कामना/3.3

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १०६ ]

तीसरा दृश्य

(पथ मे लालसा)

लालसा-दारुण ज्वाला, अतृप्ति का भयानक अभिशाप! कौन है? मेरे जीवन का संगी कौन है? लालसा हूँ मै, जन्म-भर निसको संतोष नही हुआ! नगर से होकर आ रही हूँ। प्रमदा के स्वतंत्रता-भवन के आनन्द-विहार से भी जी नहीं भरा, कोई किसी को रोक नहीं सकता और न तो विहार की धारा में लौटने की बाधा है। उच्छृंखल उन्मत्त विलास- मदिरा की विस्मृति। विहार की श्रान्ति। फिर भी लालसा! (देखकर) अरे, मैं घूमती-घूमती किधर निकल आई? कहीं बहुत दूर। यदि कोई शत्रु आ गया, तो (ठहरकर सोचती है) क्या चिन्ता।

(एक शत्रु सैनिक का प्रवेश)

सैनिक-तुम कौन हो?

लालसा-मैं, मैं?

सैनिक हाँ, तुम।

लालसा-सेनापति विलास की स्त्री।

सैनिक-जानती हो, कल तुम्हारे सेनापति ने [ १०७ ] मेरी स्त्री को पकड़ लिया है? आज तुमको यदि मैं पकड़ ले जाऊँ?

लालसा-(मुसकिराकर) कहाँ ले जाओगे?

सैनिक-यह क्या?

लालसा-कहाँ चलूँ, पूछती तो हूँ। तुम्हारे सदृश पुरुष के साथ चलने में किस सुंदरी को शंका होगी!

सैनिक-इतना अधःपतन। हम लोगों ने तो समझा था कि तुम्हारे देश के लोग केवल स्वर्ण-लोलुप शृगाल ही है; परंतु नहीं, तुम लोग तो पशुओं से भी गये-बीते हो। जाओ-

लालसा-तो क्या तुम चले जाओगे? मेरी ओर देखो।

सैनिक-छिः! देखने के लिए बहुत-सी उत्तम वस्तुयें है। सरल शिशुओं की निर्मल हँसी, शरद का प्रसन्न आकाश-मंडल, वसंत का विकसित कानन, वर्षा की तरंगिणी-धारा, माता और संतानों का विनोद देखने से जिसे छुट्टी हो, वह तुम्हारी ओर देखे।

लालसा-तुम्हारे वाक्य मेरी कर्णेन्द्रियों को [ १०८ ]माँग रहे है। मैं कैसे छोड़ दूँ, कैसे न दूँ। ठहरो, मुझे इस सम्पूर्ण मनुष्यत्व को आँखो से देख लेने दो।

सैनिक-नाओ रमणी, लौट जाओ। तुम्हारा सेना-निवेश दूर है।

लालसा-फिर तुम्हे इतने रूप की क्या आवश्यकता थी, जब हृदय ही न था?

(तिरस्कार से देखता हुआ सैनिक जाता है)

लालसा-(स्वगत) चला जायगा। यों नहीं (प्रकट) अच्छा तो सुनो। क्या तुम अपनी स्त्री को भी नहीं छुड़ाना चाहते?

सैनिक-(लौटकर) अवश्य छुड़ाना चाहता हूँ-प्राण भी देकर।

लालसा-अच्छा चलो, मैं तुम्हारी सहायता करूँगी। तुम्हारे शिष्ट आचरण का प्रतिदान करूँगी। चलोगे, डरते तो नहीं? सैनिक-डर क्या है? चलूँगा।

(दोनों जाते है। विलास का प्रवेश)

विलास-यह उन्मत्त विलास-लालसा! वक्षःस्थल मे प्रबल पीड़ा! ओह! अविश्वासिनी स्त्री, तूने मेरे पद की मर्यादा, वीरता का गौरव और ज्ञान की [ १०९ ]गरिमा सब डुबा दी। जी चाहता है, इस अतृप्त हृदय में छुरा डालकर नचा दूँ। (ठहरकर) परंतु विलास। विलास। तुझे क्या हो गया है? तुझे इससे क्या? राज्य यदि करना है, तो इन छोटी-छोटी बातों पर क्यों ध्यान देता है? अपनी प्रतिभा से शासन कर।

(विवेक आता है)

विवेक-आहा। मंत्री और सेनापति महाशय, नमस्कार। परंतु नही, जब मंत्री और सेनापति दोनो पद-पदार्थ एक आधार मे है, तब राजा क्या कोई भिन्न वस्तु है। दोनो की सम्मिलित शक्ति ही तो राजशक्ति है। अतएव हे राज-मंत्री-सेनापति। हे दिक्-काल-पदार्थ। हे जन्म-जीवन और मृत्यु। आपको नमस्कार।

विलास-(विवेक का हाथ पकड़कर) बूढ़े, सच बता, तू पागल है या कोई बना हुआ चतुर व्यक्ति? यदि तुझे मार डालूँ!

विवेक-(हँसकर) अरे भ्रम है। सब मंत्री मूर्ख होते है, कौन कहता है, चतुर होते हैं। जिसे इतनी पहचान नहीं कि मै पागल हूँ या स्वस्थ, वह राना का कार्य क्या करेगा? [ ११० ]कामना विलास-अच्छा, तुम यहाँ क्या करने आये हो?

विवेक-लड़ाई कभी नहीं देखी थी, बड़ी लालसा थी, उसी से-

विलास-तो तू ही वह व्यक्ति है, जिसने बहुत-से घायलो को पास की अमराई में इकट्ठा कर रक्खा है और उनकी सेवा करता है?

विवेक-यह भी यदि अपराध हो, तो दंड दीजिये, नही तो समझ लीजिये कि पागलपन है।

विलास-फिर विचार करूँगा, इस समय जाता हूँ।

विवेक-विचार करते नाइये, कलेना फाड़ते जाइये, छुरे चलाते रहिये और विचार करते रहिये। विचार से न चूकिये, नहीं तो-

विलास-चुप।

विवेक-आहा, विचार और विवेक को कभी न छोड़िये, चाहे किसी के प्राण ले लीजिये, परंतु विचार करके।

(विलास सरोष चला जाता है, विवेक दूसरी ओर जाता है)