कामना/2.8

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ ८१ ]

आठवाँ दृश्य

(जंगल मे शिकारी लोग मांस भून रहे है, मद्य चल रहा है, नये शिकार के लिए खोज हो रही है। एक ओर से विलास और विनोद का प्रवेश। दूसरी ओर से कामना, लालसा और लीला का आना। विनोद तलवार निकालकर सिर से लगाता है। वैसा ही सब करते हैं)

सब-रानी की जय हो।

कामना-तुम लोगो का कल्याण हो। [ ८२ ]विलास-रानी, तुम्हारी प्रना तुम्हे आशीर्वाद देती है।

विनोद-उसके लिए वैभव और सुख का आयोजन होना चाहिये।

कामना-लालसा सोने की भूमि जानती है। वह तुम लोगो को बतावेगी। क्या उसे पाने लिए तुम लोग प्रस्तुत हो?

सब-हम सब प्रस्तुत है।

लालसा-उसके लिए बड़ा कष्ट उठाना पड़ेगा।

सब-हम सब उठावेंगे।

लालसा-अच्छा, तो मै बताती हूँ।

विनोद-और, इस प्रसन्नता में मैं पहले से आप लोगो को एक वन-भोज के लिए आमंत्रित करता हूँ।

लीला-परंतु लालसा की एक प्रार्थना है।

सब-अवश्य सुननी चाहिये।

लालसा-शांतिदेव की हत्या का प्रतिशोध।

(सब एक दूसरे का मुँह देखते है। लालसा विलास की ओर आशा से देखती है)

विलास-अवश्य, उन हत्यारेबंदियों को बुलाओ।

(चार सैनिक जाते हैं)

[ ८३ ]

कामना–हाँ, तो तुम लोगो को उस भूमि पर अधिकार करना होगा। डरोगे तो नहीं? वह भूमि नदी के उस पार है।

एक-निधर हम लोग आन तक नहीं गये?

विनोद-इसी कायरता के बल पर स्वर्ण का स्वप्न देखते हो?

सब-नहीं, नहीं, सेनापति, आपने यह अनुचित कहा। हम सब वीर हैं।

विनोद-यदि वीर हो, तो चलो-वीरभोग्या तो वसुंधरा होती ही है। उस पर जो सबल पदाघात करता है, उसे वह हृदय खोलकर सोना देती है।

कामना-लालसा को धन्यवाद देना चाहिये।

(बन्दी हत्यारों के साथ सैनिकों का प्रवेश)

लालसा-यही है, यही है। मेरे शांतिदेव का हत्यारा।

कामना-तुम लोगो ने अपराध स्वीकार किया है?

विवेक-(प्रवेश करके) मैने तो आज बहुत दिनो पर यह नई सृष्टि देखी है। परंतु जो देखता हूँ, वह अद्भुत है। इन्होने एक हत्या की थी सोने के लिए, परंतु तुम लोग उदर-पोषण के लिए सामूहिक रूप से आज [ ८४ ] निरीह प्राणियो की हत्या का महोत्सव मना रहे हो। कल इसी प्रकार मनुष्यो की हत्या का आयोजन होगा।

हत्यारे-हमने कोई अपराध नहीं किया।

लीला-हत्यारो को इतना बोलने का अधिकार नहीं।

लालसा-इन्हें इन्हीं शिकारियों से मरवाना चाहिये।

विलास-जिसमे सब भयभीत हो, वैसा ही दंड उपयुक्त होगा।

कामना-ठीक है। इसी वृक्ष से इन्हे बाँध दिया जाय। और सब लोग तीर मारे।

(मदिरोन्मत्त सैनिक वैसा ही करते हैं। कामना मुँह फेर लेती है)

विवेक-रानी, देखो, अपना कठोर दंड देखो। और देखो अपराध से अपराध-परम्परा की सृष्टि।

विलास-इस पागल को तुम लोग यहाँ क्यों आने देते हो।

विवेक-मेरी भी इस खुली हुई छाती पर दो-तीन तीर। रक्त की धारा वक्षस्थल पर बहेगी, तो मैं भी समझूँगा कि तपा हुआ लाल सोने का हार मुझे उपहार मे मिला है। रानी के सभ्य राज्य का [ ८५ ] जय-घोष करूँगा। लोहू के प्यासे भेड़ियो, तुम जब बर्बर थे, तब क्या इससे बुरे थे? तुम पहले इससे भी क्या विशेष असभ्य थे? आज शासन-सभा का आयोजन करके सभ्य कहलानेवाले पशुओ, कल का तुम्हारा धुँधला अतीत इससे उज्ज्वल था।

कामना-यह बूढ़ा तो मुझे भी पागल कर देगा।

विनोद-हटाओ इसको।

(दो सैनिक उसे निकालते हैं)

विलास-तो लालसा कब बतावेगी उस भूमि को।

लालसा-मै साथ चलूँगी।

विलास-फिर उस देश पर आक्रमण की आयोजना होनी चाहिये।

कामना-सब सैनिक प्रस्तुत जायँ।

सब-जब आज्ञा हो।

विनोद-हमारा प्रीति का वन-भोज करके।

(सैनिक घूमते हैं)

कामना-अच्छी बात है।

(सब स्त्री-पुरुष एकत्र बैठते हैं। मद्य-मांस का भोज। उन्मत्त होकर सबका विकट नृत्य)

विनोद-मेरा एक प्रस्ताव है। [ ८६ ]सब-कहिये।

विनोद-यदि रानी की आज्ञा हो।

कामना–हाँ, हाँ, कहो।

विनोद-ऐसी उपकारिणी लालसा के कष्टो का ध्यान कर सब लोगों को चाहिये कि उनसे ब्याह कर लेने की प्रार्थना की जाय। कृतज्ञता प्रकाश करने का यह अच्छा अवसर है।

कामना-परंतु-

विलास-नहीं रानी, उसका जीवन अकेला है, और अकेली पवित्रता केवल आपके लिए-

कामना-हाँ, अच्छी बात है, परंतु किसके साथ?

एक स्त्री-नाम तो लालसा को ही बताना पड़ेगा।

लालसा-मैं तो नही जानती।

(लज्जित होती है)

लीला-तो मैं चाहती हूँ कि हम लोगों के परम उपकारी विलासनी ही इस प्रार्थना को स्वीकार करें। यह जोड़ी बड़ी अच्छी होगी।

सब-(एक स्वर से) बहुत ठीक है।

(विनोद लालसा का और लीला विलास का हाथ पकड़कर मिला देते हैं। सब घेरकर नाचने लगते हैं।

[ ८७ ]कामना त्रस्त हो उस यूथ से अलग होकर खड़ी हो जाती और आश्चर्य तथा करुणा से देखती है)

छिपाओगी कैसे-
आँखें कहेगी।
बिथुरी अलक पकड़ लेती है
प्रेम की भाँख चुराओगी कैसे-
आँखें कहेगी।
राग-रक्त होते कपोल हैं
लेते ही नाम बताओगी कैसे-
आँखें कहेगी।

[यवनिका-पतन]