध थे। वह तरुण गान्धार से तक्षशिला के प्राचार्य बहुलाश्व का अन्तेवासी सोमप्रभ था। प्राचार्य ने यज्ञशाला में उसके ठहरने की और आहार की व्यवस्था कर दी।

युवक बहुत दूर से आया था और थक गया था, इसलिए वह जल्द ही मृगचर्म पर सो गया, परन्तु अकस्मात् एक अस्पष्ट चीत्कार से वह चौंक उठा और हाथ में खड़ग लेकर साहस करके गर्भगृह में उतर गया जहां से चीत्कार पा रहा था। किवाड़ों की दरार से झांककर उसने देखा कि प्राचार्य, जिनकी मूर्ति अति भयानक थी, व्याघ्रचर्म पर बैठे थे, और उनके सामने कोई बड़े राजनीतिज्ञ बहुमूल्य कौशेय पहने बैठे थे। उनके निकट ही एक अनिन्द्य सुन्दरी बाला, जिसकी [ १४० ]काली लटें उसके चांदी के समान श्वेत मस्तक पर लहरा रही थीं, बैठी थी। उसका नाम कुण्डनी था। उसने भीतमुद्रा में कहा-नहीं पिता, अब नहीं।

आचार्य ने हाथ में चमड़े का एक चाबुक हिलाकर हिंस्र मुद्रा में कहा-दंश ले। उन्होंने पिटक का ढकना उठाया, एक भीमकाय काला नाग फुफकार मारकर हाथ-भर ऊंचा खड़ा हो गया। बाला ने विवश नाग का मुंह पकड़कर कंठ में लपेट लिया और अपने मुंह के पास सांप का फन ले जाकर अपनी जीभ बाहर निकाली और नाग की चुटकी ढीली की। नाग ने फुऊ करके बाला की जीभ पर दंश किया। बाला विष की ज्वाला से लहराने लगी।

आचार्य ने मद्यपात्र आगे सरकाकर कहा-मद्य पी ले कुण्डनी। बाला ने मुंह लगाकर गटागट सारा मद्य पी लिया।

आचार्य ने कहा-कुण्डनी, तुझे अंगराज दधिवाहन पर अपने प्रयोग करने होंगे।

किन्तु बाला ने कहा-आप मार डालिए पिता, पर मैं चम्पा नहीं जाऊंगी।

आचार्य ने फिर चाबुक उठाया। अब तरुण आपे में न रह सका। खड्ग ऊंचा करके धड़धड़ाता गर्भगृह में घुस गया। आचार्य और राजपुरुष दोनों हड़बड़ाकर खड़े हो गए। राजपुरुष ने क्रुद्ध होकर कहा-इस दुष्ट छिद्रान्वेषी का इसी क्षण वध करो।

परन्तु प्राचार्य ने कहा-नहीं, अभी बन्दी करो।

बन्दीगृह में युवक के पास जाकर आचार्य ने राजनीति के कूट दृष्टिकोण और युद्ध-अभियान में वैज्ञानिक प्रयोगों का महत्त्व समझाया और उसे इस बात पर राजी किया कि वह नागपत्नी कुण्डनी के साथ चम्पा जाए, जहां मगध महासेनापति भद्रिक ने घेरा डाल रखा था, और चम्पा-विजय में उनकी सहायता करे।

कुण्डनी और सोमप्रभ ने केवल पांच सैनिकों के साथ अत्यन्त गुप्त रूप से चंपा की ओर प्रस्थान किया। किन्तु वे चम्पारण्य को पार कर ही रहे थे कि आसुरी माया से वशीभूत होकर अवश अवस्था में शम्बर असुर की नगरी में जा पहुंचे। चम्पारण्य की इस असुरपुरी के बहुत-से विचित्र वर्णन उन्होंने सुने थे। कोई पुरुष उस मार्ग से शम्बर असुर के भय से जाता नहीं था, क्योंकि असुरपुरी में जाकर कोई [ १४१ ]भी व्यक्ति जीवित लौटता नहीं था।

असुरपुरी एक कलापूर्ण स्वच्छ गांव था। घर सब गारे-पत्थर के थे। उनपर गोल बांधकर छप्पर छाए हुए थे। सड़कें चौड़ी और साफ थीं। पशु पुष्ट और उनके गवांठ कलापूर्ण थे। असुर-तरुणियां सुरमे के रंग की चमकती देह पर लाल मूंगा तथा हिमधवल मोतियों की माला धारण किए, चर्म के लहंगे पहने, कमर में स्वर्ण की करधनी और हाथों में स्वर्ण के मोटे-मोटे कड़े पहने कौतूहल से इन बंदियों का आगमन देख रही थीं। रूपसी कुण्डनी सम्पूर्ण असुर-बालाओं की स्पर्धा.की वस्तु हो रही थी। वह निर्भय साहसपूर्वक आगे बढ़ रही थी। सोम ने कहा-मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि इस असुरपुरी में तुम निर्भय और विनोदी भाव से प्रवेश कर रही हो।

'भय क्या है?'

'यह तो अभी पता लग जाएगा जब शम्बर आज रात को हमें देवता पर बलि देगा।'

जब वे असुरराज के सामने पहुंचे, तो सोमप्रभ ने आसुरी भाषा में असुर का अभिनन्दन करते हुए कहा कि मैं प्रतापी मगध-सम्राट् बिम्बसार की ओर से मैत्रीस्थापन का प्रस्ताव लाया हूं।

शम्बर असुर अपनी विशाल गुहा में एक व्याघ्रचर्म पर बैठा था। उसका शरीर बहुत विशाल था। रंग काला था। अवस्था का पता नहीं चलता था। सिर खुला था। बाल लाल और धुंघराले थे। भुजबन्द पर स्वर्णमण्डित सुअर के दांत बंधे थे। सिर पर स्वर्ण-पट्ट में जड़े किसी पशु के सींग थे। मस्तक पर रक्त चन्दन का लेप था।

सोमप्रभ ने असुरराज का अभिनन्दन किया।

असुरराज ने उसकी ओर देखकर कहा:

'गन्धर्व है कि मनुष्य?'

'मनुष्य'

'कहां का?'

'मगध का।'

'मगध के सैनिप बिम्बसार को मैं जानता हूं, परन्तु वह मेरा मित्र नहीं है। तू मेरे राज्य की सीमा में क्यों घुसा? अक्षम अपराध है, और उसका दण्ड मृत्यु है।' [ १४२ ]'किन्तु यह नियम शत्रु के लिए है, मित्र के लिए नहीं। प्रतापी मगध-सम्राट बिम्बसार असुरराज से मैत्री-स्थापन किया चाहते हैं।'

'मागध बिम्बसार दनुकुल का था। अब वह मनुकुल में चला गया है, तथा मनुष्य-धर्म का पालन कर रहा है, इसीसे वह मेरा मित्र नहीं है। मनुकुल सदैव देवकुल का मित्र होता है, दनुकुल का नहीं।'

'परन्तु मागध बिम्बसार दनुकुल-भूषण सामर्थ्यवान शम्बर की मित्रता चाहता है। मैं उसका मैत्री-संदेश लाया हं।'

'इसका क्या प्रमाण है?'

'यही कि मैं एकाकी आया हूं, विजयिनी मागध सैन्य नहीं लाया।'

शम्बर ने कुंडनी की ओर उंगली उठाकर कहा-वह सुन्दरी कौन है?

'वह भी मागधी है।'

'तब सैनिप बिम्बसार ऐसी सौ सुन्दरियां मुझे दे तो मैं बिम्बसार का मित्र हूं।'

'यह हो सकता है, पर मागधी तरुणियां विद्युत्प्रभ होती हैं। उन्हें भोगने की सामर्थ्य असुरों में नहीं है। उन्हें छूते ही असुरों की मृत्यु हो जाएगी। वह असुरों के लिए अगम्य है।'

'अच्छा, यहां एक मागधी तरुणी है ही, इसीपर असुरों की परीक्षा ली जाएगी। अभी तू असुरपुरी में हमारा अतिथि रह।'

उसने मांग में मोती गूंथे थे। उसकी सघन घनश्याम केशराशि मनोहर ढंग से उसके चांदी के समान उज्ज्वल मस्तक पर शोभायमान थी। लम्बी चोटी नागिन के समान चरण-चुम्बन कर रही थी। बिल्वस्तनों को रक्त कौशेय से बांधकर ऊपर से उसने नीलमणि की कंचुकी पहनी थी। कमर में लाल दुकल और उसपर बड़ेबड़े पन्नों की कसी पेटी उसकी क्षीण कटि की ही नहीं-पीन नितम्बों और सुन्दर उरोजों के सौन्दर्य की वृद्धि कर रही थी। उसने पैरों में नूपुर पहने थे, जिनकी झंकार उसके प्रत्येक पाद-विक्षेप करने से हृदय को हिलाती थी।

सोम ने कहा-कुण्डनी, क्या आज असुरों को मोहने के लिए साक्षात् मोहनी अवतरित हुई है?

'हुई तो है, असुरों का भाग्य।'

'तुम्हें असुरों का भय नहीं?' [ १४३ ]'असुर से भय करने ही को क्या कुंडनी बनी है?'

'तुम्हारा इरादा क्या है?'

'इरादा क्या?

शम्बर या तो हमारे मैत्री-संदेश को स्वीकार करे, नहीं तो आज सब असुरोंसहित मरे।'

'उसे कौन मारेगा?'

'क्यों?

'कुण्डनी।'

'परन्तु किस प्रकार?'

'यह समय पर देखना।'

'पर हमारे शस्त्र छिन गए हैं।'

'तो क्या हुआ, बुद्धि तो है।'

'तो कुण्डनी, आज की मुहिम की तुम्हीं सेनानायिका रहीं।'

'ऐसा ही सही, चलो।'

वह बाहर आई और असुर-सरदार से अधिकारपूर्ण स्वर में कहा—सैनिकों से कह, बाजा और मशाल लेकर आगे—आगे चलें।'

सरदार ने आज्ञापालन किया।

और वह धुंघरू बजाती, विद्युत्प्रभा की साक्षात् मूर्ति-सी, मार्ग को प्रकाशित करती हुई असुरपुरी के राजमार्ग पर आगे बढ़ी। सैकड़ों असुर पीछे थे।

सोम ने कहा-मायाविनी, इस समय तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे तुम्ही इस असुर-निकेतन की स्वामिनी हो।

'और सम्पूर्ण असुरों के प्राणों की भी।' उसने कुटिल मुस्कान से हास्य किया।

भोज की बड़ी भारी तैयारी की गई थी। एक बड़े भारी अग्निकुंड में समूचा भैंसा भूना जा रहा था। असुर-तरुण हाथों में भाले लिए खड़े थे। असुर-तरुणियां नृत्यगान को तैयार थीं। कुंडनी असम साहस कर असुरराज के सिंहासन पर जा बैठी और सोम को पुकारकर उसने कहा—असुरों से कहो सोम, सुरा—भाण्ड यहां ले आएं। सोम के कहने पर असुर भाण्ड वहां ले गए। इसी समय बाजे बज उठे। असुरों ने भयभीत होकर देखा—शम्बर खूब श्रृंगार किए ठाठ से आ रहा है।

सोम ने कहा—कुंडनी, असुरराज का सिंहासन छोड़ दे। [ १४४ ]पर कुंडनी ने उसकी बात पर कान नहीं दिया। सिंहासन पर खड़े होकर कहा-महासामर्थ्यवान शम्बर के स्वास्थ्य और दीर्घायु के नाम पर।-और प्याले भर-भरकर असुरों को देने लगी। असुर उस अनिन्द्य सुन्दरी के हाथ से मद्य पी-पीकर नाचने लगे।

शम्बर ने दोनों हाथ फैलाकर कहा- मुझे भी दे मानुषी, एक भाण्ड मद्य।कुण्डनी खट से सिंहासन से कूद, मद्य-भांड हाथ में ले लीला-नृत्य करने और असुरराज के चारों ओर घूमने लगी। उसका मदभरा यौवन, उज्ज्वल मोहक रूप और गज़ब की भावभंगी देख शम्बर काम-विमोहित हो गया और कुण्डनी के चारों ओर नाचने और बार-बार मद्य मांगने लगा। कुण्डनी ने समूचा सुरा-भाण्ड हंसते-हंसते शम्बर के मुंह से लगा दिया। असुर गटागट पूरा घड़ा कण्ठ से उतार गया।

कुण्डनी ने सोम से कहा-इन मूरों से चिल्लाकर कहो-खूब पियो, स्वयं ढालकर, सामर्थ्यवान शम्बर के नाम पर।-सोम के यह कहते ही असुर-दल ने सुरा-भाण्डों में मुंह लगा दिया। वे सब गटागट पीने लगे। कुण्डनी ने सन्तोष की दृष्टि से सोम की ओर देखकर कहा-ठीक हुआ। खूब पिलामो मूों को, आज मरेंगे ये सब।

'तुम अद्भुत हो कुण्डनी।'

मद्य असुरों पर प्रभाव दिखाने लगा। वे खूब हंसी-दिल्लगी करने लगे। स्त्रियों तथा बालकों ने भी मद्य पिया। सोमप्रभ उन्हें और भी उत्साहित करके बार-बार पिलाने लगा । बुद्धिहीन असुर अन्धाधुंध पी रहे थे। पीते-पीते बहुत-से तो वहीं लोट गए। शम्बर का बुरा हाल था। वह सीधा खड़ा नहीं रह सकता था । पर कुण्डनी उसे नचा रही थी। वह नाचता था,हंसता था और आसुरी भाषा में न जाने क्या-क्या अंट-शंट बकता था।

कुण्डनी ने सोम से कहा- इन्हें आकण्ठ पिला दो सोम, भाण्ड में एक बूंद भी मद्य न रहे।

शम्बर ने कुण्डनी की कमर में हाथ डालकर कहा-मानुषी, मेरे और निकट आ।

'अभागे असुर, तू मृत्यु का आलिंगन कर रहा है।'

शम्बर ने सोम से कहा-वह क्या कहती है हे मानुष?

'कहती है कि आज आनन्दोत्सव है, सब असुर-वीरों को छककर मद्य पीने [ १४५ ]का आदेश दीजिए।'

'पिएं वे सब।' उसने हंसते-हंसते कहा। और एक घड़ा कुण्डनी ने शम्बर के मुंह से लगा दिया।

कुछ असुरों ने कहा—भोज, भोज, अब भोज होगा।

शम्बर के पैर डगमगा रहे थे। उसने हिचकी लेते-लेते कहा-मेरी इस मानुषी-सुन्दरी के सम्मान में सब कोई खूब खाओ, पियो। अनुमति देता हूं खूब खामो-पियो।—वह कुण्डनी पर झुक गया।

असुरों की हालत अब बहुत खराब हो रही थी। उनकी नाक तक शराब ठुस गई थी। उनके पैर सीधे न पड़ते थे। अब उन्होंने भैसे का मांस हबर-हबर करके खाना प्रारम्भ किया।

कुण्डनी ने कहा—भाण्डों में अभी सुरा बहुत है, सोम, यह सब इन नीच असुरों के पेट में उंडेल दो।-सोमप्रभ असुरों को और कुण्डनी शम्बर को ढालढाल कर पिलाने लगी।

शम्बर ने कहा—मानुषी, अब तू नाच।

सोम ने कुण्डनी का संकेत पाकर कहा—महान शम्बर ने जो मागध विम्बसार की मैत्री स्वीकार कर ली है, क्या उसके लिए सब कोई एक-एक पात्र न पीए?'

'क्यों नहीं, पर बिम्बसार ऐसी सौ तरुणियां दे।'

इसी समय कुण्डनी ने भाव-नृत्य प्रारम्भ किया, और मदिरा से उत्तप्त असुर बेकाबू हो, असंयत भाव से कुण्डनी को अंकपाश में पकड़ने को लपके।

यह देख कुण्डनी का संकेत पा सोमप्रभ ने कहा-सब कोई सुने। यह मागध सून्दरी विद्युत्प्रभ है। जो कोई इसका आलिंगन-चुम्बन करेगा-वही तत्काल मृत्यु को प्राप्त होगा।

असुरों में अब सोचने-विचारने की सामर्थ्य नहीं रही थी-चुम्बन करो, चुम्बन करो।—सब चिल्लाने लगे।

शम्बर ने हाथ का मद्यपात्र फेंककर हकलाते हुए कहा-सब कोई इस मानुषी का चुम्बन करे।

कुण्डनी नृत्य कर रही थी। अब उसने एक छाटी-सी थैली वस्त्र से निकालकर उसमें से महानाग को निकाला, और कण्ठ में पहन लिया। यह देख असुर [ १४६ ]भयभीत हो पीछे हट गए। कुण्डनी नाग के नेत्रों से नेत्र मिला भाव-नृत्य करने लगी।

असुर ने कहा—वह उस सर्प को लेकर क्या कर रही है?

'यह मागधी नागपत्नी है। अब सर्वप्रथम नाग चुंबन करेगा। पीछे जिसे मृत्युकामना हो, वह उसका चुंबन करे।'

'तो, नाग-चुंबन होने दो।'

'अच्छा, तो उस मानुषी के नागपति के नाम पर सब कोई एक-एक पात्र मद्य पिए।'

'पियो, सब कोई।'

एक बार सब असुरों ने मद्य-भाण्डों में मुंह लगा दिया। उसी समय कुण्डनी ने नागदंश लिया। फिर नाग को थैली में रखा। उसके मस्तक पर स्वेद-बिन्दु झलक आए और वह विष के वेग से लहराने लगी। उस समय उसके नृत्य की अलौकिक छटा प्रदर्शित हुई। ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह हवा में तैर रही हो। उसके अधर जैसे मद-निमन्त्रण दे रहे हों।

शम्बर ने चिल्लाकर कहा—चुंबन करो, चुंबन करो।

एक असुर-तरुण ने कुण्डनी को आलिंगन-पाश में कसकर चुंबन किया। वह तुरन्त बिजली से मारे हुए प्राणी की भांति निष्प्रोण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। कुण्डनी ने उधर भ्रपात नहीं किया। दूसरे तरुण की ओर मुस्कराकर देखा। उसने भी चुंबन किया और वही दशा हुई। असुरों में अब सोचने-विचारने की शक्ति नहीं रह गई थी। वे पागल की भांति चुंबन ले-लेकर पटापट मरने लगे। शम्बर निरंतर मद्य पी रहा था। असुरों के इस प्रकार आश्चर्यजनक रीति से मरने पर उसे 'विश्वास नहीं हो रहा था। प्रत्येक असुर के चुंबन लेने के बाद निष्प्राण होकर गिरने पर कुण्डनी मोहक हास्य से शम्बर की ओर ऐसे देखती कि वह समझ ही न पाता कि उसके तरुण मर रहे हैं या मूछित हो रहे हैं। सोमप्रभ बराबर मद्य के पात्र पर 'पात्र शम्बर के गले में उतार रहा था।

अब कुण्डनी एक-एक असुर के पास जा-जाकर चुंबन-निवेदन करने लगी। चुंबन ले-लेकर वे प्राण गंवाते गए। उस मोहनी मूर्ति के चुंबन-निवेदन को अस्वीकार करने की सामर्थ्य मद्य-विमोहित असुरों में न थी। उसने बलात् वृद्ध असुरमन्त्रियों को मालिंगनपाश में बांधकर उनके होंठों पर चुंबन अंकित किए और वे [ १४७ ]जहां के तहां मरकर ढेर हो गए।

अब शम्बर ने सावधान हो आँखें तरेरकर कुण्डनी की ओर देखा। कुण्डनी ने मुस्कराता हुआ बंकिम कटाक्ष मारकर एक परिपूर्ण मद्य-पात्र ले उसके होंठों से लगा दिया। पर उसने मद्य-पात्र फेंककर कहा-क्या तूने मेरे तरुणों का वध किया?

सोमप्रभ ने कहा-मैंने तो पहले ही कहा था कि यह नागपत्नी है। असुर अपने ही दोष से मरे हैं। शम्बर ने स्वयं ही उन्हें चुंबन की आज्ञा दी थी।

'परन्तु यह मानुषी अति भीषण है।' उसने प्यासी चितवन से कुण्डनी की ओर देखा। कुण्डनी ने समूचा भाण्ड उसके मुंह से लगा दिया। उसे पीकर होंठ चाटते हुए असुर ने उठना चाहा, पर लड़खड़ाकर गिर गया। कुण्डनी ने और एक भाण्ड उसके मुंह से लगा दिया। उसे भी पीकर असुर ने कुण्डनी को हृदय से लगाकर कहा-दे, मृत्यु-चुंबन दे, मानुषी। तेरे स्वर्ण-अधरों को एक बार चूमकर मरने में भी सुख है।

इस समय चारों ओर मृत असुरों के ढेर जहां-तहां पड़े थे। भयभीत असुर भाग रहे थे। बहुत-से बदमस्त पड़े थे। कुण्डनी ने यत्न से असुर के बाहुपाश से अपने को निकालकर दूसरा मद्य-पात्र उसके होंठों से लगा दिया। उसे पीकर शम्बर बदहवास आसन पर गिर गया। कुण्डनी को बरबस खींचकर वह अपनी अस्त-व्यस्त आसुरी भाषा में कहने लगा-द'ददे मानुषी एक चुंबन, और मागध विम्बसार के लिए मेरी मैत्री ले। दे चुंबन, दे।

कुण्डनी ने मर्म की दृष्टि से सोम की ओर देखा। उसका अभिप्राय यह था कि असुर को मारा जाए या नहीं। पर सोम ने खींचकर कुण्डनी को शम्बर के बाहुपाश से अलग किया और हांफते-कांफते कहा- नहीं, असुरराज को मारा नहीं जाएगा। बहुत हुआ, समझ गया, तुम विषकन्या हो।

फिर उसने शम्बर के कान के पास मुंह ले जाकर कहा-महान शम्बर चिरंजीव रहें। वह मागध बिम्बसार का मित्र है। उसे मृत्यु-चुंबन नहीं लेना चाहिए।

शम्बर ने कुछ होंठ हिलाए, और आँखें खोलने की चेष्टा की, पर वह तुरन्त काठ के कटे कुंदे की भांति गिर गया। सोम ने कुण्डनी से कहा-उसे छोड़ दो, कुण्डनी। [ १४८ ]

'मूर्खता मत करो सोम, मरे वह असुर।'

'ऐसा नहीं हो सकता।'

उसने कुण्डनी को पकड़कर खींचा। अब वहां एक भी जीवित असुर न था, सब मरे पड़े थे। जो बचे थे—भाग रहे थे। सोम कुण्डनी का हाथ पकड़ उसी अंधकार में चम्पारण्य में विलीन हो गया।