कामना/1.4

विकिस्रोत से
कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ १९ ]

चौथा दृश्य

स्थान-लीला का कुटीर

(फूल-मंडप मे लीला)

लीला-आज मिलन-रात्रि है । आज दो अधूरे मिलेंगे, एक पूरा होगा । मधुर जीवन-स्त्रोत को संतोष की शीतल छाया मे बहा ले जाना आज से हमारा कर्तव्य होना चाहिये । परंतु मुझे वैसी आशा नहीं । मेरा हृदय व्याकुल है, चंचल है, लालायित है, मेरा सब कुछ अपूर्ण है केवल उसी चमकीली वस्तु [ २० ]के लिए । मेरी सखी कामना ! आह. मुझे भी एक वैसी ही मिलनी चाहिये। ( वन-लक्ष्मी का प्रवेश)

लीला-तुम कौन?

वन-लक्ष्मी-मै वन-लक्ष्मी हूँ।

लीला-क्यों आई हो?

वन-लक्ष्मी-इस द्वीप के निवासियो में जब व्याह होता है, तब मै आशीर्वाद देने आती है। परंतु किसी के सामने नहीं।

लीला-फिर मेरे लिए ऐसी विशेषता क्यों?

वन-लक्ष्मी-अभिशाप देने के लिए ।

लीला-हम 'तारा की संतान हैं। हमे किसी के अभिशाप से क्या सम्बन्ध । और, मैने किया ही क्या है जो तुम अभिशाप कहकर चिल्लाती हो। इस द्वीप मे आज तक किसी को अभिशाष नहीं मिला, तो मुझे ही क्यो मिले?

वन-लक्ष्मी-मैने भूल की। अभिशाप तो तुम स्वयं इस द्वीप को दे रही हो ।

लीला-जो बात मै ससभती नहीं, उसी के लिए क्यो मुझे-

वन-लक्ष्मी-जो वस्तु कामना को अकस्मात [ २१ ]मिली है, उसी के लिए तुम ईर्षा कर रही हो, वैसी ही तुम भी चाहती हो।

लीला-तो ऐसा चाहना क्या कोई अभिशाप, ईर्षा, या और क्या-क्या तुम कह रही हो, वही है ?

वन-लक्ष्मी-आन तक इस द्वीप के लोग 'यथा- लाभ-संतुष्ट' रहते थे, कोई किसी का मत्सर नहीं करता था । परंतु इस विष का-

लीला -वस करो, मै तुम्हारे अभिशाप, ईर्षा और विष को नहीं समझ सकी। यदि मै किसी अच्छी वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा करूँ, तो उसकी गिनती तुम अपने इन्ही शब्दो मे करोगी, जिन्हे किसी ने सुना नहीं था । अभिशाप, मत्सर, ईर्षा और विष ।

वन-लक्ष्मी-अच्छी वस्तु तो उतनी ही है,जितनी की स्वाभाविक आवश्यकता है। तुम क्यो व्यर्थ अभावो की सृष्टि करके जीवन को जटिल बना रही हो ? जिस प्रकार ज्वालामुखियाँ पृथ्वी के नीचे दबा रक्खी गई है, और शीतल स्रोत पृथ्वी के वक्ष-स्थल पर बहा दिये गये उसी प्रकार ये सब 'तारा की संतानों के कल्याण के लिए गाड़ दिये गये है।यह ज्वाला सोने के रूप में सबके हाथो मे खेलती [ २२ ]और मदिरा के शीतल आवरण से कलेजे मे उतर जाती है।

लीला-मदिरा ! क्या कहा ?

वन-लक्ष्मी-हॉ-हॉ, मदिरा, जो तुम्हारे उस पात्र मे रक्खी है। (पात्र की ओर संकेत करती है)

लीला-क्या इसे कहती हो ? (पात्र उठा लेती है) इसे तो सखी कामना ने ब्याह के उपलक्ष में भेजा है । और सोना क्या ?

वन-लक्ष्मी-वही, जिसके लिए लालायित हो।

लीला-तुम वन-लक्ष्मी हो, तभी-

वन-लक्ष्मी-क्या मैं भी उस चमकीली वस्तु के लिए शीतल हृदय मे जलन उत्पन्न करूँ ?

लीला-जलन तो है ही । तुम्हारे पास नहीं है, इसी लिए मुझे भी उससे वचित रखना चाहती हो। कामना के पास है, और मैं उसे पाने का प्रयास कर [ २३ ]हमारे द्वीप मे लोहे का उपयोग सृष्टि की रक्षा के, लिए है। उसे संहार के लिए मत बना। जो वस्तु, खेती और हिस्र पशुओ से सरल जीवों की रक्षा का, साधन है, उसे नरक के हाथ, हिसा की उँगलियाँ न बना दें। कामना को उस विदेशी युवक के साथ महार्णव मे विसर्जन कर दे। उसे दूसरे देश चले जाने के लिए भी कह दे; परंतु-

लीला-वन-लक्ष्मी हो ? क्या तुम ऐसा निष्ठुर निर्देश करती हो कि मै अपनी सखी को-

वन-लक्ष्मी--हाँ ! हाँ ! उस अपनी सखी से दूर रह ! केवल तू ही उस अग्नि का ईधन बनकर सत्या-नाश न फैला। महार्णव से मिलती हुई तरंगिणी के नल मे चुटकी लेता हुआ, शीतल और सुगंधित पवन इस देश मे बहने दे। इस देश के थके कृपको को विनोद-पूर्ण बनाने के लिए, प्रत्येक पथिक पर,के सदृश, यहाँ के वृक्षो को फूल बरसाने दे। आग, लोहे और रक्त की वर्षा की प्रस्तावना न कर। इस विश्वम्भरा को, इस जननी को, धातु निकालकर,खोखली और निर्बल बनाने का समारम्भ होने से रोक । मेरी प्यारी लीला ! मान जा । कहे जाती हूँ, [ २४ ]जिस दिन तूने उस चमकीली वस्तु के लिए हाथ पसारा, उसी दिन इस देश की दुर्दशा का प्रारम्भ होगा।

(चली जाती है)

लीला-(कुछ देर बाद ) आश्चर्य | आन तक तो वन-लक्ष्मी किसी से नहीं मिली थी। अब मै क्या करूँ ? चलकर कामना से कहूँ, या उपासना-गृह में ही सबके सामने कहूँ। ( सोचती है) नहीं, अलग ही कहना ठीक होगा । तो चलूं, ( रुककर ) यह लो, कामना ती स्वयं आ रही है।

( कामना का प्रवेश)

कामना-लीला, सखी, तू कैसी हो रही है ?

लीला-मै तो तेरे ही पास आ रही थी। बड़े आश्चर्य की बात है।

कामना-आश्चर्य की कई बाते आजकल इस द्वीप में हो रही हैं । पर उनसे क्या ? पहले मेरी ही बात सुन ले । मै विलास के साथ बाते कर रही थी कि पक्षियों का संकेत हुआ। मै उपासना-गृह में गई। मुझे नियमानुसार यह विदित हुआ कि इस देश पर कोई आपत्ति शीघ्र आया चाहती है। परंतु [ २५ ]मैं तनिक भी विचलित न हुई । मै तो तेरे व्याह का सिगार करने आई हूँ । तू कह-

लीला--आज वन-लक्ष्मी मुझसे न-जाने कहाँ- कहाँ की कैसी-कैसी बाते कह गई ।

कामना-वन-लक्ष्मी । भला, वह तेरे सामने आई । आश्चर्य । क्या कहा ?

लीला-कहा कि कामना से देश का सत्यानाश होगा । तू उसका साथ न दे, और उस चमकीली वस्तु की चाह कभी न करना, जैसी कामना के पास है; क्योकि वह ज्वाला है। और भी न-जाने क्या- क्या कह गई।

कामना-हूँ । तूने क्या कहा ?

लीला-मैने कहा कि वह मेरी सखी है, मै उसे न छोडूंगी। (आलिगन करती है)

कामना-प्यारी लीला, वैसी मै तुझे अवश्य दिलाऊँगी, अवीर न हो । तू जैसे भ्रांत हो गई है। वह पेया, जो मैने भेजी है, कहाँ है ? थोड़ी उसमे से पी ले।

लीला-ओ। उसे तो और भी मना किया है।

कामना (हँसती हुई पात्र उठाकर) अरे ले [ २६ ]भी, अभी थकावट दूर होती है । (लीला और कामना पीती है)

लीला-बहन, इसके पीते ही तो मन दूसरा हुआ जाता है।

कामना-बड़ी अच्छी वस्तु है।

लीला-ऐसी पेया तो नहीं पी थी। यहाँ कहाँ से ले आई ?

कामना–एक दिन मै और विलास, दोनो, नदी के किनारे-किनारे बहुत दूर निकल गये। फिर नदी से भी दूर चले गये । वहाँ प्यास लगी; परंतु नदी तक लौटने में विलम्ब होता । एक तरबूज आधा पड़ा था, उसमे सूर्य की गर्मी से तपा हुआ उसी का रस था । हम दोनो ने आधा-आधा पी लिया। बड़ा आनंद आया । अब उसी रीति से बनाया करती हूँ।

लीला-(मद-विह्वल होती है) कामना, तू वन- लक्ष्मी है। वह जो आई थी, मुझे भुलाने आई थी। तू क्या है, सुगंध की लहर है। चॉदनी की शीतल चादर है । अः-( उठना चाहती है)

कामना-(लीला को बिठाकर) तू बैठ, आज [ २७ ]मिलन-रात्रि है। विनोद के आने का समय हो गया। मै दोनो को भेंट करके जाऊँगी।

लीला-विनोद। कौन | नही कामने । सन्तोष । मेरा प्यारा सन्तोष । तुमने तो ब्याह न करने का निश्चय किया है ?

कामना-कैसी है तू । मेरा निर्वाचित है । मै चाहे व्याह करूं या नहीं, परन्तु वह तो सुरक्षित रहेगा- समझी लीला | तेरे लिए तो विनोद ही उपयुक्त है । सन्तोष मुझसे डरता है, तो मै भी उससे सबको डराऊँगी-विनोद को मै बुला आई हूँ। वह तेरा परम अनुरक्त है।

(लीला अवाक् होकर देखती है)

(फूलो के मुकुट से सजा हुआ विनोद आता है)

कामना-स्वागत ।

लीला-विराजिये।

(सब बैठते है)

(कामना दो फूल के हार दोनों को पहनाती और पात्र लेकर दोनों को एक में पिलाती है। पीछे खड़ी होकर दोनों के सिर पर हाथ रखती है। तीनो के मुख पर तीव्र आलोक) [ २८ ]कामना -अखंड मिलन हो।

विनोद-उपासना-गृह में भी तो चलना होगा।

लीला-यह तो नियम है।

कामना-थोड़ी और पी लो, तो चले । सब लोग एकत्र भी हो रहेगे। परंतु देखो, जो मै कहूँ, वहां वही करना।

लीला और विनोद-वही होगा।

(दोनों पात्र खाली करके जाते हैं)

कामना-मेरे भीतर का बॉकपन सीधा हो गया है। मेरा गर्व उसके पैरो मे लोटने लगा। मेरा लावण्य मुझी पर नमक छिड़क रहा है। वह अतिथि होकर आया, आन स्वामी है । व्योम-शैल से गिरती हुई चंद्रिका की धारा आकाश और पाताल एक कर रही है। आनंद का स्रोत बहने लगा है । इस प्रपात के स्वच्छ कणों से कुहासे के समान सृष्टि में अंधकार-मिश्रित आलोक फैल गया है। अंतःकरण के प्रत्येक कोने से असंतोष-पूर्ण तृप्ति की खीकार-सूचनाये मिल रही हैं। विलास । तुम्हारे दर्शन ने सुख भोगने के नये-नये आविष्कारा से मस्तिष्क भर दिया है। [ २९ ]क्लांति और श्रांति मिलने के लिए सकल इंद्रियाँ परिश्रम करने लगी है--विलास । ( गाती है )

"घिरे सघन घन नीद न आई

निर्दय भी न अभी आया

चपला ने इस अंधकार मे

क्यों आलोक न दिखलाया

बरस चुकी रस-बूंद सरस हो

फिर भी यह मन कुम्हलाया

उमड़ चले आँखो के झरने

हृदय न शीतल हो पाया

-चलू उपासना-गृह में-( जाती है )

[ पट-परिवर्तन]