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कहानी खत्म हो गई/शेरा भील

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कहानी खत्म हो गई
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
शेरा भील

दिल्ली: राजपाल एण्ड सन्ज़, पृष्ठ २१२ से – २१५ तक

 

शेरा भील

मुगल सैन्य ने गांव पर धावा बोल दिया। उस समय गांव में केवल एक वृद्ध भील उपस्थित था। उनाने उनसे मोर्चा लिया और प्राणों की आहुति दी। उस वीर वृद्ध की रमृति में आज भी भील बालाएं गीत गाती

जिन दिनों औरंगजेब ने मेवाड़ की भूमि को चारों तरफ से घेर रखा था, उन दिनों की बात है। सारे राज्य-भर में सन्नाटा छा गया था। गांव उजाड़ दिए गए थे। कुएं पाट दिए गए थे। खेत जला दिए गए थे, और सब प्रजाजन अपने पशुओंसहित अरावली की दुर्गम घाटियों में चले गए थे।

मुगलों को बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ रहा था। हुकूमत और घमण्ड से मुगलों के प्रत्येक सिपाही का मिजाज चौथे ग्रासमान पर चढ़ा रहता था। ऐयाशी और रंगीली तवियतदारी उनमें हो ही गई थी। बादशाह के प्रति कुछ उनकी ऐसी ज्यादा श्रद्धा भी न थी, क्योंकि शाही सेना में सिर्फ मुगल ही हों, यह बात न थी। मुगल, पठान, सैयद, शेख और न जाने कौन-कौन धुनिये-जुलाहे भर गए थे। वे सिर्फ अपनी नौकरी बजाने को सिपाहीगीरी करते थे। प्रत्येक सिपाही अपने जान-माल की हिफाज़त करने के लिए व्यग्र रहता था, और यथाशक्ति आरामतलबी चाहता था।

इसके विपरीत राजपूतों में अपने देश के लिए रस था। वे प्राणों को हथेली पर रख रहे थे। वे लड़ते थे अपनी प्रतिष्ठा के लिए, अपनी भूमि के लिए, अपनी जाति के लिए। वे अपने राजा को प्यार करते थे। राजा उनका स्वामी नहीं, मित्र था, इससे राजा के लिए प्राण तक देना उनके लिए परम आनन्द की बात थी।

लूनी नदी की क्षीण धारा टेढ़ी-तिरछी होकर उन ऊबड़-खाबड़ मैदानों से होती हुई अरावली की उपत्यका में घुस गई थी। उसका जल थोड़ा अवश्य था, परंतु बहुत स्वच्छ और मीठा था। नदी के उत्तर की ओर सीधा पहाड़ खड़ा था, और बड़ा घना जंगल था। उस जंगल में भीलों की बस्तियां थीं। भीलों की जीविका जंगल ही से चलती थी। शहद, लकड़ी, मोम, पत्ते, टोकरी आदि बेचकर वे काम चलाते थे। समय पाने पर लूटमार भी करते थे। वे अरावली की तराई में लम्बी-लम्बी और अगम्य घाटियों में अपनी बस्तियां बसाए रहते थे। वे ऐसे अगम्य स्थल थे कि अजनबी आदमी का एकाएक वहां पहुंचना असंभव ही था। इसीलिए महाराणा ने उनके कुछ गांवों को जहां-तहां रहने दिया था। उनसे महाराणा को बहुत सहायता मिलती थी। वे प्रकट में अत्यन्त जंगली भाव से रहते थे। वे बड़े निर्भय वीर थे। उनके पैने, विषैले बाणों का एक हलका-सा घाव भी प्राणांतक होता था। परन्तु वे बाहर से जैसे असभ्य थे, वैसे भीतर से नहीं। वे अपने सरदार के अनन्य भक्त थे, उनमें अपना निजी संगठन था। वे अपने को राणा के कृत दास समझते थे। वे निर्भय होकर बन-पशुओं का शिकार करते थे, खाते थे, और फिर दिन-दिन-भर खोते में लड़ना उनका सबसे ज़रूरी काम था।

वे इस बात की ताक में सदैव रहते थे कि धावा मारें, और मुगल छावनी को लूट लें। बहुधा वे ऐसा करते भी थे। मुगल सरदार उनसे बहुत दुखी थे। वे उनका कुछ भी न बिगाड़ सकते थे, और उनसे वे सदैव चौकन्ने रहते थे। कभी तो वे रात को एकाएक मुगल छावनी पर धावा मारते और किसान जैसे खेत काटता है, उसी भांति मार-काट करके भाग जाते थे। वे इस सफाई से भागते और ऐसी चालाकी से जंगलों में छिप जाते कि मुगल-सिपाही चेष्टा करके भी उन्हें न ढूंढ़ पाते थे।

उनके सरदार की शक्ल भेड़िये के समान थी। सब लोग उसे भेड़िया ही कहते थे। उसमें असाधारण बल था। सब दलों के सरदार उसका लोहा मानते थे। उसने युद्ध में सैकड़ों आदमी मार डाले थे, और सबकी खोपड़ियां ला-लाकर खूटी पर टांग रखी थीं।

सर्दी के दिन थे, रात का सुहावना समय। वे आग के चारों तरफ बैठे तंबाकू पी रहे थे। उनके काले और चमकीले नंगे शरीर आग की लाल रोशनी में चमक रहे थे। एक राजपूत सिपाही ने आकर, धरती पर भाला टेककर भील सरदार का अभिवादन किया। भील सरदार ने खड़े होकर राजपूत से संदेश पूछा। तुरन्त ढोल पीटे गए। और, क्षण-भर में दो हज़ार भील अपने-अपने भालों को लेकर आ जुटे।

सैनिक राजपूत ने उच्च स्वर से पुकारकर कहा-भील सरदारो! राणा का हुक्म है कि आप लोगों के लिए राज्य की सेवा का सुअवसर पाया है। दुश्मन ने देश को चारों ओर से घेर रखा है। राणा ने आपकी सेवा चाही है। अपना धर्म पालन करो।

भीलों के सरदार ने अपने विकराल मुंह को फाड़कर उच्च स्वर से कहा-राणाजी के लिए हमारा तन-मन हाज़िर है।

उसी रात्रि में, तारों की परछाईं में, दो हज़ार भील वीर चुपचाप उस राजपूत सैनिक का अनुसरण कर रहे थे। सबके हाथ में धनुष-बाण थे। वे सब अरावती की चोटियों पर रातोंरात चढ़ गए। उन्होंने अपने मोर्चे जमाए, पत्थरों के बड़े-बड़े ढेले एकत्र किए, और छिपकर बैठ गए।

दोपहर की चमकती धूप में भील रमणियां मूंगे की कण्ठी कण्ठ में पहने, भारी-भारी घांघरे का काछा कसे लूनी के तीर से पानी ला रही थीं। कोई जल में किलोल कर रही थी। लूनी का क्षीण कलेवर उन्हें देखकर कल-कल कर रहा था। एक युवती मिट्टी के घड़े को पानी में डाले उसमें जल के घुसने का कौतुक देख रही थी, और हंस रही थी। दो बालिकाएं नदी-किनारे चांदी-सी चमकती बालू में खेल रही थीं। अकस्मात् एक तीर सनसनाता हुआ पाया। और बालू में खेलती एक बालिका की अंतड़ियों को चीरता हुआ चला गया। बालिका के मुख से एक अस्फुट ध्वनि निकली, और वह रेत में कुछ देर छटपटाकर ठंडी हो गई।

नदी-किनारे खड़ी भील बालाओं ने आश्चर्य और रोष-भरी दृष्टि से नदी के दूसरे तट की ओर देखा। दो मुगल खड़े हंस रहे थे। एक युवती.चिल्लाती हुई दौड़कर पेड़ों के झुरमुट में गायब हो गई। गांव में एक बूढ़ा रोगी भील था, जो इस समय राणा के रण-निमंत्रण पर न जा सका था। उसका नाम शेरा था। वह अपने विशाल धनुष और तीन-चार बाणों के साथ बाहर आया। उसने पेड़ की आड़ में खड़े होकर दूसरे तट पर खड़े एक मुगल को लक्ष्य करके तीर फेंका। वह तीर वज्रपात की भांति मुगल सैनिक के हलक को चीरता हुमा कंठ में अटक रहा। सैनिक चीत्कार करके धरती पर गिर पड़ा। नदी-तट की सब स्त्रियां अपने घड़े वहीं छोड़कर गांव में भाग आईं।

दो युवतियां जोर-जोर से ढोल बजा रही थीं। शेरा एक वृक्ष की आड़ से बाणों की वर्षा कर रहा था। पांच सौ मुगलों ने गांव घेर रखा था। दो-तीन-किशोर वयस्क बालक दौड़-दौड़कर तीर चला रहे थे। स्त्रियां वाणों के ढेर शेरा के निकट रख देती थीं। शेरा का बाण अव्यर्थ था। वह चीरता हुआ आर-पार जा रहा था। शेरा के चारों तरफ बाणों का मेंह बरस रहा था।

शेरा ने देखा, मुगल सैनिकों को रोकना कठिन है। दो-चार सिपाही गांव में आग लगाने का आयोजन कर रहे हैं। उसने स्त्रियों को एकत्र कर, बच्चों सहित उन्हें पीछे करके हटाना शुरू किया। एक तीर उसकी भुजा में लगा। उसने उसे खींचकर फेंक दिया। गेरू का झरना जैसे नील पर्वत से झरता है, रक्त झरने लगा। शेरा ने चिल्लाकर कहा-सब कोई दूसरे जंगल में चले जाओ। गांव की झोपड़ियां धायं-धायं जलने लगीं। शेरा कौशल से बाण मारे जा रहा था और पीछे हट रहा था। उसकी वीरता, साहस और धीरज आश्चर्यचकित करनेवाले थे।

एक वलिष्ठ भील बाला तीर की भांति अरावली की उपत्यकामों की ओर भागी जा रही थी उसने एक ऊंचे पेड़ पर चढ़कर अपनी लाल साड़ी को हाथ की लाठी पर ऊंचा किया। कुछ ही क्षण बाद चींटियों के दल की तरह भीलगण धनुष और बाण आगे किए पर्वत-शृंग से उतर रहे थे। स्त्री वृक्ष से उतरकर अपने रक्त वस्त्र को हवा में फहराती आगे-आगे दौड़ रही थी, पीछे-पीछे भीलों की चंचल पंक्तियां थीं।

गांव में आकर देखा, गांव की झोपड़ियां धायं-धायं जल रही हैं। भील सरदार ने हाथ ऊंचा करके बाघ की तरह चीत्कार किया। चारों तरफ भील वीर बिखर गए। बाणों की वर्षा होने लगी। मुगल सैन्य में आर्तनाद मच गया। उनके पैर उखड़ गए। सैकड़ों ने घोड़े पानी में डाल दिए। उनके रक्त से नदी का जल लाल हो गया। सैकड़ों मुगल वहीं खेत रहे। युद्ध में भील वीर विजयी हुए। युद्ध से निवृत" होकर सरदार ने शेरा को तलाश किया। वह सैकड़ों तीरों से छिदा हुआ एक झोपड़ी की आड़ में निर्जीव पड़ा था।

आज भी उस वीर वृद्ध शेरा के गीत भील बालाएं जब जल भरने आती हैं, गाती हैं।