कामना/2.4

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
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चौथा दृश्य

(पथ मे संतोष और विवेक)

संतोष—यह क्या हो रहा है ?

विवेक— इस देश के बच्चे दुर्बल, चिंताग्रस्त और झुके हुए दिखाई देते हैं। स्त्रिया के नेत्रों मे विह्व- लता-सहित और भी कैसे-कैसे कृत्रिम भावों का समावेश हो गया है। व्यभिचार ने लज्जा का प्रचार कर दिया है।

संतोष—छिपकर बातें करना, कानों में मंत्रणा करना, छुरो की चमक से ऑखो मे त्रास उत्पन्न करना, वीरता नाम के किसी अद्भुत पदार्थ की ओर अंधे होकर दौड़ना युवको का कर्तव्य हो रहा है । वे शिकार और जुआ, मदिरा और विलासिता के, दास होकर गर्व से,छाती फुलाये घूमते हैं। कहते हैं, हम धीरे-धीरे सभ्य हो रहे हैं।

विवेक—सब बूढ़े मूर्ख और पुरानी लकीर पीटने वाले कहे जाते हैं।

संतोष—एक-एक पात्र मदिरा के लिए लालायित

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कामना

होकर दासता का बोझ वहन करते हैं। हृदय में व्याकुलता, मस्तिष्क में पाप-कल्पना भरी है ।

विवेक—सोने का ढेर छल और प्रवंचना से एकत्रित करके थोड़े-से ऐश्वर्यशाली मनुष्य द्वीप-भर को दास बनाये हुए है। और, आशा में, कल स्वयं भी ऐश्वर्यवान होने की अभिलाषा मे बचे हुए सीधे सरल व्यक्ति भी पतित होते जा रहे हैं।

संतोष—हत्या और पापों की दौड़ हो रही है, और धर्म की धूम है।

विवेक—चलो भाई, चलें, अब उपासना-गृह मे शासन-सभा होगी। वही उन हत्यारों का विचार भी होनेवाला है । ( देखना हुआ) उधर देखो, रानी उपा- सना-गृह मे जा रही है।

सतोष—भला यह रानी क्या वस्तु है ?

विवेक—मदिरा से ढुलकती हुई, वैभव के बोझ से दबी हुई, महत्त्वाकांक्षा की तृष्णा से प्यासी, अभि- मान की मिट्टी की मूर्ति । परंतु है प्रभावशालिनी ।

संतोष—भला हम लोग तो यह सब कुछ नहीं जानते थे । यह कहाँ से—

विवेक—वही विदेशी, इंद्रनाली युवक विलास ।

६० [ ६१ ] उसकी तीक्ष्ण आँखो मे कौशल की लहर उठती है । मुसकिराहट में शीतल ज्वाला और बातो मे भ्रम की बहिया है।

संतोष—परंतु हम सब जानते हुए भी अंजान हो रहे है।

विवेक—कोई उपाय नहीं।(जाता है)

(विलास का प्रवेश)

विलास—(स्वगत) यह बड़ा रमणीय देश है । भोले-भाले प्राणी थे, इनमें जिन भावो का प्रचार हुआ, वह उपयुक्त ही था। परन्तु सब करके क्या किया ? अपने शाप-ग्रस्त और संघर्ष-पूर्ण देश की अत्याचार-ज्वाला से दग्ध होकर निकला। यहाँ शीतल छाया मिली, परंतु मैने किया क्या ?

संतोष—वही ज्वाला यहाँ भी फैला दी, यहाँ भी नवीन पापो की सृष्टि हुई । अब सब द्वीपवासी और उनके साथ तुम भी उसी मानसिक नीचता, पराधीनता, दासता, द्वंद्व और दुःखो के अलात-चक्र में दग्ध हो रहे हो । आनंद के लिए सब किया; पर वह कहाँ । जब मन मे आनंद नही, तब कही नहीं।

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कामना

विलास—( देखकर ) कौन ? संतोष | तुम क्या जानोगे ? भावुकता और कल्पना ही मनुष्य को कला की ओर प्रेरित करती है। इसी मे उसके कल्याण का रहस्य है, पूर्णता है।

संतोष—विलास । तुम्हारे असंख्य साधन है। तब भी कहाँ तक? संसार की अनादि काल से की गई कल्पनाओ ने जंगल को जटिल बना दिया, भावुकता गले का हार हो गई, कितनी कविताओं के पुराने पत्र पतझड़ के पवन मे कहाँ-के-कहाँ उड़ गये । तिस पर भी संसार मे असंख्य मूक कविताये हुई । इसका कौन अनुमान कर सकता है ? चन्द्र- सूर्य की किरणो की तूलिका से अनन्त आकाश के उज्वल पट पर बहुत-से नेत्रो ने दीप्तिमान रेखा-चित्र बनाये, परन्तु उनका चिन्ह भी नहीं है। जिनके कोमल कंठ पर गला दे देना साधारण बात थी, उन्होंने तीसरी सप्तक की कितनी मर्मभेदी तानें लगाई; किन्तु वे सर्वग्रासी आकाश के खोखले मे विलीन होती गई।

(संतोष जाता है, कामना का प्रवेश)

कामना—(विलास को देख कर स्वगत) जैसे खिले हुए ऊँचे कदम्ब पर वर्षा के यौवन का एक सुनील

६२ [ ६३ ] मेघखंड छाया किये हो। कैसा मोहन रूप है (प्रगट) क्यो विलास । यहाँ क्या कर रहे हो ?

विलास—विचार कर रहा हूँ।

कामना—क्या ?

विलास—जिस इच्छा के अंकुर का रोपण करता हूँ, हमारी महत्त्वाकांक्षा उन्ही दो पत्तो को सुरक्षित रखने के लिए-सूर्य के ताप से बचाने के के लिए—अनन्त आकाश को मेघो से ढक लेती है।

कामना—तब तो बड़ी अच्छी बात है ?

विलास—परन्तु सन्देह है कि कही मधु-वर्षा के बदले करका-पात न हो।

कामना—मीठी भावनाये करो । प्रिय विलास, मधुर कल्पनाये करो । सन्देह क्यो ?

विलास—सामने देखो—वह नदी का यौवन, जल-राशि का वैभव, परन्तु उसमे नीची-ऊंची लहरें हैं।

कामना—नही देखती हो, सीपी अपने चम- कीले दांतो से हँस रही है । चलो, उपासना- गृह चलें।

विलास—तुम चलो, मै अभी आता हूँ ।

(कामना जाती है)

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कामना

विलास—(स्वगत)—कामना एक सुंदर रानी होने के योग्य प्रभावशालिनी स्त्री है । उसने ब्याह का प्रस्ताव किया था । मै भी व्याह के पवित्र बंधन मे बँधकर गंजा होकर सुखी होता, परंतु मेरी मान- सिक अव्यवस्था कैसे छाया-चित्र दिखलाती है ! कोई अदृष्ट शक्ति संकेत कर रही है।—नहीं, कामना एक गर्व-पूर्ण और सरल हृदय की स्त्री है । रंगीन तो है, पर निरीह इंद्रधनुष के समान उदय होकर विलीन होनेवाली है। तेज तो है, पर वेदी की धध- काने से जलने वाली ज्वाला है। मै उसको अपना हृदय-समर्पण नहीं कर सकता। मुझको चाहिये बिजली के समान वक्र रेखाओं का सृजन करने वाली, ऑखो को चौधिया देने वाली तीव्र और-विचित्र वर्णमाला, निस हृदय मे ज्वालामुखी धधकती हो, जिसे ईधन का काम न हो, वह दुर्दमनीय तेन- ज्वाला। मैं उसी का अनुगत हूँगा। यह हृदय उसी का लोहा मानेगा । इस फूलों के द्वीप में मधुप के समान विहार करूंगा। मै इस देश के अनिर्दिष्ट पथ का धूमकेतु हूँ। चलूंगा, मेरी महत्त्वा- कांक्षा ने अवकाश और समय दोनों की सृष्टि कर दी

६४ [ ६५ ] है। उसमे पदार्थो के द्वारा नई सृष्टि करूंगा, फिर चाहे उस सृष्टि के साथ मै भी कुहेलिका-सागर में विलीन हो जाऊँ । चलूॅ उपासना-गृह में ।