कामना/3.1

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ ८८ ]

तीसरा अंक

पहला दृश्य

क्रूर दुर्वृत्त, प्रमदा और दम्भ

(नवीन नगर का एक भाग, आचार्य दम्भ का घर)

दम्भ-निर्जन प्रान्तो मे गन्दे झोपड़े। बिना प्रमोद की रातें। दिन-भर कड़ी धूप मे परिश्रम करके मृतको की-सी अवस्था मे पड़ रहना। संस्कृति-विहीन, धर्म-विहीन जीवन। तुम लोगो का मन तो अवश्य ऊब गया होगा।

प्रमदा-आचार्य-कहीं मदिरा की गोष्ठी के उपयुक्त स्थान नहीं। संकेत-गृहों का भी अभाव! उजड़े कुंज, खुले मैदान और जंगल, शीत, वर्षा तथा ग्रीष्म की सुविधा का कोई साधन नहीं। कोई भी विलास-शील प्राणी कैसे सुख पावे।

दम्भ-इसी लिए तो नवीन नगर-निर्माण के मेरी योजना सफल हो चली है। झुंड-के-झुंड लोग [ ८९ ] इसमें आकर बसने लगे है। जैसे मधुमक्खियाँ अपने मधु की रक्षा के लिए मधुचक्र का सृजन करती हैं, वैसे ही धर्म और संस्कृति की इस नगर मे रक्षा होगी। नवीन विचारों का यह केन्द्र होगा। धर्म-प्रचार मे यहाँ से बड़ी सहायता मिलेगी।

दुर्वृत्त-बड़ा सुन्दर भविष्य है। सुन्दर महल, सार्वजनिक भोजनालय, संगीत-गृह और मदिरा-मन्दिर तो है ही; इनमे धर्म-भवनों की भव्यता बड़ा प्रभाव उत्पन्न कर रही है। देहाती अर्ध-सभ्य मनुष्यों को ये विशेष रूप से आकर्षित करते है। इससे उनके मानसिक विकास मे बड़ी सहायता मिलेगी।

क्रूर-यह तो ठीक है। पर यहाँ अधिक-से-अधिक सोने की आवश्यकता होगी। यहाँ व्यय की प्रचुरता नित्य अभाव का सृजन करेगी, और अन्य स्थलों की अच्छी वस्तु यहाँ एकत्र करने के लिए नये उद्योग-धन्धे निकालने होंगे।

दम्भ-स्वर्ण के आश्रय में ही संस्कृति और धर्म बड़ सकते हैं। उपाय जैसे भी हो, उनसे सोना इकट्ठा करो, फिर उनका सदुपयोग करके हम प्रायश्चित्त कर लेगें। [ ९० ]प्रमदा-स्त्रियाँ पुरुषो की दासता मे जकड़ गई हैं, क्योकि उन्हे ही स्वर्ण की अधिक आवश्यकता है। आभूषण उन्ही के लिए है। मैने स्त्रियो की स्वतंत्रता का मन्दिर खोल दिया है। यहाँ वे नवीन वेश-भूषा से अद्भुत लावण्य की सत्ता जमावेगी। पुरुष स्वयं अब उनके अनुगत होगे। मै वैवाहिक जीवन को घृणा की दृष्टि से देखती हूँ। उन्हे धर्म-भवन की देवदासी बनाऊँगी।

दुर्वृत्त-और यहाँ कौन उसे अच्छा समझता है। पर मैंने कुछ दूसरा ही उपाय सोच लिया है।

क्रूर-वह क्या?

दुर्वृत्त-इतने मनुष्यों के एकत्र रहने में सुव्यवस्था की आवश्यकता है। नियमो का प्रचार होना चाहिये। इस लिए इस धर्म-भवन से समय-समय पर व्यवस्थायें निकलेंगी। वे अधिकार उत्पन्न करेंगी, और जब उनमे विवाद उत्पन्न होगा, तो हम लोगो का लाभ ही होगा। नियम न रहने से विशृंखला जो उत्पन्न होगी।

क्रूर-प्रमदा के प्रचार से विलास के परिणाम-स्वरूप रोग भी उत्पन्न होगे। इधर अधिकारों को [ ९१ ] लेकर झगड़े भी होगे, मार-पीट होगी। तो फिर मैं औषधि और शस्त्र-चिकित्सा के द्वारा अधिक-से-अधिक सोना ले सकूँगा।

प्रमदा-परन्तु प्राचार्य की अनुमति क्या है?

दुर्वृत्त-आचार्य होगे व्यवस्थापक। फिर तो अवस्था देखकर ही व्यवस्था बनानी पड़ेगी।

दम्भ-संस्कृति का आन्दोल हो रहा है। उसकी कुछ लहरे उँची हैं और कुछ नीची। यह भेद अब फूलों के द्वीप में छिपा नही रहा। मनुष्य-मात्र के बराबर होने के कोरे असत्य पर अब विश्वास उठ चला है। उसी भेद-भाव को लेकर समान अपना नवीन सृजन कर रहा है। मै उसका संचालन करूँगा।

दुर्वृत्त-उसकी तो आवश्यकता हो गई है परोपकार और सहानुभूति के लिए समान की अत्यन्त आवश्यकता है।

दम्भ-योग्यता और संस्कृति के अनुसार श्रेणी-भेद हो रहा है। जो समुन्नत विचार के लोग हैं, उन्हें विशिष्ट स्थान देना होगा। धर्म-संस्कृति और समान की क्रमोन्नति के लिए अधिकारी चुने जायगे। इससे समान की उन्नति में बहुत-से केन्द्र बन जायँगे, जो [ ९२ ] स्वतंत्र रूप से इसकी सहायता करेंगे। उस समय हमारी जाति समृद्ध और आनन्द-पूर्ण होगी। इस नगर मे रहकर हम लोग युद्ध और आक्रमणों से भी बचेगे।

(विवेक प्रवेश करके)

विवेक-बाबा यह बड़े-बड़े महल तुम लोगो ने क्यों बना डाले? क्या अनन्त काल तक जीवित रह कर दुख भोगने की तुम लोगो की बलवती इच्छा है?

दम्भ-गन्दा वस्त्र, असभ्यता से पूर्ण व्यवहार, यह कैसा पशु के समान मनुष्य है। दूर रह। मुझे छूना मत। इसे लज्जा नहीं।

विवेक-लज्जा जो अपराध करता है, उसे होती है। मै क्यों लज्जित होऊँ। मुझे किसी स्त्री की ओर प्यासी आँखो से नहीं देखना है, और न तो कपड़ों के आडम्बर मे अपनी नीचता छिपाना है।

दुर्वृत्त-बर्बर। तुझे बोलने का भी ढंग नहीं मालूम। जा, चला जा, नहीं तो मै बता दूँगा कि नागरिको से कैसे व्यवहार किया जाता है।

विवेक-काँटे तो बिछ के थे, उनसे पैर बचाकर चलने मेँ त्राण हो जाता, परन्तु तुम लोगो ने नगर [ ९३ ] बनाकर धोके की टट्टियो और नालो का भी प्रस्तार किया है। तुम्हीं मुँह के बल गिरोगे। सम्हलो। लौट चलो उस नैसर्गिक जीवन की ओर, क्यो कृत्रिमता के पीछे दौड़ लगा रहे हो।

प्रमदा-जा बूढे, जा, कही से एक पात्र मदिरा माँगकर पी ले, और उस आनन्द मे किसी जगह पड़ रह। क्यों अपना सिर खपाता है।

विवेक-ओह। शान्ति और सेवा की मूर्ति, स्त्री के मुख से यह क्या सुन रहा हूँ-फूलो के मुँह से वीभत्सता की ज्वाला निकलने लगी है। शिशिर-प्रभात के हिम-कण चिनगारियाँ बरसाने लगे है। पिता! इन्हे अपनी गोद मे ले लो।

दम्भ-चुप बूढ़े! धर्म-शिक्षा देने का तुझे अधिकार नहीं-जा, अपने माँद में घुस। अस्पृश्य! नीच!!

विवेक-मै भागूँगा, इस नगर-रूपी अपराधों के घोसले से अवश्य भागूँगा-परन्तु तुम पर दया, आती है।

(जाता है)

दम्भ-गया। सिर दुखने लगा। इस बकवादी को किसी ने रोका भी नहीं! [ ९४ ]दुर्वृत्त––इन्हीं सब बातों के लिए नियम की–व्यवस्था की–आवश्यकता है।

प्रमदा–जाने दो। कुछ मदिरा का प्रसंग चले। देखो, वे नागरिक आ रहे हैं।

(मद्यपान लिये हुए नागरिक और स्त्रियाँ आती हैं)

(सबका पान और नृत्य)